भारतीय समाज में धर्म का महत्व : कला के विकास हेतु की गयी विभिन्न पहलें

प्रश्न: प्राचीन भारत के लगभग सभी कलात्मक अवशेष धार्मिक प्रकृति के हैं, या कम से कम धार्मिक उद्देश्य से बनाए गए थे। आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारतीय समाज में धर्म के महत्व का वर्णन करते हुए उत्तर का प्रारंभ कीजिए।
  • तर्क दीजिए कि किस प्रकार धर्म, प्राचीन भारत के कलात्मक अवशेषों में परिलक्षित होता है।
  • कला के विकास हेतु की गयी विभिन्न पहलों का वर्णन कीजिए।
  • उचित निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर

धर्म, दीर्घकाल से ही भारतीय समाज का एक निर्णायक पहलू रहा है। ये प्राचीन ऐतिहासिक काल के संबंध में भी समान रूप से सत्य है। इस काल के कलात्मक अवशेषों में भी यह परिलक्षित होता है। 

प्राचीन भारत के कलात्मक अवशेषों पर धार्मिक प्रभावों को अनेक रूपों में देखा जा सकता है, जैसे:

  • हड़प्पा काल के दौरान, मातृ देवी की प्रतिमा उर्वरता की पूजा की प्रवृति को प्रदर्शित करती है। पूजा के लिए प्रतिमाओं का भी व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता था। अनेक स्थापत्य संबंधी अवशेषों जैसे विशाल स्नानागार आदि का प्रयोग भी धार्मिक रीतियों के लिए किए जाने की सम्भावना व्यक्त की गयी है। इसी तरह, ऐसा माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता में प्रचलित मुहरें भी धार्मिक प्रकृति की थीं। उदाहरण के लिए, मुहरों पर अंकित पशु आकृतियाँ, पशु पूजा का प्रतीक हो सकती हैं।
  • बौद्ध कला, जैसे स्तूप, चैत्य, विहार आदि का आधार बौद्ध धर्म है। उदाहरण के लिए, सांची स्तूप, अजंता गुफाएँ, पीतलखोरा की गुफाएँ आदि।
  • प्राचीन भारत की मूर्तिकला भी धार्मिक विषयों पर आधारित एवं धार्मिक उद्देश्यों से प्रेरित थी। उदाहरणस्वरूप, गांधार शैली का विषय बौद्ध धर्म तथा मथुरा शैली के विषय ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्म थे; जबकि अमरावती शैली बौद्ध धर्म और धर्मनिरपेक्ष विषयों पर आधारित थी।
  • मंदिर वास्तुकला, जो गुप्तकाल में अपने चरम पर पहुँच गयी थी, में तीन स्थापत्य शैलियाँ – नागर, बेसर और द्रविड़ प्रचलित थीं। भागवतवाद के उदय ने प्राचीन भारत में मंदिर वास्तुकला के उद्भव को प्रेरित किया।
  • चित्रकला के विषय भी धर्म से प्रेरित थे। उदाहरणस्वरूप – अजंता के चित्र बौद्ध धर्म से प्रेरित हैं जबकि पश्चिमी चालुक्यों ने जैन विषयों को संरक्षण प्रदान किया। प्राचीन ग्रंथ भी बड़े पैमाने पर धार्मिक पहलुओं से सम्बद्ध हैं। जैसे-मौर्योत्तर काल के दौरान भक्ति परंपरा के उद्भव के कारण नाट्यशास्त्र की रचना की गयी।

हालांकि धर्म द्वारा कलात्मक गतिविधियों को व्यापक रूप से प्रभावित किया गया था किन्तु कई मामलों में कलात्मक गतिविधियों को केवल कला के विकास के लिए ही सम्पादित किया गया था। उदाहरण के लिए:

  • हड़प्पा काल में निर्मित स्तूप अन्नागार की प्रकृति धर्मनिरपेक्ष थी। खिलौना गाड़ी का निर्माण भी अवलोकन के कारण उत्पन्न जिज्ञासा के आधार पर किया गया था। अनेक कलात्मक अवशेषों, जैसे मुहरों, का आर्थिक महत्व भी था।
  • अशोक स्तंभों पर अनेक कलात्मक विशेषताओं का प्रयोग किया गया था जिनका कोई प्रतीकात्मक महत्व नहीं था जैसेस्तम्भ का शीर्ष। स्तूप को बड़े पैमाने पर वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के चित्रों से अलंकृत किया गया था।
  • अमरावती शैली के अन्तर्गत भी धर्मनिरपेक्ष मूर्तियों के निर्माण को बढ़ावा दिया गया। उदाहरण के लिए भित्ति चित्रों में सामुदायिक गतिविधियों, शिकार, नृत्य इत्यादि जैसे धर्मनिरपेक्ष विषयों का चित्रण किया गया; गुप्तकालीन बाघ की गुफाओं में दैनिक गतिविधियों से सम्बंधित विषयों का चित्रण है। प्रारम्भिक रूप से नृत्य का आरंभ मंदिरों में ही हुआ था लेकिन कालांतर में यह उपासना से स्वतंत्र एक पृथक कला के रूप में विकसित हुआ।
  • खजुराहो के राजपूत मंदिरों में धार्मिकता से रहित यौन उन्मादवाद को प्रदर्शित किया गया है।
  • गुप्तकाल के दौरान रचित महाकाव्य और नाटक जैसे- अभिज्ञानशाकुन्तलम तथा मेघदूतम एवं दक्षिण भारत में रचित संगम साहित्य की प्रकृति धर्मनिरपेक्ष है।

अतः, निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि हालांकि धर्म कला के विकास हेतु एक प्रमुख प्रेरक था फिर भी, प्राचीन भारतीय कलाकारों का एक रचनात्मक पक्ष भी था जिसने धर्म से स्वतंत्र होकर कलात्मक पक्ष को प्रोत्साहन दिया।

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