लैंगिक असमानता : भारत जैसे अंतर्निहित पितृसत्तात्मक स्वरूप वाले समाज में श्रम के भेदभावपूर्ण विभाजन

प्रश्न: महिलाओं को जीवन के निजी क्षेत्र तक सीमित करना, भारत में लैंगिक असमानता और शोषण के पीछे मुख्य कारण है। चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • लैंगिक असमानता के बारे में संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  • भारत जैसे अंतर्निहित पितृसत्तात्मक स्वरूप वाले समाज में श्रम के भेदभावपूर्ण विभाजन पर प्रकाश डालिए जो महिलाओं को जीवन के निजी क्षेत्रों अर्थात घरेलू/पारिवारिक कार्यों में संलग्न होने के लिए विवश करता है।
  • चर्चा कीजिए कि यह उपेक्षा किस प्रकार महिलाओं को लैंगिक असमानता व शोषण की ओर ले जाती है।
  • लैंगिक समानता प्राप्त करने हेतु निजी और सार्वजनिक पितृसत्ता, दोनों के समाधान के महत्व की संक्षिप्त चर्चा के साथ निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर

लैंगिक असमानता से आशय सामाजिक रूप से निर्मित और पूर्वपरिभाषित लैंगिक भूमिकाओं के उस रूप से है जिसके अंतर्गत महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाओं की समानता वाली धारणा की उपेक्षा की जाती है। भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में इसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ें काफी गहरी हैं। भारत ऐतिहासिक रूप से एक पितृसत्तात्मक समाज रहा है जहां पुरुषों का वर्चस्व रहता है तथा वे परिवार के भीतर और बाहर महिलाओं पर अपने नियंत्रण का प्रयोग करते हैं। यह तर्क दिया जाता है कि महिलाओं को जीवन के निजी क्षेत्रों की ओर निर्वासित करना, भारत में लैंगिक असमानता और भेदभाव के पीछे का मुख्य कारण है।

अनिवार्य घरेलू जीवन की शर्त के माध्यम से महिलाओं को पारंपरिक रूप से जीवन के निजी क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया है। भूमिकाओं का यह पृथक्करण पुरुषों के पक्ष में झुका हुआ है तथा इसके अंतर्गत महिलाओं को घर की चहारदीवारी तक सीमित कर दिया जाता है। जहां महिलाओं की भूमिका के अंतर्गत परिवार की आवश्यकताओं की देखरेख जैसे कि बच्चों का पालन-पोषण करना आदि आता है, वहीं पुरुषों को परिवार की रक्षा करने और उसकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का कार्य सौंपा गया है।

महिलाओं को आर्थिक भूमिका से वंचित करने का परिणाम महिलाओं की व्यक्तिगत स्वायत्तता के हनन के रूप में सामने आता है। इसका विभिन्न आयामों पर व्यापक प्रभाव है जिसके अंतर्गत गुणवत्तापरक शिक्षा तक पहुँच, कौशल विकास, रोजगार क्षमता, किसी की लैंगिकता पर नियंत्रण, शक्तिशाली पदों पर प्रतिनिधित्व आदि सम्मिलित हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से निर्मित ये विभेद शक्ति के संतुलन को पुरुषों के पक्ष में स्थानांतरित करते हैं।

लैंगिक भूमिका पर रूढ़िवादी दृष्टिकोण का अपनाया जाना आज भी प्रचलित है जिसके अंतर्गत महिलाओं को मुख्यत: कम भुगतान की नौकरियों वाले द्वितीयक श्रम बाजार के अधीन छोड़ दिया जाता है। कार्यस्थल पर उनका विकास एक न दिखाई देने वाली ग्लास सीलिंग (एक प्रकार की अदृश्य बाधा) से प्रभावित होता है। लैंगिक वेतन अंतराल भी महिलाओं को वस्तु के तौर पर प्रस्तुत करने व उनके विरुद्ध होने वाली हिंसा की भांति व्यापक रूप से स्वीकृत एक वास्तविकता है। ये सभी महिलाओं के सशक्तिकरण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं एवं उनके विकास की संभावनाओं को क्षीण करते हैं।

हालांकि, निजी पितृसत्ता भारत में कम हो रही है। इसका कारण है आधुनिकीकरण और वैश्वीकरण के उदार मूल्यों को अपनाना, नारीवादी आंदोलनों में वृद्धि, लैंगिक रूप से प्रगतिशील नीतियां आदि। परिणामस्वरूप, महिलाओं को अधिक अधिकार दिए जा रहे हैं तथा उनकी रोजगार दर एवं सार्वजनिक भागीदारी में वृद्धि हुई है।

लैंगिक समानता के यथार्थ मूल्य निर्विवाद हैं। यदि महिलाएं निजी रूप से अधिक शक्तिशाली होती हैं, राजनीतिक शक्ति ग्रहण करती हैं एवं सार्वजनिक स्थिति प्राप्त करती हैं, तो सार्थक लाभ प्राप्त किए जा सकेंगे। अतः सामूहिक रूप से लैंगिक असमानता को दूर करना सरकार व नागरिक समाज दोनों का दायित्व है ताकि हमारी जनसंख्या के इस आधे हिस्से को इसका उचित हक़ प्राप्त हो सके।

Read More 

 

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.