उद्धरण : श्रेष्ठतर व्यक्ति की बुद्धि न्यायपरायणता में दक्ष होती है; जबकि तुच्छ व्यक्ति की बुद्धि लाभोन्मुख होती है। कन्फ्यूशियस।
प्रश्न: श्रेष्ठतर व्यक्ति की बुद्धि न्यायपरायणता में दक्ष होती है; जबकि तुच्छ व्यक्ति की बुद्धि लाभोन्मुख होती है। कन्फ्यूशियस।
दृष्टिकोण
- इस कथन को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
- उद्धरण की वर्तमान प्रासंगिकता के स्पष्टीकरण में तर्क/उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
- निष्कर्ष के साथ उत्तर समाप्त कीजिए।
उत्तर
क्या करना सही है? यह भिन्न-भिन्न लोगों के लिए भिन्न हो सकता है। दिए गए उद्धरण में, कन्फ्यूशियस ने यह तर्क देने का प्रयास किया है कि वे लोग सर्वश्रेष्ठ हैं जो इस बात को लेकर भी सचेत रहते हैं कि क्या सही है, सिर्फ इससे नहीं कि उनके लिए क्या सही है। एक उदाहरण के रूप में, ऐसे व्यक्ति जो आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं या जो स्वयं के विचार, भाषा और कार्य का समाज के सामूहिक हित में तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं, वे श्रेष्ठ व्यक्ति होते हैं, ऐसे व्यक्तियों की तुलना में जो स्वार्थी, लोभी बने रहते हैं तथा आत्म-केंद्रित प्रवृत्ति और अनैतिक साधनों का अनुसरण करते हैं वो तुच्छ व्यक्ति होते हैं।
सामान्यतः एक ऐसी स्थिति में जब किसी व्यक्ति को स्वयं के स्वार्थ एवं सामूहिक सामाजिक हित के मध्य चुनाव करना हो तो लोभपूर्ण स्वार्थ का चयन अधिक सहज और लाभप्रद होता है। प्रायः दीर्घकालिक सामूहिक हित के स्थान पर तात्कालिक सुख और अल्पकालिक लाभ की प्रवृत्ति समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है और यही अंतिम प्रवृत्ति बन जाती है।
इस तरह की “निकृष्ट” प्रवृत्तियां जैसे कर अपवंचन, सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी फैलाना, यातायात नियमों की अवहेलना, पानी/बिजली का अतार्किक उपयोग, जानवरों के प्रति क्रूरता (दया भाव से रहित होना) अथवा चुनावी पसंद को पूरी तरह से धर्म/जाति के विचारों के आधार पर तय करना आदि दैनिक जीवन में प्रायः ही देखी जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त “सर्वाधिक निकृष्ट प्रवृत्तियां” भी दिखाई देती हैं जब लोग मानव तस्करी, मादक द्रव्यों का सेवन, व्यभिचार एवं आतंकवाद जैसे घृणित कार्य करने लगते हैं, जो समाज पर दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। दूसरी ओर, एक श्रेष्ठ व्यक्ति, अपशिष्ट पदार्थों के व्यवस्थित निस्तारण हेतु उसे एकत्र करने और पृथक करने जैसे सरल कार्यों के साथ स्वयं के लिए अल्प तात्कालिक लाभ वाले कार्य हेतु अधिक प्रयास करता है।
यह सीमित समझ के महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे ‘क्या करना सही है’ को भी संदर्भित करता है। न्यायपरायणता के अंतर्गत मुख्य रूप से शामिल हैं: (i) व्यक्तिगत आचरण को सही करना, (ii) आत्म मुग्धता से रहित होना (iii) अन्य नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण अथवा उनका उल्लंघन या सामाजिक उपद्रव में शामिल न होना।
जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने की हम इच्छा रखते हैं और उनको प्राप्त करने के लिए हम जिन सिद्धांतों का उपयोग करते हैं, सही और गलत के निर्धारण हेतु वे ही प्राथमिक मानदंड होते हैं। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी और डॉ अब्दुल कलाम जैसे लोगों ने नि:स्वार्थ भावना से स्वयं के जीवन एवं ऊर्जा को मानव कल्याण में लगाया। ये महापुरुष आज आधुनिक समाज के लिए मार्गदर्शक हैं।
हालांकि, यह आवश्यक नहीं है कि सभी एक श्रेष्ठ व्यक्तित्व हों तथा अन्य के हित में स्वयं के स्वार्थों का त्याग करते हों। फिर भी, हर कोई अपने आप में एक नेतृत्वकर्ता बन सकता है और स्वयं तथा समाज के प्रति एक दूरगामी दृष्टिकोण का विकास कर सकता है। इस तरह, प्रत्येक व्यक्ति तुच्छ इंसान न बनने की आकांक्षा कर सकता है और एक श्रेष्ठ इंसान बनने की दिशा में प्रगति कर सकता है। यहां तक कि सरल कार्यों को करते हुए जैसे कि कराधान कानूनों के अक्षरसः अनुपालन से भी एक व्यक्ति श्रेष्ठता को प्राप्त कर सकता है। इस मामले में, ‘न्यायसंगत क्या है’, इसको निर्धारित करने का दायित्व राज्य (जो विधि का निर्धारण करता है) को प्रदान किया गया है। मनुष्य का कार्य अल्पकालिक लाभ प्राप्त करने हेतु स्वार्थी अथवा तुच्छ व्यक्ति बनना नहीं है।
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