खगोल विज्ञान की परंपरा और भारत

प्रश्न: लगभग तीसरी या चौथी शताब्दी ईस्वी से आरंभ होकर तथा एक अनिवार्यतः अविच्छिन्न परंपरा के रूप में लगभग एक हजार वर्षों तक फलने-फूलने वाली, सिद्धांत या गणितीय खगोल विज्ञान की परंपरा भारत में गणित की प्रमुख धारा रही है। सविस्तार वर्णन कीजिए।

दृष्टिकोण

  • परिचय में उपरोक्त कथन के सन्दर्भ को स्पष्ट कीजिए।
  • उपरोक्त उल्लिखित अवधि के दौरान गणितीय खगोल विज्ञान में भारतीयों के योगदान पर विस्तृत चर्चा कीजिए।

उत्तर

प्राचीन भारतीय विद्वानों ने गणित के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लगभग चौथी शताब्दी के आरम्भ से, अनेक विद्वानों द्वारा गणित एवं खगोल विज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर केन्द्रित विभिन्न गणितीय ग्रंथों की रचना की गयी। इस अवधि में भारतीय विद्वानों द्वारा किये गए योगदान ने गणित की विभिन्न शाखाओं को व्यापक एवं स्पष्ट स्वरूप प्रदान किया।

प्राचीन काल के दौरान भारतीयों के प्रमुख योगदान को नीचे सूचीबद्ध किया गया है: 

     लेखक       कार्य/उपलब्धियां                                अन्वेषण/योगदान
आर्यभट्ट(476-550 ई.) आर्यभटीय द्विघात समीकरण, त्रिकोणमिति, चार दशमलव स्थानों तक II (पाई) का मान, सौर और चंद्र ग्रहण आदि की गणना।
वराह मिहिर(505-587ई.) पंचसिद्धान्तिका (पाँच खगोलीय  सिद्धांतों पर ग्रंथ);बृहत्संहिता (खगोल विज्ञान पर कार्य) त्रिकोणमिति, 4 दशमलव स्थानों तक सटीकता के साथ ज्या (505-587 ई.)एवं कोज्या (cosine) तालिकाओं का निर्माण और ज्या  और कोज्या फलनों से संबंधित सूत्र; यह प्रेक्षित किया कि चंद्रमा पृथ्वी के तथा पृथ्वी सूर्य के परितः चक्कर लगाती है।
ब्रह्मगुप्त (598-668 ई.)

 

ब्रह्मगुप्त सिद्धांत (‘शून्य’ का एकसंख्या के रूप में उल्लेख करने वाली प्रथम पुस्तक; 628 ईस्वी) |

कभी कभी शून्य के अन्वेशक के रूप मे माना जाता है,वे अन्य अंकों के साथ शून्य क उपयोग कर नये नियम प्रपादित करने वाले विद्वान बने थे
भास्कर प्रथम(600-680 ई.) महाभास्करीय , आर्यभटीय-भाष्य एवं लघु-भास्करीय आर्यभट्ट द्वारा वर्णित सिद्धांत को आगे विस्तारित किया;अनिश्चित समीकरणों के हल प्रदान किए, ज्या फलनों (sine functions) का एक तार्किक अनुमान दिया, आदि।
महावीर आचार्य(800-870ई.) गणित सार संग्रह और अन्य ग्रंथ। अंकगणित; वर्ग, घन, वर्गमूल, घन मूल, ज्यामिति, आदि विस्तृत गणितीय विषयों से सम्बंधित ग्रन्थ।
बंगाल के श्रीधर(870-9 30 ई.) नव शतिका, त्रि-शतिका और पाटी गणित गोले के आयतन सम्बन्धी नियम/सूत्र, द्विघात समीकरणों के हल, विभिन्न समान्तर और गुणात्मक श्रेणियों आदि का योग।
आर्यभट्ट द्वितीय(920-1000 ई. श्रीधर पर टीका महा-सिद्धांत नामक खगोलिय ग्रन्थ, अंकगणित, बीजगणित आदि
भास्कर द्वितीय(1114-1185 ई.) सिद्धांत शिरोमणि, लीलावती, बीजगणित आदि पायथागोरस प्रमेय को सिद्ध किया; अवकलन गणित(डिफरेंशियल कैलकुलस) की अवधारणा प्रस्तुत की)

नारायण पंडित एवं गणेश क्रमशः 14वीं और 16वीं शताब्दियों के विद्वान थे तथा सिद्धांत परंपरा से जुड़े हुए थे। नारायण पंडित की रचनाओं में गणित कौमुदी (एक अंकगणितीय ग्रंथ) और बीजगणित वातांश (बीजगणितीय ग्रंथ) शामिल हैं, गणेश की रचनाओं में बुद्धि विलासिनी (भास्करचार्य की लीलावती पर टीका) और तिथि-चिंतामणि (खगोलीय पाठ तथा सिद्धांत शिरोमणि पर टीका) शामिल हैं।

गणित और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में इन विद्वानों द्वारा किये गए कार्य ने समय की गणना और ब्रह्माण्ड विज्ञान में रुचि को तेजी से बढ़ावा दिया। इन खोजों एवं अविष्कारों ने आगामी शोध और प्रगति हेतु एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया।

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