जिला और निचली अदालत : निचली अदालतों के प्रदर्शन में सुधार करने हेतु आवश्यक उपाय
प्रश्न: भारत में निचली अदालतों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालिए और उनकी उत्पादकता को बढ़ाने हेतु उपायों का सुझाव दीजिए।
दृष्टिकोण
- जिला और निचली अदालतों के आँकड़ों के साथ उत्तर आरंभ कीजिए।
- चुनौतियों को रेखांकित कीजिए।
- निचली अदालतों के प्रदर्शन में सुधार करने हेतु आवश्यक उपायों का सुझाव दीजिए।
- संक्षिप्त निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर
भारत में निचली न्यायपालिका सामान्यतया वाद दायर करने वालों के साथ न्यायिक अंतक्रिया का प्रथम स्थान है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, भारतीय न्यायिक प्रणाली में 3.53 करोड़ से अधिक वाद लंबित हैं तथा जिला और निचली अदालतें इनमें 87.54 प्रतिशत का योगदान करती हैं।
वादों की लंबितता के अतिरिक्त, भारत में निचली अदालतों के कार्यसंचालन में बाधा उत्पन्न करने वाली अन्य चुनौतियाँ इस प्रकार हैं:
- संसाधनों की कमी: वर्ष 2006 और 2017 के मध्य भारत की निचली अदालतों में प्रारंभ किए गए वादों की संख्या 15 मिलियन से बढ़कर 20 मिलियन हो गई। परन्तु संबंधित भौतिक अवसंरचना, कार्मिक अवसंरचना और डिजिटल अवसंरचना आनुपातिक रूप से विस्तारित नहीं हो सकी, जिसके परिणामस्वरूप विवादों के समाधान में विलंब उत्पन्न हुआ।
- जनशक्ति का अभाव: न्यायालयों में न्यायाधीशों का अभाव है, जिससे निचली अदालतों के न्यायाधीशों पर प्रायः अत्यधिक कार्यभार का बोझ रहता है। वर्तमान में प्रत्येक न्यायाधीश द्वारा औसत रूप से प्रतिवर्ष 746 वादों का निपटान किया जाता है। न्याय विभाग के अनुसार, वर्तमान में निचली अदालतों में 22,750 की स्वीकृत क्षमता के सापेक्ष केवल 17,891 न्यायाधीश हैं।
- न्यायिक अक्षमताएँ: निचली अदालतें अक्षमताओं से ग्रसित होती हैं जैसे कि न्यायाधीशों की अनुपस्थिति, वादों की सूची में अतिसंकुलता, वादों की सुनवाई के लिए समय का अभाव, अधिवक्ता की अनुपस्थिति, अनावश्यक स्थगन आदि। ये न्यायिक विलम्बता में योगदान करते हैं तथा न्याय तक पहुंच में बाधा उत्पन्न करते हैं।
- स्टे ऑर्डर के कारण देरी: लगभग आधे मामलों में उच्च न्यायालय या जिला अदालत द्वारा जारी किए गए स्थगन आदेश (स्टे ऑर्डर) के कारण विलंब होता है। स्थगन आदेश किसी न्यायिक कार्यवाही को अस्थायी रूप से रोक सकता है और ऐसे में इसमें शामिल पक्षों की अनुक्रियाएँ आवश्यक हो जाती हैं।
- कानूनी जागरुकता: प्राय: यह देखा गया है कि निचली अदालत के न्यायाधीशों में कानून के उभरते और अपेक्षाकृत अधिक विशिष्ट क्षेत्रों के बारे में उपयुक्त ज्ञान का अभाव है।
निचली न्यायपालिका की उत्पादकता में वृद्धि करने के उपाय
- वादों के बैकलॉग (कार्य संचय) का निपटान: 100 प्रतिशत शोधन दर प्राप्त करने के लिए मौजूदा लंबित वादों में शून्य संचय होना चाहिए। यह प्राप्त करने हेतु प्रणाली में पहले से मौजूद मामलों के बैकलॉग का निवारण किया जाना चाहिए, जिसके लिए जिला स्तर पर 2,279 अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है।
- निचली न्यायपालिका में भर्तियों की केंद्रीयकृत प्रणाली: निचली अदालतों के लिए केंद्रीय लोक सेवा आयोग की तर्ज पर एक केंद्रीयकृत भर्ती प्रणाली को लागू किया जाना चाहिए।
- भारतीय न्यायालय और अधिकरण सेवाओं का सृजन: न्यायाधीशों के मुख्य न्यायिक कार्यों के कुशल संपादन में न्यायालय प्रशासन को उनका समर्थन करना चाहिए। इस संदर्भ में, भारतीय न्यायालय और अधिकरण सेवा (Indian Courts and Tribunal Services: ICTS) नामक एक विशिष्ट सेवा के सृजन की आवश्यकता है जो विधायी प्रणाली के प्रशासनिक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करे।
- प्रौद्योगिकी का परिनियोजन: प्रौद्योगिकी न्यायालयों की दक्षता में अत्यधिक सुधार कर सकती है। उदाहरण के लिए, विभिन्न चरणों में कार्यान्वित किया जा रहा ई-कोर्ट्स मिशन मोड प्रोजेक्ट, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) का सृजन हुआ है। वादों के डिजिटलीकरण से हितधारकों को अपने व्यक्तिगत वादों और उनके निपटान की प्रगति पर दृष्टिपात करने की सुविधा मिल सकती है।
- कार्य दिवसों की संख्या में वृद्धि: निचली अदालतें वर्ष में औसतन 244 दिन कार्य करती हैं। कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाने से निचली न्यायपालिका की उत्पादकता और भी बेहतर हो सकती है।
- क्षमता-निर्माण: कानून के विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर हो रहे विकास के साथ समन्वय स्थापित करने हेतु नियमित आधार पर प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
निचली अदालतों में अत्यधिक मात्रा में न्यायिक बैकलॉग और एरियर (arrears) निवेश के परिमाण और आर्थिक विकास को क्षीण बनाते हैं। वर्तमान में भारत में ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस के समक्ष मौजूद प्रमुख बाधाओं में से एक अनुबंधों को लागू करने और विवादों को हल करने के सामर्थ्य का अभाव है। इस प्रकार, विलंब के निवारण और परिणामस्वरूप आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देने हेतु सरकार एवं न्यायपालिका के मध्य एक समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है।
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