जलवायु परिवर्तन : राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख प्रमुख खतरे

प्रश्न: जलवायु परिवर्तन के आलोक में राष्ट्रीय सुरक्षा के सम्मुख प्रमुख खतरों की पहचान कीजिए। साथ ही, जलवायु परिवर्तन को एक अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दा घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र के निर्णय पर भारत के दृष्टिकोण और औचित्य पर भी प्रकाश डालिए।

दृष्टिकोण

  • जलवायु परिवर्तन एवं सुरक्षा के मध्य संबंधों को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कीजिए।
  • चर्चा कीजिए कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु एक चुनौती बन गया है।
  • जलवायु परिवर्तन को अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दा घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र के निर्णय पर भारत के दृष्टिकोण के औचित्य पर चर्चा कीजिए।

उत्तर

जलवायु परिवर्तन को वर्तमान में वार्मिंग वॉर (शीत युद्ध की भांति) के रूप में संदर्भित किया जा रहा है- यह क्षेत्रीय और वैश्विक संघर्ष में वृद्धि कर सकता है। पेंटागन की रिपोर्ट के अनुसार यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए तात्कालिक जोखिम का सृजन करता है। यह मूलभूत आवश्यकताओं तक पहुंच एवं उपलब्धता संबंधी खतरा उत्पन्न करता है और निम्नलिखित प्रकार से मानव उत्तरजीविता की स्वाभाविक प्रवृत्ति इसे वैश्विक शांति एवं सुरक्षा हेतु खतरे में वृद्धि करने वाले कारक के रूप में स्थापित कर देती है:

  • स्थानीय संसाधनों हेतु प्रतिस्पर्धा: जलवायु परिवर्तन के कारण भोजन, जल, भूमि, आश्रय जैसे संसाधनों तक पहुंच हेतु खतरा उत्पन्न हो सकता है, जिससे हिंसक संघर्ष हो सकते हैं। उदाहरण के लिए: पशुपालकों एवं किसानों तथा समुदायों और परिवारों के मध्य चरागाह, जल, ईंधन, एवं उत्पादक कृषि भूमि तक पहुंच संबंधी प्रतिस्पर्धा में वृद्धि के कारण संघर्ष और बलात प्रवास में तीव्रता आ सकती है।
  • विस्थापन एवं आजीविका असुरक्षा: जलवायु परिवर्तन बलात प्रवास को प्रेरित कर सकता है, परिणामतः उद्गम एवं गंतव्य दोनों स्थलों पर सामाजिक तनाव उत्पन्न हो सकता है। अरब स्प्रिंग के दौरान यूरोप में मध्य-पूर्व के प्रभावित देशों के प्रवासियों के पलायन के लिए जलवायु परिवर्तन भी एक प्रमुख कारक था।
  • चरम मौसमी घटनाएँ एवं आपदाएं: जलवायु परिवर्तन सुभेद्य स्थितियों को बदतर बना सकता है, विशेषकर संघर्ष से प्रभावित देशों में सुभेद्यताओं और असंतोष में वृद्धि कर सकता है। उदाहरण के लिए: प्रभावित क्षेत्रों में बाढ़, चक्रवात, सूखा जैसी चरम मौसमी घटनाएं सामान्य हो गयी हैं।
  • सीमा-पारीय जल प्रबंधन: यह जल की बढ़ती मांग के कारण एक चुनौती बन सकता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन जल की उपलब्धता और गुणवत्ता दोनों को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए: भारत-चीन, भारत-पाकिस्तान और भारत में राज्य सरकारों (कावेरी विवाद) के मध्य जल-बँटवारे पर बढ़ते तनाव ने राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष ख़तरा उत्पन्न किया हैं।
  • अनपेक्षित प्रभाव: निम्नस्तरीय संस्थागत क्षमता एवं शासन वाले देशों में, राजनीतिक निराशा और अंततः गृहयुद्ध उत्पन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए: सूखा, फसल की विफलता एवं खाद्य पदार्थों के उच्च मूल्यों ने सीरिया में प्रारंभिक अस्थिरता को बढ़ावा दिया था।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उपर्युक्त को ध्यान में रखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा पर जलवायु संबंधी आपदाओं के प्रभावों पर विचार-विमर्श किया। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अत्यधिक शीघ्रता से जलवायु परिवर्तन को अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी मुद्दे के रूप में घोषित किया गया. जिसका तात्पर्य है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् (UNSC) सैन्य और असैन्य उपायों के माध्यम से उल्लंघनकर्ता राष्ट्रों को जलवायु समझौतों के अनुपालन हेतु बाध्य कर सकता है। हालांकि भारत ने निम्नलिखित कारणों से इसका विरोध किया है:

  • बहुपक्षीय प्रयासों को अवरुद्ध करना: भारत द्वारा चिंता व्यक्त की गयी है कि जलवायु परिवर्तन कार्रवाई के UNSC द्वारा कार्यान्वयन से पेरिस समझौते एवं जलवायु परिवर्तन संबंधी समाधान प्राप्त करने के अन्य बहुपक्षीय प्रयास अवरुद्ध होंगे।
  • UNSC के मूल अधिदेश से परे क्षेत्राधिकार का विस्तार करना प्रासंगिक नहीं होगा, जबकि यह अभी भी अपने मूल उद्देश्य की पूर्ति करने में पूर्णतः सक्षम नहीं हो सका है।
  • UNSC की विशिष्ट प्रकृति: UNSC समकालीन विश्व व्यवस्था को प्रतिबिंबित नहीं करता है एवं परिषद की निर्णयनिर्माण संरचना भी अपारदर्शी और गोपनीय है। जलवायु संबंधी न्याय को समावेशी बनाना होगा, जिसे यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) जैसी सहभागी संस्था द्वारा ही सुनिश्चित किया जा सकता है।
  • UNSC का सीमित परिप्रेक्ष्य: जलवायु परिवर्तन एक बहुआयामी मुद्दा है जिसमें न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक, आर्थिक, जनसांख्यिकीय और मानवीय कारक भी सम्मिलित हैं। UNSC को मुख्यतः एक राजनीतिक अधिदेश और सीमित परिप्रेक्ष्य प्राप्त है तथा यह कुछ देशों (इनके भू-राजनीतिक हितों के आधार पर) के प्रति पक्षपाती हो सकता है, जैसा कि पूर्व में देखा गया है।

अन्य देशों की संप्रभुता और स्व-निर्धारण के अधिकार को क्षीण करता है। जलवायु परिवर्तन का भार सभी देशों (विशेषतः विकासशील देशों और छोटे द्वीपीय राष्ट्रों पर पड़ता है, जो ऐतिहासिक रूप से निम्न प्रदूषण कर्ता रहे हैं) पर समान रूप से वितरित नहीं किया जाता है। जलवायु परिवर्तन एवं सुरक्षा के मध्य सुस्पष्ट संबंध मौजूद है- हालांकि, किसी भी वैश्विक प्रतिक्रिया को किसी एक एजेंसी में केंद्रीकृत होने के बजाय बहु-आयामी होने और बॉटम-अप अप्रोच के रूप में निर्मित करने की आवश्यकता है।

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