जल-दबाव के सन्दर्भ में संक्षिप्त चर्चा : भारत को जल-दबावग्रस्त राष्ट्र बनाने के लिए उत्तरदायी कारक

प्रश्न: उन कारकों का विवरण प्रस्तुत कीजिए जिन्होंने भारत को एक जल-दबावग्रस्त राष्ट्र के रूप में वर्गीकृत होने की ओर अग्रसर किया है। साथ ही, इस संकट को टालने के लिए संधारणीय समाधानों की पहचान कीजिए।

दृष्टिकोण

  • जल-दबाव के सन्दर्भ में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
  • भारत को जल-दबावग्रस्त राष्ट्र बनाने के लिए उत्तरदायी कारकों का वर्णन कीजिए।
  • इस संकट का निवारण करने के लिए संधारणीय समाधानों को सूचीबद्ध कीजिए।

उत्तर

हाल ही में, नीति आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत अपने इतिहास के ‘सर्वाधिक विकट जल संकट’ की स्थिति का सामना कर रहा है, जिसमें 60 करोड़ लोग चरम जल-दबाव की स्थिति का सामना कर रहे हैं। विश्व के लगभग 4 प्रतिशत जल संसाधन भारत में विद्यमान हैं, अतः इसे पर्याप्त जल से युक्त राष्ट्र होना चाहिए था। तथापि भारत एक जल-दबावग्रस्त राष्ट्र में परिवर्तित हो गया है।

यदि औसत वार्षिक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1,700 घन मीटर से कम होती है तो कोई राष्ट्र जल-दबावग्रस्त राष्ट्र माना जाता है। भारत के लिए 2011 में जल की उपलब्धता 1545 घन मीटर थी।

जी-20 देशों में भारत में सर्वाधिक जल की खपत होती है, जबकि इसकी जल उत्पादकता समूह में अंतिम से दूसरे स्थान पर है। यह स्थिति निम्नलिखित कारकों के संयोजन के कारण है:

  • जनसंख्या दबाव: इसके कारण अनुमानित रूप से प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता घटकर 2025 में 1341 घन मीटर और 2050 तक 1,140 घन मीटर हो सकती है। यह परिदृश्य ऐसी जल अभाव स्थिति को प्रतिबिंबित करता है जहां प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1,000 घन मीटर से कम है।
  • भूजल का अतिदोहन: किसानों द्वारा अधिक निष्कर्षण, सब्सिडीकृत विद्युत और अक्षम सिंचाई पद्धतियों के कारण।
  • निम्नस्तरीय वर्षा जल संचयन अवसंरचना के साथ कमजोर और अनियमित मानसून
  • अतिक्रमण, पक्की संरचनाओं के निर्माण और आधुनिक निर्माण पद्धतियों (ये पारंपरिक भूजल पुनर्भरण पद्धति की उपेक्षा करती हैं) में वृद्धि के कारण पारंपरिक भूजल पुनर्भरण क्षेत्रों में कमी।
  • शहरी उपभोक्ताओं, कृषि क्षेत्र और उद्योग के मध्य कुशल जल प्रबंधन और जल वितरण के अभाव के साथ जागरूकता की कमी के कारण जल का विवेकहीन उपयोग।
  • निम्नस्तरीय जल गुणवत्ता: शहरी जल उपचार सुविधाओं के अभाव, पारंपरिक जल निकायों में सीवेज और अपशिष्ट जल निकासी, नदियों, धाराओं एवं तालाबों में रसायनों और प्रदूषकों को निर्मुक्त करने तथा उर्वरकों और कीटनाशकों आदि के उपयोग के कारण जल की गुणवत्ता में ह्रास हुआ है।
  • बड़े जल निकायों में समय पर (ऑन-टाइम) गाद को हटाने (डी-सिल्टिंग ऑपरेशन्स) में विफलता मानसून के दौरान जल भंडारण क्षमता को बढ़ा सकती है।
  • निम्नस्तरीय जल प्रबंधन: जल का सतही और भू जल में वर्गीकरण तथा राज्य सीमाओं पर आधारित जल संसाधनों के विभाजन के कारण समग्र दीर्घकालिक जल प्रबंधन में बाधा उत्पन्न होती है।

परिणामतः नीति आयोग ने पूर्वानुमान किया है कि 2030 तक 40% जनसंख्या की पेयजल तक कोई पहुंच नहीं रहेगी और 2020 तक 21 शहर भूजल की उपलब्धता से वंचित हो जायेंगे। इससे 100 मिलियन लोग प्रभावित होंगे और देश के सकल घरेलू उत्पाद में 6% की कमी आएगी।

चूंकि, 2030 तक देश की जल मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी होने का अनुमान है, अतः निम्नलिखित संधारणीय रणनीतियों को अपनाए जाने की आवश्यकता है:

  • सहभागितापूर्ण भूजल प्रबंधन: सरकार द्वारा स्थानीय समूहों को भूजल की स्थिति पर जानकारी और रियल टाइम सूचना से सशक्त बनाया जाना चाहिए, जिससे निष्कर्षण को एक सहकारी तरीके से प्रबंधित किया जा सके। उदाहरण के लिए भूजल के सहकारी प्रबंधन में मेक्सिको के प्रयास।
  • समुदाय आधारित प्रयासों के माध्यम से जल संभरण (वाटरशेड) विकास किया जाना चाहिए, जो मृदा में आर्द्रता को बढ़ाने और भूजल का पुनर्भरण करने में सहायता करता है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में रालेगांव सिद्धी, राजस्थान के अलवर जिले में ‘तरुण भारत संघ’ के प्रयास।
  • शहरी और औद्योगिक जल प्रबंधन: प्रदूषणकारी उद्योगों के मध्य प्रदूषित मानकों को लागू करने के लिए पर्याप्त सीवेज उपचार सुविधाओं का निर्माण किया जाना चाहिए और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
  • पर्याप्त विनियामक तंत्र: विकास और पर्यावरण की आवश्यकताओं के मध्य सही संतुलन स्थापित करने वाला तंत्र जो देश की नदियों, झीलों, आर्द्रभूमि और जलसंभरों के साथ-साथ तटीय प्रणालियों की पारिस्थितिकीय अखंडता की रक्षा करता हो।
  • जल प्रबंधन में बेसिन आधारित दृष्टिकोण को अपनाना। इसके लिए मिहिर शाह समिति की रिपोर्ट को लागू किया जाना चाहिए।
  • नए जलाशयों का निर्माण करके और अवसादीकरण (sedimentation) को कम करके मौजूदा जलाशयों की क्षमता में वृद्धि कर जलाशयों में भंडारण को बढ़ाना चाहिए।
  • वितरण में रिसाव को कम करके और जल की पुनर्चक्रण सुविधाओं में सुधार करके घरेलू और औद्योगिक जल उपयोग को कम किया जा सकता है। जल बजट, जल ऑडिट जैसे उपकरणों का उपयोग करके तथा जल की कमी के बारे में जागरूकता के माध्यम से औद्योगिक एवं आवासीय व्यवहारों में परिवर्तन लाया जाना चाहिए।
  • बाढ़ सिंचाई (flood irrigation) के स्थान पर स्प्रिंकलर या ड्रिप सिंचाई इत्यादि के प्रयोग के माध्यम से सिंचाई दक्षता में सुधार करना।
  • विलवणीकरण संयंत्रों (desalination plants) की क्षमता या संख्या में वृद्धि से तटीय क्षेत्रों की समस्या का सामना करने में सहायता मिल सकती है। उदाहरण के लिए इज़राइल से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण।

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