संसदीय कार्यवाही से संबंधित मुद्दे (Issues in Parliamentary functioning)

सचेतक (व्हिप) (WHIP)

हाल ही में, राजनीतिक पार्टियों द्वारा अनेक मुद्दों पर सचेतक जारी किए जाने पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया है।

सचेतक (व्हिप) क्या है?

  • प्रत्येक राजनीतिक पार्टी का अपना सचेतक (व्हिप) होता है, जिसे पार्टी द्वारा सदन के पटल के सहायक नेता के रूप में नियुक्त किया जाता है।
  • अपनी पार्टी के सदस्यों की अधिक संख्या में उपस्थिति सुनिश्चित करना एवं किसी विशेष मुद्दे के पक्ष या विपक्ष में उनका समर्थन प्राप्त करना, उसका उत्तरदायित्व होता है।
  • वह पार्टी के नेता का निर्णय सदस्यों को एवं पार्टी के सदस्यों की राय पार्टी के नेता तक पहुंचाता है।
  • सदस्यों से सचेतक द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। इसके अनुपालन में विफल रहने पर पार्टी की सदस्यता हेतु अयोग्यता या दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत पार्टी से निष्कासन जैसी अनुशासनात्मक कार्रवाईयाँ की जा सकती
  • भारत में सचेतक के पद का उल्लेख न तो संविधान में, न ही सदन के नियमों में किया गया है और न ही संसदीय कानून में किया गया है।
  •  यह संसदीय सरकार के कन्वेंशन पर आधारित है। भारत में सचेतक की अवधारणा औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन से ली गई थी।
  •  1985 से अब तक कुल 19 ऐसे मामले सामने आए हैं जहाँ सचेतक की अवज्ञा करने के कारण सांसदों को अपनी सदस्यता खोनी पड़ी।

संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में सचेतक (व्हिप)

  • संयुक्त राज्य अमेरिका में, पार्टी के सचेतक (व्हिप) का कार्य, यह पता लगाना होता है कि विधेयक के पक्ष में कितने विधायक हैं और कितने इसके विपक्ष में – एवं जहाँ तक संभव हो, उन्हें इस मुद्दे पर पार्टी की विचारधारा के अनुसार मतदान करने के लिए सहमत करना।
  • ब्रिटेन में, कुछ सचेतकों के उल्लंघन को गंभीरतापूर्वक लिया जाता है—कभी-कभी इसके परिणामस्वरूप सदस्य को पार्टी से निष्कासित कर दिया जाता है। इस प्रकार का सदस्य पार्टी द्वारा पुन: स्वीकार किए जाने तक संसद में स्वतंत्र सदस्य के रूप में बना रह सकता है।

समस्या

  • संवैधानिक दर्शन के विरुद्धः सचेतक दल को सशक्त बनाकर एवं निर्वाचित प्रतिनिधियों तथा उनके निर्वाचन क्षेत्रों के मध्य संबंध को कमजोर करके निर्वाचित प्रतिनिधि के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और साथ ही लोकतांत्रिक भावना को कमजोर करता है।
  •  यह विभिन्न मुद्दों पर ‘बाध्य सर्वसम्मति’ बनाता है क्योंकि दल के सदस्यों के लिए दल के निर्णय का अनुसरण करना अनिवार्य होता है।
  •  सहभागितापूर्ण अभिशासन को कमजोर करना: 90% मुद्दों पर दलों द्वारा सचेतक जारी किए जाते हैं, जिससे दलों के सदस्यों की निजी विचारों या अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों के विचारों को प्रस्तुत करने की क्षमता सीमित हो जाती है।
  • चर्चाओं की निम्न गुणवत्ता: सचेतक प्रणाली विचार-विमर्श की प्रक्रिया को हाशिए पर रखकर संसदीय लोकतंत्र का उपहास करती है। क्योंकि सचेतक विधि-निर्माताओं को महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दों पर दल के विचार से असहमत होने की अनुमति नहीं देते हैं।
  • दल-बदल कानून के साथ सचेतक प्रणाली ने संसद/राज्य विधान सभाओं के पटल पर सांसद/विधायक केवल गणना तक सीमित कर  दिया है और यह उन्हें प्रमुख मुद्दों पर अपने निर्णयों का प्रयोग करने से रोकती है।
  • दल के आंतरिक लोकतंत्र पर प्रतिबंध: सदस्यों को अपने व्यक्तिगत विचारों को व्यक्त करने की अनुमति नहीं होती है जिससे दल के अंदर वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
  • तानाशाही शक्ति: राजनीतिक दल, हाई कमान द्वारा स्वैच्छिक और अलोकतांत्रिक पद्धति से प्रस्तावित अनुचित नीतियों, खराब नेताओं और जन विरोधी अधिनियमों का विरोध करने की सांसदों/विधायकों की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।

सचेतक का महत्व 

  • सरकार की स्थिरता: ऐसा संभव है कि संसद के सभी सदस्यों के दृष्टिकोण भिन्न हों, चाहे उनकी किसी भी पार्टी से संबद्धता हो (यहाँ तक कि ये दृष्टिकोण संबंधित पार्टी के नेतृत्व के दृष्टिकोण से भी भिन्न हो सकते हैं। ऐसे मामले में, वह मतदान के समय पार्टी के दृष्टिकोण का उलंघन कर सकता/सकती है।
  •  महत्वपूर्ण मुद्दों पर व्यापक चर्चा के लिए संसद में उपस्थिति सुनिश्चित करना

आगे की राह

  • राजनीतिक रूप से आम सहमति निर्मित करने की आवश्यकता है, ताकि संसद में व्यक्तिगत सदस्य के लिए राजनीतिक और नीतिगत अभिव्यक्ति के अवसरों का विस्तार किया जा सके। यह कार्य कई रूपों में किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, सचेतक जारी किया जाना केवल ऐसे विधेयकों तक सीमित किया जा सकता है जो सरकार के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकते हैं, उदाहरण स्वरूप धन विधेयक या अविश्वास प्रस्ताव।
  • विधायी कार्रवाई: संसद को एक अधिनियम के माध्यम यह सुनिश्चित करने के लिए दल-बदल कानून में संशोधन करना चाहिए कि सचेतक उन सामान्य कानूनों पर लागू नहीं होगा जो सरकार के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न नहीं करते हैं।
  • दल के भीतर लोकतंत्र (जिसे परिवारवाद और कुलीनतंत्र ने समाप्त कर दिया है) को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक दलों में आंतरिक स्तर पर निर्वाचन के नियमों को स्थापित करना।
  •  सरकार द्वारा देश में ऐसे मुद्दों पर व्यापक बहस आयोजित की जानी चाहिए। यह दीर्घकाल में लाभदायक जन भागीदारी को प्रोत्साहित करेगी।

दल-बदल विरोधी कानून से संबंधित मुद्दे (Issues in Anti-Defection Law)

दल-बदल विरोधी कानून क्या है?

  •  1985 में 52 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची को अंतःस्थापित किया गया। इस अनुसूची के तहत विधायिका के सदस्यों को दल-बदल के आधार पर अयोग्य घोषित किए जाने की प्रक्रिया को निर्धारित किया गया है। इस कानून के निर्माण का  मुख्य उद्देश्य “राजनीतिक दल-बदल की बुराई” का मुकाबला करना था।

कानून अयोग्यता के लिए निम्नलिखित आधार प्रदान करता है:

  •  किसी राजनीतिक दल से संबंधित संसद या राज्य विधानमंडल के सदस्य को दल-बदल का दोषी माना जाता है यदि उसने स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता त्याग दी हो, या उसने सदन में पार्टी नेतृत्व के निर्देशों के विरुद्ध मतदान किया हो अथवा बिना किसी पूर्व अनुमति के मतदान से विरत रहा हो और ऐसे मतदान या व्यवहार के लिए व्यवहार की तिथि से 15 दिनों के भीतर दल द्वारा उसे माफ़ नहीं किया गया हो।
  •  चुनाव के पश्चात कोई स्वतंत्र उम्मीदवार किसी दल में शामिल हो गया हो।
  •  एक मनोनीत सदस्य सांसद/विधायक बनने के छह महीने बाद किसी दल में शामिल हो गया हो

 कानून में कुछ अपवाद भी निर्धारित किये गये हैं:

  •  लोक सभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति के रूप में निर्वाचित कोई भी व्यक्ति अपने दल से इस्तीफा दे सकता है और यदि वह उस पद को छोड़ देता है तो दल में पुनः शामिल हो सकता है, जैसाकि ब्रिटेन में भी प्रचलित है।
  •  यदि किसी दल के कम से कम दो तिहाई विधायक किसी दूसरे दल में विलय के लिए मतदान करते हैं तो एक दल का दूसरे दल में विलय किया जा सकता है।
  •  प्रारंभ में इसमें दलों के विभाजन हेतु अनुमति थी किन्तु अब इसे अवैध घोषित कर दिया गया है।

दल बदल विरोधी कानून का महत्व

  • दलों के प्रति निष्ठा में परिवर्तन को रोककर सरकार को स्थिरता प्रदान करता है।
  • यह सुनिश्चित करता है कि दल के समर्थन से और दल के घोषणापत्र के आधार पर निर्वाचित उम्मीदवार दल की नीतियों के प्रति वफादार रहे।
  • यह दलीय अनुशासन को बढ़ावा देता है।
  • यह दल-बदल के कारण लोगों के विश्वास का उल्लंघन होने से रोकता है।

दल-बदल कानून से संबंधित मुद्दे

  • विधायिका के सदस्यों के वाक-स्वतन्त्रता के अधिकार को कम करना : यह सांसदों को एक विचारशील विधि निर्माता से घटाकर केवल एक विधेयक को पारित करने के लिए आवश्यक संख्या के समान दर्जा प्रदान करता है। हालांकि, किहोतो होलोहान वाद में दिए गए निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया है कि यह विधि किसी भी अधिकार या स्वतंत्रता, या संसदीय लोकतंत्र के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करती है।
  • लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका: इस कानून के अनुसार लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम है और इसकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है। हालांकि, उच्चतम न्यायालय द्वारा इस संबंध में निर्धारित किया गया है कि अंतिम निर्णय उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में अपील के अधीन है।
  • दल से निष्कासित होने के पश्चात की जाने वाली कार्यवाही के संबंध में स्पष्टता का अभाव : यह अस्पष्ट है कि अपने पुराने राजनीतिक दल द्वारा निष्कासित होने के पश्चात यदि कोई सदस्य किसी अन्य दल में शामिल होता है तो यह स्वेच्छा से सदस्यता त्याग माना जाएगा अथवा नहीं।
  • केवल चुनाव-पूर्व गठबंधन के लिए प्रासंगिकता: यद्यपि इस तर्क को कि कोई प्रतिनिधि अपने ‘दल के कार्यक्रम’ के साथ चुनाव जीता है, चुनाव-पूर्व गठबंधनों’ के लिए भी विस्तारित किया जा सकता है; किन्तु जब गठबंधन चुनाव के पश्चात गठित होता है तो अस्थिरता का मुद्दा फिर भी बना रहता है।
  •  निरंकुश निर्णयः एक सदस्य पार्टी व्हिप के कारण अपने वास्तविक विश्वास या मतदाताओं के हितों को व्यक्त करने में असमर्थ हो सकता है। यह परिस्थिति प्रत्येक विधेयक में हो सकती है, भले ही प्रस्ताव अविश्वास के लिए हो या न हो।
  • उत्तरदायित्व को कम करता है: संसद सदस्यों को दल बदलने से रोकना, संसद और लोगों के प्रति सरकार के उत्तरदायित्व को कम कर देता है।

दल-बदल से संबंधित विभिन्न आयोगों की अनुशंसाएँ:

चुनाव सुधारों सेसंबंधित दिनेश गोस्वामी समिति
  •  अयोग्यता उन मामलों तक ही सीमित होनी चाहिए जहां (a) एक सदस्य स्वैच्छिक रूप से अपने संबंधित
    राजनीतिक दल की सदस्यता का त्याग करता है, (b) किसी विश्वास प्रस्ताव अथवा अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के दौरान कोई सदस्य मतदान से विरत रहता है, या पार्टी व्हिप के निर्देश के विपरीत मतदान करता है।
  • अयोग्यता का मुद्दा चुनाव आयोग की सलाह पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए।

 

विधि आयोग (170वीं रिपोर्ट, 1999)
  •  विभाजन और विलय के आधार पर अयोग्यता से छूट प्रदान करने वाले प्रावधानों को समाप्त किया जाना चाहिए।
  • चुनाव-पूर्व गठित चुनावी मोर्चे को दल-बदल विरोधी कानून के तहत राजनीतिक दलों के रूप में माना जाना चाहिए।
  • राजनीतिक दलों को व्हिप जारी करने को केवल उन परिस्थितियों तक सीमित रखना चाहिए जब सरकार संकट की स्थिति में हो।
चुनाव आयोग
  •  दसवीं अनुसूची के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा चुनाव आयोग की बाध्यकारी सलाह पर निर्णय दिए जाने चाहिए। संविधान समीक्षा
संविधान समीक्षा (2002)
  • दल-बदल के दोषियों को शेष अवधि के लिए किसी सार्वजनिक कार्यालय या किसी भी लाभकारी आयोग राजनीतिक पद को ग्रहण करने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए
  • सरकार गिराने हेतु दल-बदल के दोषी किसी व्यक्ति द्वारा दिए गए मत को अवैध माना जाना चाहिए।

संसदीय सत्र (Parliamentary Sessions)

पृष्ठभूमि

  •  परंपरा के अनुसार, एक वर्ष में संसद के तीन सत्रों का आयोजन किया जाता है। वर्ष के आरम्भ में आयोजित होने वाला बजट सत्र, तीन सप्ताह का मानसून सत्र (जुलाई-अगस्त) और शीतकालीन सत्र (नवंबर-दिसंबर)
  •  प्रत्येक सत्र के आयोजन की तिथियों को कम से कम 15 दिन पूर्व घोषित किया जाता है ताकि सदस्यों को अपने प्रश्न प्रस्तुत करने और इन पर संसदीय कार्यवाहियों हेतु नोटिस देने का समय मिल सके।
  • संविधान में विशिष्ट रूप से ऐसा कोई उपबंध नहीं किया गया है जिसमें बताया गया हो कि संसद की बैठक कब या कितने दिनों में होनी चाहिए। हालांकि, संविधान के अनुच्छेद 85 में उपबंध है कि दो संसदीय सत्रों के मध्य छः महीने से अधिक का अंतराल नहीं होना चाहिए। यही राज्य विधायिकाओं पर भी लागू होता है।
  • राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करते हुए संसद के सत्र को “ऐसे समय और स्थान पर आहूत कर सकता है जिसे वह उचित समझे”। अतः, संसद के सत्र को आहूत करना सरकार पर निर्भर होता है।
  • व्यवधानों के कारण होने वाले स्थगनों सहित, विभिन्न कारणों के चलते संसद की बैठकें 120 दिन प्रतिवर्ष से घटकर 65-70 दिन प्रतिवर्ष हो गयी हैं।
  • राज्य विधानसभाओं की कार्यप्रणाली भी एक गंभीर स्थिति प्रदर्शित करती है। पिछले पाँच वर्षों में 20 विधानसभाओं के आँकड़े इंगित करते हैं कि उनकी एक वर्ष में औसतन मात्र 29 दिनों के लिए ही बैठकें हुई।

संसद के व्यापक कार्य

  •  विधायी उत्तरदायित्व: संसद का एक महत्वपूर्ण कार्य यह सुनिश्चित करना है कि कानून और नीतियां लोगों की इच्छाओं और हितों को प्रतिबिम्बित करें।
  • पर्यवेक्षण उत्तरदायित्व: यह सुनिश्चित करने के लिए कि कार्यपालिका (अर्थात् सरकार) अपने कर्तव्यों का संतोषजनक रूप से निर्वहन कर रही है।
  •  प्रतिनिधि उत्तरदायित्व: अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों के विचारों और आकांक्षाओं का संसद में प्रतिनिधित्व करना।
  • सार्वजनिक धन से सम्बंधित उत्तरदायित्व: सरकार द्वारा प्रस्तावित राजस्व और व्यय का अनुमोदन एवं पर्यवेक्षण करना।

संसद सत्र महत्वपूर्ण क्यों है?

  • लोकतांत्रिक चर्चाओं के लिए मंच- कानून का निर्माण संसदीय सत्रों पर निर्भर होता है। ये सत्र राष्ट्रीय मुद्दों पर लोकतांत्रिक बहस और चर्चाओं हेतु भी उत्तरदायी होते हैं।
  • कार्यपालिका की जवाबदेही- कार्यपालिका विभिन्न संसदीय उपायों जैसे अविश्वास प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव और अभिभाषण पर चर्चा के माध्यम से विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है।

संसद की भूमिका को प्रभावित करने वाले कारक

  • 1985 में दल-बदल कानून पारित हुआ जिसने सांसदों को संसद में अपने कार्य के लिए पहले से तैयारी करने के महत्व को कम कर दिया है क्योंकि इस कानून के पारित होने के बाद उन्हें केवल दल के सचेतक पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है अन्यथा संसद में सदस्यता खोने का खतरा रहता है।
  •  सांसदों के पास रिसर्च स्टाफ नहीं होता है और ना ही संसद का पुस्तकालय उन्हें पर्याप्त शोध सहायता प्रदान करता है।
  • गठबंधन की राजनीति के विकास ने अंतर-दलीय कार्य पद्धति के प्रबंधन को और अधिक कठिन बना दिया है।

संसद का सीधा प्रसारण आरम्भ होने के कारण मुद्दों पर अधिक संवाद करने और चर्चाओं में बढ़-चढ़ कर भाग लेने के लिए सांसदों के समूहों का प्रोत्साहन बढ़ा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे जानते हैं मीडिया में सीधे प्रसारण के अतिरिक्त मुद्दे को व्यापक रूप से कवर किया जाएगा।

ऐसी स्थितियों के परिणाम

  • विधायी कार्यों से समझौता- अल्पकालीन संसदीय सत्र का प्रत्यक्ष परिणाम विधेयकों और बजट को बिना किसी बहस और चर्चा के शीघ्रता से पारित करने के रूप में होता है। बीते वर्षों के दौरान, बजट पर चर्चाओं में लगने वाला समय 1950 के औसतन 123 घंटे से घटकर पिछले दशक तक 39 घंटे हो गया।
  • जवाबदेहिता की कमी: 16 वीं लोकसभा में प्रश्नकाल निर्धारित समय की 77% अवधि हेतु कार्यशील रहा, जबकि राज्यसभा में यह निर्धारित समय की 47% अवधि के लिए कार्यशील रहा है। इस तरह समय का नष्ट होना सरकार को उसकी कार्रवाइयों के प्रति जबावदेह ठहराने का अवसर गॅवाने की ओर संकेत करता है।
  • असहमति व्यक्त करने के अवसरों का अभाव- विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन (2001) ने यह निष्कर्ष निकाला कि सांसदों को पर्याप्त समय उपलब्ध न होने के कारण वे अपने मुद्दों को संसद के पटल पर प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं जो उनके असंतोष का एक कारण बनता है। सांसदों द्वारा संसद में व्यवधान उत्पन्न करने का यह एक प्रमुख कारण है।
  • वैधता में कमी- संसद की बैठकों की संख्या में कमी से विधि निर्माण करने वाली उच्चतम संस्था के रूप में इसकी छवि प्रभावित होती है और इससे नागरिकों के समक्ष प्रतिनिधियों के सम्मान में भी आती है।
  • नियंत्रण और संतुलन: 2012-2016 के मध्य लोकसभा में 30% समय और राज्यसभा में 35% समय गतिरोध में ही व्यतीत हो गया। सत्रों का इस प्रकार बाधित होना कार्यशील लोकतंत्र के लिए आवश्यक नियंत्रण और संतुलन व्यवस्था की नाजुक प्रणाली को कमजोर करता है।
  • शक्ति के पृथक्करण को कमजोर करना: एक गैर-कार्यात्मक विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिए शक्तियों के उल्लंघन का मार्ग प्रशस्त करती है।
  • वित्तीय लागत: सरकार के अनुमानों के अनुसार संसद की प्रत्येक मिनट की कार्यवाही पर 2.5 लाख रुपये का खर्च आता है और 2017 के शीतकालीन सत्र में संसद के दोनों सदनों में 49 घंटे व्यर्थ होने के कारण 73.5 करोड़ रुपये की हानि हुई थी। एक सांसद के लिए राजकोषीय लागत प्रति वर्ष 35 लाख रूपये से अधिक है जो देश की प्रति व्यक्ति आय से लगभग 40 गुना है।
  •  सरकार की जवाबदेहिता में कमी : उदाहरण के लिए, बजट सत्र में बिना किसी विचार-विमर्श के बजट को पारित किया गया। राज्यसभा ने 419 सूचीबद्ध तारांकित प्रश्नों में से केवल 5 प्रश्नों को उठाया।

संसदीय दक्षता में सुधार के उपाय

  • सत्र की तिथियों के एकमात्र निर्धारक के रूप में सरकार की शक्तियों को कम किया जाना चाहिए। संसद सत्र आहूत करने की सरकार की शक्ति, कार्यपालिका के विधायिका के प्रति उत्तरदायी होने के सिद्धांत की विरोधाभासी है।
  • संसद के पास बैठक की अधिक तिथियाँ और उन तिथियों की स्पष्ट योजना होनी चाहिए। संविधान समीक्षा पर गठित राष्ट्रीय आयोग ने लोकसभा और राज्य सभा हेतु बैठकों की न्यूनतम संख्या क्रमशः 120 और 100 निर्धारित की हैं।
  • बैठकों का कैलेंडर प्रत्येक वर्ष के आरम्भ में घोषित किया जा सकता है। इससे सदस्यों को सम्पूर्ण वर्ष के लिए बेहतर तरीके से योजना बनाने में सहायता मिलेगी। इससे सरकार के लिए सत्र को स्थगित करने का अवसर नहीं मिल पाएगा, विशेष तौर पर यदि सरकार किसी उभरते हुए मुद्दे की संसद द्वारा जांच को टालने के मंतव्य से ऐसा करना चाहती है।
  • शैडो कैबिनेट: इस प्रणाली के अंतर्गत विपक्षी सांसद एक निश्चित पोर्टफोलियो की ट्रैकिंग करते हैं, इसके निष्पादन की जांच करने के अतिरिक्त वैकल्पिक योजनाओं का सुझाव देते हैं। यह मंत्रालयों की विस्तृत ट्रैकिंग और जांच के लिए अनुमति प्रदान करती है और सांसदों को रचनात्मक निर्णय लेने में सहायता करती है।
  • ई-याचिका प्रणाली को प्रोत्साहित करना: इस प्रणाली के अंतर्गत यदि 10,000 लोग किसी मुद्दे पर ई-याचिका पर हस्ताक्षर करते हैं, तो प्रधानमंत्री या संबंधित मंत्री को इसका जवाब देना पड़ता है। जब ऐसी याचिका पर एक लाख से अधिक लोगों द्वारा हस्ताक्षर  किए जाते हैं तो इस पर संसद में बहस करनी पड़ती है।
  • उत्तरदायी विपक्ष: सदस्यों को प्रश्न पूछने चाहिए, उचित आपत्ति दर्ज करनी चाहिए और वैकल्पिक कार्रवाई का सुझाव देना चाहिए परंतु उन्हें ऐसा पर्याप्त रूप से विचार करके और ठोस तर्क के माध्यम से करना चाहिए।
  • चुनावों के सार्वजनिक वित्त पोषण के माध्यम से चुनावी सुधार को राजनीतिक दलों के लिए वित्त पोषण के स्रोतों के प्रकटीकरण को अनिवार्य बनाए जाने संबंधी राजनीतिक सुधारों के साथ जोड़कर करना चाहिए।
  •  एक अव्यवस्थित संसदीय कैलेंडर को ठीक करने, अधूरे विधायी कार्यों को पूर्ण करने और संस्था में जनता के विश्वास की पुनर्घाप्ति में सहायता करने के लिए अवसर प्रदान करने हेतु विशेष सत्र आहूत किया जा सकता है।

राज्य विधान-मंडल की कार्य पद्धति से संबंधित मुद्दे

  • राज्य विधानमंडल की कार्य पद्धति का हालिया अध्ययन विधान सभा की बैठकों की अपेक्षाकृत कम संख्या की ओर संकेत करता है, जैसे- गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और दिल्ली विधानसभाओं की वर्ष 2017 में क्रमशः केवल 33, 40, 17 और 21 बैठकें ही हुईं, क्योंकि बैठकों की न्यूनतम संख्या पर किसी भी प्रकार की संवैधानिक सीमा नहीं है।
  • संसदीय कार्यवाही के विपरीत राज्य विधानसभाओं में विधायी विचार-विमर्श करना कठिन होता है जिसके परिणामस्वरूप राज्य स्तर पर सामान्य नीति निर्माण में नागरिकों की कम भागीदारी होती है।

इन मुद्दों के समाधान हेतु कदम

  • राज्य विधानसभाओं की सम्पूर्ण कार्यवाही का सीधा प्रसारण: राज्य विधानसभा की कार्यवाही की अत्यधिक अपारदर्शिता के कारण नागरिकों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना में कमी आती है। कार्यवाही का सीधा प्रसारण यह सुनिश्चित करेगा कि नागरिकों द्वारा उनके प्रदर्शन की वास्तविक समय में निगरानी की जा रही है जिससे सार्वजनिक महत्व के मामलों पर विधायी और विचार-विमर्श की गुणवत्ता में सुधार होगा।
  • RTI अधिनियम के तहत प्रकटीकरण: नागरिकों को RTI अधिनियम, 2005 के अंतर्गत सभी राज्यों द्वारा विधानसभा की वेबसाइटों पर विधायी विचार-विमर्श और प्रश्नों के पाठ के अनिवार्य प्रकटीकरण की सामूहिक रूप से मांग करनी चाहिए।
  • द्विभाषी पोर्टल और दस्तावेज: विधानसभा के पोर्टलों सहित राज्य स्तर पर सभी सरकारी प्रस्तावों का अंग्रेजी में अनुवाद किया जाना चाहिए और उन्हें राज्य की स्थानीय भाषा के साथ अंग्रेजी में भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इससे इनकी अधिक पठनीयता सुनिश्चित होगी तथा राज्य की नीतियों और कार्रवाइयों के साथ नागरिकों और मीडिया का अधिक जुड़ाव होगा।
  • राज्य कानूनों के प्रारूप के निर्माण के दौरान विभिन्न हितधारकों और लाभार्थियों की भागीदारी: केंद्र के विपरीत, जहां मंत्रालयों द्वारा सार्वजनिक टिप्पणियों के लिए ड्राफ्ट बिल प्रायः साझा किए जाते हैं, राज्य कानूनों पर विचार करने, बहस करने और उन्हें पारित करने की प्रक्रिया अस्पष्ट है। सभी राज्यों को समावेशी नीति-निर्माण की प्रक्रिया को व्यवहार में लाना चाहिए।

संसदीय समितियां  (Parliamentary Committees)

हाल ही में, संसदीय समितियों के कम होते महत्व और क्या विभिन्न विधेयकों के पारित होने से पूर्व उन पर उचित विवेचन किया जा रहा है, इस पर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। 16वीं लोकसभा के आरंभ होने के पश्चात्, संसदीय समितियों द्वारा केवल 29% विधेयकों की जांच की गई है जबकि 14वीं और 15वीं लोकसभा में क्रमशः 60% और 71% विधेयकों का परीक्षण किया गया था।

संसदीय समितियों का महत्व 

  •  विशिष्ट कार्यः संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं- स्थायी और तदर्थ समितियां। जहां स्थायी समितियां । विशिष्ट कार्यों का निष्पादन करती हैं वहीं तदर्थ समितियों का गठन प्रदत्त कार्यों के निष्पादन हेतु किया जाता है और कार्य समाप्ति के उपरांत इन्हें स्थगित कर दिया जाता है।
  • विस्तृत जांच: अधिक कार्यभार और कार्य की जटिलता तथा संसद में सीमित समय की उपलब्धता के कारण, सांसद सदन के पटल पर विधेयकों की व्यापक जांच नहीं कर पाते हैं। इसके साथ ही, संसद सत्र के बाधित होने पर भी समितियों का कार्य जारी रहता है।
  •  विधि निर्माताओं के लिए विशेषज्ञता विकसित करने का मंच: चूंकि दल-बदल कानून इन लघु-विधायिकाओं पर लागू नहीं होता है, इसलिए सामान्यत: दल के निर्देशों के अनुरूप निर्णय नहीं लिए जाते हैं। इस प्रकार विभिन्न मुद्दों पर सर्वसम्मति के निर्माण हेतु एक मंच प्राप्त होता है।
  • उचित हितधारकों के साथ संबद्धता: समितियां जिन विषयों की जांच करती हैं उनके संबंध में नागरिकों और विशेषज्ञों से नियमित फीडबैक प्राप्त करती हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर को विमुद्रीकरण के विषय पर वित्त समिति द्वारा सम्मन जारी किया गया था।
  • सरकार के उत्तरदायित्व को बनाए रखना: यह सरकारी नीतियों की जांच करने की संसद की क्षमता में वृद्धि करती है और विधायिका पर एक सुविज्ञ बहस के माध्यम से उसे उत्तरदायी बनाती है। इनके द्वारा विभिन्न विभागों और सरकार की अन्य नीतियों के लिए बजटीय आवंटन की जांच की जाती है।
  •  बिलों में निहित मुद्दों का समाधान करना: उदाहरण के लिए, 2013 से राज्यसभा में भ्रष्टाचार रोकथाम (संशोधन) विधेयक लंबित है। इस विधेयक की दो संसदीय समितियों द्वारा जांच की गई है और इसे कई बार पेश किया जा चुका है। परिणामस्वरूप इस प्रक्रिया ने बिल के महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर किया है।
  • ज्ञान का भंडार: भारतीय संसदीय समितियां सूचना का एक विशाल भंडार हैं। ये इन जानकारियों को सांसदों को उपलब्ध कराती हैं। जिससे उनमें व्यापक समझ विकसित होती है और वे संसदीय प्रणाली को सुदृढ़ बनाने और शासन में सुधार के लिए सलाह दे पाते है।

मुद्दे

  • बहुत कम विधेयकों को निर्दिष्ट किया जाना: 14वीं और 15वीं लोकसभा में क्रमशः 60 प्रतिशत और 71 प्रतिशत विधेयकों को इन समितियों को निर्दिष्ट किया गया था। 16वीं लोकसभा में इनकी संख्या में तीव्र गिरावट आई है और यह संख्या घटकर 27 प्रतिशत रह गई है।
  • सदस्यों की कम उपस्थिति: समिति की बैठकों में सदस्यों की उपस्थिति एक चिंता का विषय रही है। यह उपस्थिति 2014-15 के बाद से लगभग 50% ही रही है।
  • सदस्यों का लघु कार्यकाल: विभागीय स्थायी समितियों (DRSCs) की स्थापना एक वर्ष के लिए की जाती है परिणामस्वरूप । विशेषज्ञता प्राप्ति के लिए बहुत कम समय मिलता है।
  •  समिति की रिपोर्ट पर चर्चा न किया जाना: चूंकि इनकी प्रकृति अनुशंसात्मक होती है, अतः इनकी रिपोर्ट पर संसद में चर्चा नहीं की  जाती है। इनकी रिपोर्ट को केवल कुछ विधेयकों पर बहस करने हेतु संदर्भ के रूप में उपयोग किया जाता है।
  • विशेषज्ञता की कमी: कुछ समिति के सदस्यों के पास समितियों के विचाराधीन विशेषीकृत विषयों की जटिलताओं को समझने हेतु तकनीकी विशेषज्ञता की कमी होती है, जैसे लेखांकन और प्रशासनिक सिद्धांत समिति।
  •  कार्यवाही का राजनीतिकरण: हालाँकि कुछ मुद्दों पर लोक हितों को वृहत् अभिव्यक्ति हुई है किन्तु अब सदस्यों द्वारा समिति की बैठकों में दल के निर्देशों का कठोरता से अनुपालन किया जाने लगा है।

विभागीय स्थायी समितियां (DRCS)

विशिष्ट मंत्रालयों से सम्बद्ध विभागीय स्थायी समितियां (DRCS),अपने सम्बद्ध मंत्रालयों से संबंधित विधेयकों और विषयों के अतिरिक्त इन मंत्रालयों के प्रदर्शन और बजट की जांच भी करती हैं।

  • वित्तीय समितियां मुख्य रूप से सरकार की व्यय प्राथमिकताओं की जांच के लिए उत्तरदायी होती हैं। ये सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की व्यय और प्रदर्शन संबंधी दक्षता में सुधार के उपायों पर सुझाव प्रदान करती हैं।
  • चयन समिति का गठन एक विशिष्ट विधान/नीति का विश्लेषण करने के लिए किया जाता है। इन्हें रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात् भंग कर दिया जाता है।
  • प्रशासनिक समितियां मुख्य रूप से यह सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी होती हैं कि विधानमंडल की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों को सदस्यों के परामर्श के माध्यम से योजनाबद्ध किया जाए।

आगे की राह

  • समिति के सदस्यों के कार्यकाल को बढ़ाया जाना चाहिए ताकि विधायी कार्य में किसी विशेष विषय पर उनकी तकनीकी विशेषज्ञता का पूर्ण रूप से उपयोग किया जा सके।
  • शोध सहायता: संस्थागत शोध को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यह समितियों को तकनीकी प्रकृति के मुद्दों की जांच करने और जटिल नीतिगत मुद्दों की जांच करने हेतु एक विशेषज्ञ निकाय के रूप में कार्य करने में सहायता प्रदान करेगा।
  • आर्थिक नीतियों और उनके कार्यान्वयन पर पृथक बहस करने हेतु आर्थिक मामलों की स्थायी समिति की स्थापना की जानी चाहिए।
  • कार्यों के अतिव्यापन को कम करनाः उन्हें वित्तीय पर्यवेक्षण की अतिरिक्त जिम्मेदारियां प्रदान की जा सकती हैं और बजट पर कार्य के अतिव्यापन से बचने के लिए मौजूदा वित्त समितियों को समाप्त किया जा सकता है।
  • नियमित निगरानी: समिति के कार्यों के प्रदर्शन के नियमित मूल्यांकन हेतु तंत्र गठित किए जाने की आवश्यकता है।
  • सर्वोत्तम कार्यप्रणाली का अंगीकरण: विभिन्न देशों में संबंधित मंत्री सरकार की नीतियों को विस्तारपूर्वक प्रस्तुत करने और उनका बचाव करने हेतु समिति के समक्ष उपस्थित होते हैं, जबकि भारत में समितियों के समक्ष मंत्री उपस्थित नहीं होते हैं। इसकेअतिरिक्त, प्रत्येक विधेयक को जांच हेतु समिति को निर्दिष्ट किये जाने की प्रणाली भी अपनायी जानी चाहिए।

निष्कर्ष

विधि निर्माण की गुणवत्ता में सुधार और कार्यान्वयन संबंधी संभावित चुनौतियों को कम करके ही समिति प्रणाली को सुदृढ़ बनाया जा सकता है। एक विचारशील निकाय के रूप में संसद को सुदृढ़ बनाने हेतु संसदीय समितियों का और अधिक एवं प्रभावी उपयोग करना समय की मांग है। इससे प्रभावी पर्यवेक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है।

लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) से संबंधित मुद्दे  (Issues Related to Speaker)

लोकसभा अध्यक्ष (स्पीकर) से संबंधित मुद्दे

  •  पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के दावे और पक्षपातपूर्ण व्यवहार की समस्याः अध्यक्ष की नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधी संरचनात्मक मुद्दों और उसके कार्यकाल के कारण उस पर पूर्वाग्रह के आरोप लगाए जाते हैं। हाल ही में, एक परंपरा विकसित की गयी है कि अध्यक्ष का चयन बहुमत दल से और उपाध्यक्ष का चयन विपक्षी दल से किया जायेगा।
  •  लोकसभा अध्यक्ष द्वारा राजनीतिक दल की सदस्यता त्यागने की परंपरा का न होना: ऐसा इस कारण से है क्योंकि सदन के अध्यक्ष को पुनर्निर्वाचन की सुरक्षा नहीं प्रदान की गयी है।
  •  भारत में अध्यक्षों ने अपने कार्यकाल से तत्काल पूर्व और बाद में मंत्री पद धारण किया है। अतः, यह आश्चर्यजनक तथ्य नहीं है कि भारत में अध्यक्ष पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार के आरोप लगाए गए हैं, भले ही ऐसे दावों का समर्थन करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य न हों।
  • गठबंधन की चुनौती: दलों की संख्या में वृद्धि के साथ ही, चर्चा के दौरान अपने हितों को प्रस्तुत करने हेतु प्रत्येक दलों के लिए उपलब्ध समय में कमी हुई है। इसके अतिरिक्त, संसद की वार्षिक बैठकों की संख्या में भी कमी हुई है।
  • राजनीतिक दलों की संख्या में वृद्धि और विभिन्न राजनीतिक हितों में भिन्नता ने अध्यक्ष के लिए अनुशासनात्मक शक्तियों के उपयोग के संबंध में सदस्यों के मध्य सहमति के निर्माण को कठिन बना दिया है।
  •  असंसदीय आचरण: अध्यक्ष के ध्यानाकर्षण के लिए सदस्यों द्वारा असंसदीय साधनों, जैसे- व्यवधान उत्पन्न करने आदि का प्रयास किया जाता है।
  • दल बदल विरोधी कानून में भूमिका: एक सदस्य की अयोग्यता का निर्धारण, अध्यक्ष को विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करने हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान करता है जिसका प्रयोग प्रायः सत्तारूढ़ दल द्वारा असहमति/मतभेद को दरकिनार करने के लिए किया जाता है। आधिकारिक तौर पर अपने दल की सदस्यता का त्याग नहीं करने या इसके निर्देशों को अस्वीकार नहीं करने के बावजूद 2016 में अरुणाचल प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष, नाबाम रबिया द्वारा 16 विधायकों को अयोग्य घोषित किया गया था।
  • धन विधेयक का निर्धारण: संविधान में निर्धारित सख्त मानदंडों को पूरा नहीं करने के बावजूद आधार विधेयक जैसे विधेयकों को  धन विधेयक के रूप में प्रमाणित करने के लिए स्पीकर की आलोचना की गई है।

अध्यक्ष से संबंधित तथ्य

भारत में लोकसभा/विधान सभा का अध्यक्ष भारतीय संसद/राज्य विधानमंडल के निम्न सदन का मुख्य संसदीय अधिकारी होता है। आम चुनाव के बाद नवगठित लोक सभा की प्रथम बैठक में सदन द्वारा सदस्यों के बीच से अध्यक्ष का चुनाव किया जाता है।

लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका, शक्तियां और कार्य

  •  सदन की प्रक्रिया, कार्यवाही एवं नियम के उचित संचालनों के लिए सदन में अनुशासन एवं शिष्टाचार बनाए रखता है।
  • गणपूर्ति के अभाव में सदन को स्थगित या बैठक को निलंबित करता है।
  • वह सामान्य स्थिति में प्रथमता मतदान नहीं करता है। लेकिन मत बराबरी की स्थिति में वह निर्णायक मत का प्रयोग कर सकता है।
  • वह संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता करता है।
  • वह सदन के नेता के अनुरोध पर सदन की ‘गुप्त'(secret) बैठक की अनुमति दे सकता है।
  • यह निर्धारित करता है कि कोई विधयेक, धन विधयेक है अथवा नहीं और इस विषय में उसका निर्णय अंतिम होता है।
  • वह दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के तहत दल-बदल के आधार पर लोकसभा के किसी सदस्य की निर्हरता के प्रश्नों का निपटारा करता है।

अध्यक्ष की स्वतंत्रता और निष्पक्षता

  •  अध्यक्ष को कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान की जाती है।
  •  संसद द्वारा उसके वेतन और भत्ते निर्धारित किए गए हैं। ये भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं।
  • लोकसभा में अध्यक्ष को हटाये जाने से संबंधी प्रस्ताव के अतिरिक्त उसके कार्य और आचरण संबंधी चर्चा एवं आलोचना नहीं की जा सकती है।
  • सदन की प्रक्रिया के विनियमन या कार्यवाही के संचालन या व्यवस्था बनाए रखने की अध्यक्ष की शक्ति किसी भी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अधीन नहीं हैं।
  • वह केवल मत बराबरी (टाई) की स्थिति में निर्णायक मत का प्रयोग करता है। यह अध्यक्ष की निष्पक्षता की स्थिति को प्रदर्शित करता है।
  • उसे वरीयता क्रम में अत्यधिक उच्च स्थान दिया जाता है। उन्हें भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ सातवें स्थान पर रखा गया है।

आगे की राह

  • दल-बदल, विभाजन और विलय से संबंधित अध्यक्ष की अधिनिर्णयन की भूमिका को या तो चुनाव आयोग या विधायिका के बाहर किसी भी तटस्थ निकाय को हस्तगत किया जाना चाहिए।
  •  चुनाव में प्रतिभाग किए बिना अध्यक्ष के पुनर्निर्वाचन की परम्परा स्थापित की जानी चाहिए।
  •  सदन में चर्चा और प्रश्नकाल के दौरान, न केवल दल की संख्या के अनुसार सदस्यों को समय देने का प्रयास किया जाना चाहिए, बल्कि उन सदस्यों को भी सुविधा मिलनी चाहिए जो कुछ विशेष शिकायत या विचार अभिव्यक्त करना चाहते हैं।
  • अध्यक्ष के प्रति विश्वास में वृद्धि करने हेतु उनकी निर्णयन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, अध्यक्ष के निर्णयों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
  • यदि मीडिया अपमानजनक आचरण के उदाहरणों और सदन के प्रदर्शन पर इस आचरण के प्रतिकूल प्रभावों को प्रकाशित करने में संरचनात्मक भूमिका निभाता है, तो सदन की गरिमा को भंग करने वाले सदस्यों के विरुद्ध कार्यवाही करने की अध्यक्ष की अनिच्छा को कम किया जा सकता है।

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