अंतर-राज्यीय जल विवाद (Inter-State Water Disputes)

सम्पूर्ण भारत में लगभग बीस प्रमुख नदी बेसिन हैं और इनमें से कई बेसिन एक से अधिक राज्यों में विस्तृत हैं। इसके कारण जल के उपयोग और वितरण के संबंध में प्रायः विवाद होते हैं। अन्तर्राज्यीय जल विवादों हेतु संवैधानिक और विधायी प्रावधान

 अनुच्छेद 262 

  • अनुच्छेद 262(1) के अनुसार संसद विधि द्वारा किसी अन्तर्राज्यीय नदी या नदी-घाटी के अथवा उसमें जल के प्रयोग, वितरण अथवा नियंत्रण के संदर्भ में किसी विवाद या परिवाद के न्यायनिर्णयन के लिए उपबंध कर सकेगी।
  •  अनुच्छेद 262(2) के अनुसार संसद विधि द्वारा उपबंध कर सकेगी कि उच्चतम न्यायालय या कोई उच्च न्यायालय ऐसे किसी विवाद या परिवाद के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग नहीं करेगा।

अनुच्छेद 262 के अंतर्गत दो अधिनियम पारित किए गए:

  • नदी बोर्ड अधिनियम, 1956: इसे इस घोषणा के साथ अधिनियमित किया गया था कि केंद्र को सार्वजनिक हित में अंतर्राज्यीय नदियों और नदी घाटियों के विनियमन और विकास पर नियंत्रण रखना चाहिए। हालांकि, अभी तक एक भी नदी बोर्ड का गठन नहीं किया गया है।
  • अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 (IRWD Act) इस प्रकार के विवादों का निपटान करने के लिए केंद्र को न्यायाधिकरण के गठन की शक्ति प्रदान करता है। यह ऐसे विवादों को उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखता है।

सातवीं अनुसूची

  •  राज्य सूची की प्रविष्टि 17: जल से सम्बंधित विषय अर्थात् जलापूर्ति, सिंचाई और नहरें, अपवाह एवं तटबंध, जल भंडार व जल विद्युत संघ सूची की प्रविष्टि 56 के अधीन हैं।
  • संघ सूची की प्रविष्टि 56: अंतर्राज्यीय नदियों और नदी घाटियों का विनियमन और विकास।

भारत के प्रमुख नदी जल विवाद 

  • कावेरी जल विवाद: कावेरी जल न्यायाधिकरण की स्थापना 1990 में की गई थी और इसका अंतिम आदेश 2007 में आया था। वर्तमान विवाद उच्चतम न्यायालय के आदेश के साथ आरम्भ हुआ था जिसमें कर्नाटक सरकार को तमिलनाडु के लिए 10 दिनों तक 15,000 क्यूसेक जल छोड़ने का निर्देश दिया गया था। उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद 1 जून को केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने कावेरी जल प्रबंधन योजना, 2018 को अधिसूचित किया।
  •  महानदी जल विवाद: हाल ही में, जल संसाधन मंत्रालय ने जनवरी 2018 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश के अनुसार महानदी जल के साझाकरण पर ओडिशा और छत्तीसगढ़ के मध्य विवाद का समाधान करने के लिए एक न्यायाधिकरण की स्थापना को अधिसूचित किया।
  •  अन्य प्रमुख विवाद: गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच महादायी नदी विवाद; महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के बीच कृष्णा नदी विवाद

उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का महत्त्व

उच्चतम न्यायालय के अनुसार नदी तट पर स्थित विभिन्न राज्यों के मध्य समानता के सिद्धांत का अर्थ यह नहीं है कि उनके मध्य जल का समान वितरण हो; यह केवल जल के न्यायसंगत तथा उचित उपयोग एवं “पेयजल की आवश्यकता” को उच्च प्राथमिकता प्रदान करने पर बल देता है।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय से दो सिद्धांत निर्धारित हुए हैं, जो अंतर्राज्यीय नदी जल विवादों पर निरंतर एवं विस्तृत प्रभाव डाल सकते हैं:

  • भूजल- राज्य में भूजल की उपलब्धता के कारण, तमिलनाडु को आवंटित जल की मात्रा को घटाकर कुछ कम किया गया था।
  •  वैध लचीलापन- अनेक वर्षों के दौरान बंगलुरु शहर में हुए विकास के परिणामस्वरूप नागरिक सुविधाओं की मांग में भी वृद्धि हुई है। यह मालप्रभा बेसिन से हुबली-धारवाड़ क्षेत्र में जल की कमी को संबोधित करने के लिए नदी जल के बँटवारे के संबंध में महादायी जल विवाद ट्रिब्यूनल में कर्नाटक द्वारा प्रस्तुत तर्क के समान है।

यह 1966 के हेलसिंकी नियमों को संदर्भित करता है, जो राज्य के बेसिन के भूगोल और जल विज्ञान, जलवायु, जल का पिछला उपयोग, आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताओं, आश्रित आबादी और संसाधनों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक बेसिन राज्य द्वारा जल के उचित उपयोग को मान्यता प्रदान करते हैं।

कावेरी विवाद के संदर्भ में यह कैम्पियन नियमों को भी संदर्भित करता है। इन नियमों का मानना है कि बेसिन राज्य अपने संबंधित क्षेत्रों में न्यायसंगत और उचित तरीके से अंतरराष्ट्रीय जल निकासी बेसिन के जल का प्रबंधन करेंगे।

समतापूर्ण विभाजन (Equitable Apportionment) के सिद्धांत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हेलसिंकी नियमों, कैंपियन (campione) नियमों तथा बर्लिन नियमों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है और इसे 1987 से लेकर 2002 तक की राष्ट्रीय जल नीतियों में भी शामिल किया गया है। इसके साथ ही, इसे अंतर्राज्यीय नदी जल विभाजन के मुद्दों से निपटने हेतु मार्गदर्शी कारक के रूप में भी स्वीकार किया गया है।

कावेरी जैसी अंतर्राज्यीय नदी एक राष्ट्रीय परिसंपत्ति है तथा कोई भी राज्य इसके जल पर अपने एकमात्र स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता और न ही अन्य राज्यों को उनके न्यायोचित हिस्से से वंचित कर सकता है।

कावेरी जल प्रबंधन योजना, 2018

इस योजना के तहत, केंद्र ने कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (CWMA) और कावेरी जल विनियमन समिति (CWRC) की स्थापना की।

CWMA के कार्य

  • नदी जल के भंडारण की निगरानी, नदी जल का बँटवारा करना, जलाशयों के संचालन का अधीक्षण करना और कावेरी जल विनियमन समिति की सहायता से कावेरी के जल को छोड़ने को विनियमित और नियंत्रित करना।
  • बिलिगुंडुलू गेज में अन्तर्राज्यीय संपर्क बिंदु पर कर्नाटक द्वारा जल की निकासी को विनियमित करना।
  • प्रत्येक जल वर्ष के प्रारंभ में (1 जून को) कुल अवशेष भंडारण का निर्धारण करना।
  • सूक्ष्म सिंचाई (ड्रिप एवं स्प्रिंकलर) को बढ़ावा, फसल प्रतिरूप में परिवर्तन, उन्नत कृषि पद्धति, प्रणाली की कमियों में सुधार और कमांड एरिया विकास को प्रोत्साहन देकर जल उपयोग दक्षता में सुधार हेतु उपयुक्त उपायों का सुझाव देना।
  • किसी भी पक्षकार राज्य द्वारा अनुपालन न करने पर उचित कार्रवाई करना। CWMA अधिनिर्णय के कार्यान्वयन के लिए केंद्र सरकार की सहायता भी ले सकता है।

CWMA का महत्व

  • पूर्व की अंतरिम व्यवस्थाओं के विपरीत, यह जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत एक स्थायी निकाय है और इसके निर्णय सभी पक्षकार राज्यों पर अंतिम और बाध्यकारी होंगे।
  •  The share of each state will be determined on the basis of the flows so assumed together with the
    available carry-over storage in the reservoirs.
  •  प्रत्येक राज्य का हिस्सा जल प्रवाह के आधार पर निर्धारित किया जाएगा जिसे कि जलाशय में अग्रेषित किये जाने योग्य उपलब्ध जल भंडार के रूप में माना जाता है।

कावेरी जल विनियमन समिति (CWRC)

  • CWRC एक तकनीकी शाखा के रूप में कार्य करेगी तथा इसके निम्नलिखित कार्य होंगे:
  • जल स्तर, प्रवाह, भंडार और जल की आवधिक निकासी से संबंधित डेटा एकत्र करना।
  •  दक्षिण-पश्चिमी मानसून, उत्तर-पूर्वी मानसून तथा ग्रीष्म काल के लिए जल विवरण की मौसमी/वार्षिक रिपोर्ट तैयार
    करना और इसे CWMA को सौंपना।

चिंताएं

  • अंतर-राज्य नदियों संबंधी विषयों में केंद्र की भूमिका पर संघीय सर्वसम्मति को बढ़ावा देना- राज्यों को केंद्र को आवश्यक कार्यात्मक छूट प्रदान करने के लिए सहमत होना चाहिए। वस्तुतः संविधान की प्रविष्टि 56 के तहत CWMA की शक्तियां और कार्य केंद्र सरकार के पक्ष में हैं।
  •  इस योजना की सफलता के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और नौकरशाही की इच्छाशक्ति अत्यंत आवश्यक हैं।

कर्नाटक द्वारा व्यक्त की गई चिंताएं:

  • इस “योजना” पर संसद में विचार विमर्श किया जाना चाहिए,
  • प्राधिकरण उगाई जाने वाली फसलों के विषय में हस्तक्षेप कर सकता है और किसानों को आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने में अत्यधिक समय लग सकता है, और
  •  उत्तर-पूर्वी मानसून के कारण तमिलनाडु के बाढ़ से ग्रसित होने की स्थिति में छोड़ा गया जल व्यर्थ चला जाएगा।

विवादों के बढ़ने के कारण

  • जनसांख्यिकीय कारक– नदी बेसिन में बढ़ती जनसंख्या के कारण नदी जल की मांग में वृद्धि हुई है।
  • कृषि प्रतिरूप में परिवर्तन क्योंकि किसान अब बाजरा और रागी जैसी जल दक्ष फसलों को छोड़कर धान और गन्ने की कृषि कर रहे
  •  जलवायु और भौगोलिक कारक: 2011 में हुए एक अध्ययन में व्यक्त पूर्वानुमान के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण 2080 तक कावेरी उप-बेसिन के जल में 50 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
  • राजनीतिक कारक- जल और राजनीति के मध्य बढ़ती घनिष्टता के साथ क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियाँ सुदृढ़ और प्रबल हुई हैं और इन्होंने विवादों को वोट बैंक राजनीति के मैदानों में परिवर्तित कर दिया है। प्रायः राजनीति के कारण ही संवैधानिक और अभिशासनिक संकट की स्थितियां उत्पन्न होती हैं, चाहे 1991 में न्यायाधिकरण के आदेश को अस्वीकृत करने वाला कर्नाटक सरकार का अध्यादेश हो या वर्ष 2004 में हरियाणा के साथ जल बँटवारे के समझौतों को रद्द करने का पंजाब का एकपक्षीय निर्णय।
  • वर्षा की बढ़ती परिवर्तनशीलता और निरंतर सूखों के साथ-साथ जल संसाधनों का असमान वितरण।
  •  राज्यों के विभाजन के कारण विवाद: 2014 में तेलंगाना के अस्तित्व में आने के पश्चात् गोदावरी नदी जल और ‘पोलावरम परियोजना’ विवाद का मुख्य कारण बन गए।
  • नदियों के ऊपरी तटीय राज्य द्वारा संचालित गतिविधियाँ: उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश द्वारा वंशधारा नदी पर एक बाढ़ जल के प्रवाह वाली नहर का निर्माण आरम्भ करने और छत्तीसगढ़ द्वारा महानदी पर बैराज को विकसित करने के परिणामस्वरूप ओडिशा के साथ विवाद हुआ। इसी प्रकार कर्नाटक ने मालप्रभा नदी के साथ महादायी नदी को जोड़ने का प्रस्ताव किया जिसके परिणामस्वरूप गोवा के साथ विवाद हुआ।

अंतरराज्यीय जल विवादों से संबंधित मुद्दे

 जल विवाद के समाधान से संबंधित मुद्दे

  •  ऐतिहासिक : कावेरी जल के साझाकरण का विवाद लगभग एक शताब्दी पुराना है। यह सर्वप्रथम मैसूर (वर्तमान कर्नाटक) और मद्रास प्रेसिडेंसी (वर्तमान तमिलनाडु) की रियासत के मध्य उभरा था। तब से दो जल साझाकरण समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए थे परंतु अंतिम समझौता 974 में व्यपगत हो गया था। वर्ष 1990 में केंद्र सरकार ने विवाद के समाधान हेतु कावेरी जल विवाद अधिकरण (CWDT) का गठन किया गया जिसने अपनी अंतिम अनुशंसाएं वर्ष 2007 में दीं।
  • संविधान अनुच्छेद 262 के तहत अन्तर्राज्यीय नदी विवादों पर उच्चतम न्यायालय या अन्य किसी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को रोकता है। हालांकि, उच्चतम न्यायालय विशेष अनुमति याचिका (स्पेशल लीव पेटीशन) (अनुच्छेद 136 के अंतर्गत) शक्ति का उपयोग कर याचिकाओं को स्वीकार करती है जिसके परिणामस्वरुप कानूनी विवाद लंबित बना रहता है।
  •  गठबंधन की राजनीति और मजबूत क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों के समय में विवाद के समाधान के लिए केंद्र सरकार द्वारा मध्यस्थता करना कठिन हो जाता है।
  •  राज्यों द्वारा न्यायाधिकरण के अधिनिर्णयों का गैर-अनुपालन विवाद के समाधान में कमजोर कड़ी है जो स्थायी न्यायाधिकरण के बने रहने पर भी जारी रह सकता है।

वर्तमान अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 से संबंधित मुद्दे 

  • प्रत्येक अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद के लिए एक पृथक न्यायाधिकरण स्थापित किया जाएगा।
  • ऐसे विवादों के निपटारे को सुनिश्चित करने में अत्यधिक विलंब। कावेरी और रावी जैसे न्यायाधिकरण क्रमशः 26 और 30 वर्ष तक बिना किसी अधिनिर्णय के अस्तित्व में रहे। अधिनिर्णयन के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है। वस्तुतः, न्यायाधिकरण के गठन के चरण में भी विलंब होता है।
  •  न्यायाधिकरण के अधिनिर्णय को क्रियान्वित करने हेतु पर्याप्त मशीनरी के लिए कोई प्रावधान नहीं हैं।
  •  अंतिम निर्णय का मुद्दा: न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए अधिनिर्णय के किसी पक्ष के विरुद्ध होने की स्थिति में वह पक्ष शीघ्र ही उच्चतम न्यायालय में निवारण की मांग करता है। आठ में से केवल तीन न्यायाधिकरणों द्वारा दिए गए अधिनिर्णय राज्यों द्वारा स्वीकार किये गए हैं।
  • जल पर नियंत्रण एक अधिकार माना जाता है जिसे उत्साहपूर्वक संरक्षित किया जाना चाहिए। समझौते को एक दुर्बलता माना जाता है जो राजनीतिक रूप से घातक सिद्ध हो सकता है।
  •  अधिनियम उन सिद्धांतों का कोई संकेत नहीं देता है जिन्हें न्यायाधिकरण द्वारा जल विवादों का अधिनिर्णय करते समय लागू किया जाना चाहिए।
  •  न्यायाधिकरण के अध्यक्ष या सदस्यों के लिए कोई आयु सीमा निर्धारित नहीं है।

अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) अधिनियम, 2017 से संबंधित मुद्दे

  • आवश्यकता पड़ने पर स्थायी न्यायाधिकरण की पीठों का गठन किया जाना प्रस्तावित है। इस प्रकार यह स्पष्ट नहीं है कि ये अस्थायी पीठे वर्तमान प्रणाली से किस प्रकार पृथक होंगी।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि वह ISWDA के तहत स्थापित जल न्यायाधिकरण के विरुद्ध अपील सुन सकता है, इस प्रकार न्यायिक कार्यवाही में और भी विलंब हो सकता है।
  •  न्यायाधिकरण के निर्णय को लागू करने के लिए संस्थागत तंत्र अभी भी अस्पष्ट है।

 सरकार द्वारा उठाए गए कदम

अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद (संशोधन) अधिनियम, 2017 लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था। यह अंतर्राज्यीय नदी जल विवादों के न्याय निर्णय की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने और वर्तमान कानूनी एवं संस्थागत प्रणाली को सुदृढ़ बनाने का प्रस्ताव रखता है। इसके मुख्य प्रावधानों में सम्मिलित हैं।

  •  केन्द्र सरकार द्वारा विवाद समाधान समिति (Dispute Redressal Committee; DRC) के गठन का प्रावधान है जिसका कार्य ट्रिब्यूनल में किसी भी मामले को भेजने से पूर्व सद्भावनापूर्ण ढंग से समाधान का प्रयास करना होगा। इसके लिए निर्धारित अवधि 1 वर्ष होगी जिसे 6 माह तक के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है।
  •  एकल ट्रिब्यूनलः अधिनियम वर्तमान में स्थापित विभिन्न ट्रिब्यूनलों के स्थान पर एक सिंगल स्टैंडिंग ट्रिब्यूनल (जिसकी अनेक बेंच हों) का प्रस्ताव करता है।
  • ट्रिब्यूनल की संरचना- इसमें एक अध्यक्ष एक उपाध्यक्ष एवं अधिकतम 6 सदस्य होंगे। अध्यक्ष का कार्यकाल 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु (दोनों में जो भी पहले समाप्त हो) होगा। ट्रिब्यूनल के उपाध्यक्ष एवं अन्य सदस्यों का कार्यकाल, जलविवाद की समाप्ति के साथ ही खत्म हो जाएगा।
  • समय-सीमाः ट्रिब्यूनल को किसी विवाद का समाधान साढे चार वर्षों में करना होगा।
  • अंतिम निर्णय: ट्रिब्यूनल का निर्णय अंतिम एवं बाध्यकारी होगा।
  • डेटा संग्रहः केंद्र सरकार के द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर डेटा संग्रह एवं डेटा बैंक के रख-रखाव हेतु एक एजेंसी को नियुक्त एवं प्राधिकृत करने का प्रावधान है।
  • तकनीकी सहायताः यह न्यायाधिकरण को तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए आकलनकर्ताओं की नियुक्ति हेतु प्रावधान करता है। उन्हें केन्द्रीय जल अभियांत्रिकी सेवा में सेवारत विशेषज्ञों (जो मुख्य इंजीनियर या उससे ऊपर के पद पर हों) में से नियुक्त किया जायेगा।

सुझाव एवं आगे की राह

  • अंतरराज्यीय परिषद (ISC)- यह विचार-विमर्श के द्वारा विवादों के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। कार्यान्वयन के लिये संघ सूची की प्रविष्टि 56 में वर्णित रिवर बोर्ड एक्ट, 1956 एक शक्तिशाली कानून है जिसमें संशोधन करने की आवश्यकता है। इस एक्ट के अंतर्गत अंतरराज्यीय नदियों एवं इनके बेसिनों के विनियमन एवं विकास हेतु ‘रिवर बेसिन आर्गेनाईजेशन’ (RBOs) को स्थापित किया जा सकता है।
  • मध्यस्थता हेतु कदम बढ़ानाः मध्यस्थता एक लचीली एवं अनौपचारिक प्रक्रिया है तथा इसमें मध्यस्थों का बहुविषयक दृष्टिकोण देखने को मिलता है। दक्षिण एशिया के संदर्भ में, सिंधु बेसिन की नदियों से जुड़े विवाद का सफलतापूर्वक समाधान करने में विश्व बैंक ने भारत एवं पाकिस्तान के मध्य अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • आपूर्ति पक्ष प्रबंधनः बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि जल आपूर्ति को बढ़ाकर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। इस प्रकार, दीर्घकालिक उपायों जैसे- जल संरक्षण एवं जल उपयोग को तर्कसंगत बनाना इत्यादि के द्वारा जल संसाधनों का अधिकतम उपयोग संभव है।
  • नदियों को राष्ट्रीय संपति घोषित करनाः इसके माध्यम से राज्यों की उस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना संभव हो सकेगा जिसके अंतर्गत वे नदी जल को अपना अधिकार मानते हैं।
  • जल को समवर्ती सूची में सम्मिलित करनाः यह सिफारिश मिहिर शाह रिपोर्ट पर आधारित है जिसमें जल प्रबंधन हेतु केंद्रीय जल प्राधिकरण की अनुशंसा की गयी है। यह जल संसाधन पर संसदीय स्थायी समिति के द्वारा भी समर्थित है।
  • अंतरराज्यीय जल से संबंधित मुद्दों के लिए संस्थागत मॉडल- देश में अंतरराज्यीय नदी जल अधिनिर्णयों को लागू करने हेतु संस्थागत मॉडल का अभाव विद्यमान है। इस कारण जलाभाव के वर्षों में जल-बँटवारे की चुनौतियां वर्तमान में भी बनी हुई हैं। अतः एक स्थायी तंत्र की आवश्यकता है जिसके द्वारा न्यायपालिका की सहायता के बिना राज्यों के मध्य उत्पन्न जल विवाद को हल किया जा सके।
  •  संस्थागत तंत्र के अलावा, राज्यों में जल विवाद के मानवीय पहलू के प्रति उत्तरदायित्व की भावना भी जागृत करना आवश्यक है।
  • चार ‘R’ को अपनाना- जल प्रबंधन के लिए 4Rs (रिड्यूस, रियूज, रिसाइकिल, रिकवर) की अवधारणा का प्रयोग करने की आवश्यकता है जो SDGs के लक्ष्य 6 (जल और स्वच्छता तक पहुंच सुनिश्चित करना) को हासिल करने के अनुरूप हो।
  •  राष्ट्रीय जल नीति का पालन करना- इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय जल नीति के तहत जल के उचित उपयोग और जल स्रोतों के संरक्षण हेतु किये गए प्रावधानों का पालन किया जाना चाहिए। बेंगलुरू जैसे शहरों के शहरी जल प्रबंधन में आर्द्रभूमियों का संरक्षण करना शामिल होना चाहिए, जो उचित मलजल उपचार के साथ भूजल की भरपाई करती हैं।
  • अन्य उपाय– जल विवादों का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए और इन्हें क्षेत्रीय गौरव से संबंधित भावनात्मक मुद्दों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, फसल पद्धतियों के वैज्ञानिक प्रबंधन की आवश्यकता है जिससे जल दक्ष फसलों और किस्मों को बढ़ावा देने वाले नीतिगत उपायों को आगे बढ़ाया जा सके।
  • नदियों को जोड़ना- यह बेसिन क्षेत्रों में नदी जल के पर्याप्त वितरण में सहायक हो सकता है।

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