गदर आंदोलन

1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया और बहुत से भारतीय राष्ट्रवादियों को लगा कि ब्रिटेन की कठिनाइयों से लाभ उठाने का यह एक अत्यन्त दुलर्भ अवसर था। उन्हें लगता था कि लड़ाई में व्यस्त ब्रिटेन उनकी राष्ट्रीय चुनौती का समुचित उत्तर नहीं दे पायेगा। यह चुनौती दो विभिन्न प्रकार के राष्ट्रवादियों द्वारा दी गई : उत्तरी अमेरिका में रहने वाले गदर क्रांतिकारियों द्वारा और भारत में तिलक और एनी बिसेंट की होम रूल लीग द्वारा। हम पहले गदर आंदोलन की चर्चा करेंगे।

गदर आंदोलन

आंदोलन की पृष्ठभूमि

गदर क्रांतिकारियों में अधिकतर वे पंजाबी प्रवासी थे जो 1904 के बाद उत्तरी अमरीका के पश्चिमी तट पर जाकर बस गये थे। इनमें अधिकतर कर्ज के बोझ तले दबे, पंजाब के ज़मीन के लिए इच्छुक किसान थे इनमें विशेषकर जालंधर और होशियारपुर इलाके के किसान थे। इनमें से बहुत से ब्रिटिश भारतीय फौज में नौकरी कर चुके थे। इससे उनमें प्रवास के लिए आवश्यक विश्वास पैदा हो गया था और उनके पास उसके लिए पर्याप्त साधन भी थे।

स्थानीय लोगों के विद्वेषपूर्ण रवैये जिसमें गोरे मजदूरों की यूनियनें भी शामिल थीं, प्रतिबंधक प्रवासी नियमों जिनमें भारत सचिव की मिलीभगत शामिल थी, इन सब ने भारतीय समुदाय को अहसास दिला दिया कि यदि उन्हें अपने विरुद्ध नस्लवादी भेदभाव का मुकाबला करना है तो उन्हें स्वयं को संगठित करना होगा। उदाहरण के लिए, एक भारतीय विद्यार्थी तारक नाथ दास जो उत्तरी अमरीका में भारतीय समुदाय के आरंभिक नेताओं में से था और जिसने फ्री हिन्दस्तान नामक अखबार भी शरू किया था, यह अच्छी तरह जान गया था कि ब्रिटिश सरकार भारतीय मज़दूरों को फीजी में तो काम करने को प्रोत्साहित कर रही थी क्योंकि वहाँ के ज़मींदारों को मजदूरों की आवश्यकता थी लेकिन वह उत्तरी अमरीका में भारतीयों के । प्रवास को हतोत्साहित कर रही थी क्योंकि उसे डर था कि वे वहाँ आज़ादी के वर्तमान विचारों से प्रभावित हो जायेंगे।

आरंभिक गतिविधियाँ

प्रवासी भारतीय समुदाय में राजनैतिक गतिविधि की हलचल 1907 में ही शुरू हो गई जब रामनाथ परी नामक एक राजनैतिक प्रवासी ने सर्कलर-ए-आज़ादी नामक पर्चा छापा जिसमें उसने स्वदेशी आंदोलन की सहायता का वचन दिया था। तारक नाथ दास ने फ्री हिन्दुस्तान निकालना शरू किया और जी.डी. कमार ने स्वदेश सेवक नामक पत्र गरुमुखी में निकाला जिसमें उसने सामाजिक सुधारों की हिमायत की और हिन्दुस्तानी सिपाहियों को बगावत करने का सुझाव दिया।

1910 तक दास और कुमार ने सियैटल (अमरीका) में युनाइटेड इंडिया हाउस की स्थापना कर ली जहाँ वे हर हफ्ते हिन्दुस्तानी मज़दूरों के गुटों को भाषण दिया करते थे। उन्होंने खालसा दीवान सोसायटी के साथ भी घनिष्ट संबंध स्थापित किये जिसके फलस्वरूप 1913 में लंदन में कोलोनियल सैक्रेट्री और भारत में वायसराय तथा अन्य अफसरों से मिलने के लिए एक शिष्टमंडल भेजने का फैसला किया गया। एक महीना इंतज़ार करने के बाद भी वे कोलोनियल सैक्रेट्री से मिलने में सफल नहीं हो सके लेकिन पंजाब में वे लेफ़्टीनेंट गवर्नर और वायसराय से मिलने में सफल हो गये। पंजाब में उनकी यात्रा के दौरान पंजाब के विभिन्न शहरों में बहुत-सी जन-सभायें आयोजित की गईं। जनता तथा अखबारों से बहुत सहायता मिली।

इसी बीच 1913 के शुरू में हाँगकाँग में मलाया प्रदेशों में काम करने वाले एक सिक्ख पुजारी भगवान सिंह कनाडा में बैंकूवर शहर गये और खुलेआम ब्रिटिश शासन के खिलाफ हिंसक बगावत करने का प्रचार किया। उनके प्रचार का इतना प्रभाव पड़ा कि उन्हें तीन महीने बाद कनाडा से निकल जाने को कहा गया लेकिन उनके विचारों ने श्रोताओं में नयी चेतना जगा दी थी।

संगठन की ओर

ब्रिटिश भारतीय सरकार के रवैये से हताश होकर, उत्तरी अमरीका के भारतीय समुदाय को लगा कि विदेशों में उनकी घटिया स्थिति का कारण उनका एक गुलाम देश का नागरिक होना है। लगातार राजनैतिक संघर्षों, राष्ट्रीय चेतना और भाईचारे की भावना के फलस्वरूप उत्तरी अमरीका के इस समुदाय को एक केंद्रीय संगठन एवं नेता की आवश्यकता महसूस हई।

यह नेता उन्हें लाला हरदयाल के रूप में मिला। जो 1911 में राजनैतिक प्रवासी के रूप में अमरीका आये थे और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में तथा अमरीकी बुद्धिजीवियों, उग्रवादियों तथा मज़दरों को अराजकतावादी तथा श्रमिकसंघवादी आंदोलनों के बारे में भाषण दिया करते थे लेकिन जिन्होंने भारतीय प्रवासियों के जीवन में अधिक रुचि नहीं दिखाई थी। दिसम्बर 1912 में दिल्ली में वाइसराय पर बम द्वारा हमले की खबर से उनके व्यवहार में परिवर्तन आया क्योंकि उन्हें लगा कि क्रांतिकारी भावना अभी जीवित थी।

उन्होंने भारतीय प्रवासी समुदाय का नेतृत्व संभाल लिया तथा मई 1913 में पोर्टलैंड में हिन्दी एसोसियेशन की स्थापना से एक केंद्रीय संगठन की आवश्यकता भी पूरी हो गई। बाद में इस संगठन का नाम बदल कर हिन्दुस्तान गदर पार्टी रख दिया गया। इसकी पहली मीटिंग में बाबा सोहन सिंह भाकना इसके अध्यक्ष चुने गये और लाला हरदयाल जरनल सेक्रेटरी तथा पंडित काशी राम मरोली इसके कोषाध्यक्ष बने। इस मीटिंग में अन्य लोगों के अलावा भाई परमानन्द तथा हरनाम सिंह “टुंडीलाट” ने भी भाग लिया था। 10,000 डालर की रकम भी वहीं जमा कर ली गई और फैसला किया गया कि सैन फ्रांसिस्कों में युगान्तर आश्रम नाम से एक मुख्यालय की स्थापना की जायेगी और गदर नामक एक साप्ताहिक अखबार निकाला जायेगा जो मुफ्त बाँटा जायेगा।

योजना एवं कार्यवाही

राजनैतिक कार्यवाही की योजना लाला हरदयाल द्वारा सुझाई गई थी और इसे हिन्दी . ऐसोसियेशन ने स्वीकार किया था, यह योजना इस समझ पर आधारित थी कि ब्रिटिश शासन को केवल हथियारबंद विद्रोह द्वारा ही उखाड़ फेंका जा सकता था और ऐसा करने के लिए आवश्यक था कि बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी भारत जायें और यह संदेश जनता तथा हिन्दुस्तानी फौज के सिपाहियों तक पहुँचायें। लाला हरदयाल यह भी मानते थे कि अमरीका में मिली आज़ादी को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, अमरीकियों के विरुद्ध नहीं क्योंकि विदेश में रहने वाले हिन्दुस्तानियों को तब तक बराबरी का दर्जा नहीं मिल सकता था जब तक कि वे अपने ही देश में स्वतंत्र नहीं हो जाते।

इस समझ को स्वीकार करते हुए राष्ट्रवादियों ने एक जबर्दस्त अभियान छेड़ दिया और जिन फैक्ट्रियों और फार्मों पर हिन्दुस्तानी प्रवासी काम करते थे उनका दौरा करने लगे।

अखबार की शुरुआत और उसका प्रभाव

पहली नवम्बर 1913 को गदर अखबार की शुरुआत की गई; पहला अंक उर्दू में छपा लेकिन एक महीने बाद उसका गुरुमुखी अंक भी आ गया। गदर अखबार की रूपरेखा राष्ट्रवाद के संदेश को सीधे-सादे लेकिन प्रभावशाली शब्दों में व्यक्त करने के हिसाब से तैयार की गई थी। उसके नाम का ही अर्थ था विद्रोह ताकि उसकी मंशा के बारे में किसी प्रकार का संदेह न रहे। उसके ऊपर “अंग्रेजी राज का दुश्मन” छपा हुआ था। इसके अलावा, हरं अंक के मुखपृष्ठ पर “अंग्रेजी राज का कच्चा चिट्ठा’ छपता था जिसमें अंग्रेज़ी शासन के 14नकारात्मक प्रभावों का विवरण रहता था। चिट्ठा वास्तव में अंग्रेज़ी शासन की समस्त आलोचना का सारांश था जिसमें भारतीय संपत्ति की लूट, ज़मीन के ऊँचे लगान, प्रति व्यक्ति ।

निम्न आय, लाखों भारतीयों की जान लेने वाले अकाल का बार-बार पड़ना, फौज पर लम्बे-चौड़े खर्च, स्वास्थ्य पर नगण्य खर्च तथा हिन्द-मसलमानों को लड़वा कर “विभाजन और शासन” की नीति आदि का ज़िक्र रहता था। चिट्ठे की आखिरी दो बातें इस सबके ममाधान की ओर यह कह कर संकेत करती थीं कि करोड़ों भारतीयों के मुकाबले में हिन्दस्तान में मौजद अंग्रेजों की संख्या बहत ही कम थी और 1857 के पहले विद्रोह के बाद छप्पन वर्ष बीत गये थे और एक अन्य विद्रोह के लिए समय आ गया था।

गदर जिसका प्रसार उत्तरी अमरीका के भारतीय प्रवासियों में खूब था, जल्दी ही फिलिपाइन्स, हाँग-काँग, चीन, मालाया प्रदेशों, सिंगापुर, त्रिनिदाद तथा होंडूरस के प्रवासियों तक भी पहँचने लगा और इन केंद्रों में मौजूद हिन्दस्तानी सेनाओं में भी। इसे भारत भी भेजा जाता था। इसने प्रवासी समदायों में जबर्दस्त चेतना पैदा की तथा इसे पढ़ने और इसमें उठाये गये मुद्दों पर बहस के लिए कई वर्ग बनाये गये और चन्दे के ढेर लग गये। सबसे अधिक लोकप्रिय थीं इसमें छपने वाली कवितायें जिन्हें जल्दी ही गदर की गूंज नाम से संकलित किया गया। इन्हें भारतीयों के सम्मेलन में पढ़ा और गाया जाता था। इन कविताओं में क्रांतिकारी भावना तथा धर्मनिरपेक्षता का भाव भरा था जैसा कि नीचे की पंक्तियों से स्पष्ट है:

न पंडित की जरूरत है न मुल्ला की, न फ़रियाद, न प्रार्थना गीत गाना है इनसे डोलती है, नैया हमारी उठाओ तलवार लड़ने जाना है।

गदर” ने पंजाबियों से अपील की कि वे 1857 के अपने अंग्रेज़ों की हिमायत की भूमिका का उधार अब उन्हें उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करके चुका दें। वे अंग्रेजों द्वारा बनाई गई वफादार सिपाहियों की अपनी छवि का भी खंडन करें और सिर्फ विद्रोही बनें। जिनका एकमात्र उद्देश्य स्वतंत्रा प्राप्त करना था। गदर का संदेश इतनी तेजी से घर कर गया कि स्वयं हरदयाल उन लोगों की तीव्र प्रतिक्रिया से चकित रह गये जो कुछ करने के लिए बेचैन थे।

गदर आंदोलन : मुख्य घटनायें

1914 में घटी तीन मुख्य घटनाओं ने गदर आंदोलन की आगे की दिशा निर्धारित की, लाला हरदयाल की गिरफ्तारी, ज़मानत और स्विट्ज़रलैंड भाग जाना, कामागाटा मारू जहाज़ की यात्रा और प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआतः

  • मार्च 1914 में हरदयाल को गिरफ्तार कर लिया गया। संभवतः इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण था ब्रिटिश सरकार का दबाव जो चाहती थी कि वे गदर आंदोलन के नेतृत्व से हट जायें लेकिन जो कारण बताया गया वह था, उनकी अराजकतावादी गतिविधियाँ। उन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया और उनकी पार्टी ने फैसला किया कि वह ज़मानत से भाग कर स्विट्ज़रलैंड चले जायें।
  • इस बीच, कनाडा के प्रवास कानूनों का उल्लंघन करने के लिए, जिनके अनुसार “सीधे अपने जहाज़ पर आने वालों” के सिवा सभी अन्य के आने पर प्रतिबंध था, सिंगापुर में रह रहे एक हिन्दुस्तानी कांट्रेक्टर गुरदित्त सिंह ने कामागाटा मारू नामक जहाज

क्रांतिकारी आंदोलन : गदर पार्टी तथा होम रूल लीग

किराये पर लिया और पूर्वी तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों में रहने वाले 376 भारतीय यात्रियों को लेकर बैंकूवर के लिए रवाना हो गया। रास्ते में गदर पार्टी के कार्यकर्ता जहाज़ पर आते, भाषण देते तथा साहित्य बाँटते। उनके प्रवास की पूर्व सूचना मिलने पर बैंकूवर के प्रैस ने “बढ़ते हुए पूर्व के आक्रमण’ की चेतावनी दे दी और अपने कानूनों को और कड़ा करके कनाडा की सरकार इस चुनौती का सामना करने को तैयार हो गई।

कनाडा पहुँचने पर, जहाज़ को बंदरगाह में जाने नहीं दिया गया तथा पुलिस ने उसकी घेराबंदी कर दी। बैंकूवर में “समुद्रतट समिति” जिसके नेता हुसैन रहीम, सोहन लाल पाठक और बलवन्तसिंह थे, के प्रयत्नों के बावजूद तथा अमरीका में बर्कातुल्ला, भगवान सिंह, रामचंद्र और सोहन सिंह भकना के शक्तिशाली अभियान के बावजद, कामागाटा मारू को कनाडा की जल सीमा के बाहर निकाल दिया गया। उसके जापान पहँचने से पहले प्रथम विश्व यद्ध छिड़ गया तथा ब्रिटिश सरकार ने ऐलान कर दिया कि जहाज़ के कलकत्ता पहुँचने से पहले किसी यात्री को उतरने नहीं दिया जायेगा।

वापसी की यात्रा में जिस बन्दरगाह पर भी यह जहाज पहँचा वहाँ भारतीय प्रवासियों में रोष की लहर दौड़ गई और ब्रिटिश विरोधी भावना बढ़ने लगी। जब जहाज़ कलकत्ता के पास ब्रज-बज नामक स्थान पर पहुँचा तो पुलिस के द्वेषपूर्ण रवैये के कारण संघर्ष हआ। इस संघर्ष में 18 यात्रियों की मत्य हो गई. 202 को गिरफ्तार कर लिया गया तथा बाकी भाग निकलने में सफल हो गये।

  • तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण घटना जिसने सारी परिस्थिति में एक नाटकीय परिवर्तन ला दिया वह थी तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत। यही वह अवसर था जिसके इंतज़ार में गदरवादी तैयार बैठे थे ताकि अंग्रेजों की कठिनाइयों का परा लाभ उठाया जा सके। यह अवसर उनकी आशाओं से पहले ही आ गया। अभी उनकी तैयारी भी परी नहीं हई थी। फिर भी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ताओं की विशेष सभा हई और यह फैसला किया गया कि काम का समय आ गया था। यह विचार किया गया कि दल की सबसे बड़ी कमजोरी हथियारों की कमी थी जिसे हिन्दुस्तानी सिपाहियों को विद्रोह के लिए उकसा कर पूरा किया जा सकता था।

गदर पार्टी ने एक पत्र ऐलाने-जंग (युद्ध की घोषणा) जारी कर दिया जिसे विदेशों में रहने वाले भारतीयों में बाँटा गया। गदर के कार्यकर्ताओं ने लोगों में प्रोत्साहन जगाने के लिए यात्राएँ भी आरंभ कर दी कि वे हिन्दुस्तान लौट कर संगठित विद्रोह की तैयारी करें। परिणाम बहत ही उत्साहवर्धक था और भारी । संख्या में लोगों ने स्वयं को और अपनी सारी सम्पत्ति को राष्ट्र के नाम समर्पित करने की पेशकश की। इससे उत्साहित होकर गदर पार्टी ने हिन्दुस्तान चलने का आह्वान किया तथा 1914के पूर्वार्ध से क्रांतिकारियों के जत्थे विभिन्न रास्तों से होकर हिन्दुस्तान पहुँचने लगे।

आंदोलन का आखिरी दौर

हिन्दुस्तान में प्रवेशाधिकार घुसपैठ के विरुद्ध एक नये अध्यादेश से युक्त होकर हिन्दुस्तानी सरकार ताक लगाये बैठी थी। लौटने वाले प्रवासियों की पूरी तरह जाँच-पड़ताल की गई और लौटने वाले लगभग 8000 में से 5000 को “सुरक्षित” मान कर बिना रोक-टोक के आने दिया गया। शेष में से कुछ को गाँवों में नज़रबंद कर दिया गया और काफी लोगों को हिरासत में ले लिया गया। फिर भी कुछ कट्टर कार्यकर्ता पंजाब पहुँचने में सफल हो गये।

पंजाब में सुरक्षित पहुँचने वालों में करतार सिंह सरापा नाम का एक नौजवान तथा बुद्धिमान विद्यार्थी भी था जिसने गदर पार्टी की सदस्यता अमरीका में प्राप्त की थी और जो गदर अखबार के निकालने में प्रमुख योगदान देता था। उसने तुरंत लौटने वाले प्रवासियों से सम्पर्क स्थापित करने, उन्हें संगठित करने का काम शुरू कर दिया। वह सभाएँ करने लगा तथा योजना बनाने के काम में जट गया। गदर कार्यकर्ता गाँवों के दौरे करके. पार्टी के पर्चे बाँट कर, मेलों में लोगों को संबोधित करके और अन्य कई प्रयत्नों द्वारा लोगों को विद्रोह के लिये प्रेरित करने लगे। लेकिन 1914 का पंजाब उनकी आशाओं से भिन्न था और लोग गदर द्वारा काल्पनिक विद्रोह के लिए तैयार नहीं थे। कार्यकर्ताओं को सरकार के वफ़ादार तत्वों के विरोध का भी सामना करना पड़ा जिसमें खालसा दीवान का प्रमुख भी शामिल था जिसने उन्हें तनखैया या पतित सिखों और अपराधी का दर्जा देकर सरकार द्वारा उन्हें दबाने के प्रयत्नों में पूरा सहयोग दिया।

आम जनता में लोकप्रियता के अभाव से निराश होकर गदर क्रांतिकारियों ने दूसरा प्रयास सिपाहियों में अपना संदेश फैला कर उन्हें विद्रोह के लिये तैयार करने का किया। नवम्बर 1914के विद्रोह का प्रयत्न संगठन तथा केंद्रीय नेतृत्व के अभाव के कारण असफल हो गया। फरवरी 1915 में रास बिहारी बोस से सम्पर्क और उन्हें नेतृत्व तथा संगठन सौंप देने के बाद. एक अधिक संगठित प्रयत्न किया गया लेकिन यह भी असफल रहा क्योंकि सरकार संगठन में घुस-पैठ करके इससे पहले ही कार्रवाई कर ली थी। बोस बच निकलने में सफल हो गये लेकिन अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और गदर आंदोलन को प्रभावशाली ढंग से दबा दिया गया।

दमन

इसके बाद दमन का जो दौर चला वह बहुत ही भयानक था : 42 लोगों को फाँसी की सज़ा सुनाई गई और अन्य को लंबी अवधि का कारावास दिया गया। इसके फलस्वरूप पंजाब में राष्ट्रवादी नेतृत्व की एक पूरी पीढ़ी की राजनैतिक हत्या कर दी गई। बर्लिन में रह रहे हिन्दस्तानी क्रांतिकारियों द्वारा जर्मन सहायता प्राप्त करने और विदेशों में भेजे गये हिन्दुस्तानी सिपाहियों में विद्रोह कराने के प्रयत्न भी असफल हुए। राजा महेन्द्र प्रताप और बर्कातुल्लाह द्वारा अफगानिस्तान के अमीर की मदद प्राप्त करने के प्रयत्नों में भी असफलता हाथ आई। इस प्रकार हिसक विद्रोह द्वारा अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने में सफलता शायद इन क्रांतिकारियों के भाग्य में लिखी ही नहीं थी।

उपलब्धियाँ एवं असफलताएँ

क्या इस कारण हम गदर आंदोलन को असफल मान सकते हैं? क्या हम कह सकते हैं कि हथियारबंद क्रांति संगठित करने और अंग्रेजों को बाहर निकाल फेंकने के अपने उद्देश्य में तुरंत सफल न होने के कारण उनके प्रयत्न पूरी तरह विफल हए? इस मापदण्ड से तो 1920-22, 1930-34 तथा 1942 के सभी बड़े आंदोलन असफल माने जायेंगे क्योंकि इनमें से कोई भी तुरंत स्वतंत्रता प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ। लेकिन अगर सफलता का मापदण्ड राष्ट्रीय भावनाओं को आगे बढ़ाना, मुकाबला करने की नई परंपरायें बनाना, आंदोलन के नये तरीके ढूँढना तथा धर्म-निरपेक्षता, जनतंत्र तथा सत्रता की विचारधारा का प्रसार करना था तो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गदर आंदोलन की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जायेगी।

उपलब्धियाँ : गदर पार्टी के लोग राष्ट्रीय विचारधारा को लोकप्रिय बनाने में सफल हुए विशेषकर उपनिवेशवाद के मल्यांकन करने तथा इस समझ का प्रसार करने में कि हिन्दस्तान की गरीबी और पिछड़ेपन का मुख्य कारण अंग्रेज़ी शासन था। यह प्रसार उन्होंने देश तथा विदेश में रहने वाले भारतीयों में किया। उन्होंने अत्यधिक उत्साही राष्ट्रवादियों का एक दल तैयार किया जो बाद में कई दशकों तक राष्ट्रीय आंदोलन तथा बाद में पंजाब और देश के अन्य भागों में वामपन्थी तथा किसान आंदोलन तैयार करने में प्रमख भूमिका अदा की। यद्यपि दमन के फलस्वरूप उनमें से कई लोग स्थायी तौर पर और अन्य लोग कई वर्षों तक आंदोलन से अलग रहे।

गदर विचारधारा मूलतः अत्यंत समतावादी तथा जनतंत्रवादी थी। उनका उद्देश्य था हिन्दुस्तान में एक स्वतंत्र गणतंत्र की स्थापना करना। हरदयाल ने जो प्रारंभिक अवस्था में अराजकतावादी तथा श्रमिकसंघवादी आंदोलनों से प्रभावित हुए थे, इस आंदोलन को एक समतावादी स्वरूप प्रदान किया। वे अक्सर आयरिश, मैक्सिकन तथा रूसी क्रांतिकारियों का ज़िक्र किया करते थे जिसके कारण इस आंदोलन को अंधे राष्ट्रवाद से भी बचा सकें और उसे एक अन्तर्राष्ट्रीय रूप भी दे सकें।

लेकिन गदर आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि उसके अधिकतर अनुयायी पंजाबी सिक्ख प्रवासियों में से होने के बावजूद उन्होंने कभी भी फिरकापरस्ती का इज़हार नहीं किया बल्कि वे अपने दृष्टिकोण में पूरी तरह धर्म-निरपेक्ष बने रहे। धर्म को महत्व देने को तुच्छ और संकीर्णता समझा जाता था जिसे क्रांतिकारी निन्दनीय समझते थे। वे खुले दिल से सिक्खों और पंजाबियों के सिवा दूसरों को भी नेता स्वीकार करते थे : हरदयाल हिन्दू थे, बर्कातल्लाह मसलमान थे, रास बिहारी बोस बंगाली हिन्दु थे। वे समस्त भारत के नेताओं का सम्मान करते थे-तिलक, सावरकर, खुदीराम बोस, तथा अरविन्द घोष उनके हीरो थे।

वे यह भी समझते थे कि सिक्खों को “लड़ाकू कौम” घोषित करने में उपनिवेशवादी शासन का हाथ था ताकि वे वफादार सिपाही बने रहें। गदर दल ने इस मिथ्या छवि को भंग करने का भरसक प्रयत्न किया। उन्होंने बन्दे मातरम को आंदोलन के नारे के रूप में लोकप्रिय बनाया और सत श्री अकाल जैसे धार्मिक नारे को नहीं अपनाया। सोहन सिंह माखना, जो बाद में गदरी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए और सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय एवं वामपंथी नेता बने, के अनुसार “हम सिक्ख या पंजाबी नहीं थे देशप्रेम ही हमारा धर्म था।”

कमज़ोरियाँ : गदर आंदोलन की अपनी कमजोरियाँ भी थीं जिनमें मुख्य थी आंदोलन के लिए तैयारी के स्तर को अधिक महत्व देना। कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी सेना की परिस्थितियों को पूरी तरह समझे बिना ही लड़ाई का बिगुल बजा दिया। प्रतिदिन नस्लवादी अपमान, अपरिचित परिस्थितियों में रहने के कारण आई विमखता की भावना आदि के । शिकार भारतीय प्रवासियों में राष्ट्रीय चेतना जगाने के उनके अभियान का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा क्योंकि उनकी संख्या कम होने के कारण उन्हें संगठित करना बहुत आसान था और इसी से वे भ्रमित हो गये कि सारे भारत की जनता भी इस प्रकार तैयार थी।

उन्होने ब्रिटिश शासकों की ताकत, उनकी विचारधारा के प्रभाव का भी गलत अन्दाज़ लगाया और समझा के हिन्दस्तान की जनता को सिर्फ विद्रोह का नारा देने की जरूरत थी। इस महत्वपर्ण कमजोरी की जो कीमत गदर आंदोलन और समूचे राष्ट्रीय आंदोलन को चुकानी पड़ी वह काफी अधिक थी क्योंकि अगर गदर आंदोलन के नेतृत्व के एक बड़े भाग को शासन द्वारा कार्यक्षेत्र से अलग न किया जाता तो राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप, विशेषकर पंजाब में, कुछ और ही होता क्योंकि अपनी राष्ट्रवादी एवं धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के कारण गदर दल ने उन फिरकापरस्त भावनाओं को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होती जिन्होंने आने वाले वर्षों में अपना सिर उठाया।

सरकार ने दमनचक्र से इन आंदोलनों को दबा दिया। लेकिन फिर भी ये आंदोलन ब्रिटिश विरोधी चेतना जगाने तथा उसे । बढ़ावा देने में सफल हुए। लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी जनता से अलगाव था।

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