राजकोषीय संघवाद (Fiscal Federalism)

केंद्र-राज्य राजकोषीय संबंधों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  •  अनुच्छेद 246: कराधान शक्तियों का विभाजन (अब GST के तहत संशोधित)।
  •  अनुच्छेद 268: (संघ द्वारा उदगृहीत, किन्तु राज्यों द्वारा संगृहीत और विनियोजित किए जाने वाले शुल्क)
    अनुच्छेद 269: (वस्तुओं के विक्रय पर कर और वस्तुओं के परेषण पर कर)।
  • अनुच्छेद 271: अधिभार से संबंधित। अनुच्छेद 275 (1) और
  • अनुच्छेद 282: राज्यों को अनुदान।
  • अनुच्छेद 280: वित्त आयोग के गठन का अधिदेश।
    अनुच्छेद 292 और 293: क्रमशः संघ और राज्यों द्वारा उधार लेने की शक्तियों की परिभाषा।

राजकोषीय संघवाद का महत्व

  • राजकोषीय संघवाद सरकार के विभिन्न स्तरों, अर्थात् केंद्र, राज्यों और स्थानीय निकायों के मध्य कराधान और सार्वजनिक व्यय के  संबंध में उत्तरदायित्वों का विभाजन करता है। वित्तीय स्वतंत्रता और पर्याप्तता सरकार के संघीय स्वरूप के सफल संचालन का आधार होती है।
  • यह सरकारी संगठनों को सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करने में बड़े पैमाने की लागत दक्षता प्राप्त करने में सहायता करता है। सार्वजनिक सेवाओं की पूर्ति जन सामान्य की प्राथमिकताओं से सर्वाधिक निकटता से सम्बंधित होती है।
  •  यह एक एकीकृत साझा बाजार का सृजन करता है। जो वृहद आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देता है।
  •  वित्त आयोग के गठन का उल्लेख संविधान (अनुच्छेद 280) में केंद्र और राज्यों के साथ-साथ राज्यों के मध्य राजकोषीय असंतुलन से निपटने के लिए उत्तरदायी एक प्रमुख संस्था के रूप में किया गया है।

भारत में वित्त आयोग और संघवाद 

  • संविधान में वित्त आयोग का उल्लेख भारत में राजकोषीय संघवाद के संतुलक के रूप में किया गया है।
  • भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था में उप-राष्ट्रीय सरकारों के बढ़ते महत्व के कारण राज्यों को अधिक संसाधन प्रदान करके प्रत्येक अनुवर्ती वित्त आयोग को राजनीतिक संतुलन का कार्य करना पड़ता है।
  • यह सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है कि रक्षा जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सार्वजनिक विषयों की जिम्मेदारी रखने वाला केंद्र भी वित्तीय रूप से विवशता का अनुभव न करे।
  • उत्तरोत्तर वित्त आयोगों ने कर राजस्व में राज्यों के अनुपात में वृद्धि की है। यह प्रत्यक्ष करों के बढ़ते महत्व के साथ-साथ स्थानीय सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में राज्य सरकारों के व्यय में वृद्धि को देखते हुए एक आवश्यक परिवर्तन है।
  • के.सी. नियोगी के नेतृत्व में गठित प्रथम वित्त आयोग ने अनुशंसा की थी कि राज्यों को केंद्र द्वारा संगृहीत कुल करों का दसवां हिस्सा प्रदान किया जाएगा। वह हिस्सा निरंतर बढ़ रहा है। वाई वी रेड्डी की अध्यक्षता में गठित 14 वें वित्त आयोग ने अनुशंसा की है कि राज्यों का हिस्सा 42% होना चाहिए।
  •  संघवाद का विकास केवल तभी संभव है जब इसे एक सशक्त केंद्रीय एजेंसी का साथ मिले, जो राजनीतिक अर्थव्यवस्था के एक नए संतुलन के लिए नियमों को विश्वसनीय रूप से लागू करती हो।

वित्त आयोग के बारे में

  •  संविधान का अनुच्छेद 280 एक अर्द्ध न्यायिक निकाय के रूप में वित्त आयोग का प्रावधान करता है।
  • इसमें एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्य शामिल होते हैं, जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक 5 वर्ष में या यदि वह आवश्यक समझे तो इससे पूर्व की जाती है।

वित्त आयोग निम्नलिखित विषयों पर राष्ट्रपति को अनुशंसा करता है

  •  संघ एवं राज्यों के मध्य करों के शुद्ध आगमों का वितरण और राज्यों के बीच ऐसे आगमों से संबंधित अंशों का आवंटन।
  • केंद्र द्वारा राज्यों के राजस्व में सहायता अनुदान (भारत की संचित निधि में से) को शासित करने वाले सिद्धांत।
  • राज्य वित्त आयोग द्वारा की गई अनुशंसाओं के आधार पर स्थानीय शासन के संसाधनों की अनुपूर्ति के लिए राज्य की संचित निधि के संवर्धन हेतु उपाय।
  •  राष्ट्रपति द्वारा इसे निर्दिष्ट कोई अन्य विषय।
  • वित्त आयोग की अनुशंसाएं केवल सलाहकारी प्रकृति की होती हैं।
  • संविधान वित्त आयोग को केंद्र और राज्यों के बीच करों के ऊर्ध्वाधर विभाजन और राज्यों के बीच करों के क्षैतिज विभाजन के मूल कार्यक्षेत्र से परे जाने की शक्ति भी प्रदान करता है।
  •  संविधान वित्त आयोग को सुदृढ़ वित्तीय स्थिति के हित में व्यापक अनुशंसा करने की शक्ति भी प्रदान करता है।

भारत में राजकोषीय संघवाद से संबंधित मुद्दे

भारत में राज्यों में उनके वित्तीय उत्तरदायित्वों की पूर्ति हेतु पर्याप्त वित्तीय शक्तियां निहित नहीं हैं (अधिकतम व्यय उत्तरदायित्व के साथ सीमित कर आधार), जो निम्नलिखित का कारण बनती हैं :

 ऊध्र्वाधर राजकोषीय असंतुलन:

केंद्र और राज्यों के व्यय और राजस्व के विभिन्न घटकों में निरंतर असमानता बनी हुई है। राजस्व व्यय या मूलभूत आवश्यकता के 55.6% (औसत) भाग की तुलना में राज्य की राजस्व क्षमता की भागीदारी 37.5% (औसत) अनुमानित की गयी है।

क्षैतिज राजकोषीय असंतुलन:

समय के साथ राज्यों की राजकोषीय स्थिति में गिरावट आई है और अपनी राजस्व आवश्यकताओं को पूरा करने के संदर्भ में भी राज्यों के मध्य अत्यधिक असमानता विद्यमान है। यह अंतर 37.6% (बिहार) और 82.6% (हरियाणा) जितने विशाल दायरे के बीच हो सकता है।

उदारीकरण के पश्चात् असंतुलन:

अवसंरचना के विकास के लिए राज्यों के मध्य असमान क्षमता के कारण बाजार आधारित सुधार अधिक असमानता उत्पन्न करते हैं। सुधार के बाद की अवधि में निर्धन राज्यों के समक्ष प्रमुख चुनौती विदेशी पूंजीगत निवेश को आकर्षित करने के लिए प्रतिस्पर्धी अवसंरचना निवेश का अनुसरण करना हो गयी है।

राज्यों का वित्तीय ह्रास:

राज्यों का प्रति व्यक्ति राजस्व घाटा, राजकोषीय घाटा और प्राथमिक घाटा क्रमश: 27.05%, 11.53% और 61.85% की दर पर बढ़ रहा है, जो राज्यों के वित्तीय ह्रास का संकेत है। यह निम्नलिखित के माध्यम से प्रतिबिंबित होता है।

  •  राज्यों पर ऋण का बोझ बढ़ना
  •  सामाजिक और आर्थिक सेवा में विस्तार के लिए अवसरों का अभाव
  •  पूंजी निवेश के लिए अवसर की कमी
  •  राजस्व हस्तांतरण की प्रक्रिया अप्रभावी होना

अन्य मुद्दे

  • राज्यों की राजकोषीय स्वायत्तता की रक्षा के लिए संविधान में अभिकल्पित संस्थानों ने ऊर्ध्वाधर असंतुलन को सुधारने में सहायता नहीं की है।
  • भारतीय संविधान में पहले से शामिल एकात्मक तत्वों ने केंद्र में राजकोषीय शक्तियों के संकेन्द्रण और केंद्र द्वारा उनके हस्तांतरण पर राज्यों की निर्भरता के कारण समय के साथ अधिक सुदृढ़ता प्राप्त की है।
  • वित्त आयोग के विचारार्थ विषय केंद्र सरकार द्वारा एकपक्षीय रूप से निर्धारित किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न मुद्दे उठाए जाते रहे हैं।

15वें वित्त आयोग के विचारार्थ विषयों से संबंधित मुद्दे 

  • केन्द्रीय कर राजस्व के आवंटन हेतु जनसंख्या की गणना के लिए 1971 की जनगणना के स्थान पर 2011 की जनगणना आंकड़ों का उपयोग करना। यह उन राज्यों को दंडित करने के समान प्रतीत होता है जिन्होंने परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित किया है।
  • बढ़े हुए कर हस्तांतरण पर पुनः विचार: ToR के अनुसार “14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार राज्यों को उल्लेखनीय रूप बढ़े हुए कर हस्तांतरण का केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति पर प्रभाव” राजस्व साझा करने के सन्दर्भ में केंद्र सरकार की असहजता को प्रदर्शित करता है।
  • लोकप्रिय उपायों पर व्यय में कमी या नियंत्रण: यह ToR सहकारी संघवाद की भावना के विरुद्ध जाता हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि यह राज्यों द्वारा व्यय हेतु चुने गए विकल्पों पर प्रश्नचिह्न लगाता है।
  • ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के प्रोत्साहन हेतु विकल्पों की खोज: इस सूचकांक में कई समस्याएं हैं विशेषकर, यह हमेशा अधिक विनियमों के बजाय कम विनियमों को बेहतर स्कोर प्रदान करता है। यह अच्छे या बुरे सभी विनियमों को समाप्त करने के लिए राज्यों के बीच स्पर्धा को बढ़ावा दे सकता है, जो कि भारत के समग्र हित में नहीं है।
  • राजस्व घाटा अनुदान का प्रावधान: इसे विभिन्न राज्यों के सभी नागरिकों को तुलनीय सार्वजनिक सेवाएं और कराधान व्यवस्था प्रदान करने के लिए अधिनियमित किया गया था। ToR आयोग को यह परीक्षण करने की अनुमति देता है कि सभी को राजस्व घाटा अनुदान प्रदान किया जाए या नहीं।
  • राज्यों द्वारा उधार को कम करना: ToR राज्यों के उधार को सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) के मौजूदा 3% से कम करके 1.7% करना चाहता है। यह राज्यों के पूंजीगत व्यय को अत्यंत कम कर देगा।

आगे की राह

  • केंद्र को वास्तविक संघीय स्वरूप में अपने समन्वयकारी, सुधारात्मक और नेतृत्व संबंधी कार्यों का निर्वहन करना होगा।
  • राज्यों को उत्तरदायित्व के साथ-साथ अधिकारों में भी उचित हिस्सा मिलना चाहिए।
  • सम्प्रेषण और समाशोधन की एक सतत प्रणाली उपलब्ध होनी चाहिए।
  • 14वें वित्त आयोग ने सुझाव दिया था कि केंद्र से राज्यों को वित्त आयोग की सिफारिशों के बाहर का कोई भी हस्तांतरण, एक नई संस्थागत व्यवस्था (आदर्श रूप से अंतर्राज्यीय परिषद के तत्वावधान में) के माध्यम से होना चाहिए। इस व्यवस्था में केंद्र, राज्य और क्षेत्र विशेषज्ञों को सम्मिलित होना चाहिए।
  • FRBM मानदंडों के प्रवर्तन को और अधिक कठोर बनाया जाना चाहिए।
  •  ToR को संघ द्वारा टॉप-डाउन प्रक्रिया के बजाय एक संयुक्त प्रक्रिया बनाया जा सकता है।

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