नीतिशास्त्र (Ethics) : मानक, आयाम, औचित्य और प्रासंगिकता

What is Ethics? नीतिशास्त्र मूलतः एक ‘‘विज्ञान है परन्तु यह जानने से पहले कि यह किस प्रकार का विज्ञान है। यह जानना जरूरी होगा कि विज्ञान कितने प्रकार के होते हैं? और साथ ही साथ विज्ञान का मुख्य कार्य क्या होता है?

वह विषय या अध्ययन की वह विद्या जिसमें हम किसी क्षेत्र या विषय का, समस्या का निष्पक्ष निरीक्षण, परीक्षण और वर्णन करते हैं। उसे ‘‘विज्ञान” के नाम से जाना जाता है। चूंकि विषय या समस्याएँ अलग-अलग हैं इसलिए इनका अध्ययन करने वाले विज्ञान भी अलग हैं। उदाहरण के लिए हमारा ये भौतिक जगत कैसे बना? यह कैसे कार्य करता है? इसकी व्याख्या किन मूलभूत नियमों से की जाती है। भौतिक जगत् का ऐसा विश्लेषण और वर्णन करने वाला विषय भौतिक विज्ञान कहलाता है। इसी प्रकार प्राणियों का अध्ययन करने वाला विज्ञान जीव विज्ञान, वनस्पतियों का अध्ययन करने वाला वनस्पति विज्ञान ।।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि विज्ञान का एक आशय वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष वर्णन करने वाले विषय या विधि से लिया जाता है। परन्तु सभी विज्ञान इसी उपर्युक्त अर्थ में विज्ञान नहीं हैं। अपितु एक दूसरे अर्थ में भी विज्ञान शब्द का प्रयोग होता है। इस दूसरे अर्थ में विज्ञान का आशय उस विषय से लिया जाता है जिसका प्रमुख कार्य मानक बनाना और उन मानकों के आधर पर किसी विषय परिस्थिति या व्यक्ति को मूल्यांकन करना होता है। 

 इन प्रतिमानों के आधर पर किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करना कि वह सुन्दर है या नहीं। ऐसा कार्य करने वाला विषय उपर्युक्त दूसरे अर्थ में ही सौन्दर्य विज्ञान के नाम से जाना जाता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि विज्ञान मूलत: ‘दो प्रकार के हैं – एक वे जो विवरण देते हैं, वर्णन करते हैं तथा दूसरे वे जो मानक बनाते हैं और मूल्यांकन करते हैं। उनमें से पहले को वर्णनात्मक विज्ञान (Descriptive Science) तथा दूसरे को मानकीय विज्ञान (Normative Science) के नाम से जाना जाता है। नीतिशास्त्र (Ethics) किस प्रकार का विज्ञान है?

नीतिशास्त्र मानकीय विज्ञान है, जिसका प्रमुख कार्य मानक बनाना और मूल्यांकन करना है। ऐसे में सहज ही ये प्रश्न उठता है कि नीतिशास्त्र कौन से मानक बनाता है? और किसका मूल्यांकन करता है। इस प्रश्न के उत्तर से ही नीतिशास्त्र का स्वरूप स्पष्ट हो जाएगा। नीतिशास्त्र मानव के व्यक्तित्व और चरित्र का मानक बनाता है और इन मानकों के आधार पर यह मूल्यांकन करता है कि किस प्रकार के चरित्र या व्यक्तित्व को हम अच्छा (Good) कहेगें और किस प्रकार के चरित्र या व्यक्तित्व को बुरा (Bad) कहेगें। इसी प्रकार नीतिशास्त्र मानव के अपनी मर्जी / इच्छा से किए गए कर्मों के लिए भी मानक बनाता है। इन मानकों के आधर पर मूल्यांकन करता है कि किन मानवीय कर्मों को हम उचित कहेंगे और किन मानवीय कर्मों को अनुचित।। । अत: संक्षेप में नीतिशास्त्र वह मानकीय विज्ञान है जो यह बताता है कि

  1. किस प्रकार चरित्र या व्यक्तित्व होना चाहिए?
  2. क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?
  3. किस प्रकार का चरित्र अच्छा है?
  4. किस प्रकार के कर्म उचित हैं?

नीतिशास्त्र के मानक

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है, कि नीतिशास्त्र मानवीय चरित्र और कर्मों का मानक बनाने वाला और मूल्यांकन करने वाला विषय है? अत: स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि वे कौन से मानक हैं, जिनके आधार पर हम मानवीय चरित्र या कर्मों का मूल्यांकन करते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में

आना चाहिए कि चरित्र के मानकों को सदगुण (Virtue) कहते हैं और इसी प्रकार कर्मों के मानकों । प्रायः विचाराधारा कहते हैं अर्थात् – सद्गुण वे आधार है जिनको हम तय करते हैं कि मनष्य अच्छा है। या बरा और विचारधाराएँ वे आधार हैं जिनसे हम निर्धारित करते हैं कि मनुष्य ने उचित कार्य किया था। अनुचित।
नीतिशास्त्र में जो सद्गुण प्रचलित हैं उनमें विवेक, संयम, साहस, न्याय, करूणा निष्पक्षता, ईमानदारी इत्यादि सबसे प्रमुख है। इसी प्रकार वे विचारधाराएँ जो कर्मों का मूल्यांकन करने के लिए प्रमुख रूप से उपयोग की जाती है उनमें परिणामसापेक्षतावाद, परिणामनिरपेक्षवाद, स्वार्थवाद, सुखवाद, उपयोगितावाद, सापेक्षवाद, निरपेक्षतावाद, पूर्णतावाद, समाजवाद, उदारवाद, इत्यादि सबसे महत्वपूर्ण हैं।
इसका आशय है कि नीतिशास्त्र का अध्ययन करने के क्रम में विद्यार्थी को सबसे पहले सद्गुणों और विचारधाराओं को जानना होगा। नीतिशास्त्र के प्रकार :

वैसे तो नीतिशास्त्र चार मुख्य शाखाओं में विभाजित किया जाता है परन्तु इनमें से दो अधिक प्रचलित हैं

  • मानकीय नीतिशास्त्र (Normative Ethics)
  • अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र (Applied Ethics)
  • मानकीय नीतिशास्त्र,
  • अनुपयुक्त नीतिशास्त्र

Read: नीतिशास्त्र के आयाम

उपयोगितावाद क्या है?

इनके मानकों का अध्ययन करे, तो वह मानकीय नीतिशास्त्र के सिद्धान्तों को पढ़ता है। परन्तु जब हम इन्हीं सिद्धान्तों को वह समाज या राज्य की किसी विशेष कार्य या संदर्भ में लागू करने लगे तो वह ” अनुपयुक्त नीतिशास्त्र” कहलाता है। जैसे- एक चिकित्सक के व्यक्तित्व में क्या गुण होने चाहिए? या एक चिकित्सक को कैसे कर्म करने चाहिए? इसका अध्ययन ‘‘चिकित्सकीय नीतिशास्त्र” कहलाता है।

इसी प्रकार एक प्रशासनिक अधिकारी का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए? उसे कैसे कार्य करने चाहिए? इसका अध्ययन प्रशासकीय नीतिशास्त्र कहलाता है। ऐसे ही जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में किस प्रकार के कर्म किए जाने चाहिए और इनको करने वालों के व्यक्तित्व कैसे होने चाहिए? इसका अध्ययन करना ही ‘‘अनुप्रयुक्त (Applied) नीतिशास्त्र’‘ का मुख्य कार्य है। ।

यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण होगा, कि जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग प्रकार के व्यक्तित्वों की आवश्यकता होती है। जैसे व्यवसाय के क्षेत्र में हमें एक ऐसे व्यक्तित्व की जरूरत होगी। जिसमें अधिक से अधिक लाभ कमाने की क्षमता व इच्छा हो। साथ ही साथ प्रतिस्पर्धा करने, नियमों के अंतर्गत कार्य करते हुए लाभ बढ़ाने की योग्यता आदि एक व्यवसायी के व्यक्तित्व में होनी चाहिए।

ऐसे में जब हम व्यावसायिक नैतिकता (Business Ethics) पर चर्चा करते हैं तो सद्गुणों की सूची और उचित कार्यों का मानक उस संदर्भ से बिल्कुल अलग होता है। जब हम जीवन के किसी दूसरे क्षेत्र के लिए सदगुणों की और उचित कर्मों की सूची बनाते हैं। जैसे-लाभ कमाने के उददेश्य से कार्य करना व्यावसायिक नैतिकता में उचित माना जाएगा, लेकिन यदि एक सरकारी चिकित्सक मरीजों की चिकित्सा, लाभ कमाने के उददेश्य से करने लगे तो उसका कार्य अनुचित माना जाएगा। इस रूप में अनुपयुक्त नीतिशास्त्र’‘ हमें बताता है कि हम जिस क्षेत्र विशेष में चरित्र या कार्यो का मूल्यांकन करना चाहते हैं। उसके लिए क्या क्या आधार होने चाहिए?

सिविल सेवा में नीतिशास्त्र का औचित्य व भूमिका

नीतिशास्त्र जीवन के हर क्षेत्र के लिए मानक तैयार करता है और मूल्यांकन है। ठीक उसी प्रकार सिविल सेवक कैसे होने चाहिए? उनके  या चरित्र में किस प्रकार के होने चाहिए। उन्हें किस प्रकार के कार्य करने चाहिए? इत्यादि प्रश्नों के समाधान का कार्य करना भी नीलिणार ना ही रा है। और जब तक प्रशासनिक अधिकारी जिनका व्यक्तित्व या चरित्र इन नैतिक गुणों के अनुकूल नहीं होगा, जिनकी सिविल सेवा में जरूरत होती है तब तक वे अच्छे प्रशासक नहीं होंगे। इसी प्रकार जब तक भावी सिविल सेवकों को क्या उचित है? क्या अनुचित है? सिविल सेवा में किन कार्यों को उनसे अपेक्षा है? इसका बोध नहीं होगा तब तक वे प्रशासनिक अधिकारी बनने के बाद प्रशासन के लक्ष्यो एवं आदर्शों के अनुकूल कार्य नहीं कर पायेगें। इस रूप में Ethics का प्रश्नपत्र सिविल सेवा के लिए योग्य उम्मीदवारों की परीक्षा करने हेतु जोड़ा गया है जिससे यह जांच की जा सके, कि जो लोग सिविल सेवक बनना चाहते हैं उनका चरित्र इस सेवा की माँग के अनुरूप है या नहीं। उन्हें उचित-अनुचित का पर्याप्त बोध है या नहीं। उनके उचित निर्णय लेने की और समस्याओं का समाधान करने की क्षमता है या नहीं। संक्षेप में LthiCS सिविल सेवा के उम्मीदवारों की अभिवृत्ति (Attitude) की जाँच करने के लिए। सम्मिलित किया गया है। सिविल सेवा में सामान्य अध्ययन

प्रश्नपत्र IV का पाठ्यक्रम और उसका औचित्य

उपर्युक्त विवरण से चूँकि यह स्पष्ट हो चुका है कि Etaics का प्रश्नपत्र सिविल सेवा में जाने की  आकांक्षा रखने वाले उम्मीदवारों के व्यक्तित्व परीक्षण हेतु सम्मिलित किया गया है। अत: यह स्वाभाविक है। कि उन उम्मीदवारों की योग्यता (Aptitude) की जाँच उन सभी क्षेत्रों में होना चाहिए कि उनमें सिविल सेवा के माँग के अनुरूप सद्गुण है या नहीं। उन्हें सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में कैसे कार्य किए जाने चाहिए इसका बोध है या नहीं। उन्हें सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों में भारतीय राज्य और समाज की विभिन्न समस्याओं का ज्ञान है या नहीं और साथ ही साथ विभिन्न परिस्थितियों में निर्णय लेने की क्षमता है या नहीं।

सिविल सेवकों का कार्यक्षेत्र

सिविल सेवा में Ethics की भूमिका समझने से पूर्व यह जानना आवश्यक होगा कि सिविल सेवा का कार्यक्षेत्र क्या है? क्योंकि इसी कार्य क्षेत्र को धयान में रखकर ही इस क्षेत्र के अनुरूप मानकों का निर्धारण होगा और इस प्रकार के कार्य उचित या अनुचित माने जायेंगे यह भी तय होगा। चूंकि सिविल सेवा भारतीय राज्य के आदर्शों और लक्ष्यों से प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन हैं।

अत: सिविल सेवा के मानक वहीं होंगे जो भारतीय राज्य के आदर्श और मूल्य हैं। उदारी के लिए भारतीय राज्य का एक प्रमुख मूल्य समाजवाद” है जिसके अनुसार राज्य सभी को बुनियादी संसाधन प्रदान कर सामाजिक-आर्थिक समानता लाने का प्रयास करता है। अत: सिविल सेवक से भी यही अपेक्षा है कि वह राज्य के इस आदर्श को स्वीकार कर, राज्य को अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता प्रदान करे। परन्तु ऐसा तभी होगा जब सिविल सेवा में जाने वाले सिविल सेवकों में वंचित वर्गों के प्रति करूणा, समानुभूति जैसे सद्गुण विद्यमान हों। ऐसे में इस प्रश्नपत्र के पाठ्यक्रम में सिविल सेवकों उपर्युक्त मूल्य शामिल है या नहीं। इस बात की जाँच करना स्वाभाविक रूप से शामिल है। ऐसे ही राज्य के आदर्शों के प्रति निष्ठा? सेवाभाव सत्यनिष्ठा या ईमानदारी, निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता जैसे आधारभूत मूल्य चूंकि राज्य के आदर्शों को प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है। इसलिए इन्हें भी सिविल सेवक के व्यक्तित्व में होना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर सिविल सेवा के पाठ्यक्रम में उपर्यत सभी मल्यों की परीक्षा को पाठ्यक्रम का एक खंड बनाया गया है।

चूंकि सिविल सेवक के समक्ष जो चुनौतियाँ आती हैं। वे सामाजिक प्रथाओं, परम्पराओं के कारण भी आती है। अत: उससे यह अपेक्षा है कि वह समाज के इन पक्षों से भी परिचित हों। जिसके फलस्वरूप उसमें उचित निर्णय लेने के लिए पाठ्यक्रम में परिवार, प्रथा, परंपरा इत्यादि खंडो को सम्मिलित किया गया है। उपर्युक्त परी परिचर्चा को निम्न उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है – हमारे समाज में ही एक प्रथा के तौर पर सैकड़ों वर्ष से प्रचलित है और समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस प्रथा को अनुचित नहीं मान। परन्तु राज्य लगिक समानता के आदर्शों के अंतर्गत 1960 में ही कानन बनाकर दहेज को प्रतिबंधित कर चुका है। एसे में सीधे तौर पर राज्य के आदर्श और सामाजिक प्रथा के बीच विरोध है।

यदि किसी प्रशासक सामाजिक प्रथाओं, सामाजिक परिवेश का बहुत अधिक प्रभाव हो तो संभव है कि वह ऐसे अपराध का प्रायः नजरअंदाज करे। जिससे राज्य के लैंगिक समानता के आदर्श में बाधा पहुंचेगी। इसीलिए Dunics के पाठ्यक्रम में न सिर्फ समाज की जानकारी आपसे अपेक्षित है बल्कि विभिन्न समाज सुधारकों क और विचारधाराओं ने जो सामाजिक परिवर्तन किया था अथवा सझाया है, उसकी जानकारी भी आपसे अपाक्षत है। इसलिए EthiCS के पाठ्यक्रम में महान समाज-सुधारकों और नेताओं के बारे में जानना शामिल किया गया है।

चूंकि हमारी जीवन सार्वजनिक और निजी इन दो क्षेत्रों में बँटा होता हैं और दोनों ही क्षेत्रों के लिए कुछ आदर्श और मानक होते हैं जो यह बताते हैं कि सार्वजनिक जीवन कैसा होना चाहिए? और निजी जीवन कैसा होना चाहिए? इन दोनों क्षेत्रों के मूल्यों का अलगाव कई स्थानों पर बहुत महत्वपूर्ण होता है।निजी जीवन में हमें धार्मिक होने की आजादी है परन्तु ‘सार्वजनिक जीवन में एक सिविल सेवक के तौर पर धर्मनिरपेक्षता का राज्य का आदर्श हमारा मूलभूत ढाँचा है। ऐसे में एक ही व्यक्ति से यह अपेक्षा होती है कि वह अपने निजी जीवन में तो धार्मिक हो सकता है परन्तु सार्वजनिक जीवन में उसे धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को आत्मसात् करना चाहिए।

इसी महत्वपूर्ण विभाजन पर सिविल सेवा में शामिल होने वाले विद्यार्थियों को इतनी जानकारी इस बात की परीक्षा लेने के लिए पाठ्यक्रम में निजी और सार्वजनिक जीवन के विभाजन को शामिल किया गया है। चूंकि चाहे धर्मनिरपेक्षता जैसा आदर्श हो या फिर समाजवाद, लोकतंत्र जैसी विचारधाराएँ हों। ये सब विभिन्न विचारकों और दार्शनिकों के द्वारा स्थापित की गई हैं। जिन्होंने भारत समेत दुनिया के बहुत से राज्य मानक/आदर्श के रूप में स्वीकारते हैं। इसीलिए Ethics के प्रश्नपत्र में अभ्यर्थियों से यह अपेक्षा भी की गई। है कि वे भारत और पश्चिम के ऐसे दार्शनिकों और उनकी विचारधाराओं से परिचित हो। यह भी Ethics के पाठ्यक्रम का एक हिस्सा है।

चूँकि Ethics का सम्बन्ध माननीय कार्यों से है, जो मानव को यह बताता है कि उसे क्या कार्य करने चाहिए और मानव प्राय: अपने कार्यों का चयन अपने भावना या परिवेश के आधार पर बनाई गई। अभिवत्ति से करता है। अत: प्राय: मानव के अनुचित कार्यों को परिवर्तित करवाने के लिए उसकी अभिवृत्ति बदलनी होती है। उदा) के लिए यदि एक परंपरागत हिन्दू व्यक्ति यह मानता हो कि सम्पत्ति के उत्तरधिकार में केवल पुरूषों को ही सम्पत्ति मिलनी चाहिए और वह हिन्दू धर्म की मान्यताओं के आधार पर इसे उचित भी मानता हो तो ऐसे व्यक्ति से उसकी पुत्री को सम्पत्ति दिलवाने का हक तब तक संभव नहीं होगा जब तक इस व्यक्ति की अभिवृत्ति (Attitude) में बदलाव न किया जाए। क्योंकि उस उदाहरण में समस्या इस बात को लेकर है कि राज्य स्त्रियों को आर्थिक समानता दिलाना चाहता है और इस लक्ष्य की प्राप्ति राज्य ने, हिन्दू उत्तराधिकार के नियमों में परिवर्तन कर स्त्रियों को सम्पत्ति में हिस्सेदारी का कानून तो बना दिया परन्तु यदि समाज के हिन्दू व्यक्तियों की अभिवृत्ति, उपर्युक्त वर्णित व्यक्ति जैसी ही हो तो राज्य द्वारा बनाया गया यह कानून केवल कानून की किताबों तक ही सीमित रह जाएगा।

इस रूप में यदि समाज या व्यक्ति किसी एक कार्य को उचित मानता हो और राज्य किसी दूसरे कार्य को तो, जब तक सामाजिक मनोविज्ञान और व्यक्तियों की अभिवृत्ति को बदल न दिया जाए तब तक उन्हें राज्य के आदर्शों के अनुरूप उचित कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर सिविल सेवा के पाठ्यक्रम में हमारे कार्यों को प्रभावित करने के लिए अभिवृत्ति की जानकारी की अपेक्षा भी अभ्यर्थियों से की गई है। अर्थात् अभ्यर्थियों को यह जानना होगा कि अभिवृत्ति कैसे हमारे कार्यों को प्रभावित करती है? कैसे बनती है? क्या-क्या घटक होते हैं।

चूंकि सिविल सेवा की परीक्षा अनेक पदों के लिए होने वाली परीक्षा है। जिसमें एक संयुक्त परीक्षा के पास से भी चयनित होकर प्रशासनिक सेवा, विदेश सेवा, राजस्व सेवा, पुलिस सेवा जैसे विभिन्न सेवाओं में कार्य करते हुए राज्य के विभिन्न आदर्शों को प्राप्त करने का उद्देश्य शामिल होता है। इसीलिए सिविल सेवा के पाठ्यक्रम में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों, विभिन्न फंडिंग एजेन्सीज से होने वाली फंडिंग, इत्यादि मुद्दों को भी नीतिशास्त्र के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। चूंकि हम प्रशासकों को सरकार (Governance) की विभिन्न नीतियों को लागू करना होता है। इसीलिए इस पाठ्क्रम में शासन (Governance) लोकनीति (Public Policy) इत्यादि मुद्दे भी सम्मिलित हैं।

अंत में यह पाठ्यक्रम अभ्यर्थियों से यह भी अपेक्षा रखता है कि शासन-प्रशासन को नैतिक बनाने के लिए समय-समय पर विभिन्न समितियों ने जो सुझाव दिए है जैसे – प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) अलग समिति, इत्यादि की रिपोर्ट से भी विद्यार्थी का परिचय होना चाहिए। साथ ही साथ प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में प्रशासन को नैतिक बनाने के लिए विदेशों में भी जो आयोग और समितियाँ बनाई गई। है, उनका जो हवाला दिया गया। जैसे ‘‘नोलन समिति’ रिपोर्ट जिसका उल्लेख ARC करती है। इसी प्रकार ‘हुवर कमेटी’‘ जिसके आधार पर प्रथम एवं द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग बनाए गये। इनके सारांश को । नैतिक बनाने और राज्य के विभिन्न आदर्शों को हासिल करने के लिए सिटीजन चार्टर, लोकपाल, व्हीसल । लोवर एक्ट इत्यादि को जानने की अपेक्षा भी सिविल सेवा में जाने के इच्छुक अभ्यर्थियों से अपेक्षित है।

नीतिशास्त्र और मनोविज्ञान

नीतिशास्त्र आदर्शमूलक विज्ञान है। यह मानव आचरण के औचित्य का निर्धारण करता है। परन्तु किसी कार्य को नैतिक दृष्टि से उचित या अनुचित हम तभी कह सकते हैं, जब वह कार्य मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा द्वारा किया गया हो। अत: स्वतंत्र इच्छा के द्वारा किसी संकल्प का चयन नीतिशास्त्र का विषय है।
परन्तु इच्छा, संकल्प, विकल्प आदि मानसिक क्रियाएँ हैं, जो मनोविज्ञान का विषय हैं। मनोविज्ञान मूलत: मनुष्य की मानसिक क्रियाओं का विज्ञान है। मनोविज्ञान हमें बताता है कि देखना, सुनना, जानना, सीखना आदि क्रियाएँ क्या हैं और हम इन्हें कैसे करते हैं? वस्तुत: मनोविज्ञान का मुख्य उद्देश्य हमें मनुष्य के स्वभाव, उसकी संभावनाओं तथा सीमाओं का ठीक-ठीक ज्ञान कराना है।

ध्यातव्य है कि मनुष्य के संकल्प स्वातंत्रत्य के स्वरूप तथा उसकी सीमा का ठीक ठीक ज्ञान हमें मनोविज्ञान की सहायता से ही प्राप्त हो सकता है जो नैतिक निर्णयों का अनिवार्य मूल आधार है।

मानसिक क्रियाओं की बाहय आमा आचरण के अध्ययन के लिए इनकी आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि सभी नैतिक आदशों का मनोवैज्ञानिक आधार अवश्य ही होता है। इसी आधार पर ”सखवाद” का कहना है कि हमारे समाज का मूल है – सुख प्राप्ति तथा दु:ख परिहार। अर्थात्- हम कोई भी कार्य इसलिए करते हैं कि, हम सुख मिले, दु:ख न मिले। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि नैतिक आदर्शों को मनोवैज्ञानिक अध्ययन के बिना नहीं समझा जा सकता। अत: दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है।
इन समानताओं के बावजूद दोनों में कुछ अंतर भी दृष्टिगत होते हैं। सर्वप्रथम यह कहा जा सकता है। कि (1) मनोविज्ञान तथ्यात्मक या विवरणात्मक विज्ञान है। इसमें हम मानसिक क्रियाओं का ज्यों का त्यों तथ्य के रूप में अध्ययन करते हैं। अर्थात् – इसका सम्बन्ध है” से है। वहीं दूसरी ओर नीतिशास्त्र आदर्शमूलक/मानकीय विज्ञान है। यह मनुष्य के कर्म का नहीं बल्कि उसके आदर्श का अध्ययन करता है। अर्थात् – क्या होना चाहिए। (2) वहीं मनोविज्ञान का क्षेत्र नीतिशास्त्र से व्यापक है। जहाँ नीतिशास्त्र, मानव जीवन के केवल क्रियात्मक पक्ष का ही अध्ययन करता है। वहीं मनोविज्ञान मनुष्य के जीवन के तीनों पक्षों ज्ञानानक, क्रियानिक एवं संवेगात्मक तीनों का अध्ययन करता है।

समाजशास्त्र और नीतिशास्त्र

नीतिशास्त्र उन्हीं सामान्य मनुष्यों के ऐच्छिक कर्म का मूल्यांकन करता है जो किसी न किसी रूप में माजिक जीवन व्यतीत करते हैं। उल्लेखनीय है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और आच का आदर्श सामाजिक आदर्श है। समाज के बाहर किसी शुभ-अशुभ, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य की कल्पना नहीं की जा सकती। समाजशास्त्र रीति रिवाजों, प्रथा, परिवार, विवाह, धर्म आदि सभी का समुचित अध्ययन करता है। इस आधार पर ही हम मानव आचरण के आदर्श की स्थापना करते है। अत: नीतिशास्त्र समाजशास्त्र पर आधारित है।

इसके अलावा कुछ अन्य विचारकों का यह मानना है कि समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र पर अवलंबित है। ध्यान देने योग्य है कि सामाजिक विकास, परंपरा, प्रथा आदि का मूल्यांकन किसी मानक या मापदंड से ही संभव है, किसी भी सामाजिक परम्परा को अच्छा या बुरा कहने के लिए अच्छा-बुरा का मापदंड आवश्यक है। यह मानक या मापदंड नीतिशास्त्र की देन है। मूल्यों के बिना समाज को नहीं समझा जा सकता। इस प्रकार समाज का अध्ययन भी नैतिक मूल्यों के बिना अधूरा है। सामाजिक परिवर्तन का इतिहास समाजशास्त्र का विषय है। परन्तु इन परिवर्तनों का मूल्यांकन करना नीतिशास्त्र का कार्य है। परन्तु ध्यान से देखने पर इनमें कतिपय अंतर भी दृष्टिगोचर होते हैं।

  1. समाजशास्त्र विवरणात्मक या तथ्यात्मक विज्ञान है। यह सामाजिक परिवर्तनों तथा संस्थाओं का निश्चयात्मक अध्ययन करता है। इसका सम्बन्ध केवल यथास्थिति वर्णन से है, मूल्यों से नहीं। दूसरी ओर नीतिशास्त्र एक मूल्यात्मक विज्ञान है। नीतिशास्त्र आदर्श की कसौटी का मूल्यांकन करता है। यह क्या होना चाहिए” इसका हमें ज्ञान कराता है।
  2. समाजशास्त्र सैद्धांतिक विज्ञान है और नीतिशास्त्र व्यावहारिक। समाजशास्त्र में सामाजिक संस्थाओं और परम्पराओं का अध्ययन सिद्धान्त रूप में किया जाता है। नीतिशास्त्र मानव आचरण के आदर्शों का अध्ययन करता हैं। आचरण के आदर्श हमारे व्यावहारिक जीवन के नियामक हैं। हमारा व्यवहार इन्हीं नियमों से संचालित होता है।
  3. समाजशास्त्र में व्यक्ति का अध्ययन समाज के सदस्य के रूप में किया जाता है। अत: समाजशास्त्र में व्यक्ति का सामुहिक अध्ययन होता है। इसके विपरीत नीतिशास्त्र में व्यक्ति का अध्ययन व्यक्तिगत रूप में होता है।
  4. नीतिशास्त्र इसलिए मानकोय विज्ञान है क्योकि यह व्यक्ति के चरित्र या व्यक्तित्व के मानक तैयार करता है। मानवीय क्रियाओं के लिए इन मानकों के आधार पर मल्यांकन करके बताता है कि कैसा चरित्र अच्छा होता है और कैसा बुरा? कैसे कर्म उचित होते हैं और कैसे अनुचित?

नीतिशास्त्र प्रमुखतः दो प्रकार का होता है – एक मानकीय और दूसरा व्यावहारिक या अनुपयुक्ता मानकीय या सैद्धान्तिक नीतिशास्त्र मानक बनाता है और व्यावहारिक या अनुपयुक्त नीतिशास्त्र उन मानकों के आधार पर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लिए आचार संहिता तैयार करता है।

प्रशासन या सिविल सेवा कैसी होनी चाहिए? यह व्यावहारिक नीतिशास्त्र का क्षेत्र है जो इन प्रश्नों का उत्तर देता है कि प्रशासक का चरित्र या व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए? उसे कैसे कार्य करने चाहिए? उसके चरित्र में कौन-कौन से सद्गुण होने चाहिए इत्यादि।

 सिविल सेवा का पूरा पाठ्यक्रम क्या है? इसमें विद्यार्थियों से क्या-क्या जानने की अपेक्षा होगी?

  • अभ्यास के लिए प्रश्न नीतिशास्त्र क्या है? इसे विज्ञान क्या कहा जाता है?
  • नीतिशास्त्र कैसे अन्य विज्ञानों यथा भौतिक विज्ञान वनस्पति विज्ञान से अलग है? समझाइए।
  • मानकीय नीतिशास्त्र और अनुपयुक्त नीतिशास्त्र में क्या अंतर होता है?
  • सिविल सेवकों के कार्यक्षेत्र से नीतिशास्त्र कैसे सम्बन्धित है?
  • मनोविज्ञान और नीतिशास्त्र का क्या सम्बन्ध होता है?
  • ऐसा कहना क्यों उचित है कि क्यों मनोविज्ञान वर्णनात्मक विज्ञान है जबकि नीतिशास्त्र मानकीय।
  • इस कथन का आशय बताइये कि ‘नीतिशास्त्र में मनाविज्ञान की भूमिका है लेकिन मनोविज्ञान में नीतिशास्त्र
    की नही।”
  • नीतिशास्त्र और समाजशास्त्र का क्या सम्बन्ध है? क्यों नीतिशास्त्र में समाजशास्त्र के तत्व शामिल हैं लेकिन
    समाजशास्त्र में नीतिशास्त्र नहीं।
  • समाजशास्त्र को आप विवरणात्मक विज्ञान मानेंगे या मानकीय? तर्क देते हुए अपने उत्तर को स्पष्ट करें।
  • लोकप्रशासन और नीतिशास्त्र कैसे सम्बन्धित हैं?

नीतिशास्त्र एवं मान माध्यम  साध्यमूल्य और साधनमूल्य

नैतिक मूल्यों पर उनकी महत्ता के परिप्रेक्ष्य में भी विचार किया जा सकता है। नैतिक मूल्य वस्तुतः मानवीय अनुभव है जिसकी व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: नैतिक मूल्य उनकी महत्ता के आधार पर दो भागों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं- साध्यमूल्य तथा साधनमूल्य। साध्यमूल्य स्वतः मूल्यवान होते हैं। ये स्वतः साध्य हैं और किसी साध्य कै साधने नहीं कहे जा सकते। साध्यमूल्य अपने आप में और अपने कारण ही मूल्यवान होते हैं न कि अपने परिणाम के कारण। ये स्वत: शुभ है। अतः इन्हें निरपेक्ष मूल्य भी कहा जाता है। सत्य, शील, सौन्दर्य, साहस आदि साध्यमूल्य के उदाहरण हैं।

साधनमूल्य अपने परिणामों के कारण मूल्यवान होते हैं। साधनमूल्य इसलिए मूल्यवान हैं क्योंकि इनसे किसी अन्य लक्ष्य की सिद्धि होती है। ये स्वयं साध्य नहीं होते बल्कि अन्य साध्यों के साधन हैं। उदाहरण के लिए, चश्मा की महत्ता तभी है जब आंखों को इसकी आवश्यकता हो। धन, वस्त्र आदि किसी अन्य लक्ष्य के साधन है और इसलिए इनका साधनमुल्य है। इनका मूल्य इनके परिणामों पर निर्भर करता है।

साध्यमूल्य और साधनमूल्य इन दो पदों का प्रयोग सापेक्ष रूप से किया जाता है। ये हमेशा परस्पर विशिष्ट अथवा नियत नहीं होते। एक ही वस्तु किसी व्यक्ति विशेष के लिए साध्य हो सकती है तो दूसरे व्यक्ति के लिए साधन।

नैतिक मूल्यों को अन्य प्रकार से भी वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे विधायक अथवा भावात्मक मूल्य और विघातक अथवा अभावात्मक मूल्य, उत्पादक मूल्य और अनुत्पादक मूल्य तथा स्थायी मूल्य । और अस्थायी मूल्य।

जो वस्तु आदर्श की प्राप्ति में सहायक हो, उसका भावात्मक मूल्य होता है और जो वस्तु आदर्श की प्राप्ति में बाधक हो उसका विघातक अथवा अभावात्मक मूल्य होता है। इन दोनों मूल्यों को क्रमशः शुभ-अशुभ की श्रेणी में रखा जाता है। प्रयोग करने से जो वस्तुएं घट जाती हैं, उनका अनुत्पादक मूल्य होता है जैसे- भौतिक वस्तुएँ। प्रयोग करने से जिन वस्तुओं की वृद्धि हो, उनका उत्पादक मूल्य होता है, जैसे- ज्ञान जिसका जितना ही उपयोग हो इसमें उतनी ही वृद्धि होती है।

जिन वस्तुओं से स्थायी सुख की प्राप्ति हो उनका स्थायी मूल्य और जिन वस्तुओं से क्षणिक या अस्थायी सुख मिले उनका अस्थायी मूल्य होता है। बुद्धि द्वारा प्राप्त सुख स्थायी होता है परन्तु इन्द्रियजन्य सुख अस्थायी होता है।

नैतिक मूल्यों को उच्च एवं निम्न मूल्यों की कोटि में भी वर्गीकृत किया जाता है। साधारणतया साध्यमुल्य को साधनमूल्य की अपेक्षा उच्चतर मूल्य के रूप में माना जाता है। भावात्मक मल्य अभावात्मक मूल्य की अपेक्षा अधिक वांछनीय माना जाता है। मूल्यों का संबंध मानव विवेक से है। नैतिक मूल्य कुछ और नहीं बल्कि आस-पास के वातावरण के प्रति एक अनुक्रिया है। मानव मस्तिष्क के तीन पक्ष हैं चिन्तन, अनुभव तथा इच्छा। चिन्तन का संबंध बौद्धिक मूल्यों से है जिसका प्रमुख उदाहरण है सत्य, अनुभव का संबंध सौन्दर्य संबंधी मूल्यों से है जिसका प्रमुख उदाहरण है सौन्दर्य तथा इच्छा का संबंध नैतिक मूल्यों से है जिसका प्रमुख उदाहरण है शील इस प्रकार सत्य, सौन्दर्य और शील सार्वभौम मूल्य माने जाते हैं दूसरे शब्दों में, सत्य आत्मा के बौद्धिक स्वभाव की सौन्दर्य उसके संवेगात्मक स्वभाव की और शुभ सदाचार अथवा नैतिक उत्कृष्टता उसके व्यवसायात्मक क्रियात्मक स्वभाव की तृप्ति करते हैं।

अधिनीतिशास्त्र :– नीतिशास्त्र की वह शाखा जो नैतिक कथनों के स्वरूप और अर्थ का विश्लेषण करती है, अधिनीतिशास्त्र कहलाती है। उदा., के लिए यदि कोई यह कहे कि चोरी करना अनुचित है तो इसका क्या अर्थ होगा। यदि नीतिशास्त्र इस पर विचार करने लगे तो वह अधिनीशास्त्र बन जाता है

आदर्शमूलक :– इसे मानकीय भी कहते हैं जिसका आशय केवल यह होता है कि किसी विषय या क्षेत्र में धोखाधड़ी का सहारा लेते हैं, वे अक्सर उन लोगों से ज्यादा सफल होते हैं, जो सच्चाई और न्याय के रास्ते पर चलते हैं।

 इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि यदि हर कोई अन्यायी हो जाए, यदि हर आदमी अपने स्वार्थ के लिए कानून के साथ खिलवाड़ करे, तो किसी के लिए भी अन्य से लाभ पाने की गारंटी नहीं रहेगी, कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा और इससे संभव है कि सबकी नुकसान पहुंचे। इसलिए हमारा दीर्घकालिक हित इसी में है कि हम कानून का पालन करें और न्यायी बने ।

प्रासंगिकता

आधुनिक समय में न्याय नैतिक नहीं बल्कि एक विधिक संकल्पना है। आज के समय में राज्य जिन अधिकारों की गारंटी आपको दे रहा है यदि वे आपकों प्राप्त हो रहे है तो न्याय है अन्यथा अन्याय। प्लेटो के न्याय के सिद्धान्त में न्याय अधिकार का मामला नहीं है बल्कि केवल एक नैतिकता है। जिसे आज स्वीकार नहीं किया जाता है। आज न्याय की हमारी समझ इस समझ से गहरे में जुड़ गयी है कि मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति का अधिकार क्या है? कांट यह मानता है कि हर मनुष्य की गरिमा होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अवसर प्राप्त होना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि जब प्लेटो न्याय को एक नैतिक संकल्पना मानते हैं तो इसका यह तात्पर्य है कि व्यक्ति को स्वंय से प्रेरित होकर अच्छे कर्म करने चाहिए। यदि व्यक्ति ऐसा नहीं करता है तो उसके लिए दण्ड का कोई प्रावधान नहीं है। ऐसी अवस्था में समाज में अव्यवस्था फैल सकती है। । प्लेटो के न्याय की संकल्पना को मानने पर कई द्वंद (Dilemma) भी उत्पन्न हो सकते हैं। उदाहरण के लिए – यदि न्याय को हम सत्य बोलना और ऋण चुकाना के रूप में परिभाषित करें तो इस नियम का पालन करने पर द्वंद उत्पन्न हो सकता है। माना कि मेरा एक मित्र शांतचित भाव से अपने हथियार मेरे पास जमा करा देता है और उन हथियारों को वह ऐसी स्थिति में वापस माँगता है, जब उसका दिमाग शांत नहीं होता है, ऐसी स्थिति में क्या मुझे उसे हथियार वापस कर देने चाहिए?…..।

यह कहा जा सकता है कि प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की कुछ सीमाएँ है जिन्हें आज मान्यता प्राप्त नहीं हो सकती। प्लेटो के दर्शन में न्याय की अवधारणा व्यक्ति में तीन संकाय (बुद्धि, वासना एवं शौर्य और राज्य में तीन वर्ग (शासक, सैनिक, व्यापारी) जैसी पूर्व मान्यताओं पर आधारित है जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। प्लेटो की इन पूर्वमान्यताओं को न मानने पर उसकी पूरी न्याय की अवधारणा ही खारिज हो जाती है।  चूँकि आधुनिक राज्यों में कार्यों की विविधता के कारण वर्गों की संख्या असंख्य हो गई है। अतः प्लेटो के प्रतिमान का समर्थन करना आधुनिक संदर्भो में संभव नहीं है। उदाहरण के लिए आधुनिक समय में गायक, चित्रकार, खिलाड़ी जैसे कई उदाहरण मिलते हैं जिन्हें प्लेटो के वासना, शौर्य और विवेक जैसे ढाँचे के अंतगर्त नहीं रखा जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि प्लेटो योग्याताओं को जन्मजात मान लेता है जबकि वर्तमान आधुनिक समय में हम मानते हैं यि योग्यताएँ प्रशिक्षण से आती है, जन्मजात नहीं होती।

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