अंतरराष्ट्रीय निधिकरण (वित्तययन) से जुड़े नैतिक मुद्दे-सौपाधिकता (शर्त सहित)
अंतरराष्ट्रीय निधिकरण (वित्तययन ) से जडे नैतिक मुद्दों पर विचार करने से पहले ‘सोपाधिकता’ अर्थात् ‘शर्त सहित’ शब्द को समझना आवश्यक है। सौपाधिकता अथवा शर्तनामा अंतरराष्ट्रीय विकास, अंतरराष्ट्रीय संबंध एवं राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाने वाला एक प्रचलित शब्द है। यहां सौपाधिकता अथवा शर्तनामा का अभिप्राय उन शर्तों से है जिनकी स्वीकृति के पश्चात ही अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, क्षेत्रीय संगठनों तथा दानकर्ता देशों द्वारा गरीब तथा विकासशील देशों को सहायता (अनदान) दी जाती है। ये सहायता इन्हें कर्ज, कर्ज से राहत, द्विपक्षीय सहायता अथवा अंतरराष्ट्रीय संगठनों की सदस्यता के रूप में भी दी जाती है। अंतरराष्ट्रीय निधिकरण (वित्तययन) अथवा सहायता के संदर्भ में सौपाधिकता (conditionality ) का प्रयोग मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक संगठन, विश्व बैंक अथवा दानकर्ता देशों द्वारा दिया जाता है जब वे किसी देश को कर्ज (वित्तीय सहायता), कर्ज से माफी आदि वित्तीय सुविधा प्रदान करते हैं।
दूसरे शब्दों में सौपाधिकता अथवा शर्तनामा (Concliti-onality) का संबंध नीतिगत परिवर्तनों से भी है। नीतियों में लाए जाने वाले परिवर्तन एक शर्त के अंतर्गत होते हैं और इसके अंतर्गत दानकर्ता संस्था या देश यह तय करता है कि लेनदार देश किसी भी प्रकार की वित्तीय सहायता, अनुदान या कर्ज तभी प्राप्त कर सकता है जब वह अपने आंतरिक मामलों (नीतियों) में आदेशानुरूप परिवर्तन लाए। संक्षेप में, कहा जाए तो यहां शर्तनामा का अर्थ है नीतिगत परिर्वतन के एवज में पैसा (धन) प्राप्त करना। ये शर्त अब तक समायोजन प्रोग्राम के माध्यम से आईएमएफ तथा विश्व बैंक द्वारा लेनदार देशों पर आरोपित किया जाता था। परंतु अब द्विपक्षीय देनदारों द्वारा भी तरीके के शर्त (लेनदार देशों पर समायोजन प्रोग्राम आरोपित करना) आरोपित किए जाने लगे हैं।
सौपाधिकता अथवा शर्तनामे में ऐसी शर्त रखी जाती है जो विवादों से परे होते हैं तथा इनका उद्देश्य दी गई वित्तीय सहायता के प्रभावी उपयोग से होता है जिससे लेनदार देशों के हक में बेहतर परिणाम निकले। लेकिन कभी-कभी शर्तनामे में ऐसी शर्ते भी थोपी जाती हैं जो विवादस्पद होती हैं। उदाहरणस्वरूप, तय लोकउपक्रमों के निजीकरण जैसी शर्तों को ले सकते हैं जिसका लेनदार देशों के अन्दर जोरदार विरोध हो सकता है क्योंकि इसे मानवाधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा जाता है। शर्तनामे के अंतर्गत कुछ ऐसी भी शर्ते लेनदार देशों पर थोपी जाती है जिसके मुताबिक उन्हें देनदार देशों से उनके माल को खरीदना पड़ता है।
सौपाधिक वित्तययन (निधिकरण) से जुड़े मुद्दे
अंतरराष्ट्रीय पदृिश्य में शर्तों के आधार पर वित्तीय सहायता अथवा अनुदान देने से संबंधित निम्नलिखित प्रकार के नैतिक प्रश्न जुड़े होते हैं:
- देनदार देश वित्तीय सहायता के बदले लेनदार देशों को अपने नीतिगत ढांचों एवं योजना में परिवर्तन लाने को बाध्य किया जाता है। इससे लेनदार देशों के अधिकार एवं निर्णय लेने की स्वतंत्रता बाधित होती है और वे अपनी आवश्यकताओं एवं जरूरतों के मुताबिक कोई भी कार्य करने या नीति तैयार करने में स्वतंत्र महसूस नहीं करते।
- सौपाधिकता अथवा शर्तनामा पर आधारित वित्तीय सहायता लेने के कारण क्षेत्रीय सामाजिक विविधता तथा क्षेत्रीय स्वामित्व की अनदेखी करनी पड़ती है।
- शर्त पर आधारित दी गई वित्तीय सहायता से लोकतंत्र और संप्रभुता का भी हनन होता है।
- लेनदार देशों के नीतिगत ढांचे में देनदार देशों द्वारा हस्तक्षेप किए जाने से वहां के राजनीतिक ढांचे एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- अर्थव्यवस्था से जुड़े निर्णय तथा लोकउपक्रमों का निजीकरण करना है या नहीं, व्यापार में उदारीकरण लाना है या नहीं ये सारे निर्णय कोई राष्ट्र चाहे वह विकसित हो या विकासशील, द्वारा स्वयं अपनी परिस्थितियों के आधार पर लिए जाने चाहिए। इन मुद्दों पर कोई भी विमर्श बाध्य प्रभाव के कारण नहीं होना चाहिए।
- लोकतांत्रिक स्वामित्व का अर्थ है परस्पर जवाबदेयता, पारदर्शिता तथा नीतियों एवं योजनाओं के निर्माण में समान रूप से भागीदारी। यह तभी संभव है जब देनदार एवं लेनदार दोनों ही देश समानता के स्तर पर हो तथा समान रूप से किसी दायित्व के वहन के लिए तैयार हों। इसमें सिविल सोसाइटी की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। परंतु लोकतांत्रिक स्वामित्व के सिद्धांतों में हस्तक्षेप अर्थात् देनदार देशों द्वारा अपनी शक्ति के इस्तेमाल के कारण स्वामित्व के इस सिद्धांत की अनदेखी की जाती है।
नैदानिक (रोग निरोधक) जांच के वित्तययन (निधिकरण) से जुड़े नैतिक मुद्दे
(Ethical Issues in Funding for Clinical Traits)
विकसित देशों द्वारा समर्थित तथा विकासशील देशों में किए जा रहे नैदानिक शोधों के कारण नैतिकता से जुड़े कई मुद्दे आजकल चर्चित हो रहे हैं। इस तरह के शोध जब किसी भागीदारी के अंतर्गत किए जाते हैं जहां एक पार्टनर आर्थिक रूप से सबल हो तथा वित्तययन की व्यवस्था करे तो वहां नैतिकता से जुड़े कई मानकों पर समझौता कर लिया जाता है तथा शोधकर्ता एवं शोधकार्य में शामिल दूसरे पार्टनर का शोषण भी होता है। अगर शोधकार्य किसी विकसित एवं धनी देश में हो तो इस प्रकार के शोषण की संभावना कम होती है। परंतु शोधकार्य अगर किसी विकासशील देश में चल रहा हो तो धनी देशों द्वारा वित्तययन (वित्तीय सहायता) को आधार बनाकर शोषण किए जाने की संभावना बढ़ जाती है।
इस शोषण के अंतर्गत मुख्य रूप से यह होता है कि शोध के दौरान कार्यकर्ताओं को उचित चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती, शोधकार्य के लिए तय किए गए अंतरराष्ट्रीय मानकों का अनुपालन कठिन हो जाता है। विकसित देशों की अनुमति लेना कठिन हो जाता है तथा वहां की सांस्कृतिक मूल्यों के अनुकूल कार्य न किए जाने पर नैदानिक शोधों का विरोध होने लगता है। विकासशील देशों को कई बार अपनी स्वायत्तता से समझौता करना पड़ता है तथा विकसित देश नैदानिक शोध के लिए अपनाई गई कार्य प्रणाली एवं प्रक्रिया के आधार पर विरोध करने लगते हैं।
इसका एक ज्वलंत उदाहरण है दक्षिण अफ्रीका, जहां के अधिकांश लोग गरीब और अशिक्षित हैं। नैदानिक शोधों के लिए यहां के लोगों का इस्तेमाल किया जाना एक आम बात है और आसान भी, क्योंकि यहाँ के लोग बिना किसी विरोध के किसी भी प्रकार की सत्ता अथवा प्राधिकार को स्वीकार कर लेते हैं। ऐसे लोगों के साथ नैदानिक शोध के दौरान अनैतिक व्यवहार किया जाना सर्वविदित है। भारत एक दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण है जहां हाल ही में कैंसर के लिए जिम्मेदार वायरस से संबंधित दो वैक्सीन की नैदानिक जांच की गई और इस जांच के दौरान कुछ लोगों की मृत्यु हो गई। इसके कारण काफी शोर शराबा हुआ जबकि बाद के खोजबीन एवं जांच से पता चला कि ये मृत्यु नैदानिक जांच के कारण नहीं हुई थी। परंतु इस घटना से भारत में नैदानिक शोध से जुड़े नैतिक अनियमितताओं का भेद खुल गया।
किसी विकसित देशों द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त किंतु विकासशील देशों में किए जा रहे नैदानिक जांच से उपजे कुछ नैतिक मुद्दे इस प्रकार हैं:
- जिस व्यक्ति पर नैदानिक जांच की जाती है उस व्यक्ति पर इस जांच से उत्पन्न कुछ संभावित खतरों के कारण ये प्रश्न खड़े होते हैं- विकासशील देशों में किसी व्यक्ति पर किस सीमा तक नैदानिक जांच की जा सकती है जबकि यह मालूम हो कि इससे उस व्यक्ति को खतरा हो सकता है या फिर जिस समुदाय का वह सदस्य है उसे भी खतरा हो सकता है। यही नहीं उसे इस कार्य के एवज में कुछ खास लाभ भी प्राप्त नहीं होता।
- यह सर्वमान्य है कि नैदानिक जांच के लिए जिस व्यक्ति या व्यक्तियों को बलाया जाता और उन पर इस तरह की जांच की जाती है, उनका सम्मान किया जाना चाहिए। नैदानिक जांच पर इस बात की जानकारी कर लेनी चाहिए कि उसके साथ बातचीत में भाषा संबंधी कोई पर तो नहीं आएगी या फिर क्या उस व्यक्ति की सांस्कृतिक मान्यताएं उसे इस कार्य की इजाजत देती यहां एक सवाल यह भी उठता है कि नैदानिक जांच के लिए बुलाए गए व्यक्ति की सहमति ली गई है या फिर उसे किसी प्रकार के प्रलोभन द्वारा इस कार्य के लिए है? स्वास्थ्य संबंधी बेहतर सुविधा एवं आर्थिक मदद जैसी बातों के द्वारा भी न जांच में भागीदारी के लिए मनाया जा सकता है। वस्तुत: इन परिस्थितियों में यह मश्किल होता है कि व्यक्ति की स्वीकृति प्राप्त करने की प्रक्रिया उचित और वैध है।
- एक अहम मुद्दा यह भी है कि नैदानिक जांच के समाप्त हो जाने के बाद उस व्यक्ति किस प्रकार व्यवहार किया जा रहा है जिसने इस कार्य के लिए अपनी स्वीकति दी है। हो सकता है कि जांच के पश्चात उस व्यक्ति को स्वास्थ्य संबंधी वो सारी सविधाएं मिला हो जाए जो उसे जांच के पहले और जांच के दौरान दी जा रही थी। प्रायः ऐसा देखा गया कि (जिस पर जांच की गयी है) स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं दी जाती हैं लेकिन एक बार जर की प्रक्रिया समाप्त हो जाने के बाद उसे दी जाने वाली स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं रोक या कम कर दी जाती हैं।
मानवाधिकार को प्रोत्साहन देने के लिए किए जा रहे अंतरराष्ट्रीय वित्तययन से जुडे मद्दे
(Ethical Issues in International Funding for Promoting Human Rights) :
आजकल अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन तथा मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए काम कर रहे गैर-सरकारी संगठन मानवाधिकारों के संरक्षण से जुड़े मुद्दों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्पवूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इनके द्वारा मानवाधिकारों से संबंधित प्रोजेक्ट की वित्तीय मदद दी जा रही है, मानवतावादी कार्यों में भागीदारी दी जा रही है तथा विश्व के किसी भी देश में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन की आलोचना भी की जा रही है। ये संगठन क्षेत्रीय संगठनों, अन्य गैर-सरकारी संगठनों तथा मानवाधिकारों से जुड़े अन्य गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर इस दिशा में महत्पवूर्ण कार्य कर रहे हैं। कभी-कभी ये सरकारों की लॉबी तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ उच्चस्तरीय वार्ता तथा कूटनीतिक प्रयासों में भी हिस्सा लेते हैं ताकि वैश्विक स्तर पर नीतिगत परिवर्तन लाकर मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए सार्थक प्रयास किए जाएं।
यहां नैतिकता संबंधी यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या ऐसे गैर-सरकारी संगठनों की वैधता एवं विश्वसनीयता पर भरोसा किया जा सकता है जो विकसित देशों से वित्तीय सहायता/अनुदान स्वीकार कर लेते हैं? दरअसल ऐसा भी देखा गया है कि ये संगठन धनी देशों से सहायता अनुदान लेकर अन्य देशों में मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए कार्यरत दिखते तो हैं परंतु वास्तव में वे वहां के नागरिक तथा सरकार के बीच के मतभेद को बढ़ाने में संलग्न रहते हैं। ऐसा ये उन देशों के निर्देशानुसार करते हैं जिनसे उन्हें वित्तीय सहायता मिलती है।
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