भारतीय शिक्षा प्रणाली : शिक्षा की प्राप्ति हेतु बुद्धिमत्ता एवं चरित्र निर्माण को सम्मिलित करने के उपाय
प्रश्न: “बुद्धिमत्ता (प्रज्ञता ) के साथ चरित्र निर्माण – सही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए”।आकलन कीजिए कि क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत इस उद्देश्य की प्राप्ति की जा सकती है।
दृष्टिकोण
- स्पष्ट कीजिए कि किस प्रकार पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति हेतु बुद्धिमत्ता एवं चरित्र दोनों महत्वपूर्ण हैं।
- इस तथ्य का विश्लेषण कीजिए कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में कैसे अपने वर्तमान स्वरूप में भारतीय शिक्षा प्रणाली की प्रगति सीमित रही है।
- भारतीय शिक्षा प्रणाली में बुद्धिमत्ता एवं चरित्र निर्माण को सम्मिलित करने के उपाय सुझाइए।
उत्तर
- बेहतर अकादमिक प्रदर्शन के सन्दर्भ में, बुद्धिमत्ता को परंपरागत रूप से शिक्षा प्रणाली के साथ संलग्न किया जाता है। हालांकि यह चरित्र ही है जो किसी व्यक्ति को परीक्षाओं से परे जीवन की कठिनाइयों का सामना करने में समर्थ बनाता है। बुद्धिमत्ता युक्त चरित्र मनुष्य के शिक्षित होने से लेकर विद्वता प्राप्त करने तक की यात्रा में सहायक होता है। गांधीजी ने चरित्र रहित ज्ञान को एक पाप के रूप में वर्णित किया है। उनके अनुसार आंतरिक चरित्र की उन्नति के बिना शुद्ध बौद्धिक विकास कभी-कभी विनाशकारी परिणामों का कारण भी बन जाता है। अनेक शिक्षित व्यक्ति हिंसा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और सामाजिक दुराचार संबंधित कृत्यों में संलग्न रहे हैं अतः गांधीजी की यह धारणा इस तथ्य के आधार पर सत्य प्रतीत होती है।
- चारित्रिक ह्रास की समस्या बहु-आयामी है जो वैश्वीकरण, भौतिकवाद, शिक्षा के व्यावसायीकरण जैसी मुख्य सामाजिक प्रवृतियों के सम्मिलन से उत्पन्न होती है। इसके परिणामस्वरुप असुरक्षा, व्यक्तिवादी जीवन शैली, इच्छाओं में अनावश्यक वृद्धि, मानवता को हानि पहुंचाने के लिए विज्ञान और तकनीक का दुरुपयोग, अलगाव की भावना एवं अन्य नकारात्मक परिणामों में वृद्धि हुई है।
हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति सीखने के परिणामों पर आधारित है जिसका मूल्यांकन आवधिक परीक्षाओं द्वारा किया जाता है। स्कूल के पश्चात दी जाने वाली शिक्षा का लक्ष्य नियोजनीय कार्यबल का सृजन करना है। प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश के लिए या तो गला काट प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करना या गैर-कानूनी कैपिटेशन फीस देना अनिवार्य हो गया है। साथ ही इस व्यवस्था के लक्ष्य स्पष्ट नहीं हैं। अतः स्वाभाविक प्रवृति केवल एक ऐसी परीक्षा में बेहतर करने के लिए प्रतिस्पर्धा करने की है जिसके अंतर्गत केवल विषय-वस्तु के ज्ञान का आकलन किया जाता है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था में चरित्र निर्माण का महत्व गौण हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि चरित्र तो सामाजिक-शैक्षिक जीवन के एक उप-उत्पाद के रूप में स्वतः ही विकसित हो जाएगा।
इस प्रकार भारतीय शिक्षा प्रणाली विभिन्न समस्याओं जैसे छात्रों द्वारा आत्महत्या, कौशल अंतराल, ज्ञान को कम महत्व देकर अंक प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित करने एवं आपराधिक गतिविधियों में बच्चों की भागीदारी आदि से ग्रसित है। ऐसी शिक्षा पद्धति से शिक्षा प्राप्त करने वालों में सुदृढ़ चरित्र के विकास में कमी परिलक्षित होती है। अतः अभीष्ट चरित्र का निर्माण करने में स्कूलों के समक्ष विद्यमान समस्याओं के संदर्भ में गंभीर रूप से विश्लेषण तथा चिंतन करने की आवश्यकता है। बुद्धिमत्ता के साथ चरित्र का विकास निम्नलिखित उपायों द्वारा किया जा सकता है:
- शिक्षा पद्धति में बहु-परिप्रेक्ष्य दृष्टिकोण का विकास करना।
- समाज के कल्याण में अपना योगदान प्रदान करने के लिए किसी व्यक्ति को सक्षम बनाना एवं इसके लिए उसका समग्र रूप विकास करने के उद्देश्य से मूल्य शिक्षा को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना एवं इस पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित करना।
- बच्चे के विकास के क्रम में मूल्य शिक्षा को माता-पिता, स्कूल एवं अन्य हितधारकों के उत्तरदायित्व के रूप में स्थापित करना।
- छात्रों की साक्षरता, धारण करने क्षमता एवं अकादमिक उपलब्धि में सुधार के प्रति उत्साह मूल्यों के लिए शिक्षा को बढ़ावा देने की उत्सुकता के संगत होना चाहिए।
- सीखने की सहभागिता पूर्ण विधियों को प्रोत्साहित करते हुए शिक्षा के अलग-अलग माध्यमों को बढ़ावा देना जैसे-भूमिका निर्वहन, कहानियों के माध्यम से महान लोगों के जीवन से उदाहरण प्रस्तुत करना इत्यादि।
इस सन्दर्भ में जापान जैसे विकसित देशों से सीख लेने की आवश्यकता है जहां अकादमिक प्रदर्शन के रूप में चरित्र निर्माण को अत्यधिक महत्व प्रदान किया जाता है। इस प्रकार बुद्धिमत्ता तथा चरित्र के विकास को स्कूलों के शैक्षिक कार्यक्रम में आवश्यक रूप से सम्मिलित किया जाना चाहिए। वर्तमान में इसमें चरित्र का विकास आधारभूत महत्व की चिंताओं की परिधि से बाहर दिखाई देता है।
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