एकात्म मानववाद की अवधारणा : इसकी समकालीन प्रासंगिकता
प्रश्न: दीनदयाल उपाध्याय द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद के मुख्य तत्वों की व्याख्या कीजिए और इसकी समकालीन प्रासंगिकता पर प्रकाश डालिए।
दृष्टिकोण
- एकात्म मानववाद की अवधारणा का परिचय दीजिए।
- इसके मुख्य अवयवों पर प्रकाश डालिए।
- इसकी समकालीन प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
उत्तर
दीनदयाल उपाध्याय द्वारा 1965 में एकात्म मानववाद की अवधारणा का प्रतिपादन किया गया। इसका उद्धभव अद्वैत वेदान्त के अद्वैतवादी दर्शन (non-dualistic philosophy) से माना जाता है, एकात्म मानववाद ने मानव, पशु या पादप वर्ग की सभी विभिन्न आत्माओं की एकात्मता के विचार का प्रसार किया। इसके द्वारा नस्ल, वर्ण, जाति तथा धर्म पर आधारित अन्तर्निहित विविधता को अस्वीकार करते हुए सभी मनुष्यों को इस बड़े जैविक समुदाय का एक अंग माना गया जो राष्ट्रीय विचार की एक सामान्य चेतना को साझा करते हैं।
एकात्म मानववाद के सिद्धांत के मुख्य अवयव
- विकास के केंद्र में मानव: इस दर्शन के अनुसार, भारत के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण था कि वह एक ऐसे स्वदेशी आर्थिक ढाँचे का विकास करे जिसके केंद्र में मानव को रखा गया हो। इसने पाश्चात्य दर्शन को पूर्णतः अस्वीकृत नहीं किया, बल्कि यह समाजवाद तथा पूँजीवाद को क्रमशः उनके गुणों के आधार पर मूल्यांकन करता है। साथ ही यह उनकी अतिवादिता तथा अलगाव की आलोचना भी करता है।
- व्यक्तिवाद का खंडन: यह व्यक्ति तथा समाज के मध्य एक सावयव संबंध की आवश्यकता पर बल देता है। सामान्य लक्ष्यों तथा व्यक्ति विशेष के लक्ष्यों के बीच एक समन्वय होना चाहिए। जहाँ व्यक्ति विशेष के लक्ष्य का व्यापक सामाजिक लक्ष्यों के लिए त्याग भी किया जा सकता है। यह एक पूर्ण समाज के निर्माण हेतु परिवार तथा मानवता के महत्व को प्रोत्साहित करता है।
- सांस्कृतिक चरित्र: यह स्वदेशी संस्कृति को राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना के साथ एकीकृत करने का समर्थन करता है। इसके अनुसार, भारत द्वारा अपनाए जाने वाले किसी भी राजनीतिक दर्शन या विकास के किसी मॉडल की पृष्ठभूमि का निर्माण भारतीय संस्कृति की मूलवस्तु तथा इसकी अद्वितीयता द्वारा किया जाना चाहिए।
- समेकित दृष्टिकोण: इसमें मतभिन्नताओं को स्वीकार करते समय, जीवन के विभिन्न पहलुओं में अलगाव, अस्वीकृति तथा असहमति की अपेक्षा अंतर-निर्भरता, साहचर्य तथा एकत्व पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसलिए यह सभी के कल्याण हेतु कार्य करता है।
- धर्म राज्य: यह एक आदर्श कर्त्तव्यपारायण राज्य को निरूपित करता है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को कुछ अधिकार प्रदान करने के साथ-साथ उसके राज्य के प्रति कुछ दायित्व भी निर्धारित किये जाते हैं।
- अंत्योदय: इस अवधारणा में यह सुनिश्चित किया जाता है कि निर्णय इस प्रकार लिये जाएँ कि पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति को भी उसका लाभ प्राप्त हो सके।
समकालीन प्रासंगिकता
- यह मानव कल्याण के समग्र विचार का समर्थन करता है। एकात्म मानववाद का दर्शन अनियंत्रित उपभोक्तावाद तथा तीव्र औद्योगीकरण का विरोध करता है क्योंकि इसका लाभ सर्वाधिक निर्धन व्यक्ति तक नहीं पहुँचता। यह सिद्धांत वर्तमान समय के सभी के लिए समावेशी विकास के संदर्भ में अत्यधिक प्रांसगिक है।
- एकात्म मानववाद का दर्शन लोकतंत्र, सामाजिक समानता तथा मानवाधिकारों के विचारों का भी समर्थन करता है, चूंकि सभी धर्मों और जातियों का सम्मान तथा उनकी समानता धर्मराज्य की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है।
- एकात्म मानववाद का लक्ष्य प्रत्येक मनुष्य को गौरवपूर्ण जीवन प्रदान करना है। इस प्रकार यह उन सिद्धांतों और नीतियों को प्रोत्साहित करता है जो श्रम, प्राकृतिक संसाधन तथा पूँजी के उपयोग को संतुलित करने में सक्षम हों।
- इस दर्शन के अंगीकरण से राजनीति के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जा सकता है क्योंकि पंडित दीनदयाल का मानना
था कि राजनीति का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाना है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आपराधिक तत्व, धन की शक्ति इत्यादि राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित कर रहे हैं और ऐसी स्थिति में यह अत्यधिक प्रासंगिक हो जाता है। चूँकि यह दर्शन परिवार तथा समाज की राष्ट्र-निर्माण संबंधी भूमिका को रेखांकित करता है अतः इससे परिवार की संस्था
को भी सशक्त किया जा सकता है। एक ऐसे विश्व में, जहां जनसंख्या का एक बड़ा भाग निर्धनता से ग्रसित है, इसका प्रयोग विकास के एक वैकल्पिक मॉडल के रूप में किया जा सकता है जिसमें सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक आवश्यकताएँ समन्वित हो तथा जिसकी प्रकृति समेकित एवं संधारणीय हो।
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