भ्रष्टाचार (Corruption)

भ्रष्टाचार, निष्ठा के सामान्य मानदंडों से विचलन का एक रूप है। भ्रष्टाचार अपने व्यक्तिगत हितसाधन हेतु अपनी स्थिति, पद या साधनों का जानबूझकर किया गया सोद्देश्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दुरुपयोग है, चाहे वह आर्थिक लाभ के लिए हो अथवा शक्ति, प्रतिष्ठा या प्रभाव की वृद्धि के लिए हो। यह दुरुपयोग न्यायसंगत तथा सामान्यतया स्वीकृत प्रतिमानों से अधिक और अन्य व्यक्तियों के अथवा पूरे समाज के हितों के लिए हानिकारक होता है।

अवपीड़क अर्थात् बल प्रयोग द्वारा भ्रष्टाचार

(Coercive Corruption)

रिश्वतखोरी के ज्यादातर मामलों में रिश्वत देने वाला जबरदस्ती उससे पैसा ऐंठे जाने का शिकार हाता है, उसे एक मामूली सी सेवा के लिए पैसे देने पड़ते हैं क्योंकि यदि वह पैसे ऐंठने वाले लोक सेवक की मांग नहीं मानता है तो उसे रिश्वत की राशि से कहीं अधिक खोना पड़ेगा। विलंब, उत्पीड़न, अनिश्चितता, खोया हुआ अवसर और मजदूरी – ये सभी परिणाम होते हैं रिश्वतखोरी की मांग को ठुकराने के, जो इतने भयानक हो गए हैं कि भ्रष्टाचार के कुचक्र ने प्रतिदिन के जीवन-यापन के लिए नागरिकों को निचोड़ कर रख दिया है।

कपटपूर्ण मिलीभगत के द्वारा भ्रष्टाचार

(Collusive Corru-ption)

भ्रष्टाचार की एक श्रेणी और भी है जिसमें रिश्वत लेने वाला और रिश्वत देने वाला दोनों एक साथ मिलकर समाज को लूटते हैं और रिश्वत देने वाला उतना ही या उससे भी अधिक अपराधी होता है जितना कि रिश्वत लेने वाला। इनमें घटिया गुणवत्ता के कामों के निष्पादन मामले, प्रतिस्पर्धा के विकार, राजकोष को लूटना, लोक अधिप्राप्तियों में कमीशन लेना, कपटसंधि से कर की चोरी और लोगों को घटिया किस्म की दवाएं देकर सीधे हानि पहुंचाना और सुरक्षा नियमों का अतिक्रमण। तेजी से बढ़ रही हमारी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ बल प्रयोगपूर्ण भ्रष्टाचार के मामलों में वृद्धि हो रही है और कई बार ये प्रायः कई गुना गंभीर आर्थिक अपराधों का रूप ले लेते हैं।

भ्रष्टाचार, मूल्य एवं नैतिकता

(Corruption, Values and Ethics)

भ्रष्टाचार नैतिक मूल्यों के क्षरण का ही प्रतीक है। अंग्रेजी का शब्द ‘Corrupt’ लैटिन शब्द ‘Corruptus’ से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है ‘तोड़ देना या नष्ट कर देना’। अंग्रेजी का शब्द ‘Ethics’ ग्रीक शब्द ‘Ethikos’ से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ होता है ‘आदत से उत्पन्न’। यह दुर्भाग्य ही है भ्रष्टाचार एक आदत बन चुका है, चाहे यह बड़े स्तर का भ्रष्टाचार हो या फिर रोजमर्रा की जिन्दगी जी रहे सामान्य व्यक्ति की आदतों में शामिल छोटे स्तर का भ्रष्टाचार।

भ्रष्टाचार निरोध के लिए अब तक किया जानेवाला प्रयास प्रभावहीन साबित हुआ है और इसीलिए आम आदमी में भ्रष्टाचार को लेकर एक क्षोभ एवं निन्दा की भावना घर कर गई है। अब तक सिर्फ सतही तौर पर ही कुछ प्रयास किए गए हैं ताकि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाया जा सके परन्तु इन प्रयासों में गंभीरता का अभाव दिख रहा है। भ्रष्टाचार विरोधी ये उपाय ज्यादातर पक्षपात या फिर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले अस्त्र के रूप में प्रयोग किए गए हैं। भ्रष्टाचार के बीच समाज को अंदर तक इस प्रकार खोखला कर चुका है तथा समाज एवं शासनतंत्र का एक अभिन्न अंग हो चुका है ज्यादातर लोगों के द्वारा अब यह कहा जाने लगा है कि इसे खत्म करने का कोई भी उपाय बेकार साबित होगा। इस तरह की भावना समाज में व्याप्त है कि यह लोकतांत्रिक समाज के लिए एक खतरा उत्पन्न करने लगा है।

भ्रष्टाचार तथा पद के दुरुपयोग को रोकने के लिए दो परस्पर विपरीत उपाय किए जा सकते हैं। प्रथम उपाय के अंतर्गत नैतिक मूल्य व आचरण पर बल दिया जाना आवश्यक है। कई लोगों का मानना है कि नैतिक मूल्यों के ह्रास के कारण ही भ्रष्टाचार इतनी तेजी से पनप रहा है। तात्पर्य यह है कि जब तक नैतिक मूल्यों के महत्व को नहीं समझा जाता तथा नैतिक आचरण नहीं अपनाया जाता किसी भी स्वस्थ परिणाम की आशा करना बेकार है।

भ्रष्टाचार निरोध के लिए अपनाये जाने वाले दूसरे तरीकों के अंतर्गत सर्वप्रथम इस तथ्य पर बल दिया जाता है कि ज्यादातर व्यक्ति मौलिक रूप में अच्छे होते हैं तथा सामाजिक रूप से जागरूक भी।

परन्तु जनसंख्या का एक छोटा-सा भाग ऐसा भी है जो अपने निजी हित का बलिदान करने को तैयार नहीं होता। अपने निजी फायदे के लिए समूचे समाज के हित का बलिदान करने को तैयार रहता है। ऐसे लोग समाज की कीमत पर अपना हित साधते हैं और इसलिए किसी भी सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह ऐसे लोगों को इस दुराचरण के लिए दंडित करे। अगर अच्छे आचरण के लिए हमेशा पुरस्कृत किया जाए तथा बुरे आचरण के लिए दंड दिया जाए तो उस स्थिति में ज्यादातर लोग सही और उचित मार्ग को ही चुनेंगे।

वास्तविकता के धरातल पर नैतिक मूल्य तथा कार्यकारी संस्थाएं, दोनों का ही अपना-अपना महत्व है। नैतिक मूल्य मार्गदर्शक का कार्य करते हैं और सामाजिक स्तर पर नैतिक मूल्यों का अभाव कतई नहीं है। बस इसे व्यवहार में लाने की जरूरत है, इन्हें अपनाने की जरूरत है। सही और गलत के फर्क को समझने की क्षमता हमेशा से हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का अंग रही है। परन्तु नैतिक मूल्यों की उपस्थिति तथा उसके प्रकटीकरण के लिए संस्थाओं का होना भी जरूरी है जिससे नैतिक मूल्यों को कायम रखा जा सके। बिना किसी संस्थागत ढांचा के नैतिक मूल्य कमजोर पड़ जाते हैं तथा उनका क्षरण होने लगता है। संस्थाएं ही वे ढांचे हैं जो नैतिक मूल्य व आचरण को आकार व दिशा प्रदान करते हैं।

भ्रष्टाचार के तरीके

केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अनुसार निम्न बारह प्रकार के भ्रष्टाचार हैं-

  • निकृष्ट प्रकृति के सामान/कार्यों की स्वीकृति।
  • सार्वजनिक धन एवं वस्तुओं का दुरुपयोग।
  • ठेकेदारों/कंपनियों से औपचारिक संपर्क के कारण पदधारकों द्वारा धन प्राप्त करना।
  • ठेकेदारों एवं कंपनियों के हित में काम करना।
  • आय के सामर्थ्य से अधिक सम्पत्ति रखना।
  • पूर्व स्वीकृति लिए बिना अचल संपत्ति इत्यादि रखना।
  • लापरवाही या अन्य कारणों से सरकार को घाटा पहुंचाना।
  • सरकार पद/शक्तियों का दुरुपयोग करना।
  • उम्र, जन्मतिथि, जाति आदि का जाली प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना।
  • रेल एवं वायुयान में स्थान के आरक्षण में अनियमितता।
  • नैतिक गिरावट।
  • उपहार स्वीकार करना।

लोक शिकायतें

प्रशासन के विरुद्ध कुछ आम शिकायतों को निम्नलिखित वर्गों में रखे जा सकते हैं:

  • भ्रष्टाचारः कार्य करने अथवा न करने के लिए रिक्त की मांग तथा उसे स्वीकार करना।
  • पक्षपात: सत्ताधारी या शक्तिशाली लोगों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए कार्य करना अथवा न करना।
  • भाई-भतीजावाद: अपने सगे संबंधियों की मदद करना।
  • अशिष्टताः अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना या अन्य तरीके से अभद्र व्यवहार करना।
  • कर्तव्य की उपेक्षाः कानून द्वारा अपेक्षित कार्यों को न करना
  • भेदभाव: निर्धन एवं अप्रभावशाली नागरिकों की सही शिकायतों की उपेक्षा करना।
  • विलम्बः उचित समय पर कार्यों को पूरा करना।
  • कुप्रशासनः लक्ष्य प्राप्त करने में अकुशल रहना।
  • अपर्याप्त निवारण तंत्रः प्रशासन के विरुद्ध जनता की शिकायतें सुनने में विफल रहना।

भ्रष्टाचार की चुनौतियां

(Challenges of Corruption)

भ्रष्टाचार से उत्पन्न चुनौतियां कुछ इस प्रकार हैं-

  • भ्रष्टाचार से लाभान्वित होने वाले व्यक्ति यथास्थितिवादी होते हैं। वे सुधार के लिए किए गए किसी भी प्रकार के उपाय का विरोध करते हैं और सुधार की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करने की कोशिश करते हैं। सार्वजनिक कल्याण का लक्ष्य धीरे-धीरे ही प्राप्त हो पाता है अचानक नहीं। पुन: इसके लिए व्यक्तिगत प्रयास की जरूरत होती है साथ ही सरकार के तरफ से सहयोग की भी आवश्यकता पड़ती है। परन्तु वैसी सरकार जो जानबूझ कर या फिर गैरइरादतन तरीके से संसाधनों का दुरुपयोग करती है उससे देश की संवृद्धि और विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है तथा मुख्य लक्ष्य महत्वहीन होने लगता है।
  • सरकार में उच्च स्तरों पर होने वाले भ्रष्टाचार का सीधा संबंध संवृद्धि तथा निवेश के हास से है। अतः भ्रष्टाचार के कारण पूंजी बहाव तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में कमी आती है।
  • भ्रष्टाचार के कारण उत्पादन के स्तर में कमी आती है तथा औद्योगिक नीतियों की प्रभावशीलता कम पड़ जाती है। इससे अवैध तरीके से किए जाने वाले व्यवसायों को प्रोत्साहन मिलता है जिसके कारण कर तथा अन्य नियमों तथा नियामक कानूनों के उल्लंघन की संभावना बढ़ जाती है।
  • अत्यधिक भ्रष्ट देशों में भ्रष्टाचार के कारण मानव संसाधन के विकास में उचित निवेश नहीं हो पाता तथा सरकार शिक्षा आदि में यथोचित निवेश करने के बजाय वैसी अवसंरचनाओं में ज्यादा निवेश करने को प्रेरित होता है जिससे निजी निवेश को अधिक लाभ मिले। ऐसे में पर्यावरण-स्वास्थ्य की भी अनदेखी की जाती है।
  • अत्यधिक भ्रष्टाचार के कारण आय का समान वितरण नहीं हो पाता जिससे सामाजिक न्याय का लक्ष्य अधूरा रह जाता है।
  • भ्रष्ट सरकारों को राजनीतिक वैधता नहीं मिल पाती। ऐसी परिस्थिति में जनता कर चोरी में लिप्त रहती है, निजी व्यवसायी नौकरशाही तथा प्रशासन संबंधी नियामकों की अनदेखी करते हैं तथा प्रशासन एवं जनता में घूसखोरी की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

शासन में ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठा के बहुआयामी उपाय

(Bringing Probity In Governance – A Multi-Pronged Approach)

शासन में ईमानदारी एवं सत्यनिष्ठा लाने तथा भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हमें निम्नलिखित तराक से उपाय करने चाहिए-

  • सूचना का अधिकार के माध्यम से जवाबदेही ई-गवर्नेस के माध्यम से पारदर्शिता लाकर भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।
  • समय सीमा के अंदर वस्तुओं एवं सेवाओं की डिलिवरी से संबंधित कानुन को कार्यान्वित कर सरकार की विश्वसनीयता में वृद्धि की जा सकती है।
  • पंचायती राज संस्थाओं को मजबूती प्रदान कर एक ऐसे प्लेटफार्म को तैयार किया जा सकता है जिससे शासन में जनता की भागीदारी संभव हो सके तथा जनता में उनके अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता लाकर भी भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है।
  • शिकायत निवारण तंत्र को और मजबूती प्रदान करके शासन में ईमानदारी कायम की जा सकती है।
  • लोक एवं निजी भागीदारी के माध्यम से सेवा डिलिवरी में जनभागीदारी को बढ़ाया जा सकता है ताकि शासन जवाबदेह बने।
  • सरकार के कुछ अंगों का निजीकरण कर प्रशासन में मितव्ययिता लायी जा सकती है तथा सेवा डिलिवरी में तेजी लाई जा सकती है।
  • लोक सेवकों को मूल्य आधारित प्रशिक्षण दिया जा सकता है।
  • समानता एवं नैतिकता पर विशेष बल देते हुए शिक्षा में सुधार लाया जा सकता है।
  • चुनाव सुधार तथा दल-बदल कानून के कठोर कार्यान्वयन द्वारा भी शासन में सत्यनिष्ठा सुनिश्चित की जा सकती है।
  • भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच के लिए ओमबुड्समैन तंत्र को मजबूत बनाकर भ्रष्टाचार में कमी लाई जा सकती है।
  • सिटीजन चार्टर के प्रभावी कार्यान्वयन द्वारा भी शासन में ईमानदारी सुनिश्चित की जा सकती है।
  • भ्रष्टाचार के विरोध में जबरदस्त लोकमत उत्पन्न किया जाना चाहिए ताकि भ्रष्टाचारियों में दुष्कर्मों का भंडाफोड़ किया जा सके।
  • भ्रष्टाचार के मामलों पर कार्यपालिका के प्रभाव से सर्वथा मुक्त निष्पक्ष न्यायधीशों द्वारा विचार करने और अपराधियों को कड़ा दंड देने की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • मंत्रियों एवं सरकारी प्रशासकों के लिए निश्चित आचार संहिता का निर्माण और उसका पूरी कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए।
  • सरकारी कर्मचारियों को उनके काम के अनुसार पूरा वेतन और उनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर करने की व्यवस्था होनी चाहिए।

वित्तीय स्वामित्व/औचित्य के सिद्धान्त

(Canons of Financial Propriety)

वित्तीय औचित्य का अभिप्राय है सार्वजनिक धन का सही इस्तेमाल। अर्थात् प्रत्येक सरकारी अफसर को सार्वजनिक धन को खर्च करने से पहले या फिर सार्वजनिक धन के इस्तेमाल का आदेश देने के दौरान उच्च वित्तीय मानदंडों का पालन अवश्य करना चाहिए। प्रत्येक सरकारी अफसर का यह नैतिक दायित्व है कि वह वित्तीय व्यवस्था का ध्यान रखे तथा मितव्ययिता का पालन करे। उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना है कि सार्वजनिक धन के इस्तेमाल के दौरान वित्तीय कानूनों तथा अधिनियमों का उल्लंघन न हो। वित्तीय स्वामित्व संबंधी कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:-

  • प्रत्येक सरकारी अधिकारी (अफसर) से यह उम्मीद की जाती है कि सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करते समय वह उसी प्रकार सभी बातों की निगरानी करे जिस प्रकार एक आम आदमी अपना धन खर्च करते समय जरूरी बातों की निगरानी रखता है।
  • कोई भी खर्च प्रथम दृष्ट्या जरूरत के हिसाब से ही किया जाना चाहिए।
  • प्रत्येक अधिकारी से इस बात की उम्मीद की जाती है कि वह सार्वजनिक धन का इस्तेमाल (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी) अपने निजी फायदे के लिए न करे।
  • सार्वजनिक धन का इस्तेमाल किसी व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष के हित में नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा किया जाता है तो इसके लिए दो शर्तों का पूरा होना जरूरी है – प्रथम – न्यायालय में इस तरह से किए गए खर्च के औचित्य को सिद्ध किया जा सकता है। द्वितीय – ऐसा खर्च किसी खास नीति या कानून के अनुपालन के दायरे में किया गया हो।
  • अगर किसी खर्च के संदर्भ में भत्ता दिया जाए तो यह भत्ता पाने वाले व्यक्ति के निजी खाते में न जाए।

प्रशासन पर विधायी नियंत्रण

भारत में विधायिका जनता की प्रतिनिधि सभा है और प्रशासन पर अपना नियंत्रण रखती है। यहां प्रशासन ऐसा कुछ नहीं कर सकती जो विधायिका द्वारा दिए गए दिशा निर्देशों के विपरीत हो। विधायिका ही भारत में उस वृहद नीति का निर्माण करती है जिससे यहां का प्रशासन निर्देशित होता है। विधायिका ही सरकार के कार्यों को निर्धारित करती है, साथ ही सरकारी योजनाओं के लिए धन भी मुहैया कराती है। वित्तीय मामलों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए विधायिका भिन्न-भिन्न प्रकार के समितियों का भी सहारा लेती है। प्रशासन से इस बात की उम्मीद की जाती है कि वह हर प्रकार के खर्च का हिसाब रखे तथा वित्तीय लेन-देन से संबंधित सभी सूचनाएं (रिपोर्ट) विधायिका के समक्ष प्रस्तुत करे।

कार्मिक विभाग की देख-रेख भी विधायिका के जिम्मे ही रहता है। कार्मिकों की नियुक्ति, उनकी संख्या, उनके कर्त्तव्य व शक्तियां, सेवा से जुड़ी शर्ते, आचरण संहिता आदि सारी बातों का निर्धारण विधायिका द्वारा ही किया जाता है। प्रशासन द्वारा अपने कार्यों में कोताही बरतने तथा विधायिका द्वारा बनाये गए नियमों का उल्लंघन करने पर विधायिका उनके लिए दंड का भी विधान करती है। कार्मिक प्रशासन को अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति जवाबदेह बने रहना पड़ता है। उनसे इस बात की उम्मीद की जाती है कि वे प्रति वर्ष अपने कार्य-निष्पादन से जुड़े रिकॉर्ड तथा सूचनाएं विधायिका के समक्ष प्रस्तुत करें। विधायिका के पास यह अधिकार भी है कि वह प्रशासन के कार्यों की जांच के लिए पहल करे तथा यह जानने की कोशिश करे कि प्रशासन से कहीं कोई चूक तो नहीं हुई है। विधायिका प्रशासन को निर्देश देती है, उसके कार्यों का निरीक्षण करती है और इस प्रकार उस पर अपना नियंत्रण स्थापित करती है।

विधायी नियंत्रण के साधन

(The Means of Legislative Control)

प्रशासन पर विधायिका द्वारा नियंत्रण स्थापित करने के कई साधन है जिनमें प्रमुख हैं- सत्र के दौरान पूछे जाने वाले प्रश्न, जीरो-आवर, प्रस्ताव, वाद-विवाद, स्थगन प्रस्ताव, वोटिंग, बजट तथा संसदीय समितियां। इन साधनों पर नीचे विचार किया गया है:

  • राष्ट्रपति का संभाषण
  • बजट पर चर्चा
  • प्रश्न पूछे जाने के लिए समय
  • स्थगन प्रस्ताव
  • निंदा प्रस्ताव
  • अधिनियमों पर चर्चा
  • संसदीय समितियां
  • बाह्य लेखा परीक्षण

बजट (Budget)

मूलतः वित्तीय नियंत्रण का उद्देश्य मितव्ययिता और नियमितता से है। विभिन्न प्रशासनिक मंत्रालयों के वित्तीय अनुमानों पर विधायिका के अनुमोदन के बिना व्यय नहीं किया जा सकता। अत: प्रत्येक वर्ष साधारणतया फरवरी माह में सरकार द्वारा संसद में वार्षिक बजट प्रस्तुत किया जाता है जिसमें आगामी वित्तीय वर्ष के लिए आय और व्यय का ब्यौरा होता है।

बजट विभिन्न प्रशासनिक विभागों के आय-व्यय से संबंधित होता है। बजट पेश करने के अवसर पर संबंधित मंत्री एक भाषण देता है जिसमें सरकार की वित्त नीति और आय-व्यय के रूप में विस्तृत रूप से प्रकाश डाला जाता है। बजट पर सामान्य वाद-विवाद के बाद संचित निधि पर आधारित व्यय को छोड़कर विभिन्न विभागों की मांगों पर सदन विचार करता है और प्रत्येक विभाग की मांग पर अलग-अलग मतदान होता है। साधनों के सीमित होने के कारण वित्त मंत्रालय को विशेष रूप से ध्यान रखना होता है कि परियोजनाओं में लगाए गए उपकरणों और साधनों को क्षति न पहुंचे और उनके परिणाम भी समुचित हो। अतः एक लोक कल्याणकारी राज्य में सामाजिक तथा आर्थिक रूप से बजट के दूरगामी प्रभाव होते हैं।

बजटीय प्रक्रिया का महत्व

जब सार्वजनिक धन का खर्च सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है तब प्रशासन का यह कर्त्तव्य है कि वह सार्वजनिक धन के प्रबंधन में कुशलता बरते। बजट उन प्रमुख विधियों में से एक है जिसके द्वारा सार्वजनिक वित्त का बड़े नियोजित एवं नियंत्रित ढंग से इस्तेमाल किया जाता है। बजट के महत्व को निम्नांकित रूप में समझा जा सकता है:

  • इसके द्वारा प्रशासनिक प्रबंधन एवं समन्वय में मदद मिलती है।
  • बजट सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों के लिए एक साधन का काम करता है।
  • बजट प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण का एक साधन भी है।
  • यह विधायिका के प्रति कार्यपालिका की वित्तीय एवं कानून जवाबदेयता को सुनिश्चित करने का काम करता है।

लेखा परीक्षण (Auditing)

लेखा परीक्षण देश के वित्तीय साधनों पर संसदीय नियंत्रण का एक महत्वपूर्ण एवं कारगर उपाय है। स्वतंत्र लेखा परीक्षण के द्वारा ही सार्वजनिक वित्त की सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। लेखा परीक्षण के द्वारा किसी बिजनेस अथवा संगठन के आय-व्यय की समीक्षा की जाती है। इसके अन्तर्गत विभिन्न विभागों यथा – आर्थिक कार्य विभाग, व्यय विभाग, राजस्व विभाग, आदि भी अदायगियों, लेखांकन और आंतरिक लेखा परीक्षण का कार्य संपन्न होता है।

एक लोकतांत्रिक देश में सरकारी धन की संपरीक्षा एक स्वतंत्र प्राधिकार द्वारा की जाती है। यह प्राधिकार विधायिका की ओर से यह कार्य संपन्न करता है। यह देखना उसी का कर्त्तव्य है कि सरकारी खजाने से निकाले गए धन का प्रयोग ईमानदारी व मितव्ययिता के साथ किया जा रहा है या नहीं।

संसदीय समितियां (Parliamentary Committees)

संसदीय समितियां भी प्रशासन पर नियंत्रण रखने के प्रभावी उपकरण हैं। संसद अपना बहुत-सा कार्य समितियों के माध्यम से करता है। इन समितियों को कार्य की कुछ ऐसी विशेष मदों को निपटाने के लिए नियुक्त किया जाता है जिस के लिए विशेषज्ञों द्वारा विचार करने की आवश्यकता है। यह सरकारी उपक्रमों की कार्य प्रणाली तथा अन्य वित्तीय मामलों एवं नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन का परीक्षण करती है।

इसी प्रकार सरकारी आश्वासन समिति द्वारा इस बात की जांच की जाती है कि मंत्रिमंडल एवं शासन द्वारा समय-समय पर दिए गए आश्वासन किस हद तक पूरे किए गए हैं। इस तरह की जांच से मंत्रियों को अपने कर्तव्यों के प्रति जवाबदेह बनाने में मदद मिलती है ताकि वे चुनाव के समय किए गए अपने वादों को पूरा करें।

लोक प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण (Judicial Control Over Public Administration)

आधुनिक कल्याणकारी राज्य में लोक प्रशासन के पास पर्याप्त शक्तियां एवं प्राधिकार होते हैं ताकि वे जनता की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं को पूरा कर सकें। वर्तमान में प्रशासन की भूमिका में बदलाव आया है। अब इसके जिम्मे न सिर्फ प्रशासनिक दायित्व हैं बल्कि कई ऐसे विधायी और न्यायिक मामले हैं जिनका कार्यभार भी प्रशासन को ही सौंपा जाता है। ऐसे में कई बार ऐसी भी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती है जहां प्रशासन तानाशाह की तरह व्यवहार करने लगे। अतः प्रशासन पर नियंत्रण रखना जरूरी होता है। प्रशासन को नियंत्रित करने का एक कारगर माध्यम न्यायपालिका भी है। न्यायिक नियंत्रण का तात्पर्य इस बात से है कि न्यायालय व प्रशासन के कार्यों की वैधता का परीक्षण करती है तथा इसके माध्यम से नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करती है।

 आधुनिक राज्यों में प्रशासन की शक्तियों में लगातार इजाफा हो रहा है। प्रशासन के पास स्वविवेक की शक्ति भी होता है। जिसका दुरुपयोग होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। ऐसे में न्यायपालिका ही सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों से आम जनता को सुरक्षा प्रदान कर सकती है। परन्तु न्यायपालिका स्वयं से प्रशासनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। न्यायपालिका प्रशासन के कार्यों में उसी परिस्थिति में हस्तक्षेप कर सकती है जब कोई व्यक्ति इस बावत न्यायपालिका की शरण में आए कि सरकार द्वारा उसके अधिकारों का हनन किया गया है। पुन: न्यायालय प्रशासन संबंधी हर एक गतिविधि में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सिर्फ प्रासंगिक मुद्दों को लेकर ही न्यायपालिका कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है ताकि दोनों इकाइयों के बीच तालमेल और संतुलन बना रहे।

प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण के विभिन्न रूप

  • न्यायिक पुनर्विलोकन
  • कानूनी याचिकाएं
  • लोक अधिकारियों के खिलाफ सिविल और क्रिमिनल मुकदमा
  • विशेषाधिकार रिट (आदेश)

न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial Review)

 भारत में एक लिखित संविधान है जो देश की मौलिक विधि है और सरकार के समस्त अंगों की शक्तियों तथा अधिकारों का स्रोत है। इस बात की प्रतिभूति करने के लिए कि सरकार का कोई भी अंग संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण न कर पाए और सरकार-संचालन सविधान के उपबंधों के अनुसार हो, संविधान ने न्यायपालिका को संविधान की व्याख्या करने तथा विधान सभा मंडल द्वारा बनाए जाने वाले कानूनों और केंद्र तथा राज्य सरकारों के कार्यों की संवैधानिकता के परीक्षण का अधिकार दिया है।

इन अधिकारों का प्रयोग करके न्यायपालिका संविधान की व्याख्या करता है तथा यह देखता है कि संसद कोई ऐसा कानून न पारित करे जिसका अधिकार संविधान में उसे नहीं दिया गया और यदि कोई कानून संविधान की किसी धारा का अतिक्रमण करता है तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित करके उसे लागू होने से रोक सकता है।दूसरी ओर नागरिकों को दिए गए मूल अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व भी सर्वोच्च न्यायालय का है।

विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों और कार्यकारिणी द्वारा दिए गए आदेशों की वैधता का परीक्षण न्यायपालिका दो आधारों पर करती है। (1) क्या संविधान ने एक कानून विशेष बनाने अथवा कोई आदेश विशेष देने की शक्ति संबंधित संस्था अथवा व्यक्ति को दी है? और (2) क्या यह कानून अपना आदेश नागरिकों को दिए गए मूल अधिकारों के विरुद्ध है? न्यायपालिका द्वारा कानूनों की संवैधानिकता के परीक्षण करने के लिए अधिकार को ही न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार कहा जाता है।

ओम्बुड्समैन (Ombuds man)

लोकतांत्रिक व कल्याणकारी राज्यों में राज्य की गतिविधियों में इजाफा होने के साथ-साथ संसदीय नियंत्रण द्वारा प्रशासन को जवाबदेह बनाने की पुरानी परंपरा अब पहले की तरह कारगर नहीं रह गयी है। नौकरशाही का भी निरंतर विस्तार होता जा रहा है तथा नागरिक एवं सरकार के बीच का संपर्क सूत्र भी वृहत होता जा रहा है। ऐसे में आए दिन नए-नए विवाद उठ रहे हैं जिनका समाधान अब पारंपरिक तरीके से किया जाना संभव नहीं रह गया है। ऐसे विवादों के समाधान के लिए वैश्विक स्तर पर तरह-तरह के उपाय किए जा रहे हैं जिनसे लोगों की शिकायतों का निवारण किया जा सके तथा सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों से नागरिकों को सुरक्षा प्रदान किया जा सके। शिकायतों के निवारण के लिए मुख्य रूप से चार उपायों की पहचान की जा सकती है। न्यायालय, कानूनी जांच पड़ताल, प्रशासनिक अधिकरण और ओम्बुड्समैन।

नौकरशाही की शक्तियों के दुरुपयोग के संबंध में नागरिकों द्वारा की गई शिकायातों की खोज करने हेतु ओमबुड्समैन की नियुक्ति की जाती है। इस प्रकार यह सरकार का एक अधिकृत अभिकर्ता है जो सरकार एवं प्रशासनिक अधिकारियों के अर्द्ध न्यायिक एवं अन्य प्रशासनिक कृत्यों पर निरंतर चौकसी रखता है। प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्ध कुप्रशासन, प्रशासनिक स्वविवेक का दुरुपयोग, भ्रष्ट आचरण, पक्षपात, भाई-भतीजावाद, राजनीतिक प्रभाव, आदि के संबंध में नागरिकों द्वारा की गई शिकायतों की खोजबीन करना तथा पीड़ित पक्ष को समुचित राहत दिलाना ही ओमबुड्समैन का कार्य है। 

ओमबुड्समैन द्वारा मुख्य रूप से तीन उद्देश्यों की पूर्ति होती है:-

  • व्यक्तिगत शिकायतों को दूर करना
  • प्रशासन की गुणवत्ता में सुधार करना
  • व्यवस्थापिका द्वारा नौकरशाही की जांच पड़ताल में व्यवस्थापिका की मदद करना।

ओमबुड्समैन की उपस्थिति मात्र से नागरिकों में सरकार के प्रति सकारात्मक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और लोग सरकार की विश्वसनीयता पर भरोसा करने लगते हैं। जिन नागरिकों की शिकायतों का निवारण हो जाता है वे सरकार से संतुष्ट दिखाई देते हैं। प्राप्त शिकायतों की खोजबीन करने में ओमबुड्समैन कोई भी समुचित प्रक्रिया अपनाने के लिए स्वतंत्र है। पूर्ण रूप से जांच पड़ताल करने के बाद ओमबुड्समैन प्रशासन को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि वह अपनी कार्रवाई के औचित्य को सिद्ध करे। इस प्रकार ओमबुड्समैन प्रशासन में पारदर्शिता को सुनिश्चित करने का एक कारगार माध्यम है तथा आम जनता भी ऐसी किसी संस्था के अस्तित्व में होने से स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं।

भारतीय ओमबुड्समैन – लोकपाल और लोकायुक्त (Indian Ombudsmen Lokpal & Lokayukta)

प्रशासनिक सुधार आयोग के प्रतिवेदन तथा शासन में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से निपटने के लिए केंद्र स्तर पर लोकपाल एवं राज्य स्तर पर लोकायुक्त नाम से स्वतंत्र निकाय के गठन पर विमर्श भारत में काफी समय से चलता आ रहा है। लोकपाल एवं लोकायुक्त को सार्वजनिक एवं शासकीय व्यक्तियों के दुराचार के संबंध में जांच का अधिकार प्राप्त है। लोकपाल से इस बात की उम्मीद की जाती है कि वह सांसद, मंत्री तथा नौकरशाही तीनों की सत्यनिष्ठा की निगरानी करेगा।

भारत में लोकपाल स्कैंडिनेवियन देश में प्रचलित ओमबुड्समैन का ही एक रूप है। स्कैंडिनेवियन देशों में ओमबुड्समैन की क्षमता एवं कार्यप्रणाली ने समूचे विश्व में इस संस्था को एक पहचान दी है तथा अब विभिन्न देशों में इस संस्थान को स्वीकृति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी है। वर्तमान में ओमबुड्समैन को एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जा रहा है जो लोगों की शिकायतें सुनती हैं तथा प्रशासन पर नियंत्रण बनाए रखती हैं। इस तरह यह संस्था सरकारी तंत्र की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाए रखती हैं।

सेवा का अधिकार (Right to Service)

सेवा का अधिकार अधिनियम एक व्यवस्था अथवा तंत्र है जिसका उद्देश्य है लोगों की शिकायतों का निवारण करना, लोक अधिकारियों द्वारा समय सीमा के अंदर नागरिकों के लिए सेवा डिलिवरी सुनिश्चित  करना तथा गैर जिम्मेदार लोक अधिकारियों को दंड देना। इस अधिनियम क आस्तत्व आ जाने से सरकारी सेवा पाना लोगों का कानूनी अधिकार बन चुका है।

सेवा का अधिकार अधिनियम का मुख्य उद्देश्य भ्रष्टाचार को कम कर सरकारी कर्मचारियों का अधिक से अधिक जवाबदेह बनाना है ताकि सरकारी काम-काज में पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।

सामाजिक लेखा परीक्षण (Social Audit)

सामाजिक लेखा परीक्षण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा आम जनता को देश की वित्तीय और गैर-वित्तीय संसाधनों के बारे में एक सार्वजनिक मंच के माध्यम से जानकारी दी जाती है। इसके माध्यम से जनता सरकार की विकासात्मक योजनाओं पर निगरानी रखती है तथा सरकार एवं प्रशासन पर पारदर्शिता एवं जवाबदेयता बनाए रखने के लिए दबाव डालती है।

सामाजिक लेखा परीक्षण को सरकार के एक उपकरण के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है जिसके माध्यम से सरकार अपने भिन्न-भिन्न विभागों एवं संगठनों के सामाजिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों के बाह्य व आंतरिक परिणामों पर नजर रखती है तथा इन विभागों के वित्तीय और गैर वित्तीय गतिविधियों का नियोजन, प्रबंधन एवं आकलन भी करती है। एक संगठन के लिए सामाजिक लेखा परीक्षण का अर्थ है उस संगठन के सामाजिक जवाबदेयता को रेखांकित करना। सामाजिक लेखा परीक्षण को इस रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है कि यही वह साधन है जिसके द्वारा लोक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाने वाले कार्य तथा इनकी सामाजिक प्रासंगिकता के बीच के संबंधों का गहराई से विश्लेषण किया जाता है। पंचायती राज संस्थाओं के लिए संविधान में किए गए 73वें संशोधन के बाद से सामाजिक लेखा परीक्षण की महत्ता में विशेष रूप से वृद्धि हुई है।

सामाजिक लेखा परीक्षण सार्वजनिक पदों पर आसीन कर्मचारियों की त्रुटियों की ओर संकेत नहीं करता बल्कि उनके कार्य निष्पादन के सामाजिक पर्यावरणीय तथा सामुदायिक परिणामों एवं लक्ष्यों का मूल्यांकन पर केंद्रित होता है। यही वह साधन है जिससे यह पता चलता कि कोई संस्थान जन आकांक्षाओं की पूर्ति के अपने उद्देश्यों में किस हद तक सफल रहा है।

ई-सरकार (E- Government)

सरकार द्वारा सरकारी एजेंसियों की क्षमता, पारदर्शिता तथा जवाबदेयता में सुधार लाने के लिए सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को ई-सरकार की संज्ञा दी जाती है। सरकार तथा नागरिकों के बीच संपर्क सूत्र का निर्माण करना, सरकार तथा व्यवसायिक उद्यमों के बीच सहज, मित्रवत्, पारदर्शी तथा मितव्ययिता जैसे संबंधों का निर्माण करना ही ई-सरकार का मुख्य उद्देश्य है।

ई-प्रशासन (E-Governance)

भारतीय प्रशासन पर सूचना एवं प्रौद्योगिकी के प्रभाव को ई-प्रशासन के रूप में देखा जा स. . ई-गवर्नेस शासन की प्रणालियों में आईसीटी के प्रयोग में अगला तर्कपूर्ण कदम है ताकि र निर्माण प्रक्रिया में नागरिकों, संस्थानों, सिविल सोसाइटी वों और निजी क्षेत्रों की और गहराई से आश्रित किया जाना सुनिश्चित किया जा सके। सरकार का अपने  संघटकों, नागरिकों और व्यावसायियों के साथ संबंधों और इसके अपने भागों के बीच संबंधों को आधुनिक तकनीकों जैसे कि सूचना और संचार तकनीक (आईसीटी) के यंत्रों का प्रयोग करके देखा जा सकता है। डिजिटल क्रांति में शासन में परिवर्तन करने और प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं को पुन: अर्थपूर्ण बनाने की शक्ति है।

ई-गवर्नेस एक ऐसे विकास यात्रा का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें नागरिकों को सूचना दी जाती है। प्रशासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाती है, इनकी शिकायतों पर ध्यान दिया जाता है, उनकी मांगों का प्रतिनिधित्व किया जाता है तथा उनसे विचार विमर्श किया जाता है। जबकि ई-गवर्नेस से पहले सूचना संप्रेषण का तरीका पारंपरिक था।

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