ताम्र पाषाण युग तथा आरम्भिक लौह युग

आपने हड़प्पा-सभ्यता के विभिन्न चरणों तथा समाज एवं संस्कृति के विभिन्न पक्षों की जानकारी प्राप्त की। आपने इसके भौगोलिक विस्तार तथा इसके पतन एवं फैलाव के प्रति भी जानकारी प्राप्त की।

इस इकाई में हम उत्तरी, पश्चिमी, मध्य एवं पूर्वी भारत में उत्तर हड़प्पा ताम्र पाषाण सभ्यता के बारे में चर्चा करेंगे।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • इन संस्कृतियों की भौगोलिक स्थिति तथा यहाँ के लोगों द्वारा स्थानीय परिस्थितियों  के अनुरूप अपने को ढालना, किस प्रकार के घरों में लोग रहते थे, वे कौन से अन्न उगाते थे और किस प्रकार के औज़ारों का प्रयोग करते थे,
  • किस प्रकार के बर्तनों को प्रयोग में लाया जाता था,
  • लोगों के क्या धार्मिक विश्वास थे, और
  • आरम्भिक लौह युग में कौन-कौन से परिवर्तन आये।

दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में विभिन्न क्षेत्रीय संस्कृतियाँ अस्तित्व में आयीं। यह संस्कृतियाँ न तो शहरी थीं और न ही हड़प्पा संस्कृति की तरह थीं बल्कि पत्थर एवं ताँबे के औज़ारों का इस्तेमालं इन संस्कृतियों की अपनी विशिष्टता थी। अतः यह संस्कृतियाँ ताम्र पाषाण संस्कृतियों के नाम से जानी जाती हैं।

ताम्र पाषाण संस्कृतियाँ अपनी भौगोलिक स्थितियों के आधार पर पहचानी जाती हैं। इस प्रकार हम इन्हें निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत करते हैं :

  • राजस्थान में बानस संस्कृति (बानस थाले में स्थित)
  • कायथ संस्कृति (काली सिंध (चम्बल की सहायक नदी) के तट पर स्थित कायथ) जो मध्य भारत (नर्मदा, तापती तथा माही घाटी में) में कई स्थलों पर पाई जाती हैं मालवा संस्कृति (मालवा तथा मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र के अन्य भागों में बिखरी संस्कृति)
  • जोर्वे संस्कृति (महाराष्ट्र)।

इन संस्कृतियों से सम्बन्धित स्थलों की खुदाई से हम इनके निम्न पक्षों के बारे में विस्तृत अनुमान लगा सके हैं:

  • बस्तियों का फैलाव
  • अर्थव्यवस्था का ढाँचा
  • शव गृह और शवदाह के तरीके
  • धार्मिक विश्वास।

खुदाई स्थलों में इस संस्कृति से सम्बंधित वस्तुओं के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, बिहार, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा एवं कर्नाटक के विभिन्न भागों में ताम्र/कांस्य की वस्तुओं के भंडार प्राप्त हुए हैं। चूंकि यह वस्तुएं भंडारों (उपरोक्त राज्यों के 85 स्थानों पर लगभंग एक हजार वस्तुएं प्राप्त हुई हैं) के रूप में प्राप्त हुई हैं अतः इन क्षेत्रों के एक भिन्न ताम्र भंडार संस्कृति से सम्बद्ध होने का अनुमान लगाया गया। साईपई (इटावा जिला) उत्तर प्रदेश में ताम्र मत्स्यभाला तथा उसके साथ गेरुए चित्रित बर्तन (OCP) प्राप्त हए। हैं।

यद्यपि कछ अन्य ताम्र वस्तुओं के भंडार स्थलों में भी गेरुए चित्रित बर्तन मिले हैं किन्त इस ताम्र भंडार का चित्रित बर्तनों के साथ सीधा सम्पर्क नहीं है। चंकि गंगा-यमना दोआब में हक सौ से अधिक स्थानों पर ये विशिष्ट प्रकार के बर्तन प्राप्त हए हैं अतः इन्हें गेरुए चित्रित बर्तनों की संस्कृति से सम्बद्ध माना जाता है। गेरुए चित्रित बर्तनों की संस्कृति के बाद काले एवं लाल मदभाण्डों की संस्कृतियां तथा चित्रित घसर मदभाण्डों की संस्कृतियां जो कि विशिष्ट प्रकार के बर्तनों के आधार पर पहचानी जाती हैं, का यग आता है। उत्तर भारत में हरियाणा तथा ऊपरी गंगा घाटी में चित्रित घूसर मृद्भांड के स्थलों की बड़ी संख्या

इस बिन्दु पर काले एवं लाल मृद्भाण्ड, पॉलिश किए घूसर मृद्भाण्ड तथा उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्ड जैसी शब्दावलियों की व्याख्या आवश्यक है। यह संस्कृतियां बर्तनों की विशिष्ट किस्मों के आधार पर निर्धारित की जाती है क्योंकि बर्तनों की विशिष्ट किस्म उक्त संस्कृति का विशिष्ट लक्षण होती है यद्यपि उक्त संस्कृति के कई अन्य पक्ष भी हो सकते हैं। विशिष्ट मद्भाण्डों अथवा बर्तनों का प्रयोग किसी विशिष्ट संस्कृति की पहचान अथवा उसे नाम देने के उद्देश्य से किया जाता है। उदाहरणार्थ किसी विशेष क्षेत्र में यदि चित्रित घूसर मृद्भाण्ड पाए जाते हैं तो वहां की संस्कृति को चित्रित घूसर मृद्भाण्डों की संस्कृति कहा जाता है।

मिलती है जिनमें से 30 की अब तक खुदाई हो चुकी है लोहे का प्रार्दुभाव सर्वप्रथम चित्रित घूसर मृद्भाण्ड संस्कृति में होता है, जो कि उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों की संस्कृति के नाम से जानी जाती थी तथा आगे के चरणों में इसका प्रयोग बहुत विस्तृत पाया जाता है। 600 ईसा पूर्व से शहरीकरण का आरंभ दिखाई पड़ता है।

हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद के सांस्कृतिक विकास को समझने के लिए हमें चर्चा उत्तर भारत, विशेषकर गंगा-यमुना दोआब से आरंभ करनी चाहिए।

गेरुए चित्रित बर्तनों की संस्कृति

1950 में उत्तर प्रदेश में बिसौली (बदायूं जिला) तथा राजपुर परसू (बिजनौर जिला) जो कि दोनों ही ताम्र भंडार क्षेत्र हैं, की परीक्षण दृष्टि से खुदाई में नए किस्म के बर्तन प्राप्त हए। बर्तन मध्यम स्तर की दानेदार मिट्टी से बनाकर कम तपाए गए हैं। इन्हें नारंगी से लेकर लाल रंग तक के गेरुए जो कि प्रायः घिसने पर धूमिल हो जाता है, रंग से रंगा गया है। इस प्रकार के मृद्भाण्डों से सम्बद्ध क्षेत्र गेरुए चित्रित बर्तनों की संस्कृति वाले क्षेत्र कहलाते हैं। मायापुर (सहारनपुर जिला) से लेकर साईपई (इटावा जिले) तक लगभग 110 स्थल इस विशिष्ट संस्कृति के हैं।

गेरुए चित्रित बर्तनों के क्षेत्र सामान्यतः नदियों के तटों पर मिले हैं। यह क्षेत्र आकार में छोटे हैं तथा कई क्षेत्रों (जैसे बहादराबाद, बिसौली, राजपुर परसू, साईपई) में टीलों की ऊँचाई काफी कम है। इससे इन बस्तियों के जीवन काल अवधि अपेक्षाकृत कम होने की ओर संकेत मिलता है। बस्तियों के बीच की दूरी 5 से 8 किलोमीटर के बीच पायी गयी है। कछ गेरुए चित्रित बर्तनों के क्षेत्रों (जैसे अम्बखेरी, बहेरिया, बहादराबाद, झिंझाना, लाल किला, अतरंजीखेड़ा, साईपई) की खुदाई से यहां नियमित बस्तियाँ होने के लक्षण नहीं मिले हैं। हस्तिनापर तथा अहिक्षेत्र में गेरुए चित्रित बर्तनों की संस्कति तथा इसके बाद आने वाली चित्रित घूसर बर्तनों की संस्कृति के बीच की प्रक्रिया अवरोधित प्रतीत होती है जबकि अतरंजीखेड़ा में गेरुए चित्रित बर्तनों के स्तर के बाद काले एवं लाल मिट्टी के बर्तनों के स्तर आते हैं।

गेरुए चित्रित बर्तनों की संस्कृति के भौतिक अवशेष मुख्य रूप से बर्तन हैं। इनमें जार (भंडारण करने वाले जार सहित), प्याले, गोल आधार वाले प्याले, सुराही, दस्तेवाले बर्तन, छोटे बर्तन, पात्र, टोटी वाले बर्तन आदि शामिल हैं।

अन्य वस्तुओं में, पक्की मिट्टी की चूड़ियाँ, पक्की मिट्टी के मनके तथा इन्द्रगोप, पक्की मिट्टी की जानवरों की मूर्तियां एवं गाड़ी के पहिए जिनके केन्द्र में एक गुमटा है, पत्थर की चक्की एवं मूसल तथा हड्डियों के हरावल प्राप्त हुए। साईपई में गेरुए चित्रित बर्तनों के क्षेत्र में एक ताम्र मत्स्यभाला भी प्राप्त हुआ है।

घरों के ढांचों से सम्बंधित अधिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। पुराना किला से प्राप्त प्रमाणों, जो कि अपर्याप्त हैं, के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि फर्श थापी हुई मिट्टी के बनाए जाते थे। घर सरपट एवं उस पर मिट्टी की लिपाई के साथ बनाए जाते थे। ऐसा अनुमान पुराना किला में प्राप्त तपी मिट्टी के प्लास्टर एवं मिट्टी पर सरकड़े एवं बांस के निशानों के आधार पर लगाया गया है।

इस संस्कृति से सम्बंधित अतरंजीखेड़ा से प्राप्त पुरातात्विक-वानस्पतिक अवशेषों से पता चलता है कि इन क्षेत्रों में धान, जौ, दालें तथा घिसारी की फसल उगाई जाती थी। बर्तनों के प्रकारों में समानता के आधार पर कुछ विद्वानों का विचार है कि गेरुए रंगे बर्तन हड़प्पा सभ्यता के अंतिम काल के बिगड़े हुये रूप की तरह के हैं।

गेरुए चित्रित बर्तनों से प्राप्त ताप संदीप्ति परीक्षा के आधार पर यह संस्कृति 2000 ईसा पूर्व से 1500 ईसा के बीच मानी गयी है।

ताम्र भंडारों की समस्या

ताम्र भंडार संस्कृति से सम्बद्ध प्रथम ताम्र वस्तु (ताम्र मत्स्यभाला) 1822 में ही कानपुर जिले के बिठूर नामक स्थान पर प्राप्त हुई। तब से लेकर अब तक 85 विभिन्न क्षेत्रों में लगभग एक हजार ताम्र वस्तुएं भंडारों में मिली हैं।

यह संभव है कि ऐसे ताम्र भंडार गुजरात और आंध्र प्रदेश में मिले हों परन्तु इनकी विधिवत सूचना उपलब्ध नहीं करायी गयी है।

मध्य प्रदेश में गुगेरिया को छोड़कर, जहां कि केवल एक भंडार से 424 ताम्र वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, भंडारों में ताम्र वस्तुएं पाए जाने की औसत 1 से 47 के बीच है। यह ताम्र भंडार हल चलाते समय, नहर खोदते अथवा सड़क बनाते समय प्रकाश में आए एवं सभी उपलब्धियां संयोगिक रही हैं। केवल साईपई में ही गेरुए चित्रित बर्तनों से सम्बधित क्षेत्र की खुदाई में एक ताम्र मत्स्य भाला प्राप्त हुआ था।

इन ताम्र भण्डारों में निम्न वस्तुयें विशिष्ट हैं

मुंगिका तलवार : श्रृंगिका तलवार (जिसकी लम्बाई 40 से.मी. से 50 से.मी. के बीच है) में एक फलक तथा एक दस्ता है। दस्ता किसी कीटाण के अंगिका की भाति विभक्त है। शृंगिका तलवार के फलक का मध्य वक्र काफी स्पष्ट है।

बेधनी तलवार : इन तलवारों में फलक के बजाए दस्ते पर कांटेदार बेधनी हैं।

मानवकल्प : मानवकल्प विशालकाय मानवरूपी वस्तु है जिनके हाथ मुड़े हुए हैं तथा बाहरी सिरा धारदार है। बाजू सर की अपेक्षा पतले हैं। लम्बाई में 25 से.मी. से 45 से.मी. तथा चौड़ाई में 30 से. मी. से 43 से.मी. के बीच है। इनका वजन 5 किलोग्राम तक है। (इनके अतिरिक्त अन्य प्रमुख वस्तुयें नीचे दिये गये चित्र में दर्शायी गयी हैं।)

साईपई में गेरुए चित्रित बर्तनों के साथ ताम्र मत्स्यभाले के पाए जाने तथा अन्य गेरुए चित्रित मृद्भाण्ड क्षेत्रों में ताम्र भंडार पाए जाने (यद्यपि यह प्रत्यक्ष पुरातात्विक संबंध पर आधारित नहीं हैं) के आधार पर इन्हें गेरुए चित्रित मिट्टी के बर्तनों की संस्कृति से जोड़ा जा सकता है। इस प्रकार ताम्र भंडारों का काल 2000 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व के बीच रखा जा सकता है।

काले एवं लाल मृद्भाण्ड संस्कृति

1960 के दशक के आरंभ में अतरंजीखेड़ा में खुदाई के दौरान एक विशिष्ट प्रकार के, गेरुए चित्रित बर्तनों एवं चित्रित घूसर मृद्भाण्डों के स्तरों के बीच के, मृद्भाण्ड प्रकाश में आए। इस स्तर के विशिष्ट बर्तन काले एवं लाल मृद्भाण्ड कहे जाते हैं। जोधपुरा एवं नोह (राजस्थान) से 1970 के दशक में इसी प्रकार के स्तरीय क्रम प्रकाश में आए। किंतु अहिक्षेत्र, हस्तिनापुर एवं आलमगीरपुर में काले एवं लाल मृद्भाण्ड रंगे घूसर मृद्भाण्डों के साथ प्राप्त हुए हैं।

बर्तन

इन बर्तनों के विशिष्ट लक्षण यह हैं कि बर्तनों के अन्दर के भाग तथा बाहर के भाग में किनारा काले रंग तथा शेष बर्तन लाल रंग से चित्रित हैं। ऐसा विश्वास है कि रंग का यह समायोजन बर्तनों को उल्टा करके तपा कर लाया गया है। बर्तन अधिकतर । चाक पर बनाये गये हैं, यद्यपि कुछ हाथ से बनाए हुए बर्तन भी हैं। महीन मिट्टी के बने इन बर्तनों की बनावट काफी सुगठित हैं तथा किनारे पतले हैं। काले एवं लाल मृद्भाण्ड राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार तथा पश्चिमी बंगाल में भी पाए गए हैं, किंतु दोआब के काले एवं लाल मृद्भाण्डों पर रंगाई नहीं की गयी है।

अन्य वस्तुएं

अतरंजीखेड़ा में खुदाई के दौरान पत्थर के टुकड़े, पत्तर तथा टुकड़े, स्फटिक, सिक्थस्फटिक, अकीक तथा इन्द्रगोप के मूलभाग, इन्द्रगोप सीप तथा ताम्र, ताम्र का एक चक्र, तथा हड्डी से बनी एक कंघी का एक टुकड़ा प्राप्त हआ है। पत्थर अथवा धातु के कोई औजार नहीं मिले हैं। जोधपुरा में हड्डी की नुकीली कील मिली है। नोह में आकृति रहित लोहे का टुकड़ा, पक्की मिट्टी का एक मनका तथा एक हड्डी की कील मिली है।

दोआब तथा अन्य क्षेत्रों में काले एवं लाल मृद्भाण्ड

कुछ विद्वान यह मानते हैं कि अतरंजीखेड़ा तथा दक्षिणी राजस्थान में गिलुंद तथा आहर में मिले काले एवं लाल मद्भाण्डों में स्वरूप, बनावट एवं चमक के आधार पर समानता है। लेकिन इन स्थानों से प्राप्त बर्तनों के आकार और रूपरेखा में भिन्नताएं भी हैं जो निम्न हैं :

  • दोआब के (तथा नोह के) काले एवं मिट्टी के लाल बर्तनों की मुख्य विशेषता उनका सादा पृष्ठभाग है जो कि चित्र रहित है। जबकि गिलंद एवं आहर में मिट्टी के बर्तन काले पृष्ठभाग पर सफेद रंग से चित्रित किए गए हैं।
  • इनमें किस्मों का भी अंतर है। आहर के चित्रित काले एवं लाल मिट्टी के बर्तनों में स्पष्ट रूप से कोणिक अवतल किनारे हैं तथा बनावट खरदरी है। दोआब के काले एवं लाल मिट्टी के बर्तनों में कोणिक किनारे नहीं हैं तथा बनावट चिकनी है।
  • स्वरूप विहीन किनारे तथा अवतल भाग वाली तश्तरियाँ दोआब के काले एवं लाल मिट्टी के बर्तनों में प्रचुर संख्या में मिलती हैं जबकि आहर एवं गिलुंद में ऐसी तश्तरियाँ नहीं प्राप्त हुई।
  • रोटी वाले प्याले तथा स्टैंड वाली तश्तरियाँ आहर एवं गिलुंद में प्राप्त हुई लेकिन दोआब क्षेत्रों में नहीं प्राप्त हुई।

यह तथ्य काफी महत्वपूर्ण है कि काले एवं लाल मृद्भाण्ड विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ी बहुत भिन्नताओं के साथ काफी बड़े क्षेत्र में फैले पाए गए हैं। यह मृद्भाण्ड उत्तर में रोपड़ से लेकर दक्षिण में आदिचानालूर तथा पश्चिम में आमर तथा लाखबवाल से लेकर पूर्व में पांडु-राजार ढिबी तक प्राप्त हुए हैं। इनका समय परिप्रेक्ष्य भी काफी लम्बा है जो कि 2400 ईसा पूर्व से लेकर ईसवीं युग की आरंभिक शताब्दियों तक फैला हुआ है।

चित्रित घूसर मृद्भाण्ड संस्कृति

1946 में अहीक्षेत्र में चित्रित घूसर मृद्भाण्डों की खोज के बाद से उत्तरी भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ये बड़ी संख्या में प्रकाश में आए हैं। इनमें से 30 स्थानों की खुदाई हुई है। इनमें से मुख्य रोपड़ (पंजाब), भगवानपुरा (हरियाणा), नोह (राजस्थान), आलमगीरपुर, अहिक्षेत्र, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा, तथा मथुरा (सभी उत्तर प्रदेश) हैं।

काले एवं लाल मृद्भाण्डों के क्षेत्र भारत-गांगेय विभाजन, सतलुज के थाले तथा गंगा के ऊपरी मैदानों में केन्द्रित हैं। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की औसत दूरी 10 से 12 कि.मी. की है यद्यपि कुछ क्षेत्र 5 कि.मी. की दूरी पर भी हैं। इन क्षेत्रों की बस्तियां अधिकतर छोटे-छोटे गांव हैं (जिनका क्षेत्रफल 1 से 4 हेक्टेयर के बीच है)। केवल हरियाणा में बुखारी (अम्बाला जिला, हरियाणा) इसका अपवाद है जो कि 96, 193 वर्ग मीटर में फैला हुआ है। आइए, अब हम उन वस्तुओं पर दृष्टि डालें जिन्हें चित्रित घूसर मृद्भाण्ड संस्कृति से संबंधित समझा गया है।

बर्तन

बर्तन चाक पर बनाए गए हैं। मिट्टी काफी चिकनी है तथा बर्तनों का आधार काफी पतला है।

  • इनका पृष्ठभाग चिकना है तथा रंग घूसर से लेकर राख के रंग के बीच है। 
  • इनके बाहर तथा अन्दर के तल दोनों ही काले और काफी गहरे चॉकलेटी रंग में रंगे गए हैं।
  • इनकी लगभग 42 किस्में हैं जिसमें सबसे सामान्य किस्म प्याले एवं तश्तरियों की है।

घरों के ढांचे

अहिक्षेत्र, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा तथा जखेड़ा की खुदाई के बाद घरों तथा अन्य ढांचों के सरपत एवं मिट्टी से पाथे होने की जानकारी मिलती है। तपाई मिट्टी, मिट्टी की इंटों, तपाई ईंटों, मिट्टी के चबूतरे तथा मिट्टी के प्लास्टर के साथ-साथ सरकण्डे एवं बांस के निशान पाए जाने के आधार पर यह जानकारी मिलती है। भगवानपुरा (हरियाणा) क्षेत्र में खुदाई से घरों के ढांचों के भिन्न चरणों की ओर संकेत मिले हैं।

प्रथम चरण में खंभों के गड्ढे घरों के गोलाकार एवं आयताकार होने की ओर संकेत करते हैं। दसरे चरण में एक घर में 13 कमरे तथा दो कमरों के बीच बरामदा पाया गया है। इस घर में एक आंगन भी है।

अन्य वस्तुएं

खुदाई के दौरान, ताम्र, लोह, कांच तथा हड्डियों की कई प्रकार की वस्तुएं मिली हैं। इनमें कल्हाड़ियाँ, छेनियाँ, मछली के कांटे तथा बाण के फल मख्य हैं। बरछे के फल केवल लोहे के हैं। खेती के उपकरणों में जखेड़ा में लोहे की बनी हंसिया और कुदाली प्राप्त हुई हैं। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अन्य सभी क्षेत्रों में लोहे की वस्तुएं मिली हैं। केवल अतरंजीखेड़ा से ही 135 वस्तएं मिली हैं, जिनमें एक भट्टी, सतह पर लोहे का बुरादा तथा दो चिमटे मिले हैं। जोधपुरा में दो भटिटयाँ मिली हैं।

अकीक, सूर्यकांत, इन्द्रगोप, सिक्थस्फटिक, लाजवर्द, कांच तथा हड्डी के मनकों की मालाएं पाई गयी हैं। हस्तिनापुर में दो कांच की चूड़ियाँ तथा जखेड़ा में ताम्र की चूड़ियां मिली हैं। मिट्टी की वस्तुओं में मानवीय (पुरुष और स्त्री दोनों) तथा पशुओं (बैल और घोड़े) की मूर्तियाँ, चपटी गोलाकृतियाँ (डिस्क), गेंद, कुम्हार की मोहरें आदि पाई गई हैं।

फसलों और पशुओं के अवशेष

केवल हस्तिनापुर और अतरंजीखेड़ा में ही उगाई जाने वाली फसलों के प्रमाण मिलें हैं। हस्तिनापुर में केवल चावल और अतरंजीखेड़ा में गेहूं और जौ के अवशेष मिले हैं। घोड़े, गाय, भैंसों, सुअर, बकरी और हिरन की हड्डियाँ हस्तिनापुर, अल्लापुर और अतरंजीखेड़ा से प्राप्त हुई है। इनमें जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं की हड्डियाँ हैं।

व्यापारिक तरीके तथा संबंध

विभिन्न प्रकार के अर्धबहुमूल्य पत्थरों (जैसे अकीक, सूर्यकांत, इन्द्रगोप, सिक्थस्फटिक, लाजवर्द) की मालाएं दोआब के विभिन्न चित्रित घूसर मृद्भाण्ड क्षेत्रों से प्राप्त हुई हैं। जहां तक इन पत्थरों के कच्चे खनिक के रूप में प्राप्त होने का प्रश्न है, इनमें से दोआब में एक भी पत्थर उपलब्ध नहीं है। अकीक एवं सिक्थस्फटिक कश्मीर, गुजरात तथा मध्यप्रदेश में तथा लाजवर्द अफगानिस्तान के बदखशां प्रांत में पाया जाता है। अतः रंगे घूसर मृद्भाण्ड क्षेत्रों के निवासियों ने इन पत्थरों को इन क्षेत्रों से व्यापार के द्वारा अथवा विनिमय के रूप में प्राप्त किया होगा।

उत्तर पश्चिमी भारत के बर्तनों तथा सलेटी मिट्टी के बर्तनों (PGW) में आकार और रूप के आधार पर कछ समानताएं मिलती हैं विशेषकर लोहे के साथ पाए गए सलेटी बर्तनों का घूसर मृद्भाण्ड संस्कृति से सम्बन्ध दिखलाई देता है।

उत्तरी काले पॉलिश वाली मुद्भाण्ड संस्कृति

पूर्व संस्कृतियों की भांति ही उत्तरी काले पॉलिश वाली मृद्भाण्ड संस्कृति की पहचान इसके विशिष्ट बर्तनों के आधार पर की जाती है। यह मृद्भाण्ड सर्वप्रथम 1930 में तक्षिला में मिले। इन मद्भाण्डों की काली चमक के कारण इनके खोजने वालों ने उस समय इन्हें ग्रीक काले मृद्भाण्ड समझा। तब से लेकर अब तक उत्तर पश्चिम में तक्षिला तथा उदग्राम से लेकर पूर्वी बंगाल में तालमुक एवं दक्षिण में अमरावती (आंध प्रदेश) तक लगभग 1500 उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों के क्षेत्रों की पहचान की जा सकी है जिसमें से 74 क्षेत्रों की खुदाई हो चुकी है।

उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्माण के चुदाई किए गए मुख्य क्षेत्र

क्षेत्र के नाम  राज्य जिनमें क्षेत्र स्थित हैं
रोपर

राजा कर्नका किला

जोधपुरा/नोह

अहिक्षेत्र/हस्तिनापुर/ अतरंजीखेड़ा/कोशाम्बी/

श्रावस्ती

वैशाली/पाटलिपुत्र/सोनपुर

चन्द्रकेतुगढ़

पंजाब

हरियाणा

उत्तरी राजस्थान

 

उत्तर प्रदेश

बिहार

पश्चिमी बंगाल

खुदाईयों से पता चलता है कि :

  • कई क्षेत्रों में उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों का उदय चित्रित घूसर मृद्भाण्डों स्तरों के उपरांत हुआ।
  • कई स्थानों पर उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्ड काले एवं लाल मृद्भाण्डों के उपरांत मिलते हैं तथा लाल धारी वाले मृद्भाण्ड उत्तरी काले पॉलिश किए मद्भाण्डों के बाद मिलते हैं।

इस किस्म के बर्तनों तथा अन्य वस्तुओं का विभिन्न कालों से संबंधित होने के आधार पर ऐसा माना गया है कि उत्तरी काले पॉलिश किए बर्तनों की संस्कृति के दो भिन्न चरण रेखांकित किए जा सकते हैं।

चरण I

यह चरण ‘प्रिडिफेंस’ चरण भी कहा जाता है। इस चरण की विशेषता उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों की प्रचुरता तथा इनके साथ काले एवं लाल मृद्भाण्डों व चित्रित घूसर मृद्भाण्डों के अवशेषों का भी पाया जाना है। यद्यपि यह अवशेष कम मात्रा में ही मिले हैं।

इस चरण में पंच मार्कड सिक्के तथा तपाई गई ईंटों के मकान नहीं थे जिसका अर्थ उच्च स्तरीय विकास का होना है। इसका प्रतिनिधित्व अतरंजीखेड़ा, श्रावस्ती तथा प्रहलादपुर करते हैं।

चरण II

इस चरण में काले एवं लाल मृद्भाण्ड तथा चित्रित घूसर मृद्भाण्डों के बर्तनों के नमूने नहीं मिलते हैं। उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्ड न तो अच्छी कोटि के हैं (इनकी बनावट मोटी है) और इनकी संख्या भी कम है। पंच मार्कड़ सिक्के तथा तपाई गई ईंटें इस चरण में पहली बार सामने आती हैं। इस चरण का प्रतिनिधित्व हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, श्रावस्ती 1] और प्रहलादपुर करते हैं।

उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों तथा चित्रित घूसर मृद्भाण्डों के बीच समानता को देखते हुए कुछ विद्वानों ने मत प्रकट किया है कि चित्रित घूसर मृद्भाण्ड उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों का परिष्कृत रूप हैं तथा दोनों के बीच भिन्नता केवल ऊपरी तौर पर है।

चित्रित घूसर मृद्भाण्डों, काले एवं लाल मृद्भाण्डों तथा उत्तरी काले पॉलिश किये मृद्भाण्डों के रासायनिक विश्लेषण से इस तथ्य की पुष्टि भी की जा चुकी है।

चूंकि उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों की पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार में बहुतायत है अतः संभव है इनका उद्भव इसी क्षेत्र में हुआ हो। बाद के दिनों में यह गंगा के मैदानों के परे फैल गए होंगे जिसका कारण बौद्ध भिक्षुओं तथा व्यापारियों की गतिविधियाँ हैं।

भवनों के अवशेष

हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा तथा कौशाम्बी में खुदाई से यह स्पष्ट हो गया है कि इस काल के दौरान मकान बनाने का कार्य बड़े पैमाने पर शुरू हो गया था और शहरों का बनना आरंभ हो चुका था।

कौशाम्बी में बस्तियों के स्वरूप के प्रमाण काफी स्पष्ट रूप में उपलब्ध हुए हैं। इसी स्थान पर ईंटों के फर्श वाले रास्ते और गलियाँ मिली हैं। एक सड़क जो पहली बार लगभग 600 ईसा पूर्व में बनाई गयी थी उसकी कई बार मरम्मत की गयी (इसकी चौड़ाई 5.5 मीटर से 2.5 मीटर के बीच रही) और 300 ईसवीं तक प्रयोग में रही। घरों के ढांचे तपाई ईंटों के होते थे। खंभों के गड्ढों एवं दरवाजे के बाज के लिए बने कोष्ठों से इमारतों में लकड़ी के प्रयोग के प्रमाण भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। घरों की छतें खपरैल लगा कर ढकी जाती थी। कमरे वर्गाकार तथा आयताकार होते थे।

इन सभी प्रमाणों से पता चलता है कि इमारतों की बनावट काफी योजनाबद्ध तरीके से | होती थी। हस्तिनापर की खदाई के साथ, जहाँ नालियों की विस्तत व्यवस्था पायी गयी है, इस तथ्य की और भी पुष्टि हो जाती है। कुछ बस्तियाँ मिट्टी और ईंट की दीवारों के द्वारा किलेबन्द की गयी थीं और इस किलेबन्दी के चारों ओर खाइयाँ बना दी गयी थीं। कौशाम्बी में किले की दीवार के साथ जगह-जगह पर चौकीदारों के कमरे, बुर्ज तथा दरवाजे बने पाए गए हैं।

इस बिंदु पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या इन ढांचों से इस काल के सामाजिक अथवा राजनैतिक जीवन के प्रति कोई जानकारी मिलती है? ऐसा अवश्य है। उदाहरण के लिए :

  • किलेबन्दी से आक्रमणों के विरुद्ध सुरक्षा उपायों तथा राजनैतिक तनावों पर प्रकाश पड़ता है।
  • नालियों की व्यवस्था से न केवल लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता की। जानकारी मिलती है बल्कि इस दिशा में इन लोगों द्वारा की गयी प्रगति की भी जानकारी मिलती है।
  • यह पता चलता है कि बड़ी इमारत बनाने और किलेबन्दी करने के लिये बड़ी संख्या में कामगरों की आवश्यकता रही होगी तथा इन लोगों से काम लेने के लिए अधिकारी और सत्तावर्ग भी रहे होंगे।

बर्तन –

उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्डों की मुख्य विशेषता इसका चमकदार ऊपरी भाग है। चाक पर बनाए गए इन बर्तनों के लिए मिट्टी अच्छी तरह गूंथ कर तैयार की गयी है। कछ बर्तनों का तल 1.5 मिलीमीटर तक पतला है। चमकदार काले ऊपरी भाग के अतिरिक्त, उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्ड सुनहरे, रुपहले, सफेद, गुलाबी, इस्पाती नीले, चाकलेटी तथा भूरे रंग में भी पाए गए हैं। कुछ क्षेत्रों (जैसे-रोपर,. सोनपुर) से रिपिट लगे बर्तनों (टूटे हुए टुकड़ों को जोड़कर बनाए गए) से पता चलता है उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्ड कितने मूल्यवान थे।

इन मृद्भाण्ड़ों तथा साथ-साथ अन्य बर्तनों की उपलब्धता से संकेत मिलता है कि उत्तरी काले पॉलिश किए मद्भाण्ड बहत कीमती होते थे और सभी के पास नहीं होते थे। यह इस तथ्य की और इशारा करता है कि इस काल में समाज असमान वर्गों में विभाजित था। यद्यपि उत्तरी काले मृद्भाण्ड सामान्यतः रंगे नहीं जाते थे लेकिन कुछ चित्रित मृद्भाण्डों के टुकड़े भी मिले हैं। मृद्भाण्ड पीले तथा हल्के सिंदूरी रंग से चित्रित किए जाते थे। इनकी सामान्य डिजाइनों में सादी पट्टियाँ, लहरदार रेखाएँ, बिंदियाँ, संकेद्री गोले, प्रतिच्छेदी गोले, अर्धवृत्त, चाप तथा फंदों की आकृतियाँ पाई गयी हैं। सबसे सामान्य बर्तन की किस्म प्याले तथा विभिन्न प्रकार की तश्तरियाँ हैं।

अन्य वस्तुएँ

उत्तरी पॉलिश किए मृद्भाण्डों के क्षेत्रों से ताम्र, लोहे, सोने, चाँदी, पत्थर, कांच तथा हड्डी के बने विभिन्न प्रकार के औजार, हथियार, गहने तथा अन्य वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। इन उपलब्धियों से इस काल की तकनीकी प्रगति की ओर संकेत मिलता है। बौद्ध साहित्य, जोकि कई प्रकार की कलाओं और शिल्पों का उल्लेख करता है, से इस तथ्य की और भी पुष्टि हो जाती है। जातक कथाओं में लकड़ी, धातु, पत्थर, बहुमूल्य तथा अर्धबहुमूल्य पत्थर, हाथी दाँत, कपड़े आदि के कामगरों के लगभग 18 समूहों का उल्लेख मिलता है।

कई क्षेत्रों से प्राप्त ताम्र वस्तुओं में छेनियाँ, चाकू, बेधक, पिनें, सुइयाँ, सुरमें की सलाइयां, काटने का औज़ार, जोड़ चूड़ी, चरखियाँ तथा चूड़ियाँ मुख्य हैं। लोहे की वस्तुओं की न केवल इस संस्कृति में प्रधानता है बल्कि रंगे घूसर मृद्भाण्ड युग की तुलना में इनमें काफी विविधता भी है। केवल कौशाम्बी से ही 800 ईसा पूर्व से 550 ईसवीं के बीच की 1.115 लोहे की वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। इन वस्तुओं में मुख्य

  • खेती के उपकरण जैसे : कुदालें और हंसिया, तथा शिल्पकारों के औजार जैसे कुल्हाडियां, बसूला, छेनियां तथा पेच दंड।
  • हथियार जैसे : तीर के फल, बरछे व भाले के फल।
  • अन्य वस्तुएँ जैसे : चाकू, विभिन्न प्रकार के दस्ते, कांटे, कीलें, रिपिट, जोड़ पट्टी,  अंगूठियाँ तथा छोटी घंटियाँ।

चाँदी के पंच मार्कड सिक्के उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्ड संस्कृति के मध्य चरण से मिलना आरंभ होते हैं। इसका अर्थ वस्तु विनिमय अर्थव्यवस्था से धातु मुद्रा आधारित अर्थव्यवस्था की ओर संभावी बदलाव है।

गहने

अर्ध बहुमूल्य पत्थरों, कांच, चिकनी मिट्टी, ताम्र पत्तियों तथा हड्डियों की मालाएं सबसे अधिक सामान्य थीं। इनकी आकृति सामान्यतः, वृत्ताकार, गोलाकार, द्विकोणीय, बेलनाकार, ढोलाकार तथा चौकोर होती थी। कुछ मालाएं निक्षारित भी हैं। कौशाम्बी 1B (300 ईसा पूर्व) से एकमात्र सोने की माला प्राप्त हुई है।

अन्य गहनों में पक्की मिट्टी, रंगीन चमकाई मिट्टी, कांच, सीप, पत्थर एवं ताम्र की चूड़ियाँ थीं। ताम्र, लोहे, सींग, तथा भूरी मिट्टी की अंगूठियाँ, चिकनी मिट्टी, अकीक तथा इन्द्रगोप के झुमके भी पाए गए हैं। इन सभी वस्तुओं से हमें निम्नलिखित जानकारी मिलती हैः

  • समाज में गहनों का इस्तेमाल,
  • गहने बनाने वाले विशेषज्ञ शिल्पकारों का मौजूद होना,
  • गहने बनाने की तकनीक की जानकारी के स्तर, तथा
  • विभिन्न अर्धबहुमूल्य पत्थरों की उपलब्धता के लिए अन्य क्षेत्रों के साथ व्यापार अथवा विनिमय गतिविधियाँ।

मिट्टी की मूर्तियाँ

मिट्टी की मूर्तियों में मानवीय तथा पशुओं की मूर्तियाँ तथा अन्य वस्तुएँ शामिल हैं। मानवीय मूर्तियाँ अधिकतर ढाल कर बनाई गयी हैं। पुरुषों की मूर्तियाँ, कुछ को छोड़कर जिनके सिरों पर पहनावा है, सामान्यतः सादी है। महिलाओं की मूर्तियाँ सर के पहनावों, कान के गहनों, हार, कमर के लटकों से सुसज्जित हैं।

पशुओं की मूर्तियाँ यद्यपि हाथ से गढ़ी गयी हैं लेकिन उनकी बनावट काफी अच्छी है। इनमें घोड़े, बैल, मेढ़े तथा हाथियों की मूर्तियाँ हैं।

मिट्टी की अन्य वस्तुएं खिलौनों की गाड़ियाँ, साधारण तथा पशुओं के सर वाले खिलौने, डिस्क, गेंद तथा कुम्हार की मुहरें हैं। इसी संस्कृति के अगले चरण में महरें जिन पर ब्रह्मी लिपि में लिखावट मौजूद है, भी पायी गई हैं। इन तथ्यों से इन क्षेत्रों के निवासियों के संबंध में काफी जानकारी मिलती है। उदाहरण के लिए खिलौने की गाड़ी से हमें पता चलता है कि यह लोग वाहन के साधन के रूप में गाड़ियों का प्रयोग करते थे।

जीवनयापन अर्थव्यवस्था तथा व्यापार

पुरातात्विक वानास्पतिक अवशेषों से संकेत मिलता है कि इन क्षेत्रों में धान, गेहं, जौ, बाजरा, मटर, तथा काला चना उगाया जाता था। कुछ क्षेत्रों से मिले पशओं के अवशेषों से लोगों के गाय, बैलों, भेड़, बकरियों, सुअरों तथा मछलियों पर निर्भर होने की जानकारी मिलती है।

विभिन्न क्षेत्रों में सामान्य रूप से पाई गई विविध प्रकार की मालाएँ व्यापारिक गतिविधियों की ओर संकेत करती हैं। इसी आधार पर अनुमान लगाया गया है कि तक्षिला, हस्तिनापुर, अहिक्षेत्र, श्रावस्ती तथा कौशाम्बी के बीच, 600 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के दौरान व्यापारिक संबंध रहे होंगे। बौद्ध साहित्य में व्यापार समूहों तथा ऊंटों, घोड़ों, खच्चरों, बैलों तथा भैंसों के कारवां के संबंध में उल्लेखों से इस विचार की पुष्टि होती है। छठवीं तथा चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बीच भारत, बेबीलोनिया, सीरिया तथा सुमेर (मध्य एशिया) के बीच व्यापार होता था। निर्यात की मुख्य वस्तुएँ कपड़े, मसाले तथा सम्भवतः लोहे और इस्पात के बने सामान थे। अर्थशास्त्र के अध्ययन से प्रतीत होता है कि राज्य न केवल व्यापार पर नियंत्रण रखता था बल्कि सोने, ताम्र, लोहे, सीसा, टिन, चाँदी, हीरे, जवाहरात तथा अन्य बहुमूल्य पत्थरों के उद्योग पर भी उसका प्रभुत्व था।

पश्चिमी, पूर्वी एवं मध्य भारत की ताम्र पाषाण युगीन संस्कृतियाँ

पश्चिमी पूर्वी एवं मध्य भारत में दूसरी एवं प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के दौरान कई स्थानीय ताम्र पाषाण आरंभिक खेतिहर संस्कृतियाँ मौजूद थीं। यह संस्कृतियाँ मूलतः ग्रामीण बस्तियाँ हैं तथा उनमें कई तत्व समान हैं। इन संस्कृतियों के विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित हैं:

  • चित्रित बर्तन जो मुख्यतः लाल पर काले रंगे हुए हैं, तथा 
  • सिलिकामय पत्थर के ब्लेड तथा पत्तरों का अत्यधिक विकसित उद्योग।

ताम्र की जानकारी इस समय थी लेकिन चूंकि यह धातु प्रचुर मात्रा में नहीं थी, अतः इसका इस्तेमाल सीमित पैमाने पर होता था। बस्तियों की संरचना गोल एवं आयताकार झोंपड़ियों से होती थी। कई स्थानों पर पूतलीय आवास के भी प्रमाण मिले हैं। अर्थव्यवस्था खेती तथा पशुपालन पर आधारित थी। इन संस्कृतियों के नाम उनके विशिष्ट क्षेत्रों के नाम पर रखे गए हैं।

महाराष्ट्र की तापती घाटी में उत्तर हड़प्पा सभ्यता की लगभग 50 गैर नगरीय बस्तियाँ अब तक प्रकाश में आ चुकी हैं (1800-1600 ईसा पूर्व)। दायमाबाद की खुदाई से पता चला है कि उत्तर कालीन हड़प्पा के लोग दक्षिण की ओर प्रवारा घाटी (महाराष्ट्र) की ओर बढ़ गए।

कायथ संस्कृति का नाम कायथ (उज्जैन से 25 कि.मी. पूर्व की ओर), चम्बल नदी की एक उप नदी काली सिंध के तट पर स्थित, क्षेत्र के नाम पर रखा गया है। आहर अथवा बानस संस्कृति का नाम बानस नदी के नाम पर रखा गया है तथा इसका विशिष्ट क्षेत्र आहर है (राजस्थान में उदयपुर)। दक्षिण पूर्व राजस्थान में बानस और बेराच घाटियों में इस संस्कृति की पचास से अधिक बस्तियां पायी गई हैं।

सवालदा संस्कृति का नामकरण सवालदा (धलिया जिला, महाराष्ट्र) बस्ती के नाम पर हुआ है। यद्यपि यह संस्कृति अधिकतर तापती घाटी तक सीमित है लेकिन दायमाबाद से मिले . प्रमाणों से इस संस्कृति के प्रवारा घाटी तक पहुंचने के संकेत मिलते हैं। मालवा संस्कृति नर्मदा नदी के तट पर माहेश्वर एवं नवादा टोली (निमार जिला, मध्य प्रदेश) की खदाई के दौरान प्रकाश में आई।

चूंकि इस संस्कृति की अधिकतर बस्तियां मालवा क्षेत्र के अंतर्गत प्रकाश में आई इसलिए इस संस्कृति का नाम मालवा संस्कृति रखा गया। लगभग 1600 ई. पू. के दौरान मालवा के लोग महाराष्ट्र की तरफ बढ़ना शुरू हो गए और तापती, गोदावरी और भीम घाटियों में इनकी कई बस्तियाँ प्रकाश में आई हैं। महाराष्ट्र में प्रकाश (धुलिया जिला), दायमाबाद (अहमदनगर जिला), इनाम गांव (पुणे जिला) सबसे बड़ी बस्तियाँ थीं। प्रभास और रंगपुर संस्कृतियाँ क्रमशः प्रभास पातन और रंगपुर (गुजरात) क्षेत्र के नामों से जानी जाती हैं। जोर्वे संस्कृति की विशिष्ट बस्ती महाराष्ट्र में स्थित जोर्वे (अहमदनगर जिला) है।

प्रकाश, दायमाबाद तथा इनाम गांव में मालवा संस्कृति के बाद जोर्वे संस्कृति विस्तृत रूप में फैली। पाषाण और ताबें का प्रयोग करने वाले कई समूहों की जानकारी पूर्वी भारत में भी मिली है। उत्तरी बिहार में चिरान्द नामक स्थान पर एक प्राचीन ग्रामीण बस्ती के अवशेष मिले हैं। यहाँ लोग मिट्टी से थापे हुए बाँस के घरों में रहते थे।

उनका प्रमुख भोजन चावल और मछली था तथा ये लोग जंगली जानवरों का शिकार भी करते थे। यह लोग भी काले व लाल रंग के मिट्टी के बरतनों का प्रयोग करते थे। इसी प्रकार की कुछ बस्तियाँ गोरखपुर के सहगोरा (उ. प्र.) और गया के सोनपुर (बिहार) नामक स्थानों पर भी मिली हैं। यहाँ लोग गेहूँ और जी की खेती करते थे। बंगाल के बुर्दबान जिले में पंड-रंजर-दीबी और मिदनापुर जिले में माहिसदाल नामक स्थानों पर भी इसी तरह की बस्तियों के संकेत मिले हैं। यह सारी बस्तियाँ लगभग 1500 से 750 ईसा पूर्व की प्रतीत होती हैं।

बर्तन : पहचान के लक्षण

इन ताम्र पाषाण युगीन संस्कृतियों के बर्तनों पर हम संक्षिप्त चर्चा करेंगे। कायथ के मृद्भाण्डों की बनावट की तीन मुख्य विशेषताएँ हैं:

  • गहरी भूरी डिजाइन में चित्रित मोटी तथा गहरी लाल धारी वाले मृद्भाण्ड
  • लाल रंग में चित्रित हल्के भूरे मृद्भाण्ड (यह मृद्भाण्ड पतले हैं तथा काफी सफाई से गढ़े गए हैं), और
  • बगैर धारी वाले खरोचे गए मृद्भाण्ड। गहरी तथा मोटी लाल धारी वाले अधिकतर बर्तनों का आधार गोल है। यह गोल आधार पूर्व हड़प्पा सोठी मृद्भाण्डों के समरूप है।
सोठी संस्कृति (राजस्थान) घग्गर घाटी (श्रावस्ती) के विभिन्न क्षेत्रों में फैली पायी गयी हैं। यहाँ पाए गए बर्तन कालीबंगन के पूर्व हड़प्पा बर्तनों के समरूप हैं।

आहर के बर्तनों में सात प्रकार के मृद्भाण्ड पाए गए हैं लेकिन इनमें मुख्य सफेद चित्रित काले एवं लाल मृद्भाण्ड हैं। सवालदा संस्कृति की विशेषता यहां के लाल पर काले चित्रित बर्तन हैं जिनको प्राकृतिक प्राणियों जैसे चिड़ियाँ, जानवर तथा मछलियों के चित्र बनाकर सुसज्जित किया गया है। मालवा के मृद्भाण्ड कुछ हद तक खुरदरे हैं

तथा इन पर मोटी हल्की भूरी धारी है जिस पर काले अथवा गहरे भूरे रंग से डिजाइन बनाए गए हैं। प्रभास तथा रंगपुर दोनों के मृद्भाण्ड हड़प्पा के लाल पर काले चित्रित मृद्भाण्ड के समरूप हैं लेकिन चूंकि इनको चमकाया भी गया है, अतः इन्हें चमकदार लाल मृद्भाण्ड कहा जाता है।

जोर्वे मद्भाण्ड लाल पर काले चित्रित हैं तथा इनकी बनावट समतल, चमकरहित है, एवं इन पर लाल रंग की पुताई की गयी है।

इन विशिष्ट किस्मों के अतिरिक्त इन संस्कृतियों में अन्य मृद्भाण्ड भी मौजूद थे जो कि अधिकतर लाल अथवा घूसर हैं। बर्तन चाक गढ़ित हैं लेकिन हाथ के बनाए हुए बर्तन भी पाए गए हैं।

इन संस्कृतियों के सामान्य बर्तन प्याले, अन्दर की ओर धंसती गोल गर्दन वाले गोलाकार मर्तबान, तश्तरियाँ, लोटे आदि। मालवा के बर्तनों के विशिष्ट लक्षण ठोस आधार वाले छोटे-छोटे गिलासों में परिलक्षित होते हैं। जोर्वे संस्कृति के विशिष्ट बर्तन कैटिनेटेड प्याले, चौड़े मुंह वाले टोटीदार जार तथा गोल कलश हैं।

अर्थव्यवस्था

यह ताम्र पाषाण संस्कृतियाँ जिन क्षेत्रों में फैली उनका अधिकतर भाग काली कपास उगाने के लिए उपयुक्त मिट्टी वाला क्षेत्र है। यहां का मौसम अर्धखुश्क है तथा वर्षा औसत 400 से 1000 मिलीमीटर के बीच है। इन ताम्र पाषाण युगीन संस्कृतियों की अर्थव्यवस्था खेती तथा पशुपालन पर आधारित थी। कुछ क्षेत्रों में जंगली जानवरों तथा मछली आदि जैसे अन्य भोजन स्रोतों पर निर्भरता के प्रमाण मिले हैं।

फसलें

कुछ क्षेत्रों से खुदाई में प्राप्त बीजों के कार्बनयुक्त अवशेषों से यहां के कृषक समुदायों द्वारा विभिन्न प्रकार की फसलें उगाने के प्रमाण मिलते हैं। मुख्य फसलें-जौ, गेहूं, धान, बाजरा, ज्वार, मसूर, फलियां, मटर, काला चना, तथा मंग थीं। अन्य पेड़ जिनके फलों का उपयोग किया जाता था वे थे-जामुन, बहेड़ा, जंगली खजूर, बेर आदि।

इस काल में जौं मुख्य अन्न था। इनामगांव से प्राप्त प्रमाणों से क्रमिक रूप में फसल उगाने, गर्मी तथा सर्दी की फसलों की कटाई तथा कृत्रिम सिंचाई की परंपरा का पता चलता है। आरंभिक जोर्वे युग (1400-1000 ईसा पूर्व) में इनामगांव में नहर द्वारा (200 मीटर लम्बी, 4 मीटर चौड़ी तथा 3.5 मीटर गहरी) बाढ़ के पानी की दिशा परिवर्तन के लिए एक विशाल बांध (240 मीटर लम्बा तथा 2.40 मीटर चौड़ा) बनाया गया था।

काली कपास उगाने के लिए उपयुक्त जमीन की जुताई के संकेत इनामगांव के समीप ही वालकी में मिले बैल के कंधे की हड्डी से बने अर्द (हल के फल का आरंभिक रूप) से मिलते हैं।

 पशु

खुदाई से यहां पालतू तथा जंगली दोनों प्रकार के जानवरों के प्रमाण मिले हैं।

  • ताम्र पाषाण युग के दौरान पालतू पशुओं में गाय-भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता, सुअर तथा घोड़े मुख्य थे। गाय-भैसों तथा भेड़-बकरियों की हड्डियों यहां के अधिकांश क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक मिली हैं। हड्डियों पर चोट पड़ने तथा कटने के निशानों से पता चलता है कि यह पश भोजन की दृष्टि से काटे गए होंगे। इन हड्डियों की आयु निर्धारण से संकेत मिलता है कि इन पशुओं को कम आयु (तीन महीने से लेकर 3 वर्ष के बीच) में ही काटा गया होगा।
  • जंगली जानवरों में मृग, चार सींगों वाले हिरन, नीलगाय, बारहसिंगा, सांबर, चीतल, जंगली भैंस तथा गैंडे थे।

कुछ क्षेत्रों में जलमुर्गियों, समुद्री कछुआ तथा चूहों की भी हड्डियां मिली हैं। इनामगांव में समुद्री मछलियों की भी हड्डियों मिली हैं। यह मछलियाँ कल्याण अथवा हमद खाड़ी बंदरगाहों जो कि इनामगांव के समीपतम 200 कि.मी. पश्चिम की ओर स्थित थे से प्राप्त की गयी होगी। पालतू तथा जंगली दोनों ही प्रकार के पशुओं की झुलसी हड्डियों के प्राप्त होने से पता चलता है कि इन पशुओं का मांस खुली आग में पकाया जाता था।

घर एवं बस्तियाँ

आइए, अब हम इन संस्कृतियों की गृह-निर्माण परपंराओं को संक्षिप्त रूप में विश्लेषित करें। मिट्टी की दीवारों तथा छप्पर की छतों वाले आयताकार एवं गोलाकार घर इन संस्कृतियों में सामान्य थे, यद्यपि विभिन्न क्षेत्रों में घर के आकारों में भिन्नता थी।

  • सवालदा संस्कृति में अधिकतर घर आयताकार तथा एक कमरों वाले थे लेकिन । कुछ घरों में दो अथवा तीन कमरे भी थे। आहर के लोग पलमा पत्थरों की सिलो पर आधारित घर बनाते थे। इन्हीं सिलो पर मिट्टी अथवा मिट्टी की ईंटों की दीवारें बनाई जाती थीं तथा उन्हें स्फटिक की रोड़ी से सजाया जाता था। फर्श तपाई मिट्टी अथवा मिट्टी में नदी के कंकड़ मिलाकर तैयार किया जाता था।
  • आहर के घरों का आकार 7 मीटर x 5 मीटर अथवा 3 मीटर x 3 मीटर होता था। यहाँ मिले सबसे बड़े घरों का आकार 10 मीटर से भी अधिक लम्बा है। बड़े घरों में विभाजन दीवारें, चूल्हे तथा रसोई में चक्कियाँ होती थीं।
  • मालवा की बस्तियों, जैसी कि नवादाटोली, प्रकाश, दायमाबाद तथा इनामगांव में मिली हैं, काफी बड़ी थीं। इनामगांव से मिले प्रमाणों से संकेत मिलते हैं कि बस्तियाँ बनाने का काम योजनाबद्ध तरीके से होता था। इनामगांव में मिले लगभग 20 घरों में से अधिकतर पूर्व पश्चिम दिशा में नियोजित किए गए हैं।

यद्यपि यह घर एक दूसरे से काफी निकट बनाए गए हैं लेकिन इनके बीच लगभग 1-2 मीटर की दूरी अवश्य रखी गयी है जो संभवतः गली के रूप में इस्तेमाल की जाती रही होगी। इनामगांव में मिले इन घरों का आकार काफी बड़ा (7 मीटर-5 मीटर) और आयताकार है। इनमें विभाजन करती हुई दीवारें मौजूद हैं। घरों की दीवारें मिट्टी की बनी हैं तथा काफी नीची हैं एवं इनकी छतें ढलवां हैं। घरों के अन्दर आग जलाने के गोलाकार गड्ढे हैं जिनके किनारे दीवारों के रूप में ऊपर की ओर उठे हैं, जिससे आग पर नियंत्रण रखा जा सके। नवादाटोली के घरों में रसोई के अन्दर एक मुंह अथवा दो मुंह वाले चूल्हे होते थे। अनाज का भंडारण गहरे बने अन्न भंडारण गड्ढों (एक मीटर व्यास तथा एक मीटर गहरे) में होता था। घरों के अन्दर मिट्टी के गोल चबूतरे (1.5 मीटर व्यास के) सभवतः अनाज के टोकरों को रखने के काम आते होंगे।

 

  • जोर्वे संस्कृति (जिसके अब 200 से अधिक क्षेत्र प्रकाश में आ चुके हैं और इनमें से । अधिकतर को एक से चार हैक्टेयर के बीच के गावों में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है) की मुख्य विशेषता यहां के प्रत्येक क्षेत्र में एक बड़े केन्द्रीय क्षेत्र का पाया जाना है। यह केन्द्र प्रकाश, दायमाबाद तथा इनामगांव है जो कि क्रमशः तापती, गोदावरी तथा भीमा की घाटियों में हैं। दयमाबाद जोर्वे बस्तियों में सबसे बड़ी बस्ती थी जो लगभग 30 हैक्टेयर में फैली थी जबकि प्रकाश एवं इनामगांव पांच-पांच हैक्टेयर में फैले थे।
  • इनामगांव में, जोर्वे (पूर्वकालीन एवं उत्तर दोनों) की बस्ती की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि दस्तकारों, जैसे कुम्हार, सुनार, हाथीदांत के शिल्पकार आदि के घर मुख्य निवास क्षेत्र की पश्चिमी सीमा की ओर होते थे जबकि समृद्ध किसान केन्द्रीय भाग में  रहते थे। दस्तकारों के घरों का आकार समद्ध किसानों के घरों की अपेक्षा छोटा होता था। घर बनाने के स्थान तथा आकार के आधार पर इस समाज में दस्तकारों के निचले सामाजिक स्तर की जानकारी मिलती है।

कुछ ताम्र पाषाण बस्तियों के चारों ओर किलाबंदी भी की जाती थी। उदाहरण के लिए, मालवा संस्कृति की एरान तथा नगदा (मध्य प्रदेश) तथा इनामगांव (जोर्वे युग) में पत्थर के रोड़ों की बुर्ज युक्त मिट्टी की दीवार तथा बस्ती के चारों ओर खुदे हुए गड्ढे मिले हैं।

इनामगांव में घरों की बनावट में पूर्वकालीन जोर्वे युग (1400-1000 ईसा पूर्व) के घरों तथा उत्तरकालीन जोर्वे युग (1000-700 ईसा पूर्व) के घरों में भिन्नता दिखाई देती है।

पूर्व कालीन जोर्वे घरों के ढांचे आयताकार होते थे, इनकी मिट्टी की दीवारें नीची (लगभग 30 सेंटीमीटर ऊंची) होती थीं तथा चारों ओर सरपत एवं मिट्टी से बने ढांचे होते थे। यह घर पक्तियों में बनाए जाते थे तथा दिशा लगभग पूर्व से पश्चिमी की ओर होती थी, इन घरों के बीच में लगभग 1.5 मीटर चौड़ा खुला स्थान भी होता था जोकि संभवतः गली अथवा सड़क का काम देता था। इसके विपरीत उत्तर कालीन जोर्वे के घर यहां की निर्धनता का चित्रण करते हैं। बड़ी-बड़ी आयताकार झोपड़ियाँ इस युग में नहीं दिखाई देतीं। इनकी जगह मिट्टी की छोटी दीवारों वाली गोल झोपड़ियाँ बनाई जाती थीं। अन्न भण्डार गड्ढों की जगह चार पत्थरों पर रखें चौपाए भंडारण जार का उपयोग होता था।

तमाम प्रमाणों से संकेत मिलते हैं कि पूर्व कालीन जोर्वे से उत्तर कालीन जोर्वे में इस प्रकार का परिवर्तन वर्षा की दर में कमी आने के परिणामस्वरूप खेती का पतन होने के कारण हुआ। पश्चिमी एवं मध्य भारत में खोजबीन से पता चलता है कि दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के अंतिम चरण में इस क्षेत्र में मौसम में भारी परिवर्तन आने के कारण पूरा क्षेत्र खुश्क होने लगा जिसके परिणामस्वरूप लोगों को बाध्य होकर अर्ध खानाबदोश जीवन की ओर लौटना पड़ा।

यह निष्कर्ष विभिन्न स्तरों से प्राप्त पशुओं की हड्डियों की प्रतिशत मात्रा के आधार पर निकाला गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जोर्वे युग में जलवायु में शुष्कता बढ़ने के कारण कृषि का हास हुआ जिससे कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था भेड़-बकरी पशुपालन अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गई।

अन्य विशेषताएं

यह सभी संस्कृतियां पत्थर के ब्लेड्डों, पत्तरों के उद्योग, जो कि सिक्थस्फटिक, चकमकी, . सूर्यकांत तथा अकीक जैसे सिलिकामय पत्थरों पर आधारित थे, द्वारा रेखांकित होती हैं। औजारों में समानांतर किनारे वाले फलक, कुणिठत किनारे वाले फलक, दंतुर फलक, चाक, नवचन्द्राकार, तिकोने तथा समलंबाकार औजार पाए गए हैं। इन फलकों वाले औजारों में कुछ की.धार पर चमक है, जिसका अर्थ यह हुआ कि यह औजार फसल की कटाई के काम में इस्तेमाल किए जाते थे।

पॉलिश की गयी पत्थर की कुल्हाड़ियाँ भी जो कि विशिष्ट रूप से कर्नाटक, आंध्र के नव पाषाण-ताम्र पाषाण युगीन संस्कृतियों में सम्बद्ध हैं, कुछ क्षेत्रों में प्राप्त हुई हैं यद्यपि उनकी संख्या अधिक नहीं है।

ताम्र वस्तुओं में चपटी कुल्हाडियाँ अथवा काटने की उतल धार वाली कुठारें, तीर के फल, बरछों के फल, छेनियाँ, मछलियों के कांटे, मध्य पंशुका वाली तलवार, फलक, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ तथा मालाएँ हैं। कायथ में मिली वस्तुओं में एक बर्तन में ताम्र की 28 चूड़ियाँ मिली हैं। कल्हाड़ियों जैसी कुछ वस्तुएं गढ़ी जाती थीं जबकि अन्य वस्तुएं हथौड़ों से पीट कर निरुपित की जाती थी।

गहनों में सबसे अधिक इन्द्रगोप, सूर्यकांत, सिक्थस्फटिक, अकीक, सीप आदि के मनके पाये गये हैं। कायथ संस्कृति से सम्बद्ध एक बर्तन में सेलखड़ी के 40,CC0 छोटे-छोटे मनकों की एक कण्ठी मिली है। इनामगांव में सोने तथा हाथी दांत के मनके, सोने की एक कुंडलित आकार वाली कान की बाली तथा ताम्र की पहुंची प्राप्त हुई है।

इनमें से अधिकतर क्षेत्रों में मिट्टी की बनी वस्तुएं प्रचुर मात्रा में मिली हैं। यह वस्तुएं मानवीय एवं पशुओं की मूर्तियों के रूप में हैं। पारंपरिक शैली के मिट्टी के सांड (जो कि अधिकतर छोटे आकार के हैं) कायथ के ताम्र पाषाण स्तर से मिले हैं। इनमें कछ में स्पष्ट ककुद हैं, कुछ की सीगें पीछे की ओर मुड़ी हुई हैं तथा कुछ की सीगें आगे की ओर समतलीय रूप में निकली हुई हैं। इन ताम्र पाषाण क्षेत्रों के अधिकतर क्षेत्रों में मिट्टी के बने सांडों के पाए जाने से यह पता चलता है कि सांड पूजनीय पश् था। यद्यपि इनके खिलौनों के रूप में इस्तेमाल की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

वायमाबाद भंडार एक संयोगिक उपलब्धि के रूप में दायमाबाद में टीले के ऊपर (इसके नीचे जोर्वे युग का 1.2 मीटर संग्रह है) चार वस्तुएं मिली हैं। यह सभी वस्तुएं ठोस ढली हैं तथा इनका वजन 60 कि. ग्रा. से ऊपर है।

  • हाथी-यह सबसे भारी है (ऊचाई 25 सें.मी. तथा लम्बाई 27 सें.मी.) तथा ताम्र के आधार पर, जिसके नीचे घुरियाँ समाने के लिए चार कोष्ठ हैं, खड़ा है।
  • गेंब-यह कछ छोटा है तथा यह भी एक आधार पर खड़ा है। कोष्ठों में ताम्र की दो ठोस धरियां तथा गढ़े हुए पहिए लगे हैं। गेंडा कुछ उसी प्रकार का है जैसा कि सिंध की मुहरों पर बना है।
  • सवार सहित दो पहियों वाला रथ-रथ एक लम्बे ध्रुव के सहारे जुआ युक्त बैलों से, जो कि दो ताम्र की ढली दो पट्टियों पर खड़े हैं, जुड़ा हुआ है। लेकिन इसमें पहियों के लिए कोष्ठ नहीं है। रथ में एक दंड है, जिसे दो समानांतर दंड संभाले हुए हैं। इस दंड पर सवार खड़ा है। इस कृति जैसा अन्य कोई उदाहरण नहीं है।
  • भैंस-इस कृति में भी दो पहिए एवं धुरी मौजूद है। इस कृति जैसी ही भैंस की मिट्टी एवं ताम्र अथवा कांस्य दोनों की ही मूर्तियां मोहनजोदड़ो से भी प्राप्त हुई हैं।

दायमाबाद के भंडार की ताम्र की तुलना खुदाई में मिली अन्य ताम्र वस्तओं से की जा सकती है। इस धातु के स्पेक्ट्रोमेटरिक विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें टिन अथवा कोई अन्य धात की मिलावट नहीं की गयी थी। एक मत के अनुसार, दायमाबाद के भंडार का काल उत्तर कालीन हड़प्पा काल (16CC-1300 ईसा पूर्व) है। एक अन्य मत के अनुसार, तकनीक के आधार पर इनका काल कल्लूर भंडारों वाला काल हो सकता है।

 

धर्म एवं विश्वास

खुदाई से प्राप्त जानकारियों से लोगों के धार्मिक विश्वासों एवं रीतियों पर भी प्रकाश पड़ता है।

  • देवियांः ताम्र पाषाण समुदाय के लोगों के देवियों में विश्वास तथा उनकी पूजा के प्रमाण नारी प्रतिमाओं (जो तपाए तथा गैर तपाए दोनों रूपों में मौजूद थीं) के पाए जाने से प्राप्त होते हैं। इन प्रतिमाओं में कुछ के सर हैं और कुछ के नहीं हैं। बस्तियों के निचले तलों में नेवासा (दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में) में शीर्ष रहित बड़े आकार की एक नारी प्रतिमा मिली है जो कि बगैर किसी विशिष्ट शारीरिक लक्षणों की है।

इनामगांव में भी इसी प्रकार की मिट्टी की प्रतिमाएं मिली हैं जिनमें स्तनों के अतिरिक्त अन्य शारीरिक लक्षण नहीं हैं। इनामगांव में एक आरंभिक जोर्वे घर (1300 ईसा पूर्व) की खुदाई से देवी पूजा के प्रमाण मिले हैं। यहां पर एक कोने में फर्श के नीचे दबा अंडाकार मिट्टी का पात्र ढक्कन सहित मिला है। इस पात्र के अन्दर एक नारी प्रतिमा मिली है जिसके स्तन बड़े एवं लटके हुए हैं। साथ एक सांड की मूर्ति भी मिली है।

इनामगांव से मिले प्रमाण तथा सभी नारी प्रतिमाओं से उर्वरता की देवी की पूजा के संकेत मिलते हैं। यह प्रतिमाएं (विशेषकर शीर्ष रहित प्रतिमाएं), एक मतानसार, सकम्भारी देवी (पूर्व ऐतिहासिक युग) जो कि कृषि उर्वरता की देवी थी तथा सूखे से छुटकारा पाने के लिए पूजी जाती थी, की प्रतीत होती है।

  • देवताः ताम्र पाषाण बस्तियों में पुरुष प्रतिमाएं काफी कम हैं। ऐसा मत है कि इनामगांव में उत्तर जोर्वे तलों (1000-700 ईसा पूर्व) में मिली दो मिट्टी की परुष प्रतिमाएं (जिनमें एक तपाई गयी है तथा दूसरी गैर तपाई है) देवताओं की प्रतिमाएं होगी। इसी संदर्भ में मालवा काल (1600 ईसा पूर्व) का एक चित्रित जार धार्मिक महत्व का माना गया है। इस बर्तन में दो भाग हैं। ऊपरी भाग में एक चित्र बना है, जिसमें एक मानवीय आकृति टहनियों का वस्त्र पहने हुए एक शेर पर आवृत है और उसके चारों ओर कुछ निश्चित शैली में ढले हुए पशु जैसे सांड, हिरन तथा मोर आदि खड़े हैं। निचले भाग में छलांग लगाते चीते अथवा तेंदुए हैं और यह भी निश्चित शैली में ढले हुए हैं। अच्छी तरह चित्रित करके सजायी गयी तश्तरी भी सम्भवतः कर्मकाण्डीय प्रयोगों के लिए होगी। इसी प्रकार दायमाबाद से प्राप्त ठोस ताम हाथी और भैंस की प्रतिमाएं आदि भी संभवतः धार्मिक महत्व रखते होंगे।
  • मृतकों को दफनाने की प्रथाः मृतकों को.दफन कर के विन्यास करना एक सामान्य रीति थी। वयस्क तथा बच्चे दोनों ही उत्तर-दक्षिण क्रम में दफनाए जाते थे। सर उत्तर की ओर होता था तथा पैर दक्षिण की ओर। वयस्क अधिकतर लिटा कर दफनाए जाते थे जबकि बच्चे कलशों में दफनाए जाते थे। यह कलश कभी एक और अधिकतर दो होते थे जिनका मुंह जोड़ कर उन्हें गड्ढे में लिटा दिया जाता। वयस्क और बच्चे दोनों ही गढ्ढों में दफनाए जाते थे जो घर के फर्श में खोदे जाते थे और कभी-कभी घर के आंगन में भी खोदे जाते थे। इस संदर्भ में रुचिकर तथ्य यह है कि जोर्वे यग में वयस्क मृतकों के टखनों के नीचे का पैर काट दिया जाता था। मृतकों को घर के अहाते में दफनाने तथा टखने के नीचे का भाग काट देने की प्रथा सभवतः इस विश्वास की ओर संकेत करती है कि ऐसा करने से मृतक भूत नहीं बनेंगे जो कि दुष्ट हो सकते हैं।

विभिन्न स्थानों पर वयस्क शवाधान में शव के साथ कुछ वस्तुएं भी रखी जाती थीं जो कि समान्यतः दो और कभी-कभी दो से अधिक पात्र होते थे। उत्तर जोर्वे युग के एक शवाधान में पंद्रह पात्र रखे मिले हैं। मृतकों को उनके गहनों के साथ दफनाना भी सामान्य था। उत्तर जोर्वे युग के एक शवाधान में मनुष्य के अस्थिपंजर की गर्दन के निकट एक तास का गहना प्राप्त हुआ है। इसी युग में दो कलशों में दफनाए गए एक बच्चे के साथ ताम्र का गहना प्राप्त हुआ। इसी युग में दो कलशों में दफनाए गए एक बच्चे के साथ ताम्र एवं लाल इंद्रगोप के मनकों की क्रम में गुथी बारह मनकों की एक कण्ठी मिली है।

इनामगांव से प्राप्त जानकारी से जोर्वे युग में कुछ असामान्य शवाधान के तरीकों का भी पता चला है। यहां पर एक चार पायों वाला कलश, जो कि गैर तपाई मिट्टी का बना है और इसका दक्षिणी भाग मानवीय शरीर की तरह है, प्राप्त हुआ है। इस कलश (इसकी ऊंचाई 80 सें.मी.. तथा चौड़ाई 50 सें.मी. है) का मुख चौड़ा और स्वरूप विहीन है और इसमें एक 30 से 40 वर्ष की आयु के पुरुष का ढांचा मिला है। यह ढांचा बैठने की मुद्रा में रखा मिला है। इसके टखने नहीं काटे गए हैं। कब्र की वस्तुओं में एक टोटीदार पात्र, जिस पर एक नाव, जिसके लम्बे चप्पू हैं का चित्र बना है, रखा मिला है। इस नाव के चित्र से आज हिन्दुओं के उस विश्वास का स्मरण आता है जिसमें वे मानते हैं कि मृतक की आत्मा को नाव में जलसागर पार करना होता है और तभी वह स्वर्ग पहंचती है। इस प्रकार के भव्य शवाधान का गौरव प्राप्त करने वाला व्यक्ति सभवतः

  • समाज में उच्च स्तर का व्यक्ति रहा होगा, अथवा
  • बस्ती का प्रधान शासक रहा होगा, अथवा
  • किसी ऐसे सामाजिक समूह का सदस्य होगा जिनके शवाधान का तरीका भिन्न था।

सामाजिक संगठन

ताम्र पाषाण संस्कृति के क्षेत्रों में पाये गये विभिन्न स्थलों के फैलाव के अध्ययन से यह लगता है कि स्थल दो प्रकार के थे, एक वह जो क्षेत्रीय केन्द्रों का प्रतिनिधित्व करते थे तथा दूसरे गांवों की बस्तियों का। यह अन्तर अथवा स्तरीकरण ताम्र पाषाण काल में किसी प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था के मौजूद होने की ओर संकेत करता है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि ताम्र पाषाण सामाजिक संगठन श्रेणीबद्ध था। इसके साथ-साथ विभिन्न क्षेत्रों में मिली सुरक्षा दीवारों, खाइयों, अनाज के गोदाम, बांध तथा नहरों (जो कि इनामगांव में काफी स्पष्ट हैं) आदि सार्वजनिक व्यवस्थाओं को समग्र रूप में देखने से किसी न किसी प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था के विद्यमान होने के विचार को और भी बल मिलता है।

उत्तर हड़प्पा में हुए विकास के विस्तृत संदर्भ में देखने पर ताम्र पाषाण संस्कृतियाँ हड़प्पा संस्कृति के प्रभाव को आंशिक रूप में दर्शाती हैं। तथापि इन संस्कृतियों में अपने विशिष्ट क्षेत्रीय प्रभाव मौजूद हैं और एक दूसरे के साथ व्यापारिक संपर्क तथा सांस्कृतिक संबंध के प्रमाण मौजूद हैं।

धातु का इस्तेमाल करने वाले यह खेतिहर समुदाय दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के आसपास फैले और प्रथम सहस्राब्दी ईसा के लगभग अदृश्य हो गए (केवल उत्तर कालीन जोर्वे 700 ईसा पूर्व तक विद्यमान रहा)। इस पतन का एक संभावी कारण (जो कि इन ताम्र पाषाण क्षेत्रों की मिट्टी के नमूनों के विश्लेषण के आधार पर व्यक्त किया गया है) बढ़ती हुई खुश्की तथा मौसम की विपरीत परिस्थितियाँ हैं। गोदावरी, तापती तथा अन्य घाटियों की कई बस्तियाँ निर्जन हो गयीं और पांच अथवा छः शताब्दियों के अंतराल के बाद पांचवी/चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में शहरीकरण के साथ फिर से बसीं।

सारांश

लगभग 2000 ई.पू. तक भारत के विभिन्न भागों में खेतिहर समुदाय स्थापित हो चुके थे। यह खेतिहर समदाय ताम्बे और पत्थर के बने औजारों का प्रयोग करते थे। उत्तर भारत में यह समुदाय विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे। विशेषकर गेरुए रंग वाले मिट्टी के बर्तन (OCP) तथा काले व लाल रंग वाले मिटटी के बर्तन (BRW) विभिन्न प्रकार के ताम्बे के औजार भी प्राप्त हये हैं। मध्य भारत तथा महाराष्ट्र के काली मिट्टी वाले क्षेत्रों की खुदाई से कायथ, मालवा और जोर्वे संस्कृतियों की उपस्थिति का पता चलता है।

लगभग 750 ई. पू. तक बहुत से खेतिहर समुदायों ने लोहे का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया। ताम्र पाषाण समुदायों में मिट्टी के बर्तनों के प्रयोग में बहुत भिन्नता दिखायी देती है। लौह युग के धूसर रंग वाले मृद्भाण्ड तथा उत्तरी काले पॉलिश किए मृद्भाण्ड बहुत विस्तृत क्षेत्र में प्रयोग किये जाते थे। उत्तरी काले पॉलिश मिट्टी के बर्तन लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में प्रयोग किये जाते थे। इस काल में विभिन्न समुदायों के बीच आदान-प्रदान और एक दूसरे पर प्रभाव डालने की प्रक्रिया बढ़ी। इसी काल में शहरी सभ्यता का भी प्रारम्भ हुआ। विभिन्न संस्कृतियों के खुदाई स्थलों से प्राप्त वस्तुएं बस्तियों की बनावट, व्यापारिक संबंध, औजारों की किस्मों, आभूषणों और धार्मिक विश्वासों के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं।

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