प्रारम्भिक वैदिक समाज

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • उन अनेक स्रोतों के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे, जिनसे हम प्रारम्भिक वैदिक काल के विषय में जान सकते हैं।
  • इन स्रोतों के माध्यम से भारतीय-आर्यों के व्यापक स्तर पर स्थानांतरण के सिद्धांत का परीक्षण कर सकेंगे।
  • प्रारम्भिक वैदिक काल की अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति एवं धर्म की विशेषताओं की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

लगभग 2000-1000 ई. प. में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सांस्कृतिक रूप से असमान विकास वाली सभ्यताएं पायी जाती थीं। ये सभ्यताएं अनिवार्यतः कृषि-पशुपालन पर आधारित थीं और चूँकि इन सभ्यताओं ने सिवाय हड़प्पा सभ्यता के कोई लिखित प्रमाण नहीं छोड़ा है, अतः इनके बारे में केवल पुरातात्विक अवशेषों से ही जानकारी मिलती है। इस और अगली इकाई में हम धार्मिक अभिलेखों के उस विशाल भण्डार का अवलोकन करेंगे, जिसे भारत का प्राचीनतम् साहित्यिक प्रमाण माना जाता है। इस प्रमाण की पुष्टि हम पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा यथासम्भव करेंगे।

ऋग्वेद को प्राप्य मंत्रों का प्राचीनतम् संग्रह माना जाता है अतः हम पहले ऋग्वेद का ही अध्ययन करेंगे ताकि आरम्भिक वैदिक काल के विषय में जानकारी मिले। इसके बाद अन्य वेदों और उनसे सम्बद्ध साहित्य का अध्ययन करेंगे। इस प्रकार के अध्ययन के दो लाभ हैं। आर्यों को वेदों का रचयिता माना जाता है और साथ ही यह बहुत समय तक समझा गया कि भारतीय उपमहाद्वीप में संस्कृति के विकास में आर्यों की प्रमुख भूमिका रही। ऋग्वेद की सामग्री के सूक्ष्म परीक्षण से यह नहीं लगता कि उस समय की भौतिक सभ्यता बहुत विकसित थी।

बल्कि इसके विपरीत भारतीय सभ्यता की तमाम विशिष्ट भौतिक विशेषताएं ऐसी हैं जो भारत के विभिन्न भागों में पायी गयी ऐसी पुरातात्विक संस्कृतियों में मौजूद थीं जिनका वैदिक काल से कोई संबंध नहीं था।

दूसरा, ऋग्वेद और उसके बाद के वेदों और सम्बद्ध साहित्य से प्राप्त सामग्री की तुलना करने से यह पता चलता है कि वैदिक समाज के अंदर भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए थे। तात्पर्य यह है कि कोई ऐसा सुनिश्चित सांस्कृतिक ढाँचा नहीं था जिसे वैदिक संस्कृति या आर्य संस्कृति कहा जा सके। ऋग्वेद के प्रमाण सप्त सिन्धु अर्थात् सात नदियों की भूमि वाले भौगोलिक क्षेत्र से सम्बद्ध हैं। यह क्षेत्र पंजाब और निकटवर्ती हरियाणा का है। किन्त ऋग्वेद के भूगोल में गोमती के मैदान, दक्षिणी अफगानिस्तान और दक्षिणी जम्मू कश्मीर भी सम्मिलित हैं।

प्रारंभिक व्याख्याओं के अनुसार, भारतीय आर्यों के स्थानांतरण का सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि वे पश्चिम एशिया से भारतीय उप-महाद्वीप में आये। ये प्रवासी “वेदों” के रचयिता माने जाते हैं इसलिये इनको वैदिक जन कहा गया है। इस ऐतिहासिक व्याख्या के अनुसार, आर्य कई झुडों या चरणों में भारत आये। आर्यों को एक भाषाई समूह जो कि यूरोपीय भाषाओं को बोलने वाला था समझा गया है। परम्परागत इतिहासकारों एवं पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा उनको गैर आर्य हड़प्पावासियों से भिन्न प्रकार का माना गया है।

तथापि प्रारम्भिक वैदिक समाज की टीका करने के लिये यह देखना लाभदायक होगा कि, साहित्यिक रचनाओं और पुरातात्विक साक्ष्यों में पूरकता है या नहीं। यदि ये दोनों प्रकार के स्रोत एक ही काल और क्षेत्र से सम्बद्ध हों तो इन्हें मिला कर आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक जीवन के बारे में अधिक विस्तृत जानकारी और विचार मिल सकते हैं। आइए, हम इन स्रोतों का अवलोकन करें।

स्रोत

प्रारम्भिक वैदिक समाज के अध्ययन के लिये मुख्यतः हमारे पास दो प्रकार के स्रोत हैंसाहित्यिक तथा पुरातात्विक। आइए, पहले हम साहित्यिक स्रोतों का अध्ययन करें।

साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक स्रोत के रूप में हमारे पास चार वैदिक ग्रंथ हैं

  • ऋग्वेद
  • सामवेद
  • यजुर्वेद
  • अथर्ववेद

इनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन रचना है। “वेद’ शब्द को संस्कृत के “विद से लिया गया है जिसका भावार्थ है “ज्ञान होना”। “वेदों” में प्रार्थनाओं और श्लोकों का संकलन है और इनकी रचना बहुत से कवियों तथा महाऋषियों के परिवारों ने देवताओं के सम्मान में की। इन चारों वेदों को “संहिता” भी माना जाता है क्योंकि ये उस समय की मौखिक परम्परा के प्रतीक हैं। चूंकि श्लोक का तात्पर्य था उसका पाठ करना, उसको कंठस्थ करना तथा मौखिक रूप से उसको स्थान्तरित कर देना अतः जिस समय इनको संकलित किया गया उस समय इनको लिखा नहीं गया।

इसी कारणवश किसी भी संहिता के रचना काल को पूर्ण निश्चय के साथ नहीं बताया जा सकता। वास्तव में प्रत्येक संहिता कई शताब्दियों के दौर में हुए संकलन का प्रतिनिधित्व करती है। इन चारों संहिताओं में वर्णित विषय वस्तु के आधार पर विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऋग्वेद की रचना लगभग 1500 ई. पू. से 1000 ई. पू. के मध्य में हुई होगी। और इसी समय को प्रारम्भिक वैदिक काल भी कहा जाता है।

ऋग्वेद संहिता में 10 सर्ग या मंडलों का संकलन है। दूसरे तथा सातवें को सबसे पहले की रचना माना गया है और यह विशेषकर प्रारम्भिक वैदिक काल से संबंधित है। ऐसा समझा जाता है कि एक, आठ, नौ एवं दस मंडलों को संहिता में बाद के काल में जोड़ा गया।

विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद और ईरान के प्राचीनतम ग्रंथ अवेस्ता जो ऋग्वेद से भी पहले की रचना है, में समान भाषा का प्रयोग हुआ है। इन भाषाई समानताओं के आधार पर तथा कालक्रम में अवेस्ता को ऋग्वेद का अग्रगामी बताते हुए विद्वानों ने अपने मत व्यक्त किये हैं

  • इन दोनों ग्रंथों में वर्णित लोग एक समान बहु-भाषा समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनका स्थानातंरण पश्चिम एशिया एवं ईरान से भारतीय उप-महाद्वीप की ओर हुआ। ये लोग “आर्य’ कहलाये।
  • आर्यों का मूल स्थान एक ही था जहां से वे विभिन्न समूहों में यूरोप एवं पूर्व की ओर स्थानांतरित हुए।

तथापि, आर्यों के उत्पत्ति-स्थल के विषय में वाद-विवाद की वैधता अब समाप्त हो चुकी है  क्योंकि समान जातीय पहचान की अवधारणा को गलत साबित किया जा सकता है। परंतु एक समान भाषाओं की अवधारणा के आधार पर इतिहासकार आर्यों के स्थानांतरण के सिद्धांत पर विश्वास करते हैं और कुछ इतिहासकार इस पर विशेष जोर देते हैं।

पुरातात्विक साक्ष्य

पिछले 40 वर्षों में सिंधु व घग्गर नदियों के किनारे, पंजाब, उत्तर प्रदेश, तथा उत्तरी राजस्थान में उत्खनन के द्वारा इन क्षेत्रों से हड़प्पा काल के बाद के अन्नत ताम्र पाषाण संस्कृति के अवशेषों को खोद निकाला गया है। इनका समय 1700 ई. पू. से 600 ई. पू. के मध्य का है।  इन ताम्र पाषाण संस्कृतियों को उत्तर हड़प्पा, ओ.सी.पी. (गेरु रंग के मद्भांड), बी.आर.डब्ल. (काले और लाल मृद्भांड) और पी.जी. डब्लू. (स्लेटी मृद्भांड) के नामों से (अपनी विशेषताओं के कारण) पुकारा जाता है।

तथापि, हमें यह याद रखना चाहिये कि मिट्टी के बर्तन (मृद्भांड) बनाने वाली शैली उस समय के लोगों की सम्पूर्ण संस्कृति का प्रतीक नहीं है। विभिन्न प्रकार के मृद्भांड निर्मित . करने की शैलियों का अनिवार्यतः यह अर्थ कदाचित् नहीं है कि इन बर्तनों का प्रयोग करने वाले लोगों में भी अन्तर था। विश्लेषण किसी सांस्कृतिक संग्रह के एक विशेष लक्षण को ही परिभाषित करता है, इससे अधिक नहीं। कछ विद्वानों ने वैदिक साहित्य और उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में प्राप्त इन संस्कृतियों के संकेतों का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास किया है।

आर्यों का आक्रमण-कल्पित या वास्तविक

क्या आर्यों का आक्रमण एक कल्पना मात्र थी या वास्तविकता? अब हमें यह देखना है कि किस सीमा तक पुरातात्विक साक्ष्य इस प्रश्न का उत्तर जानने में हमारी मदद कर सकते हैं। पुरातात्विक विद्वानों ने बहुत सी उत्तर-हड़प्पा संस्कृतियों को आर्यों से जोड़ने का प्रयास किया है। स्लेटी बर्तनों की संस्कृति को बार-बार आर्यों की शिल्पकारिता के साथ जोड़ा जाता है और इसको लगभग 900 ई.पू. से 500 ई. पू. के मध्य का माना गया। उनका तर्क उन अनुमानों पर आधारित है जिनको इतिहासकारों ने साहित्यिक रचनाओं के विश्लेषण के द्वारा निकाला था। तथापि, ऋग्वेद एवं अवेस्ता के बीच पाई जाने वाली भाषागत समानता का अनुसरण करते हुए, पुरातत्वविदों ने, बर्तनों की किस्म, मिट्टी के बर्तनों पर चित्रण और तांबे आदि की वस्तओं के बीच समानता दिखा कर उत्तर-हड़प्पा तथा पश्चिम एशिया/ईरानी ताम्र पाषाण संग्रह के मध्य समानता के चिन्ह खोजने की चेष्टा की है।

इस प्रकार की अतिरंजित समानताओं ने इतिहासकारों के इस निष्कर्ष को बढ़ावा दिया है कि आर्य उन लोगों का समह था जिन्होंने पश्चिम एशिया से भारत की ओर स्थानांतरण किया था। इस प्रकार साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों को एक दूसरे का पूरक बना कर स्थानांतरण के सिद्धांत की वैधता को पुष्ट किया गया।

ऋग्वेद तथा अवेस्ता के मध्य भाषागत समानताओं को लेकर कोई विवाद नहीं है। परंतु इस प्रकार की समानता ये नहीं दर्शाती कि विशाल स्तर पर लोग भारतीय उपमहाद्वीप में स्थानांतरित हुए। दूसरा ये कि भारत में ताम्र पाषाण शिल्प अवशेषों और पश्चिम एशिया में पाए गए शिल्प अवशेषों के बीच समानता कम ही पायी जाती है। यह भी विशाल स्तर पर लोगों के स्थानांतरण को नहीं दिखाता। “आर्य’ अवधारणा की जैसा कि पहले कहा गया, मृद्भांड की किसी एक शैली के आधार पर पहचान नहीं की जा सकती और न ही इसका नस्लीय या जातीय आधार पर अब कोई महत्व है। “आर्य” एक खोखली अवधारणा है जो लोगों के बीच भाषागत समानता से संबंधित है। इस विषय में आपको उत्खनन द्वारा प्रस्तुत किये गये निम्नलिखित निष्कर्षों का ध्यान रखना चाहिए।

  • प्रारम्भिक विद्वानों का विश्वास था कि इंडो-आर्य हड़प्पा सभ्यता के पतन का कारण थे। उन्होंने हड़प्पा के नगरों तथा शहरों का सर्वनाश किया। उन्होंने ऋग्वेद के उस श्लोकों को उद्धत किया जिसमें इंद्र को घर-मकान नष्ट करने वाला बताया गया है लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य इस तथ्य की पुष्टि नहीं करते कि हड़प्पा कालीन सभ्यता का पतन इसलिए हुआ कि उस पर किसी बाहरी शक्ति ने कोई व्यापक आक्रमण किया था।
  • चित्रित धूसर मृद्भांड (पी.जी.डब्लू.-स्लेटी बर्तन) के प्रयोग करने वालों को आर्यों से जोड़ने के प्रयासों को पुरातात्विक साक्ष्य भी प्रमाणित नहीं करते। अगर मृद्भांड . संस्कृतियां आर्यों के विषय में सूचित करती हैं तो उनके आक्रमण की अवधारणा को मस्तिष्क में रखते हए ये मद्भांड बहावलपुर तथा पंजाब में भी मिलने चाहिए क्योंकि आर्यों के स्थानांतरण का रास्ता भी यही था। लेकिन, हमें यह एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र जैसे हरियाणा, ऊपरी गंगा के थाल और पूर्वी राजस्थान में प्राप्त होते हैं।
  • दोनों संस्कृतियों में समय के अंतर के विषय में भी सोचा गया जिसका तात्पर्य यह लगाया गया कि उत्तर हड़प्पा और हड़प्पा काल के बाद की ताम्र पाषाण कालीन सभ्यता के बीच एक अंतराल था। परंतु भगवानपुर, दधेरी, हरियाणा और माडा में की गई हाल की खुदाइयों से पाया गया कि उत्तर हड़प्पा और स्लेटी बर्तनों (पी.जी.डब्ल.) की संस्कृति के अवशेषों को बिना किसी रूकावट के एक साथ पाया गया है। इस प्रकार “आक्रमण” की अवधारणा को भी खुदाइयों के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता।
  • 1750 ई.पू. के बाद नगर एवं शहर, साधारण बनावटी औजार जैसे मोहरें, तोल-माप के साधन आदि जो व्यापार एवं नगरीकरण से संबंधित थे, लुप्त हो गये। प्रारम्भिक काल का ग्रामीण ढांचा ई. पू. द्वितीय तथा पहली सहस्राब्दी ई.पू. में भी स्थिर बना रहा। प्रातात्विक खोजों के द्वारा खोजी गई उत्तर हड़प्पा काल के बाद की वस्तुओं जैसे मिट्टी के बर्तन, धातु के औज़ार तथा अन्य वस्तुएं वास्तव में भारत की ताम्र पाषाण कालीन संस्कृति की क्षेत्रीय विभिन्नता दिखाती हैं।

इस प्रकार ईसा पूर्व दूसरी और पहली सहस्राब्दी के पुरातात्विक प्रमाणों ने वैदिक आर्यों के विषय में आजकल प्रचलित दृष्टिकोण को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। प्रथमतः, पुरातत्व में ऐसा कोई वास्तविक प्रमाण नहीं मिला है, जिससे यह सिद्ध हो कि 1500 ई.पू. के आस-पास मध्य या पश्चिमी एशिया से भारतीय उपमहाद्वीप में बड़े पैमाने पर लोगों का स्थानान्तरण हुआ। दूसरा, इस बात का कोई पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिला है कि आर्यों ने हड़प्पा की सभ्यता का विनाश करके एक नयी भारतीय सभ्यता की स्थापना  की। वस्तुतः, यद्यपि ऋग्वेद में बार-बार विभिन्न दलों के बीच संघर्ष और लड़ाइयों का वर्णन आया है, किंतु आर्यों और अनार्यों तथा उनकी संस्कृतियों के बीच कथित मुठभेड़ों का कोई भी विवरण परातत्व में नहीं मिलता।

फिर भी चूंकि ऋग्वेद धार्मिक श्लोकों का प्राचीनतम उपलब्ध संग्रह है अतः इसका  ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में महत्वपूर्ण स्थान है। इन श्लोकों (स्तोत्रों) से उस प्रारम्भिक समाज के विभिन्न पहलुओं के विषय में ऐसी जानकारियां मिलती हैं जो पुरातात्विक प्रमाणों से नहीं मिल सकती। उनसे हमें उस समय की अर्थव्यवस्था, सामाजिक संगठन, राजपरम्परा और राजनैतिक संगठन, धार्मिक और ब्रह्माडिकीय विश्वासों आदि के बारे में जानकारी मिलती है। इनमें से अधिकांश जानकारी परिवर्तिकालीन भारतीय समाज को समझने में सहायक सिद्ध होती है। अतः अब हम यह देखेंगे कि ऋग्वेद से प्रारम्भिक वैदिक समाज के बारे में क्या जानकारी मिलती है।

अर्थव्यवस्था

प्रारंभिक वैदिक समाज पशुपालन पर आधारित था, पशुओं को पालना ही मुख्य पेशा था। एक चरवाही समाज कृषि उत्पादों की तुलना में पशुधन पर अधिक निर्भर करता है। पशु चराने के काम आजीविका का साधन है और इसको वे लोग अपनाते हैं जो ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां पर बड़े स्तर पर खेती-बाड़ी का कार्य सम्भव नहीं जिसके कारण पर्यावरण : संबंधी और कुछ सीमा तक सांस्कृतिक विवशताएं हैं।

प्रारम्भिक वैदिक काल में पशुपालन के महत्व का ऋग्वेद साक्ष्यों में काफी बड़े स्तर पर वर्णन हुआ है। ऋग्वेद में बहुत सी भाषागत अभिव्यक्तियां गाय (गौ) से जुड़ी हैं। पालतू पशु सम्पन्नता के प्रधान प्रतीक थे और एक सम्पन्न आदमी जो पालतु पशुओं का स्वामी होता था “गोमत” कहलाता था। इस काल में संघर्ष एवं लड़ाइयों के लिये जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता था, वे थे गविष्टि, गवेश्ना, गवयत आदि। पहले शब्द का अर्थ है गाय की खोज करना और ये शब्द यह स्पष्ट करते हैं कि इन पालतू पशुओं पर अधिकार समुदायों के मध्य असंतोष का आधार होता था तथा कभी-कभी इसको लेकर कबीलों के बीच संघर्ष एवं युद्ध छिड़ जाते थे।

ऋग्वेद में पानि शब्द का प्रयोग हुआ है, जो वैदिक जनों के शत्रु थे तथा. वे आर्यों के धन विशेषकर गायों को पर्वतों एवं जंगलों में छिपा लेते थे। इन पशओं को छड़ाने के लिये वैदिक देवता इंद्र की पजा की जाती थी। यह संदर्भ यह भी बताता है कि पशुओं का अपहरण सामान्य बात थी। राजा या मुखिया को “गौपति” कहा जाता था, जो गायों की रक्षा करता था। ऋग्वेद में “गोधुली” शब्द का प्रयोग समय को मापने के लिये हआ है, दूरी को गवयती नाम दिया गया है, पत्री को दहिता कहा गया है क्योंकि वह दूध दहन का काम करती थी, तथा जो लोग अपनी गायों के साथ एक ही गोष्ट में रहते थे उनको उसी गोत्र का माना जाने लगा। ये सारे शब्द गौ से बने हुये हैं और इससे लगता है कि ऋग्वेदकालीन जीवन में महत्वपूर्ण कार्य गौ-पालन था।  चरागाह, गौशाला, दुग्ध उत्पादन और पालतू जानवर के साहित्यिक संदर्भ श्लोकों एवं प्रार्थनाओं,में पाये गये हैं।

ऋग्वेद में पशुपालन से संबंधित अनगिनत भाषागत साक्ष्यों की तुलना में कृषि गतिविधियों से जुड़े संदर्भ बहुत ही कम मिलते हैं। अधिकतर कृषि संदर्भ बाद के काल से संबंधित हैं। “यव” या जौ के अतिरिक्त अन्य किसी अनाज का वर्णन नहीं किया गया है। प्रारम्भिक वैदिक काल के लोग लौह तकनीकी का प्रयोग नहीं करते थे। यद्यपि उनको तांबे की जानकारी थी, परन्तु ये औज़ार लोहे के औज़ार की तुलना में कम उपयोगी थे। पत्थर के औजारों (कुल्हाड़ी) का प्रयोग किया जाता था और इसका वृतांत ऋग्वेद में हुआ है। आग का प्रयोग जंगल जलाने के लिये किया जा रहा था और परिवर्तित खेती का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था। इस क्षेत्र में वर्षा कम होती तथा ऋग्वेद में वर्णित नदियां सतलुज, सिंध, घग्गर और रवि आदि के बहाव में जल्दी-जल्दी परिवर्तन होता रहता था। उच्च स्तर की सिंचाई प्रणाली के बिना, जिसका विकास इस काल में नहीं हुआ था, नदियों के किनारों की कछारी (जलोढ़) भूमि की सिंचाई स्थायी तौर पर नहीं की जा सकती थी। इस प्रकार ग्रंथों में वर्णित हसिया, कुदाल और कुल्हाड़ी का प्रयोग शायद जंगलों को काटकर साफ करने या परिवर्तित खेती के लिए किया गया।

पशुचारण एवं परिवर्तित खेती के साक्ष्यों से स्पष्ट है कि लोग खानाबदोश या अर्ध-खानाबदोश की स्थिति में पशु झुंडों को लेकर कुछ निश्चित समय के लिये अपने पशुओं को चराने के लिये घूमते थे। साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि लोग कृषि पर आधारित स्थायी जीवन नहीं बिता रहे थे। आबादी के गतिशील चरित्र के बारे में, “विश” शब्द से भी समझा जा सकता है जिसका तात्पर्य बस्ती था। पुनर (विश), उपा (विश) और प्रा जैसे प्रत्ययों के लगातार प्रयोगों से बस्तियों के उपविभाजन का बोध । होता है और जिनका तात्पर्य है पास बसना (एक बस्ती के), पुनः प्रवेश करना (एक बस्ती में) या वापस आना (एक बस्ती को)।

भेंट विनिमय एवं पुनर्वितरण की समाज में महत्वपूर्ण आर्थिक भूमिका थी। कबीलाई-संघर्ष के कारण पराजित या अधिन समूहों द्वारा विजित सरदारों को बलि के रूप में नजराना या अदायगी देनी पड़ती थी। विजयी कबीले के अन्य सदस्यों को युद्ध में बल-पूर्वक प्राप्त किये गये एवं लट-पाट के सामान का भाग या हिस्सा मिलता था। उत्सव के अवसरों पर कबीले का मखिया अपने कबीले के सदस्यों को भोज कराता था तथा उनको उपहार देता था। इसका आयोजन सम्मान प्राप्त करने के लिये किया जाता था। इस काल में व्यापार एवं व्यवसाय की हालत कमजोर थी। भू-स्वामित्व के आधार पर व्यक्तिगत संपत्ति का कोई सिद्धांत नहीं था। भूमि का अधिग्रहण व्यावसायिक आधार पर था।

समाज

प्रारम्भिक वैदिक समाज कबीलाई समाज था तथा वह जातीय एवं पारिवारिक संबंधों पर आधारित था। समाज जाति के आधार पर विभाजित नहीं था और विभिन्न व्यावसायिक गुट अर्थात् मुखिया, पुरोहित, कारीगर आदि एक ही जन समुदाय के हिस्से थे। कबीले के लिये ‘जन’ शब्द के दस राजाओं के संदर्भ मिलते हैं। जनों के पारस्परिक संघर्ष सामान्य थे. जैसे “दाशराज्ञ युद्ध” का वर्णन ऋग्वेद में हुआ है और इसी वर्णन से हमें कुछ जनों के नाम प्राप्त होते हैं जैसे भरत, पुरु, यद, गुहय् अन और तवास।

ये जनों के यद्ध जैसा कि पहले भी कहा गया है पशओं के अपरहय एवं पशओं की चोरी को लेकर होते रहते थे। जन का मखिया “राजा” या “गोपति” होता था। वह युद्ध में नेता तथा जन का रक्षक था। उसका पद अन्य व्यावसायिक समूहों की भांति ही पैतृक नहीं था बल्कि उसका जन के सदस्यों में से चुनाव होना था। योद्धा को “राजनय” कहा जाता था। बहुत से कुटम्ब (विश) मिलकर एक जन, (कबीला) बनता था। विश एक गांव या ग्राम में बस जाते थे। कल या परिवार समाज की प्राथमिक इकाई था और “कुलप” अर्थात् परिवार का सबसे बड़ा पुरुष परिवार का मखिया था जो परिवार की रक्षा करता था।

कबीला (जन), कबीलाई इकाई (विश), गांव (ग्राम), परिवार (कुल), परिवार का मुखिया (कुलप)

समाज, पितृसत्तात्मक था। पुत्र की प्राप्ति लोगों की सामान्य इच्छा थी। पुरुष को महत्व दिया जाता था और इसका पता उन श्लोकों से लगता है जिनको पुत्र प्राप्ति के लिये लगातार प्रार्थना में प्रयोग किया जाता था। यद्यपि पूरा समाज पितृसत्तात्मक था. फिर भी समाज में महिलाओं का भी काफी महत्व था। वे शिक्षित थीं और वे सभाओं में भी भाग लेती थी। कछ ऐसी महिलाओं के भी दृष्टांत मिले हैं जिन्होंने श्लोकों का संकलन किया। उनको अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था और वे देर से विवाह कर सकती थीं। इन सबके बावजूद महिलाओं को पिताओं, भ्राताओं और पतियों पर सदैव निर्भर रहना पड़ता था। शिक्षा का मौखिक रूप से आदान-प्रदान किया जाता था, परंतु शिक्षा की परम्परा इस काल में अधिक लोकप्रिय नहीं थी।

ऋग्वेद के रचनाकारों में स्वयं को अन्य मानव समुदायों, जिन्हें उन्होंने दास और दस्यू कहा, से पृथक् रखा। दासों को काला, मोटे होठों वाला, चपटी नाक वाला, लिंग पूजक और अशिष्ट भाषा वाला कहकर वर्णन किया गया है। वे सुरक्षित दीवारें बना कर रहते थे और प्रचुर पशुधन के स्वामी थे। हमें एक अन्य वर्ग, पाणि, के विषय में जानकारी मिलती है जो धन और पशओं के स्वामी थे। कालांतर में पाणि शब्द व्यापारियों और धन संपत्ति से जड़ गया। इन समुदायों में आपसी झगड़े और मैत्रियां होते रहते थे और उन्हें विभिन्न जातियों या भाषाई वर्गों के रूप में नहीं बाटा जा सकता। उदाहरणतः ऋग्वेद का सबसे प्रमुख नेता सुदास था जिसने “10 राजाओं” की लड़ाई में भरत कुल का नेतृत्व किया था। उसके नाम के अंत में प्रयुक्त दास शब्द से लगता है कि उसका दासों से कुछ संबंध था। एक ही क्षेत्र में कई समुदायों की उपस्थिति के कारण ही सम्भवतः वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ।

विभिन्न व्यावसायिक समूहों जैसे कि कपड़ा बुनने वाले, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, रथ बनाने वाले, पुजारी आदि का वर्णन हुआ है। सारथी का समाज में विशेष स्थान था। ऋग्वेद में भिखारियों मजदूरी पर काम करने वालों या मजदूरी का कोई दृष्टांत नहीं मिलता। परन्तु समाज में आर्थिक असमानता थी और हमें ऐसे संदर्भ मिलते हैं जिनके अनुसार कुछ धनी लोग रथों, पालतू पशुओं (गाय-बैलों) आदि के स्वामी थे और दूत वस्तुओं को भेंट या उपहार में देते थे।

राजनैतिक व्यवस्था

कबीलाई राज्य व्यवस्था पूर्णतः समानतावादी नहीं थी। ऋग्वेद में दोहरा सामाजिक विभाजन मिलता है, जिसको दो वंशीय समूहों के रूप में देखा गया है-प्रथम “राजनय” या वे जो युद्ध करते थे तथा जिन्होंने उच्चवंशीय परम्परा प्राप्त की, और शेष कबीले के साधारण सदस्य या विश जिन्होंने छोटीवंशीय परम्परा प्राप्त की। यद्यपि सामाजिक क्रम में किसी गट ने विशिष्ट स्थान नहीं पाया था, परंतु लगातार कबीलों के पारस्परिक संघर्षों एवं युद्धों ने सामाजिक विभाजन की रचना की। चरागाहों, पशुओं की बढ़ती आवश्यकता और लोगों तथा बस्तियों की सुरक्षा आदि के कारण आंतरिक एवं बाह्य कबीलाई संघर्षों में वृद्धि हुई।

युद्ध में योद्धासमूह की सहायता के लिये “कबीले” विशाल स्तर पर यज्ञ या बलि का आयोजन करते थे। इन यज्ञों में पुजारी या पुरोहित जनसमुदाय तथा देवताओं के बीच मध्यस्थ का कार्य करते थे। वह देवताओं की स्तुति करता था जिससे कि देवताओं का आशीर्वाद कबीले के मुखिया को युद्धों में सफलता पाने के लिये मिल जाये। प्रारम्भ में, सारा जन समुदाय इन यज्ञों में समानता के आधार पर भागीदारी करता था। बड़े स्तर पर इन यज्ञों के समय धन, खाने आदि का वितरण किया जाता और जन समदाय के प्रत्येक सदस्य को बराबर हिस्सा मिलता था। लेकिन संघर्षों एवं युद्धों में वृद्धि होने के कारण यज्ञ या बलि का महत्व बढ़ गया और पुरोहित ने समाज में एक विशेष दर्जा हासिल कर लिया। इस काल के अंतिम भाग में, वे राजाओं या मुखियाओं से प्राप्त होने वाले उपहारों का बड़ा हिस्सा पाने लगे, और इस प्रकार जन के अन्य सदस्यों की तुलना में उनको विशेष स्थान प्राप्त हुआ।

यद्ध आदि होने के कारण राजा के पद का भी विशेष महत्व हो गया और उच्च तथा छोटी वंशीय परम्पराओं के बीच विभाजन अधिक स्पष्ट होने लगा। ये राजनैतिक असमानताएँ किस समय दिखायी पड़ी इसको स्पष्ट रूप से बता पाना कठिन है परंतु हमें याद रखना चाहिये कि ऋग्वेद के 10वें सर्ग में “पुरुष सूक्त” का वर्णन है और उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों में हमें उन उच्च राजनय समहों के वर्णन मिलते हैं, जो क्षत्रिय का स्तर ग्रहण कर रहे थे तथा जो स्वयं में एक अलग जाति थी। ये परिवर्तन 1000 ई. पू. के बाद हुए। इसका तात्पर्य यह कदाचित् नहीं है कि जिस काल का हम अध्ययन कर रहे हैं वह अपरिवर्तनीय था वास्तव में यह परिवर्तन धीमी गति से हो रहा था लेकिन यह एक मुश्किल सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की ओर बढ़ रहा था जिसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति “उत्तर वैदिक काल’ में हुई ।

ऋग्वेद में कबीलाई सभाओं के लिये गण, विदाया, सभा और समिति जैसे शब्दों का वर्णन है। यह निश्चित नहीं हैं कि इनकी कार्यप्रणाली वास्तव में इस काल में क्या थी। “सभा” कबीले के चुनिंदा सदस्यों की परिषद और “समिति” सम्पूर्ण कबीले की परिषद होती होगी। इन सभाओं का कार्य सरकारी एवं प्रशासनिक दायित्वों को पूरा करना था और यही अपने जन समुदाय के किसी एक सदस्य को राजा निर्वाचित करने का भी कार्य करती थी। इस प्रकार वे योद्धाओं की शक्ति पर नियंत्रण रखते थे। जैसा हम पहले ही बता चुके हैं कि यद्यपि हम प्रारम्भिक वैदिक व्यवस्था में अच्छी प्रकार से परिभाषित राजनैतिक श्रेणीबद्धता नहीं पाते हैं फिर भी परिवर्तनों के इस काल में सामाजिक राजनैतिक श्रेणीबद्धता को जन्म दिया और जो “उत्तर वैदिक काल” में जातीय व्यवस्था के रूप में परिलक्षित हुई। उत्तरवैदिक कालीन समाज कबीलाई मूल्यों एवं नियमों से शासित होता था जिसके कारण मोटे तौर पर वर्ग विभेदीकरण नहीं हुआ।

धर्म

वैदिक लोगों के धार्मिक विचार ऋग्वेद के श्लोकों में स्पष्ट दिखाई देते हैं। वे चतुर्दिक प्राकृतिक शक्तियों (जैसे वायु, जल, वर्षा, बादल, आग आदि) जिन पर वे नियंत्रण नहीं कर सकते थे और उन पर दैवी शक्ति का आरोपण करके, मानव के रूपों में, जिनमें अधिकतर पुलिंग थे, उपासना करते थे। बहुत कम देवियों की अराधना होती थी। इस तरह से धर्म पैतृसत्तात्मक समाज को दर्शाता है और वह प्रारम्भिक जीववाद था।

इंद्र शक्ति का देवता था और उसकी उपासना शत्रुओं का नाश करने के लिए होती थी। वह बादलों का देवता था और वर्षा करने वाला था तथा उससे समय-समय पर वर्षा के लिये कहा जाता था। उसको पराजित नहीं किया जा सकता था। बादल एवं वर्षा (प्राकृतिक नियति) शक्ति से सम्बंधित थे जिसको पुरुष के रूप में मानवीयकरण किया गया तथा जिसका प्रतिनिधित्व इंद्र देवता करता था। गण का मखिया जो युद्ध में सबसे आगे रहता था उसका प्रतिनिधित्व भी इंद्र के चरित्र में मिलता है।

अग्नि आग का देवता था और इंद्र के बाद उसका महत्व था। उसको पृथ्वी एवं स्वर्ग के बीच मध्यस्थ माना जाता था अर्थात देवताओं और मनुष्यों के बीच। वह परिवार के चूल्हे का अधिकारी था, और उसकी उपस्थिति में ही विवाह सम्पन्न होते थे। आग गंदगी एवं जीवाणओं को नष्ट करती है इसलिये अग्नि को पवित्र माना जाता है। प्रारम्भिक समाज में अग्नि के महत्व को यज्ञ या बलि से भी संबंधित किया जा सकता है जो आहतियां अग्नि को समर्पित की जाती थी उनसे ऐसा माना गया कि वे धुएं के रूप में देवताओं तक पहुंचायी जाती थी।

वरुण को जल का देवता माना जाता था और वह विश्व की प्राकृतिक व्यवस्था का रक्षक था। यम मृत्यु का देवता था और उसका प्रारम्भिक वैदिक समान में विशेष महत्व था।

दूसरे अन्य बहुत से देवता थे जैसे सूर्य, सोम (जो एक पेय भी था), सावित्री, रुद्र आदि और अनेक प्रकार के दिव्य देहधारी देवता थे जैसे गंधर्व, अप्सरा, मरुत तथा जिनको सम्बोधित करते हुए ऋग्वेद में प्रार्थना एवं श्लोक लिखे गये हैं।

वैदिक धर्म बलि देय था। बलि या यज्ञों को निम्न कार्यों को सम्पन्न करने के लिये किया जाता था :

  • देवताओं की उपासना करने,
  • मनोरथ पूरा करने के लिये युद्ध में विजय,
  • पशुओं, पुत्रों आदि की प्राप्ति के लिये।

हमें कुछ ऐसे श्लोक मिले हैं जिनको बलि के औजारों में शक्ति संचयन के लिये समर्पित किया गया जैसे कि बलि वेदी सोम के पौधे को पीसने वाले पत्थरों, ओखली, युद्ध के हथियारों, एवं नगाड़ों आदि। श्लोकों एवं प्रार्थनाओं को इन बलि यज्ञों के अवसरों पर गाया जाता था और सामान्यतः पुरोहित ही इन यज्ञों को सम्पन्न करते थे। प्रारम्भिक वैदिक काल में बलि यज्ञों का बहुत महत्व हो गया जिसके परिणामस्वरूप, परोहितों का महत्व भी बढ़ने लगा।

बलिदान अनुष्ठानों के कारण गणित एवं पशु शरीर संरचना ज्ञान के विकास में भी वृद्धि हुई। बलिदान वाले क्षेत्र में बहुत सी वस्तुओं को उचित स्थिति में स्थापित करने के लिये प्रारम्भिक गणित की आवश्यकता गणना करने के लिये पड़ती थी। बलिदान बारबार होने के कारण पशुओं के शरीर का ज्ञान भी बढ़ा। वैदिक लोगों का विश्वास था कि जगत् का उद्भव एक विशाल ब्रह्मांडी यज्ञ से हआ और यज्ञों के समचित सम्पादन से ही उसका प्रतिपालन हो रहा है। धर्म काल्पनिक-अनुष्ठान पर आधारित नहीं था बल्कि इसके द्वारा . बलिदान व श्लोकों के माध्यम से देवताओं से सीधे सम्पर्क स्थापित करने पर बल दिया गया था। आत्मिक उत्थान करने के लिये देवताओं की उपासना नहीं की जाती थी और न ही निराकार दार्शनिक अवधारणा के लिये। अपितु इनकी उपासना भौतिक उपलब्धियों के हेत की जाती थी।

बलि पर आधारित धर्म पशु-पालक (चरवाहें) लोगों का धर्म है। इस समाज में पशु की बलि सामान्य बात है। जब पशु बूढ़ा हो जाए, जब वह न ध दे सकता है और न मांस, न प्रजनन के लिये ही उपयुक्त रह जाता है, अर्थात् जो पशु आर्थिक लाभ के नहीं होते उनको मारकर उनके मालिकों का बोझ हल्का कर दिया जाता है। इस तरह से पशबलि बढ़े जानवरों को नष्ट करने का एक तरीका है और इसका समाज में एक महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन कृषि प्रधान समाज में, पुराने पशुओं का उपयोग खेती-बाड़ी में किया जाता है और वे हल आदि खींचने के काम आते हैं तथा इसीलिये खेती-बाडी वाले समदाय जानवरों के नष्ट होने के काम को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इस प्रकार वैदिक धर्म पैतकसत्तात्मक पशुपालक समाज को उजागर करता है और वह दृष्टिकोण में भौतिकतावादी था।

सारांश

आपने इस इकाई में उन साहित्यिक व पुरातात्विक स्रोतों के बारे में जानकारी प्राप्त की जो उत्तर वैदिक समाज के पुनर्निर्माण में हमारी सहायता करते हैं। प्रातात्विक साक्ष्यों के प्रकाश में “आर्यों” के वृहत पैमाने पर स्थानातरण की अवधारणा को स्वीकार करना कठिन है।

प्रारम्भिक वैदिक अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से पशुपालन की थी और गाय संपत्ति की सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक थी। प्रारंभिक वैदिक लोगों के जीवन में खेती का स्थान गौण था। प्रारम्भिक वैदिक समाज कबीलाई और मुख्यतः समानतावादी था। कुटुम्ब और परिवार के संबंधों ने समाज का आधार निर्मित किया था और परिवार समाज की आधारभूत इकाई था। व्यवसाय पर आधारित सामाजिक विभाजन प्रारम्भ हो चुका था परंतु उस समय जातिगत विभाजन नहीं था।

प्रारम्भिक राजनैतिक व्यवस्था में जन के मुखिया या राजा और पुजारी या पुरोहित के महत्वपूर्ण स्थान थे। अनेकों गण सभाओं में से “सभा” व “समिति” प्रशासन में विशेष योगदान करती थीं। यद्यपि प्रारंभिक वैदिक व्यवस्था में स्पष्ट रूप से परिभाषित कोई राजनैतिक पदानुक्रम नहीं था फिर भी कबीले की राजनैतिक व्यवस्था पूर्णतः समतावादी नहीं थी।

प्रारम्भिक वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों जैसे वायु, जल, वर्षा आदि को मूलरूप दिया और उनकी देवता की तरह पूजा करते थे। वे देवता की उपासना किसी अमूर्त दार्शनिक अवधारणा के कारण नहीं बल्कि भौतिक लाभों के लिये करते थे। वैदिक धर्म में बलिदान या यज्ञ का महत्व बढ़ रहा था।

यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि यह समाज स्थिर नहीं बल्कि गतिशील था। इन पांच सौ वर्षों के दौरान (1500 ई. पू. से 1000 ई. पू.) समाज का लगातार विकास हो रहा था और आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में नये-नये तत्व सामाजिक संरचना को रूपांतरित कर रहे थे।

 

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