1857 से पूर्व उपनिवेशवाद तथा प्रशासनिक व्यवस्था का विकास

मुगलों ने भारत में प्रशासन का केंद्रीकृत रूप स्थापित किया था। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था के सभी विभागों में व्यक्तित्व प्रमुख होता था। किन्तु इस प्रकार का व्यक्ति केंद्रित राज्य समय के थपेड़ों को नहीं सह पाया और ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने कमजोर साबित हुआ।प्लासी की लड़ाई में हुई हार ने भारत की दुर्बलताओं का पर्दाफाश कर दिया। उसके बाद अंग्रेज भारत में एक दृढ़ शक्ति के रूप में स्थापित हो गए । इस इकाई में आप पढ़ेंगे कि पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान तथा बाद में सम्राट के शासन के दौरान भारत में अंग्रेजी राज के प्रशासन का स्वरूप क्या था । यहाँ इस बात की चर्चा भी की जाएगी कि प्रशासन की समस्या के पीछे आधारभूत तत्व क्या थे— ‘अर्थात् भारत में ब्रिटिश शासन का स्वरूप कैसा था और उसका लक्ष्य क्या था।

ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना

ईस्ट इंडिया कंपनी का आरंभ एक व्यापारिक संघ के रूप में हुआ था। इसका आर्थिक स्वरूप भी सिर्फ व्यापारिक संघ के अनुरूप ही था । इसके अंतर्गत आने वाले प्रत्येक मुख्य “कारखाने” अथवा व्यापारिक संस्थान, एक अध्यक्ष तथा उसकी परिषद् के नियंत्रण में होते थे। अध्यक्ष को बाद में गवर्नर कहा जाने लगा। परिषद् में कंपनी के वरिष्ठ कर्मचारी होते थे। नए अथवा कम महत्वपूर्ण कारखाने किसी अनुभवी व्यापारी के नियंत्रण में रखे जाते थे। इस अनुभवी व्यापारी को “फैक्टर” (Factor) कहा जाता था। जिन व्यापारिक कारखानों में अध्यक्ष प्रमुख होता था उन्हें बाद में प्रेसीडेंसी कहा जाने लगा। मद्रास, या बाम्बे तथा कलकत्ता ऐसी ही प्रेसीडेंसीयाँ थी।

कंपनी का अधिकार क्षेत्र बढ़ाने में विभिन्न प्रक्रियाओं का हाथ था। ये थीं जमींदारी के अधिकारों की प्राप्ति, भू-भागों को जीत कर या उनकी मालगुजारी का अधिकार प्राप्त कर तथा दीवानी का अधिकार प्राप्त करके।

1698 में कंपनी ने सुतांती, कलकत्ता तथा गोविन्दपुर गाँवों की जमींदारी के अधिकार खरीद लिए । 1757 में कंपनी ने quit rent के आधार पर चौबीस परगना पर अधिकार प्राप्त कर लिया जो बाद में कंपनी को ही दे दिया गया।

1760 में मीरकासिम के बर्दवान, चटगाँव तथा मिदनापुर जिले अंग्रेजों को सौंप दिए । मुगल बादशाह शाहआलम ने इसे अपनी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार बादशाह से अनुदान में मिले भू-भाग के संबंध में ब्रिटिश महारानी का सांविधानिक रवैया क्या था, यह तो स्पष्ट ज्ञात नहीं है।

भारत में रहने वाले अंग्रेजों के ऊपर तो कंपनी को घोषणापत्र द्वारा अधिकार प्राप्त थे किंतु भारतीयों पर कंपनी का अधिकार ऐसे जमींदार का अधिकार था जो स्थानीय फौजदार के अधीन रहता था। 1764 के बक्सर-युद्ध के बाद बंगाल में अंग्रेजों की शक्ति सर्वोपरि हो गई।

1857 से पूर्व प्रशासनिक व्यवस्था

बंगाल पर अधिकार कर लेने के बाद अंग्रेजों ने वहाँ ऐसा प्रशासन स्थापित करने का प्रयास किया जो उनकी आवश्यकताओं के अनुकूल होता। 1765 के पूर्व तक बंगाल का नवाब ही प्रशासन संभालता था। सिद्धांत रूप से तो वह मुगल बादशाह का प्रतिनिधि (agent) था किंतु वास्तव में उसके पास पूर्ण अधिकार थे। निजाम के रूप में उसके अधीन कानून और व्यवस्था, सैन्य शक्ति तथा फौजदारी (Criminal Justice) मामलों के विभाग थे, तथा दीवान के रूप में वह राजस्व उगाहने तथा प्रशासन एवं दीवानी मामलों के लिए उत्तरदायी था।

1764 के बक्सर युद्ध के बाद बंगाल में अंग्रेजों की शक्ति सर्वोपरि हो गई। बंगाल के प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश राज में मिला लेने पर भारत कंपनी के लिए तथा इंग्लैंड की सरकार दोनों के लिए ही राजनीतिक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती थीं। अतः अंग्रेजों ने मुगल बादशाह से एक आदेश प्राप्त किया जिसके अनुसार उन्हें बंगाल, बिहार और उड़ीसा में दीवानी अधिकार (भू-राजस्व उगाहने का अधिकार) प्राप्त हो गया। तब भी आरंभ में भू-राजस्व उगाहने का वास्तविक कार्य नवाब के कारिदे ही करते थे। निज़ामत नवाब के ही हाथों में रही। प्रशासन का यह दोहरारूप उस समय समाप्त हो गया जब 1772 में कंपनी ने राजस्व वसूली का वास्तविक नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया।

अब कंपनी मुख्य रूप से व्यापारिक शक्ति न रहकर भू-भागीय शक्ति हो गई थी। प्रश्न यह था कि क्या भारत का शासन एक व्यापारिक संघ करेगा जिसका कार्य मुख्यतः अपने व्यापारिक हितों की रक्षा करना है, या यह शासनाधिकार ब्रिटिश संसद को सौंप दिया जाए।

जैसे-जैसे कंपनी की राजनीतिक शक्ति बढ़ती गई, इसके अधिकारियों द्वारा उस शक्ति का दुरुपयोग भी बढ़ता गया। कंपनी द्वारा भारत में राजनीतिक सत्ता ग्रहण करने की बात पर इंग्लैंड में आपत्ति उठाई गई तथा संसद पर जोर डाला गया कि वह इस मामले में हस्तक्षेप करे । लगातार, युद्धों तथा कंपनी के अधिकारियों की मनमानी के कारण कंपनी घोर आर्थिक संकट में फंस गई थी। कंपनी ने संसद से आर्थिक सहायता के लिए याचना की। संसद इस शर्त पर कंपनी की सहायता करने को तैयार हुई कि भारत तथा इंग्लैंड दोनों ही स्थानों पर कंपनी का प्रशासन ससद के निर्देशन में होगा। इसके लिए 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट (Regulating Act) पास किया गया।

ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश संसद की तुलना

1773 का रेग्यूलेटिंग ऐक्ट इस बात का प्रमाण था कि ब्रिटिश संसद भारत के मामलों को नियमित करने के लिए गंभीरता से सोचने लगी थी। इसने भारत के लिए पहली बार एक सर्वोच्च सरकार की स्थापना की जिसका प्रमुख बंगाल में फोर्ट विलियम का गवर्नर जनरल था। उसके साथ चार पार्षद (Counsellors) भी थे जिनको यह अधिकार था कि वे बम्बई तथा मद्रास की प्रेसीडेंसियों पर नजर रखें । प्रेसीडेंसियों को इस बात का अधिकार नहीं था कि वे गवर्नर जनरल और परिषद की आज्ञा के बिना भारतीय राज्यों के साथ युद्ध अथवा संधि कर सकें। इसमें अपवाद हो सकते थे जैसे आपातकाल होने पर अथवा ऐसी स्थिति में जब उन्हें कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स से युद्ध अथवा संधि करने के सीधे आदेश प्राप्त हों । इस ऐक्ट में इस बात की भी व्यवस्था थी कि कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायिक न्यायालय की स्थापना की जाए।

“रेग्यूलेटिंग ऐक्ट” ने कंपनी अधिकृत भारतीय भू-भागों के नागरिक, सैन्य एवं वित्तीय मामलों को चलाने का अधिकार ब्रिटिश संसद को दिया। साथ ही यह इस बात का भी पहला प्रमाण है कि ब्रिटेन की सरकार भारत के मामलों में गंभीर रुचि लेने लगी थी। इस ऐक्ट में कतिपय आधारभूत कमियाँ थीं जिनके कारण वारेन हेस्टिंगज को काफी कठिनाइयाँ उठानी पड़ी। उसके पार्षद भी उसका साथ नहीं देते थे। इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि गवर्नर जनरल का अपने अधीन प्रेसीडेन्सियों पर कहाँ तक अधिकार है तथा यह भी स्पष्ट नहीं था कि सर्वोच्च परिषद् एवं सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र क्या है। इसका परिणाम यह हुआ कि वारेन हेस्टिंग्ज को अपना प्रशासनिक उत्तरदायित्व निभाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा तथा परिषद् में एक के बाद एक संकट उत्पन्न होते गए।

1781 में कंपनी के मामलों को और अधिक नियंत्रित करने के प्रयास किए गए। नार्थफॉक्स की मिली-जुली सरकार ने गंभीरतापूर्वक यह प्रयत्न किया कि कंपनी की शासन व्यवस्था का पुनर्गठन हो । इस उद्देश्य से दो बिल प्रस्तुत किए गए। चार्ल्स जेम्स फोक्स ने कंपनी की शासन व्यवस्था को ऐसी निरंकुश व्यवस्था कहा “जिसकी मिसाल संसार के इतिहास में नहीं मिलती।” कंपनी ने अपना संरक्षण मंत्रियों के हाथ में दिये जाने पर विरोध प्रकट किया। यह बिल हाउस आफ कॉमन्स में तो पारित हो गया किंतु हाउस ऑफ लार्डस ने इन्हें अस्वीकार कर दिया।

जब विलियम पिट ने प्रधानमंत्री का पद संभाला तो उसने “इंडिया बिल” प्रस्तुत करने का निश्चय किया। पिट को हाउस ऑफ कॉमन्स में कम समर्थन प्राप्त था। साथ ही उसे ईस्ट इंडिया कंपनी की आशंकाओं का भी निवारण करना था। पिट ने कंपनी के साथ बातचीत करके तथा उसकी स्वीकृति से एक ऐसी योजना तैयार की जो भारतीय मामलों पर संसद के नियंत्रण से संबंधित थी। यह पिट के “इंडिया बिल” के नाम से जाना जाता है । अगस्त 1784 में पास होने पर यह बिल कानून बन गया।

इस अधिनियम के अनुसार भू-भागों तथा वाणिज्य के बीच अंतर को बनाये रखना था। भू-भागों के प्रशासन का नियंत्रण संसद की एक प्रतिनिधिक सभा को दिया जाना था जबकि वाणिज्य पर कंपनी का ही अधिकार बना रहना था। भारत में सरकार अब भी कंपनी के नाम पर ही चलाई जानी थी यद्यपि राजनीतिक एवं वित्तीय मामले प्रस्तावित संसदीय सभा के नियंत्रण एवं देखरेख में होने चाहिए थे।

पिट के इंडिया बिल ने नियंत्रण, निर्देशन एवं निगरानी का एक सशक्त साधन प्रदान किया। यही व्यवस्था थोड़े-बहुत फेर बदल के साथ 1858 तक प्रयुक्त होती रही। इस समय तक भारत पर इंग्लैंड की सम्राज्ञी का पूर्व नियंत्रण स्थापित हो चुका था।

उन्नीसवीं शती के पूर्वार्ध तक ब्रिटिश भू-भागों के प्रशासन का विधिनिर्माण कुछ सीमा तक उपयोगितावादी चिंतन एवं सिद्धांतों से प्रभावित रहा। जैसा कि इरीक ऐरिक स्टोक्स ने अपनी रचना इंग्लिश यूटिलिटेरियन्स इन इंडिया (English Utilititarians in India) में दर्शाया है। इस स्थिति में 1813 में परिवर्तन आया और अब प्रवृत्ति उदारवादी सिद्धांतों की ओर हो गयी। कंपनी का प्रशासन तो कंपनी के ही हाथों में रहने दिया गया किंतु भारतीय व्यापार पर कंपनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। 1833 के एक अधिनियम के द्वारा कंपनी ने भारत में स्थित अपनी समस्त व्यक्तिगत संपत्ति का समर्पण कर दिया तथा इंग्लैंड की सम्राज्ञी की ओर से न्यासी (Trustee) के रूप में इसकी देखभाल करने लगी।

भारत में कंपनी का व्यापारिक रूप समाप्त हो गया और वह सम्राझी की राजनीतिक अभिकर्ता (Political agent) बनकर रह गई। भारत सरकार का नये सिरे से गठन किया गया जिससे इसका स्वरूप भारत-व्यापी हो गया।

आर्थिक नीति

ब्रिटिश सरकार ने ऐसी आर्थिक नीति अपनाई जिससे भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी से परिवर्तन आया और अर्थव्यवस्था उपनिवेशीय आर्थिक नीति में बदल गई जिसका स्वरूप और गठन ब्रिटेन की आवश्यकताओं के अनुकूल किया गया था। सन् 1600 से लेकर 1757 तक ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमिका एक व्यापारिक निगम की थी जो तैयार माल तथा कीमती धातुएँ मारत में लाता था तथा उनके बदले भारतीय माल जैसे कपड़ा लेता था । प्लासी की लड़ाई के बाद कंपनी के व्यापारिक संबंधों में बहुत परिवर्तन आया।

अब अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए कंपनी राजनीतिक नियंत्रण का प्रयोग करने लगी थी। भारत को उपनिवेश बनाने में इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति का भी बड़ा हाथ रहा। 1793 से 1813 के बीच इंग्लैंड के उत्पादकों ने कंपनी के व्यापारिक विशेषाधिकारों के विरूद्ध आंदोलन छेड़ दिया और अंततः वे भारतीय व्यापार पर कंपनी के एकाधिकार को समाप्त करने में सफल हुए ।

ब्रिटिश उद्योगपति चाहते थे कि उनका बनाया माल भारत के बाजारों में बिके तथा साथ ही अपने उत्पादन के लिए उन्हें कच्चा माल भी भारत से मिलता रहे।

इस प्रकार गुलामी एवं शोषण की उपनिवेशवादी व्यवस्था ने भारत को संपूर्ण सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था को अव्यवस्थित कर दिया। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कंपनी ने अपने अधीन भू-भागों पर और अधिक दबाव डालना आरंभ कर दिया । अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए उसने अभियानों एवं युद्धों का सहारा लिया। इंग्लैंड ने अपने हिस्सेदारों को अधिक से अधिक लाभ देने, ब्रिटिश सरकार को भेंट देने तथा प्रभावशाली लोगों को रिश्वत देने के लिए कंपनी को अतिरिक्त धन की आवश्यकता थी।

अतिरिक्त निर्यात (Exports Surplus) के अतिरिक्तं 1813 के बाद कंपनी ने होम चार्जेस भी लागू कर दिए और इस प्रकार भारत की संपत्ति को दुहकर इंग्लैंड भेजा जाने लगा। अन्य खर्चों के अतिरिक्त इन तीन चार्जेस में भारतीय ऋण पर ब्याज भी शामिल था। 1858 तक भारतीय ऋण लगभग 695 लाख हो गया था। संपत्ति के इस निर्यात के बदले में भारत को धन अथवा वस्तुएँ कुछ भी उचित रूप से प्राप्त नहीं होती थीं। इस तथ्य को अंग्रेज अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि 1757 और 1857 के बीच भारतीय संपन्नि अनुचित रूप से इंग्लैंड पहँचाई जाती रही। लारेंस सुलिवन, जो कि कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का डिरी चेयरमेन था, ने कहा कि:

“हमारी व्यवस्था बहुत कुछ स्पंज जैसी है, जो गंगातट से सारी अच्छी वस्तुओं को सोखकर टेम्स के किनारे निचौड़ आती है।”

भू-राजस्व नीति

भारत के विभिन्न भागों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेने के बाद कंपनी ने भू-राजस्व की वसूली करने के लिए अनेक तरीके अपनाए । ये तरीके स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप थे। अधिकांशतया ये राजस्व कृषि के रूप में होते थे। धीरे-धीरे कंपनी को भारत में प्रणाली की जानकारी हुई । तब उसने विभिन्न क्षेत्रों के लिए दीर्घावधि की नीतियाँ बनाईं। कंपनी का उद्देश्य था अधिकाधिक कर वसूलना । उन्हें कृषि अथवा यहाँ प्रचलित परंपराओं से कोई सरोकार नहीं था। देश के विभिन्न भागों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के बंदोबस्त लागू किए गए।

स्थायी बंदोबस्त: 1793 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा में स्थायी बंदोबस्त लागू किया गया। इसकी मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार थीं

  • जमींदार अपने इलाके की संपूर्ण भूमि के स्वामी बना दिए गए । सरकार की ओर से भू-राजस्व की वसूली करना उनका कार्य था।
  • जो राजस्व जमींदार वसूल करता था उसके दस में से नौ भाग उसे सरकार को देने पड़ते थे। दसवां भाग वह अपने मेहनताने के रूप में रख लेता था।
  • जमींदारों द्वारा सरकार को दिया जाने वाला राजस्व स्थायी और निश्चित होता था। इसलिए जमींदारों को उनके क्षेत्र में पड़ने वाली समस्त भूमि का स्वामी घोषित किया गया।

स्थायी बंदोबस्त ने जमींदार को भू-स्वामी बना दिया। इसने धनी जमींदारों के एक विशेषधिकार प्राप्त वर्ग को नदया। जमींदारी प्रथा की उत्पत्ति का श्रेय पूर्ण रूप से अंग्रेज सरकार को ही जाता है। अतः अपने मूल हितों की रक्षा करने के लिए यह वर्ग अपने जन्मदाता अंग्रेजों का समर्थन करने के लिए बाध्य था।

बाद में स्थायी बंदोबस्त की व्यवस्था बनारस के कुछ भागों एवं उत्तरी मद्रास में भी लागू कर दी गई। इस व्यवस्था के लागू होने से किसानों के साथ कंपनी का संपर्क बिल्कुल समाप्त हो गया और किसान पूर्ण रूप से जमींदारों की दया पर निर्भर हो गए । भू-राजस्व के स्थिरीकरण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। यह तदर्थ ही होता था। किसानों और जमींदारों के बीच चले आ रहे दीर्घकालीन संबंधों को अचानक ही समाप्त कर दिया गया था । भू-राजस्व का भार बहुत अधिक था।

ऐसी बात नहीं थी कि जमींदार वर्ग समस्याओं से मुक्त रहा हो। भू-राजस्व की किस्त न चुका सकने की स्थिति में जमींदारियाँ बंद कर दी जाती थीं। इससे अब वे लोग भी जमींदार बनने लगे जो वंशपरंपरा से जमींदार नहीं थे। शहरी व्यापारी, और साहकार इत्यादि नीलाम में जमींदारियाँ खरीदने लगे। इन लोगों को भूमि का विकास करने अथवा किसानों कल्याण में कोई रूचि नहीं थी। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में अनेक किसान विद्रोह हुए। इन विद्रोहों में प्रमुख थे।  1795 – का विद्रोह, 1798 का रायपुर विद्रोह, 1799 का बालासोर विद्रोह तथा 1799-1800 के बीच मिदनापुर के आसपास के गावों में होने वाले विद्रोह ।

1762-63 में बंगाल से की जाने वाली उगाही की रकम 646, 000 रुपए थी किंतु 1790 तक यह बढ़कर 2680,000 रुपए हो गई। बंगाल जो कभी पूर्व का अन्न भंडार कहा जाता था, लगभग खाली था । वहाँ अब अकाल, भुखमरी मौत और बीमारी का साम्राज्य था। हाउस ऑफ कॉमन्स की विरोध समिति ने 1783 में जो रिपोर्ट दी उसका एक अंश यहाँ प्रस्तुत है:

“प्रतिवर्ष लगभग 1,000,000 रुपए बंगाल से कंपनी के खाते में जाते हैं जो चीन भेजे जाते थे और यह संपूर्ण राशि चीन से यूरोप की व्यापार में लगा दी जाती थी। इसके अतिरिक्त शांतिकाल में बंगाल भारत में स्थित उन प्रेसीडेंन्सियों को नियमित रूप से रसद भेजता है जो अपना बोझ स्वयं उठाने में असमर्थ है।”

रैयतवारी बंदोबस्तः उन्नीसवीं सदों के आरंभ में मद्रास तथा बम्बइ क कुछ क्षेत्रों में रैयतवारी बंदोबस्त लागू किया गया। इसके अनुसार भूमि जोतने वाले को उस भूमि का स्वामी माना जाता था बशर्ते कि वह भू-राजस्व चुकाता रहे । अंग्रेजों ने उन मिरासदारों (ग्रामीण समुदायों के सदस्यों) तथा किसानों को भी मान्यता दी जो सीधे राज्य को कर दिया करते थे। ये मिरासदार छोटे-मोटे जमींदार बन गए थे। किंतु इस प्रथा से भूमि का जो स्वामित्व मिलता था उसका विशेष लाभ नहीं था। इसके तीन कारण थेः

  •  भू-राजस्व की अनुचित दर ।
  • भू-राजस्व की दर में मनमाने ढंग से वृद्धि करने का सरकार का अधिकार।
  • भू-स्वामित्वधारों को हर स्थिति में भू-राजस्व देना ही पड़ता था, भले ही उसकी उपज आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप

से नष्ट हो गई हो। गाँव की चरागाहों एवं परती जमीन पर भी अब राज्य ने अधिकार कर लिया था। पहले इन क्षेत्रों पर ग्राम-समुदायों का अधिकार होता था। इससे भू-राजस्व का भार और बढ़ गया ।

महलवारी बंदोबस्त: जमींदारी का एक और रूप था महलवारी बंदोबस्त । यह व्यवस्था गंगाघाटी, उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों, मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों तथा पंजाब में लागू की गई । इसके अनुसार प्रत्येक गाँव के लिए अलग बंदोबस्त होता था। जमींदार अथवा वे घराने जो जमींदार होने का दावा करते थे. उन्हीं के हाथों सरकार यह बंदोबस्त सौंपती थी।

अंग्रेजों ने परंपरा से चली आ रही भू-व्यवस्थाओं में मौलिक परिवर्तन किए । भू-व्यवस्था में हुए इन परिवर्तनों ने भारतीय गाँवों की स्थिरता, स्वायत्तता एवं सातत्य को हिला कर रख दिया।

 न्याय व्यवस्था

आरंभिक घोषणा पत्रों में कंपनी को यह अधिकार दिया गया था कि वह “उचित कानून” बना सकती है, “सांविधानिक आदेश” और “अध्यादेश जारी कर सकती है तथा एक सीमा तक अपने कर्मचारियों को अपराध के लिए दंडित कर सकती है। किंतु इन घोषणाओं में कंपनी को भू-भाग संबंधी अधिकार नहीं दिए गए थे। 1661 में चार्ल्स द्वितीय ने प्रत्येक फैक्ट्री के गवर्नर तथा परिषद् को यह अधिकार दिया कि वे न केवल अपने कर्मचारियों अपितु उन सब लोगों के फौजदारी (Criminal) और दीवानी (Civil Jurisdiction)मामलों को देखें जो उनके अंतर्गत आते हैं।

दीवानी का अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् कंपनी कुछ सीमा तक तो दीवानी न्याय के लिए उत्तरदायी हो ही गई थी। फौजदारी के मामलों में तो इस्लामी कानून का अनुसरण किया जाता था किंतु दीवानी के मामलों में विभिन्न पक्षों के व्यक्तिगत कानून के अनुसार ही फैसला किया जाता था। दीवानी मामलों की अपील सदर दीवानी अदालत में की जाती थी यानि प्रेसीडेंट और परिषद् में की जाती थी जबकि फौजदारी मामलों की अपील सदर निजामत अदालत में की जाती थी जो नवाब के अधीन थी। फिर भी न्यायिक प्रशासन को संगठित करने की दिशा में पहला कदम वारेन हेस्टिंग्ज ने ही उठाया।

उसी ने पहली बार जिले को न्यायिक प्रशासन की इकाई बनाया। प्रत्येक जिले में दीवानी और फौजदारी अदालतों की स्थापना की गई। प्रत्येक जिले में जिलाधीश दीवानी न्यायालय का प्रमुख होता था और फौजदारी न्यायालय में एक भारतीय अधिकारी के साथ दो मौलवी बैठते थे। इन जिला न्यायालयों के ऊपर अपील न्यायालय था जो कलकत्ता में स्थित था । सदर दीवानी अदालत में गवर्नर और परिषद के दो सदस्य होते थे जिनकी सहायता के लिए वित्त विभाग का दीवान तथा प्रमुख कानूनगो इत्यादि होते थे। सदर निजामत अदालत का प्रमुख निजाम का नायब होता था तथा उसकी सहायता के लिए एक मुसलमान अधिकारी और मौलवी होते थे।

1773 के रेगयूलेटिंग ऐक्ट (Regulating Act)के अनुसार बंगाल में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई जो सम्राज्ञी के अधीन था । सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के फलस्वरूप दो विरोधी न्यायिक प्राधिकार बन गए एक ओर सर्वोच्च न्यायालय का तो दूसरी ओर सदर दीवानी अदालत। इसका एक अस्थायी हल तो यह निकाला गया कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्याधीश की नियुक्ति सदर दीवानी अदालत के प्रेसीडेंट के रूप में कर दी गई।

1790 में फौजदारी अपीलों का स्थानांतरण गवर्नर जनरल एवं परिषद् के अधीन कर दिया गया। गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् की सहायता के लिए मुख्य काजी तथा दो मुफ्तियों को मुकर्रर किया गया। यह कदम कार्नवालिस की आम नीति का ही एक हिस्सा था। उसकी नीति सभी उच्च पदों से भारतीयों को हटाकर उनके स्थान पर यूरोपियों को रखने की थी।

कार्नवालिस ने जिला अदालतों को अंग्रेज न्यायाधीशों के अधीन कर दिया । उसने दीवानी न्यायाधीश और जिलाधीश के दो अलग-अलग पद बनाए । इन दोनों के विरूद्ध अपील करने के लिए चार अपील के न्यायालय स्थापित किए गए जो क्रमशः कलकत्ता, ढाका, मुर्शिदाबाद और पटना में स्थित थे। जिला न्यायालयों के नीचे रजिस्ट्रार के न्यायालय थे जिनके प्रमुख यूरोपीय होते थे। साथ ही उनके अधीनस्थ न्यायालय भी थे जिनके प्रमुख भारतीय होते थे जिन्हें मुंसिफ और अमीन कहा जाता था। कार्नवालिस ने शासन व्यवस्था का एक ऐसा ढाँचा तैयार किया जो अगले सौ वर्षों तक भारत की शासन व्यवस्था का आधार बना रहा । इसका आधार था भारत में विदेशी शासन को चलाते रहना तथा इस देश की संपत्ति का दोहन करना ।

1801 में गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् का न्यायिक सत्ताधिकार समाप्त हो गया। इसके स्थान पर सदर दीवानी अदालत अथवा दीवानी अपीली न्यायालय की स्थापना की गई और इसमें तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई । सम्राज्ञी के न्यायालयों तथा जमींदारी न्यायालयों की दोहरी नीति सिद्धांत रूप में तब समाप्त हुई जब 1861 में इंडियन हाई कोर्ट एक्ट द्वारा कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई । इन न्यायालयों ने सर्वोच्च न्यायालय और सदर न्यायालय दोनों का ही स्थान ले लिया।

नई न्यायिक व्यवस्था की विशेषताएँ थीं : विधि का शासन (rule of law) कानून के सामने सबका समान होना, इस बात की मान्यता कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने वैयक्तिक कानून के अनुसार न्याय पाने का हक है, तथा कुशल एवं प्रशिक्षित न्यायिक वर्ग का विकास।

फिर भी नई न्याय व्यवस्था को दोषमुक्त नहीं कहा जा सकता। इसमें अनेक कमियां थीं। फौजदारी मामलों में यूरोपियों के , लिए अलग न्यायालय थे यहाँ तक कि अलग कानून भी। उनकी सुनवाई भी अंग्रेज न्यायाधीश करते थे जो कभी-कभी उनका अनुचित पक्ष भी लिया करते थे। दीवानी मामलों में तो स्थिति काफी गंभीर थी । न्यायालय बहुत दूर हुआ करते थे तथा न्याय की प्रक्रिया बहुत लम्बी थी । न्याय बहुत महंगा होता जा रहा था। ग्राम-समितियों एवं पंचायतों का गाँवों में भी कोई महत्व नहीं रह गया था।

 ब्रिटिश प्रशासन का प्रभाव

ब्रिटिश प्रशासन के कतिपय लाभ भी थे। इससे कानून और व्यवस्था की स्थापना हुई, स्वतंत्रता में आस्था बनी तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का शुभारंभ हुआ। कानून की एक सामान्य व्यवस्था एवं एक जैसे सरकारी न्यायालयों के कारण एकता में वृद्धि हुई । प्रशासन का दूरस्थ एवं निवयक्तिक स्वरूप एक साथ ही इस व्यवस्था का गुण और दोष था। इसका सबसे बड़ा दोष यह था कि इस व्यवस्था में लोगों की भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता का अभाव था।

ब्रिटिश प्रशासनिक नीतियों का परिणाम यह हुआ कि स्थानीय स्वायत्त शासन की देशी संस्थाओं का लोप हो गया तथा प्रशासन के उच्च पदों से भारतीय वंचित हो गए । भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश हितों की अनुगामिनी बना देने के अनेक दुष्परिणाम हुए । कलाकार और कारीगर बर्बाद हुए, किसान दरिद्र हो गए, पुराने जमींदारों का पतन हुआ तथा भूस्वामियों के एक नये वर्ग का उदय हुआ। कृषि के क्षेत्र में ठहराव आया और वह पतनोन्मुख हो चली।

अंग्रेजी नीतियों के परिणामस्वरूप भारतीयों में जो आक्रोश एवं असंतोष सुलग रहा था उसकी परिणति 1857 की क्रांति में हुई ।

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