जलवायु परिवर्तन और कृषि (Climate Change and Agriculture)

परिचय कृषि और मत्स्यपालन मुख्य रूप से जलवायु पर निर्भर हैं। भारत का कृषि क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना कर रहा है जो भारत में किसानों के दैनिक जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। हालांकि कुल मानवजनित उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का 25% योगदान है।

कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

कृषि उत्पादकता में गिरावट

  • कृषि उत्पादकता जलवायु प्रेरित परिणामों के दो व्यापक वर्गों के प्रति संवेदनशील है। पहला, तापमान, वर्षा और कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता में परिवर्तन के कारण जलवायु प्रेरित परिणामों के प्रत्यक्ष प्रभाव के प्रति; तथा दूसरा मृदा की नमी में परिवर्तन तथा कीटों और बीमारियों द्वारा संक्रमण के वितरण एवं बारम्बारता के माध्यम से इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव के प्रति।
  • IPCC के अनुसार, भारत में कृषि उत्पादकता में 2020 तक 2.5 से 10% तक और 2050 तक 5 से 30% तक की गिरावट अनुमानित है।
  • पोषण संबंधी सुरक्षा: वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता स्तर गेहूं, सोयाबीन और चावल सहित अधिकांश पादप प्रजातियों में प्रोटीन और आवश्यक खनिजों के संकेंद्रण को कम करता है।

पशुधन पर प्रभाव

हीट वेव (जिनमें जलवायु परिवर्तन के कारण वृद्धि का अनुमान है) पशुओं में रोग के प्रति उनकी सुभेद्यता को बढ़ाकर, प्रजनन क्षमता को घटा कर और दूध उत्पादन को कम कर पशुओं के लिए प्रत्यक्ष रूप से खतरा उत्पन्न कर सकती है।

मत्स्य पालन पर प्रभाव

तापमान और मौसम में परिवर्तन प्रजनन और प्रवासन के समय को प्रभावित कर सकता है। कुछ समुद्री रोगों का प्रसार भी
जलवायु परिवर्तन से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है।

कृषि अर्थव्यवस्थाओं पर प्रभाव : 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में चरम मौसमी घटनाओं के कारण वार्षिक रूप से 910 अरब डॉलर (62,000 करोड़ रुपये) का नुकसान हुआ है। एक अनुमान के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण किसानों की आय औसतन 15% और 18% तक कम हो सकती है।

किसानों की आत्महत्या: बर्कले स्थित कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में आयोजित एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि
विगत 30 वर्षों में 59,300 किसानों या कृषि श्रमिकों की मृत्यु का कारण जलवायु परिवर्तन हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के उपाय

अनुकूलन उपाय: जलवायु परिवर्तन एवं जलवायु परिवर्तनशीलता से निपटने के लिए कृषि फसलों की प्रत्यास्थता में वृद्धि करना अत्यावश्यक है जिससे विभिन्न अनुकूलन एवं शमन रणनीतियों के माध्यम से उत्पादन को स्थिर बनाए रखते हुए किसानों की आजीविका सुरक्षा में सुधार किया जा सके।

  • हाल ही में, भारत सरकार, महाराष्ट्र सरकार और विश्व बैंक ने क्लाईमेट रेज़ीलिएंट एग्रीकल्चर फॉर महाराष्ट्र नामक परियोजना के लिए 420 मिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण सम्बन्धी समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।

परमाकल्चर को अपनाना: यह कृषि उत्पादक पारिस्थितिकी प्रणालियों की सुविचारित डिजाइन और रखरखाव है जिसके अंतर्गत किसी प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के समान ही विविधता, स्थिरता और लचीलेपन जैसे गुण होते है।

  • यह भूमि और लोगों का सामंजस्यपूर्ण एकीकरण है जो एक धारणीय तरीके से उनकी भोजन, ऊर्जा, आश्रय सम्बन्धी तथा अन्य भौतिक एवं गैर-भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करता है।
  • यह रासायनिक और कीटनाशकों के उपयोग को हतोत्साहित करता है तथा मृदा के स्वास्थ्य को बनाए रखने एवं उत्पादकता में * वृद्धि के लिए पर्यावरण अनुकूल साधनों के उपयोग को बढ़ावा देता है।
  • परमाकल्चर के अंतर्गत बढ़ते क्षेत्र (मौजूदा 108 मिलियन एकड़ से 2050 तक 1 बिलियन एकड़ तक) के परिणामस्वरूप कार्बन प्रच्छादन और उत्सर्जन में कमी के कारण कुल CO2 में 23.2 गीगाटन के स्तर तक कम हो सकता है।
  • यह कुशल प्रणाली के निर्माण हेतु आधुनिक प्रौद्योगिकी और वैज्ञानिक ज्ञान के साथ पारंपरिक कृषि प्रथाओं को सम्मिलित
    करता है। यह आनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर किसानों की निर्भरता को भी कम कर सकता
  • परमाकल्चर, मोनोकल्चर के स्थान पर पॉलीकल्चर का उपयोग करता है जिसके अंतर्गत एक स्व-निर्भर प्रणाली के निर्माण के
    लिए एक दूसरे का समर्थन करने हेतु वनस्पतियों और पशुओं के विविध प्रकारों का उपयोग किया जाता है।

संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकियां: ऐसी कोई भी पद्धति, सामग्री या उपकरण जो आगत (इनपुट) उपयोग दक्षता, फसल उत्पादकता और कृषिगत आय को बढ़ाती है उसे संसाधन संरक्षण प्रौद्योगिकी कहा जाता है। इसके निम्नलिखित घटक हैं:

  • फसल अवस्थापन (Crop Establishment) प्रणाली (शून्य जुताई, न्यूनतम जुताई या कम जुताई इत्यादि);
  • जल प्रबंधन (लेज़र लैंड लेवेलर तकनीक को अपनाना); और
  • पोषक प्रबंधन (क्षेत्र -विशिष्ट पोषक प्रबंधन, उर्वरक का क्रमिक रूप से अल्प मात्रा में प्रयोग)

मृदा के कार्बनिक पदार्थ को समृद्ध करना: कृषक, घूरे की खाद (फार्म यार्ड खाद), कम्पोस्ट के अनुप्रयोग या जैविक कृषि के प्रयोग
द्वारा मृदा के कार्बनिक पदार्थ को बेहतर बनाने के साथ-साथ मृदा के स्वास्थ्य में सुधार कर सकते हैं।

जीरो बजट प्राकृतिक कृषि (ZBNF) को अपनाना: यह एक प्राकृतिक कृषि की तकनीक है जिसमें बिना रसायनों के उपयोग तथा किसी भी ऋण या आगत के खरीद में बिना कोई व्यय किए कृषि की जाती है। इसे सुभाष पालेकर द्वारा विकसित किया गया था।

  • ZBNF फसलों के आस-पास उपलब्ध सभी प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के कारण उत्पादन की लागत को शून्य के स्तर तक
    ले जाती है। कृषक फसलों की सुरक्षा के लिए केंचुओं, गाय के गोबर, मूत्र, पादपों, मानव मल-मूत्र और अन्य जैविक उर्वरकों का
    उपयोग करते हैं।

ZBNF की विशेषताएं:

अंतर-शस्यन : इसके अंतर्गत भूमि के किसी दिए गए भाग पर अधिक फसल उत्पादन के लिए उन संसाधनों (जिनका उपयोग किसी एक फसल के उत्पादन में किया जा सकता है) का प्रयोग कर विभिन्न फसलों के संयोजन को एक साथ उगाया जाता है।

  • उदाहरणार्थ किसान मिर्च और टमाटर के साथ बाजरा, अरहर, कंगनी (फॉक्सटेल मिलेट) या मुख्य फसल के रूप में मूंगफली के
    साथ विविध फसलों के संयोजन को उगाते हैं।

जैव-उर्वरकों का उपयोग और रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का उन्मूलन – किसानों द्वारा जीवामृता नामक एक पद्धति का | उपयोग किया जाता है जिसमें वे स्थानीय गाय के गोबर और मूत्र से बने उर्वरकों का प्रयोग करते हैं।

  • मृदा की नमी का उपयोग: सूखा प्रवण क्षेत्रों के कृषक मृदा की प्राकृतिक नमी की क्षति को कम करने , मृदा वातन (soil
    aeration) में वृद्धि, मृदा के स्वास्थ्य व उर्वरता में वृद्धि और मृदा में अनुकूल सूक्ष्म जलवायु सुनिश्चित करने के लिए  पलवार (मल्चिंग) और वाफसा (मृदा वातन) को अपनाते ।
  • कृषि में आगतों की लागत को कम करना: उर्वरकों और कीटनाशकों जैसे महंगे आगतों पर कम व्यय के माध्यम से कृषि आगतों की लागत में कटौती करती है और किसान आय में वृद्धि करती है।
  • समोच्च (कंटूर) और बांध (बन्ड्स) : चूंकि यह विभिन्न  फसलों के लिए अधिकतम क्षमता को बढ़ावा देती है अतःवर्षा जल को संरक्षित करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।
  • ZBNF में सूखे की अवधि के दौरान जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कृषि तालाब जैसे जल निकायों का पुनर्भरण भी शामिल है।
  • कृषक मृदा में कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाने के लिए खेत में केंचुओं की स्थानीय प्रजातियों का पुनः पूर्ति करते हैं। यह  क्रिया मृदा द्वारा नमी धारण करने की क्षमता को बढ़ाती।

कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों और खेतों की अवस्थापना , मौसम आधारित बीमा कार्यक्रमों को आरम्भ करना तथा किसानों को सूचना प्रसारित करने के लिए इंटरनेट और संचार तकनीकों (ICTS) का लाभ प्रदान करना विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु स्थायी कृषि प्रथाओं की पहचान करने और उनके संवर्द्धन में सहायक होगा।

कंजरवेशन रिज़र्व प्रोग्राम, वानिकी प्रोत्साहन कार्यक्रम, एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन और संरक्षण कृषि , फसल विविधीकरण जैसी प्रभावी भूमि उपयोग एवं प्रबंधन पद्धतियों जैसे अन्य कदमों के कार्यान्वयन से धरातलीय कार्बन प्रच्छादन को बढ़ाने और जलवायु
परिवर्तन के नियंत्रण में मदद मिलती है।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO)

द्वारा प्रदत्त परिभाषा के अनुसार CSA “कृषि उत्पादकता में सतत रूप से वृद्धि करती है, लचीलापन (अनुकूलन) बढ़ाती है, जहां संभव हो वहां ग्रीन हाउस गैसों को कम / समाप्त करती है और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और विकास लक्ष्यों की पूर्ति में सहायता करती है।

CSA के तीन स्तंभ हैं:

  • उत्पादकता: CSA का लक्ष्य सतत तीव्रता के माध्यम से कृषि उत्पादकता और आय ,फसल उत्पादन, पशुधन एवं मत्स्यन , खाद्य और पोषण सुरक्षा में वृद्धि करना है।
  • अनुकूलन: CSA का उद्देश्य अल्पकालिक जोखिमों के प्रति किसानों के जोखिम को कम करना है। इसके साथ ही CSA का उद्देश्य आघातों एवं दीर्घकालिक विषमताओं की स्थिति में किसानों में अनुकूलन तथा समृद्ध होने की क्षमता का निर्माण कर उनमें लचीलेपन को बढ़ाना है।
  • शमन: CSA कृषि और मृदा के प्रबंधन के माध्यम से निर्वनीकरण को रोककर ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन को कम करने में सहायता करता है। इसके साथ ही CSA कार्बन सिंक के रूप में कार्य करने और वायुमंडल से CO2 को अवशोषित करने की
    क्षमता को अधिकतम करता है।

CSA की अन्य विशेषताएं

  • CSA पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को बनाए रखता है: पारिस्थितिक तंत्र किसानों को स्वच्छ वायु, जल, भोजन और सामग्रियों सहित आवश्यक सेवाएं प्रदान करता है। यह एक भू-दृश्य आधारित दृष्टिकोण को अपनाता है जिसका निर्माण संकीर्ण क्षेत्रीय दृष्टिकोण से अलग हटकर संधारणीय कृषि के सिद्धांतों पर होता है। इसके परिणामस्वरूप एकीकृत योजना और प्रबंधन के लिए गैर-समन्वयकारी और प्रतिस्पर्धी भूमि का उपयोग किया जाता है।
  • CSA में विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रवेश बिंदु होते हैं: यह खेत के स्तर पर एकल प्रौद्योगिकियों से भिन्न है। इसमें खाद्य प्रणाली, भू-दृश्य, मूल्य श्रृंखला या नीतिगत स्तर पर कई प्रकार के हस्तक्षेपों का एकीकरण शामिल है।
  • CSA संदर्भ विशिष्ट है: यह इस बात पर विचार करता है कि भू-दृश्य स्तर पर विभिन्न तत्व कैसे पारिस्थितिक तंत्र के भीतर या विभिन्न संस्थागत व्यवस्थाओं और राजनीतिक वास्तविकताओं के एक भाग के रूप में अन्त:क्रिया करते हैं।
  • CSA महिलाओं और अधिकारहीन समूहों को समाविष्ट करता है: इसमें निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी स्थानीय, क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय हितधारकों को शामिल किया जाता है जिससे सर्वाधिक उपयुक्त हस्तक्षेपों की पहचान की जा सके और सतत विकास को सक्षम बनाने हेतु आवश्यक साझेदारियों और गठबंधनों का निर्माण किया सके।

जलवायु अनुरूप कृषि पर राष्ट्रीय नवाचार (NICRA)

इसे 2011 में प्रारंभ किया गया था। यह भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) की एक नेटवर्क परियोजना है।

उद्देश्य

  • उन्नत कृषि एवं जोखिम प्रबंधन प्रौद्योगिकियों के विकास और अनुप्रयोग के माध्यम से जलवायु परिवर्तनशीलता तथा जलवायु परिवर्तन के लिए फसलों, पशुओं और मत्स्यपालन को समाविष्ट कर भारतीय कृषि के लचीलेपन को बढ़ाना।
  • मौजूदा जलवायु जोखिमों के प्रति अनुकूलन हेतु कृषकों के खेतों पर स्थल विशिष्ट प्रौद्योगिकी पैकेज का प्रदर्शन करना।
  • जलवायु अनुरूप कृषि अनुसंधान एवं उनके अनुप्रयोग के क्षेत्र में वैज्ञानिकों और अन्य हितधारकों के क्षमता निर्माण को बढ़ाना।
  • परियोजना में चार घटक हैं जैसे – रणनीतिक अनुसंधान, प्रौद्योगिकी प्रदर्शन, क्षमता निर्माण और प्रायोजित/प्रतिस्पर्धी
    अनुदान।

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