बाल स्वास्थ्य (Child Health)

विभिन्न क्षेत्रों में हुए सुधारों के बावजूद भी भारत के बच्चों में रोग, मृत्यु दर एवं स्वास्थ्य संकेतक चिंताजनक रूप से निम्नस्तरीय बने हुए हैं। नवजात शिशु और शिशु मृत्यु दर उच्च बनी हुई है तथा रोकथाम योग्य बीमारियां जैसे- संक्रमण, कुपोषण और पोषक तत्वों की कमी सम्बन्धी विकारों की अधिकता बनी हुई है। UNICEF की वार्षिक रिपोर्टों में यह उल्लेख किया गया है कि भारत में बच्चों की स्वास्थ्य स्थिति हमारे कुछ पड़ोसी देशों और उप-सहारा अफ्रीकी देशों की तुलना में खराब है। यद्यपि सरकार द्वारा बच्चों की विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान करने के लिए विभिन्न महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं, परन्तु उनका प्रभाव सीमित है। विभिन्न आयु वर्गों में बच्चों की देखभाल एवं आवश्यकताएं अलग-अलग होती हैं। विभिन्न आयु वर्गों में महत्वपूर्ण स्वास्थ्य आवश्यकताओं को निम्नानुसार देखा जा सकता है

  • नवजात शिशु: मातृ-पोषण और प्रसवपूर्व पर्याप्त देखभाल। सुरक्षित प्रसव, नवजात शिशुओं की तत्काल देखभाल और पहले 1
    3 महीनों के दौरान देखभाल और प्रबंधन।
  • बाल्यावस्था और विद्यालय से पूर्व की अवधि: भोजन और पोषण (आयरन के सप्लीमेंटस, विटामिन आदि), टीकाकरण,
    सामान्य संक्रमणों का उचित प्रबंधन (दस्त, श्वसन, त्वचा, आंख, कान, परजीवी) और विकास पर ध्यान देना।
  • बड़े बच्चेः पर्याप्त पोषण, एक्यूट और क्रॉनिक रोगों का उपचार (जैसे तपेदिक, मलेरिया, जल से उत्पन्न रोग)।
  • किशोरावस्था: शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य, एक्यूट और क्रॉनिक रोगों का उपचार, पारिवारिक जीवन परामर्श

बाल स्वास्थ्य से सम्बंधित अन्य मुद्दे (Other Issues in Child health)

  • राज्यों के मध्य स्वास्थ्य सुविधाओं में अंतर: यदि अति विकसित और अल्पविकसित राज्यों के मध्य स्वास्थ्य सुविधाओं में
    अंतर नहीं होता तो वर्तमान बचाव की तुलना में तीन गुने तक मृत्युओं को रोका जा सकता था।
  • ग्रामीण-नगरीय अंतर: पिछले 15 वर्षों में (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में) समय पूर्व जन्मे (premature) शिशुओं अथवा जन्म के समय कम भार वाले शिशुओं की मृत्यु दर में वृद्धि हुई है।
  • बचपन में हुई मृत्युओं को ट्रैक करने सम्बन्धी चुनौतियां, क्योंकि अधिकांश मृत्युएँ, (विशेषकर बच्चों में) घर पर और बिना किसी चिकित्सीय देख-रेख के होती हैं।

 नवजात शिशुओं का स्वास्थ्य (New Born Health)

बाल मृत्यु और अस्वस्थता को कम करने के वैश्विक प्रयासों में भारत सबसे अग्रणी देश रहा है। इसकी निरंतर प्रतिबद्धता और जारी प्रयासों के परिणामस्वरूप 1990 के बाद से 5 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों की मृत्यु दर में 59% की कमी आई है, परन्तु फिर भी 2016 में, विश्व में भारत में सबसे ज्यादा संख्या में बच्चों की मृत्यु हुई थी। भारत में नवजात शिशुओं की मृत्यु के प्रमुख कारण समय पूर्व जन्म (35%) नवजात संक्रमण (33%); जन्म सम्बन्धी जटिलताएँ/ जन्म श्वासरोध (birth asphyxia) (20%); और जन्मजात विकृतियां (9%) हैं।

लैंसेट द्वारा जारी की गई एक हालिया रिपोर्ट- “एवरी चाइल्ड अलाइव” ने नवजात मृत्यु दर से संबंधित विभिन्न कारकों और इसके लिए सरकारी योजनाओं/कार्यों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है।

रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएं

  • दो मुख्य कारक नवजात शिशुओं की मृत्यु दर (Neonatal Mortality: NM) की उच्च संख्या के कारणों की व्याख्या करने में
    सहायता करते हैं।

पूर्व परिपक्वता, बच्चों के जन्म के समय होने वाली जटिलताओं जैसे निरोध्य कारणों (Preventable causes) और
सेप्सिस, मेनिनजाइटिस और निमोनिया जैसे संक्रमणों के लिए तंत्र-व्यापी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है क्योंकि इन्हें
एकल ड्रग द्वारा उपचारित नहीं किया जा सकता है।

NM को समाप्त करने की चुनौती के लिए वैश्विक फोकस की कमी।

  • नवजात शिशुओं का जीवित रहना देश के आय स्तर से निकटता से जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिए, जापान में नवजात मृत्यु दर प्रति 1,000 पर 1 है, जबकि पाकिस्तान में यह प्रति 1000 पर 46 है।
  • हालांकि, किसी देश का आय स्तर केवल एक पहलू का वर्णन करता है। नवजात बच्चों और सबसे निर्धन एवं अधिकारविहीन वर्ग तक पहुंच सुनिश्चित करने को प्राथमिकता देने वाली सुदृढ़ स्वास्थ्य प्रणालियों में निवेश करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना महत्वपूर्ण है। यह वहाँ भी एक बड़ा अंतर उत्पन्न कर सकती है, जहाँ संसाधनों की कमी है। उदाहरण के लिए, कम आय वाले देश रवांडा ने 1990 में रही अपनी NM दर 41 को घटाकर 2016 में 17 कर दिया है।
  • परिवार की समृद्धि का स्तर, मां की शिक्षा और ग्रामीण या नगरीय क्षेत्र में रहने वाले कारकों के आधार पर NM एक देश के भीतर भी भिन्न होता है।
  • सबसे कम NM वाला देश जापान है और सबसे अधिक NM वाला देश पाकिस्तान है।

उच्च नवजात मृत्यु दर वाले देशों के लिए प्रभावी नीतिगत प्रयास

  • पर्याप्त संख्या में स्वास्थ्य देखभाल कर्मचारियों के माध्यम से मातृ और नवजात स्वास्थ्य तक पहुंच में सुधार, NM के मुख्य
    कारणों से निपटने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं द्वारा सुरक्षा प्रदान करना और इन सुविधाओं तक समुदाय की आसान पहुँच आदि।।
  • गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना अर्थात् संसाधनों और सेवाओं का मात्र अस्तित्व होना ही नहीं बल्कि इनका प्रभावी
    तरीके से उपयोग किया जाना।

नवजात स्वास्थ्य ने भारत में उच्चतम स्तर के नीति निर्माताओं का ध्यान आकर्षित किया है। इसके परिणामस्वरूप नवजात शिशुओं
और गर्भ में शिशुओं की मृत्यु (stillbirths) को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय विकास की आवश्यकता के रूप में नवजात स्वास्थ्य को पहचानने के लिए सुदृढ़ राजनीतिक प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है।

नवजात शिशुओं की उत्तरजीविता के लिए नीति परिवर्तन ने व्यापक स्वास्थ्य पहलों पर ध्यान केंद्रित किया है, जैसे स्वास्थ्य प्रणालियों को सुदृढ़ बनाना; अधिक कर्मचारियों को प्रशिक्षण और उपकरण उपलब्ध करवाना; जन्म के समय कौशलपूर्ण शुश्रूषा सहित प्रत्येक मां और नवजात शिशु को सत्यापित लेकिन अल्पप्रयुक्त समाधान (underused solutions) उपलब्ध कराना; गर्भवती माताओं और बीमार शिशुओं को सभी उपयोगी शुल्कों से मुक्त करना; और माताओं और नवजात बच्चों के लिए घर से स्वास्थ्य सुविधाओं तक निःशुल्क परिवहन की व्यवस्था करना। सरकार द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों में से इंडिया न्यूबॉर्न एक्शन प्लान (2014) इस मुद्दे से निपटने के लिए एक बड़ा फ्रेमवर्क प्रदान करता है।

इंडिया न्यू बॉर्न एक्शन प्लान (2014)

  • इंडिया न्यूबॉर्न एक्शन प्लान (India Newborn Action Plan: INAP) जून 2014 में महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य के
    लिए वैश्विक रणनीति को आगे बढ़ाने हेतु 67वीं वर्ल्ड हेल्थ असेंबली में प्रारंभ ग्लोबल एवरी न्यूबॉर्न एक्शन प्लान (Every Newborn Action Plan: ENAP) के प्रति भारत की प्रतिबद्ध अनुक्रिया है।
  • इसका लक्ष्य 2030 तक नवजात मृत्यु और शिशु मृत्यु की एक अंकीय दरों को प्राप्त करना है। यह भारत में रोकी जा सकने योग्य नवजात शिशुओं की मृत्युओं को रोकने, प्रगति में तेजी लाने और उच्च प्रभाव वाले लागत प्रभावी हस्तक्षेपों को बढ़ाने के लिए एक योजना और विजन की रुपरेखा प्रस्तुत करता है।
  • इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission: NHM) के मौजूदा प्रजननशील मातृ, नवजात शिशु, बाल और किशोरावस्था स्वास्थ्य (RMNCH+A-Reproductive, Maternal, Newborn, Child and Adolescent health) फ्रेमवर्क के तहत लागू किया जाना है।
  • यह राज्यों के लिए अपनी क्षेत्र-विशिष्ट कार्य योजनाओं को विकसित करने के लिए एक फ्रेमवर्क के रूप में कार्य करेगा। हस्तक्षेप के छह स्तंभों में शामिल हैं:
  1. गर्भधारण के पूर्व और प्रसवपूर्व देखभाल
  2.  प्रसव-काल और शिशु के जन्म के दौरान देखभाल
  3. नवजात शिशु की तत्काल देखभाल
  4. स्वस्थ नवजात शिशु की देखभाल
  5. छोटे और बीमार नवजात शिशु की देखभाल ।
  6. नवजात शिशु को मात्र जीवित बचाना ही नहीं बल्कि उसके आगे की भी देखभाल

महत्वपूर्ण तथ्य

  • 2016 में, विश्व में भारत में सबसे ज्यादा बच्चों की मृत्यु हुई थी। भारत की नवजात मृत्यु दर (neonatal mortality rate) (2016) 25.4/1000 थी।
  • 2016 में पहली बार भारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु की संख्या एक मिलियन से कम हो गई थी।
  • वर्तमान में भारत के पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 39/1000 है।
  • बालकों के लिए 37 प्रति 1,000 की तुलना में बालिकाओं के लिए पांच वर्ष से कम आयु की मृत्यु दर 41 प्रति 1000 थी, जो बालकों की तुलना में 11 प्रतिशत अधिक थी।
  • ग्रामीण और निर्धन राज्यों की तुलना में नगरीय क्षेत्रों एवं विकसित राज्यों में बच्चों की कम मृत्यु होती है।
  • भारत में शिशु मृत्यु के मुख्य कारणों में से दो- टिटनस और खसरा से नवजात मृत्यु दर में 90 प्रतिशत की गिरावट आई है।
  • देश में बाल मृत्यु के दो प्रमुख कारण निमोनिया और दस्त से मृत्यु दर में 60 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है।
  • लड़कियों की मृत्यु दर में अधिक गिरावट हुई, जो यह दर्शाती है कि लड़कियों को भारत में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं। मृत्यु दर में इस गिरावट के लिए 2005 में प्रारम्भ दो प्रमुख राष्ट्रीय कार्यक्रमों को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है – राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जिसे अब राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के नाम से जाना जाता है तथा जननी सुरक्षा योजना।
  • गिरावट की वर्तमान दर के साथ, भारत 2030 तक पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 25 प्रति 1000 जीवित जन्म के सतत विकास लक्ष्य (SDG) उद्देश्य को प्राप्त करने की तरफ अग्रसर हो गया है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission: NHM)

2 सब-मिशन

  • राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (NUHM)
  • राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM)

NHM के व्यापक उद्देश्यों में निम्नलिखित शामिल हैं

  • MMR को 1/1000 जीवित जन्मों से कम करना।
  • IMR को 25/1000 जीवित जन्मों से कम करना।
  • TFR (कुल प्रजनन दर) को 2.1 तक कम करना।
  • 15-49 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं में एनीमिया की रोकथाम और इसमें कमी लाना।

बाल पोषण (Child Nutrition)

  • कुपोषण किसी व्यक्ति के आहार में ऊर्जा या पोषक तत्वों की कमी, आधिक्य या असंतुलन को संदर्भित करता है।
  • कुपोषण के अंतर्गत दो व्यापक स्थिति वाले समूह आते हैं। पहला- ‘अल्पपोषण (undernutrition)’, जिसमें स्टंटिंग (आयु की तुलना में कम लम्बाई), वेस्टिंग (लम्बाई की तुलना में कम वजन), अल्प वजन (आयु की तुलना में कम वजन) तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी या अपर्याप्तता (महत्वपूर्ण विटामिन और खनिजों की कमी) शामिल है। दूसरा – ‘अधिक वजन (overweight)’, मोटापा और आहार से संबंधित गैर-संचारी बीमारियां [जैसे हृदय रोग, स्ट्रोक (आघात), मधुमेह और कैंसर]
  • यह समस्या न केवल भोजन की कमी से जुड़ी हुई है अपितु स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, स्वच्छता, संसाधनों तक पहुंच में कमी, महिला सशक्तिकरण का अभाव आदि विभिन्न सामूहिक अंतर्संबंधित कारकों की कमी का परिणाम है। इस प्रकार इसके लिए बहु-आयामी हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
  • भारत को बचपन में ठिगनेपन का शिकार हुए अपने श्रमबल के कारण आय की लगभग 9% से 10% क्षति का वहन करना पड़ता है।
  • हाल ही में जारी वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट 2017 में भारत को 119 देशों की सूची में 100 वें स्थान पर रखा गया है।
  • यह बच्चों की उत्तरजीविता की संभावनाओं को प्रभावित करता है, बीमारी के प्रति उनकी संवेदनशीलता को बढ़ाता है, उनके सीखने की क्षमता को कम करता है और बाद के जीवन में उन्हें कम उत्पादक बनाता है। एक अनुमान के अनुसार 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की सभी प्रकार की मौतों में एक-तिहाई का कारण कुपोषण है।
  • लैंसेट द्वारा किए गए एक अध्ययन में भारत में कुपोषण के दोहरे बोझ, यानी वजन की कमी के साथ ही मोटापे से ग्रसित बच्चों के बारे में चिंता व्यक्त की गई है। राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (National Nutrition Monitoring Bureau: NNMB) ने अपनी रिपोर्ट जारी की है जिसमें भारत के 16 राज्यों की शहरी आबादी की वर्तमान पोषण संबंधी स्थिति पर विचार किया गया है।

कुपोषण का दोहरा बोझ (Double Burden of Malnutrition)

  • अल्पपोषण (Undernutrition)- एसोचैम और अन्र्स्ट एन्ड यंग (ASSOCHAM and Ernst and Young) द्वारा किये गए संयुक्त अध्ययन के अनुसार हमारे देश में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में लगभग 37% बच्चे कम वजन वाले, 39% स्टंटेड, 21% वेस्टेड और 8% गंभीर कुपोषण से पीड़ित हैं।
  • अधिक वजन (Overweight) – 2015 की WHO रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका और चीन के बाद भारत विश्व का तीसरा सर्वाधिक मोटापे से ग्रसित आबादी वाला देश है।

संविधान के अनुच्छेद 47 में उल्लेख किया गया है कि “राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयास करे।” इसके संदर्भ में राष्ट्रीय पोषण रणनीति (National Nutrition Strategy: NNS) और राष्ट्रीय पोषण मिशन (National Nutrition Mission: NNM) प्रारंभ किया गया है। साथ ही एकीकृत बाल विकास योजना (Integrated Child Development Scheme: ICDS) और मिड डे मील योजना भी कुपोषण और अल्पपोषण को कम करने की दिशा में उठाये गए कदम हैं।

भारत में अल्प-पोषण (Undernutrition in India)

  • यूनिसेफ के अनुसार, भारत उन देशों में 10 वें स्थान पर था जहां वजन की कमी वाले (अंडरवेट) सबसे ज्यादा बच्चे हैं। साथ
    ही विश्व में सर्वाधिक ठिगनेपन से ग्रसित (स्टंटेड) बच्चों के मामले में भारत 17 वें स्थान पर था।
  • अल्प पोषण गरीबी के स्थायी बने रहने का कारण और परिणाम दोनों है। यह बौद्धिक और शारीरिक विकास पर अपरिवर्तनीय और अंतर-पीढ़ीगत (इंटरजेनरेशनल) प्रभावों के माध्यम से मानव पूंजी को नष्ट कर रहा है।
  • एक अंतर-पीढ़ीगत अल्पपोषण चक्र जन्म के समय कम वजन से प्रारम्भ होकर लिंग सम्बन्धी भेदभाव और सामाजिक बहिष्करण के कारण संवर्द्धित हो जाता है। बच्चों के सर्वाधिक सुभेद्य आयु वर्ग की पोषण स्थिति, मानव विकास और राष्ट्रीय सामाजिक-आर्थिक विकास रणनीतियों की प्रभावशीलता का एक संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण संकेतक भी है

अल्पपोषण निम्नलिखित रूपों में प्रकट होता है

  •  बच्चों के अल्प वजन की व्यापकता- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey: NFHS 4)
    के अनुसार 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में अल्प वजन संबंधी आंकड़ों में 16% की कमी आई है। सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों (दिल्ली को छोड़कर) में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में अल्प वजन के प्रसार (अत्यधिक एवं दीर्घकालिक अल्प पोषण के मिश्रित आंकड़ों के आधार पर) में गिरावट में आई है, हालांकि समग्रतः यह अभी भी अधिक ही बना हुआ
  • बच्चों में स्टंटिंग- यह रेखांकित करता है कि सभी राज्यों में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों में स्टंटिंग में कमी आई है, वहीं कुछ
    राज्यों में निरपेक्ष रूप से इसका स्तर अभी भी ऊँचा है।
  • बच्चों में वेस्टिंग – निष्कर्ष बताते हैं कि 5 साल से कम आयु के बच्चों में वेस्टिंग (लम्बाई की तुलना में कम वजन) या तीव्र
    कुपोषण अभी भी उच्च स्तर पर बना हुआ है।

बाल्यावस्था का मोटापा

हाल ही में, जीवनशैली सम्बन्धित रोगों, शारीरिक गतिविधियों और किशोरों के खान-पान के पैटर्न के सम्बन्ध में एक अध्ययन आयोजित किया गया था। इसके मुख्य निष्कर्ष निम्नलिखित हैं :

  • भारतीय बच्चों को जीवनशैली सम्बंधित रोगों के बारे में पर्याप्त जानकारी है फिर भी वे इनसे बचने के उपाय नहीं अपनाते हैं।
    इस प्रकार, किशोरों के बीच जानकारी और उसके क्रियान्वयन में अन्तर है।
  • लगभग 82% किशोर स्वयं को भविष्य में कार्डियो वैस्कुलर बीमारियों (CVD) से जूझ पाने में सक्षम नहीं पाते हैं और जो लोग इन जोखिमों को समझते हैं, वे आवश्यक आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पा रहे।
  • ख़राब खान-पान की प्रवृत्ति अपेक्षाकृत अधिक आयु के छात्रों तथा निम्न या मध्यम आय वर्ग के बजाय समृद्ध परिवारों के छात्रों में अधिक देखी गयी है।
  • लगभग 20% प्रतिभागियों ने पारिवारिक इतिहास में CVDs की सूचना दी, जबकि अधिकतर लोगों को हृदय सम्बन्धी विकारों के सम्बन्ध में बहुत ही कम जानकारी थी।
  • उन लड़कों को शारीरिक गतिविधि या व्यायाम में अधिक शामिल होते देखा गया (शारीरिक गतिविधि या व्यायाम हेतु
    प्रतिदिन एक घंटे के रूप में) जिनके पास जोखिम कारकों के बारे में बेहतर ज्ञान था।

सम्बंधित जानकारी

  • भारत अधिक वजन वाले 14.4 मिलियन बच्चों के साथ इस श्रेणी में विश्व में दूसरे स्थान पर है।
  • 1980 से अब तक विश्व के 70 से अधिक देशों में मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या दोगुनी हो गई है।
  • कई देशों में वयस्कों में मोटापे की तुलना में बाल्यावस्था में मोटापा तेजी से बढ़ा है।

NNMB रिपोर्ट के अनुसार मोटापे के कारण

  • पौष्टिक स्थिति में सुधार के बावजूद अनुसंशित दैनिक आहार (Recommended Daily Intake: RDI) नहीं लिया जाता है।
  • हालांकि तीन दशक पहले की तुलना में आज अनाज का उपभोग कम हो गया है, परन्तु वसा, चीनी और तेल का उपभोग बढ़ गया है।
  • 63% पुरुष और 72% महिलाएं प्रतिदिन 8 घंटे कार्य करते हैं, लेकिन वे अधिकतर बैठे रहने वाला कार्य करते हैं।
  • खाने, सोने और शारीरिक गतिविधियों हेतु किसी भी नियम या अनुशासन का पालन नहीं किया जाता है।
  • पारंपरिक खाद्य पदार्थों को डिब्बाबंद और संसाधित खाद्य पदार्थों के द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है।
  • जिन राज्यों में सर्वेक्षण किया गया उनमें केवल 28% पुरुष और 15% महिलाएं ही व्यायाम करती हैं।
  • पुरुषों एवं महिलाओं में तंबाकू और अल्कोहल की खपत बढ़ती जा रही है।

बाल्यावस्था के मोटापे से कैसे निपटें?

  • जागरुकता– स्कूल आधारित कार्डियो वैस्कुलर (CVs) स्वास्थ्य कार्यक्रमों को बढ़ावा देते हुए इस मिथक को दूर करना कि CVDs केवल वृद्धों की समस्या है।
  • जीवनशैली में परिवर्तन – खान-पान की आदतों और शारीरिक गतिविधियों में निरंतर परिवर्तन के माध्यम से।
  • अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों के विपणन और प्रचार का विनियमन, विशेषकर उनका जो बच्चों में लोकप्रिय हैं तथा जिनमें नमक, चीनी और वसा की अधिक मात्रा पाई जाती है।
  • लेबलिंग – डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों पर मानकीकृत वैश्विक पोषक तत्व आधारित लेबलिंग के साथ पैकेट के अग्र भाग पर लिखित सकारात्मक सूचना, स्वस्थ खाद्य पदार्थों एवं स्वस्थ जीवनशैली को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है।
  • उच्च कर – मीठे पेय (चीनीयुक्त) पदार्थों पर उच्च कर का आरोपण।

मोटापे से निपटने हेतु भारत के समक्ष चुनौतियां

  • निम्न मानक – भारत में वसा युक्त एवं हाइड्रोजनीकृत वनस्पति तेल इत्यादि में 5% ट्रांस फैट का मानक (वजन के रूप में) विश्व में अपनाये जा रहे सर्वोत्तम मानकों की तुलना में अधिक है, जबकि कुछ देश शून्य मानक की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
  • विज्ञापनों पर कोई विनियमन नहीं – नॉर्वे और ब्राजील जैसे देशों द्वारा अपनाये गए अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम व्यवहारों की तुलना में वर्तमान में भारत में विज्ञापनों के प्रसारण और इनका सेलिब्रिटी द्वारा समर्थन दिए जाने से सम्बंधित कोई नियम-कानून नहीं है।
  • लेबलिंग सम्बन्धी आधारभूत नियम का अभाव – वर्तमान में प्रचलित पोषण आधारित लेबलिंग नमक/सोडियम, चीनी और संतृप्त वसा इत्यादि की मात्रा को अनिवार्य रूप से घोषित नहीं करती है। पोषण संबंधी ब्यौरे को एक बार में ग्रहण की जाने वाली मात्रा (per serve) के आधार पर घोषित करना अनिवार्य नहीं है, अपितु यह वैकल्पिक है और उत्पाद के प्रति 100 ग्राम के आधार पर घोषित किया जाता है।
  • 2015 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा FSSAI को दिशानिर्देश जारी करने के आदेश दिए जाने के बाद भी स्कूलों में मोटापे सम्बन्धी परिस्थितियों को कम करने और स्वस्थ खाद्य पदार्थों एवं जीवनशैली को बढ़ावा देने हेतु कोई नीति या दिशानिर्देश लागू नहीं किए गए हैं।

कोई भी देश मोटापे की समस्या को रोकने में सक्षम नहीं है। जिन देशों में यह समस्या उभर रही है उन्हें उच्च आय वाले पड़ोसियों की कुछ गलतियों से सीख लेते हुए बचाव के प्रयास जल्द शुरू कर देने चाहिए। यह समस्या को पहचानने और एक बार में कुपोषण के एक से अधिक रूपों से निपटने की ‘दोहरे उत्तरदायित्व’ सम्बन्धी कार्रवाई का एक अवसर है। इससे पोषण में सुधार हेतु समय, ऊर्जा और संसाधनों के निवेश की प्रभावशीलता और दक्षता में वृद्धि होगी। उदाहरण के लिए, कार्यस्थल पर स्तनपान को प्रोत्साहन एवं संरक्षण देना कुपोषण के दोहरे बोझ के दोनों पक्षों से बचने के लिए लाभदायक है।

बाल्यावस्था में मोटापे की समस्या को समाप्त करने से सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति, NCDs (2013-2020) के रोकथाम और नियंत्रण के लिए WHO की वैश्विक कार्य योजना, मातृ, शिशु और छोटे बच्चों के पोषण आदि के लिए WHO की व्यापक कार्यान्वयन योजना में भी सहायता मिलेगी। उदाहरण के लिए, शहरी खाद्य नीतियों और रणनीतियों को जलवायु परिवर्तन, खाद्य अपशिष्ट, खाद्य असुरक्षा और निम्न पोषण स्थिति को कम करने हेतु डिज़ाइन किया जा सकता है।

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