केस स्टडीज : समाज के एक वर्ग विशेष हेतु शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण

प्रश्न: समाज के एक वर्ग विशेष हेतु शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के पक्ष और विपक्ष में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। आप इस विषय की जाँच पड़ताल करने के लिए गठित एक उच्च स्तरीय आयोग के अध्यक्ष हैं। आयोग ने इस वर्ग को आरक्षण प्रदान करने के लिए कोई बाध्यकारी कारण नहीं पाया है और सरकार को अपना अंतिम प्रतिवेदन प्रस्तुत करने वाला है।

इस बीच, सरकार आयोग के निष्कर्षों को असंगत बताते हुए, इस वर्ग के लिए आरक्षण का विस्तार करने का निर्णय लेती है। आपसे भी यह सुनिश्चित करने का अनुरोध किया जाता है कि अंतिम प्रतिवेदन सरकार के निर्णय का समर्थन करे।

(a) इस परिस्थिति में आपके सामने आने वाली दुविधा पर चर्चा कीजिए?

(b) आप क्या कार्यवाही अपनाएंगे और क्यों?

(c) साथ ही, भारत में सकारात्मक कार्यवाही की नीति से जुड़े नैतिक मुद्दों की भी विवेचना कीजिए।

दृष्टिकोण

  • सरकार के निर्णय निर्माण में सहायता हेतु गठित विशेषज्ञ पैनल की भूमिका का संक्षिप्त परिचय दीजिए। विभिन्न नैतिक दुविधाओं को रेखांकित कीजिए तथा संक्षिप्त रूप में इनकी व्याख्या कीजिए।
  • आयोग के अध्यक्ष के रूप में अपने कर्तव्यों को परिभाषित कीजिए तथा आयोग की स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता को बनाए रखते हुए अपनी कार्यवाही को प्रस्तुत कीजिए।
  • आरक्षण की नीति से संबद्ध नैतिक मुद्दों का निरीक्षण कीजिए।

उत्तर

दिया गया मामला सरकार के उन निर्णयों से संबंधित है जो जांच के वस्तुनिष्ठ मानकों के अनुरूप नहीं होते हैं। एक समृद्ध लोकतंत्र में, राजनीतिक दल समाज के विभिन्न वर्गों से वादे करने में एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। किन्तु एक बार निर्वाचित होने के पश्चात, शासन प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि सरकार द्वारा उत्तरदायी व्यवहार किया जाए। लिए गए निर्णयों हेतु सम्यक प्रक्रिया और जवाबदेहिता का अनुपालन केवल सुशासन हेतु एक विकल्प ही नहीं है, बल्कि एक संवैधानिक और विधिक दायित्व भी है। निर्णय निर्माण में सरकार की सहायता करने के लिए स्थायी नौकरशाहों, आयोगों और विशेष रूप से कार्य समितियों की नियुक्ति की जाती है।

दिए गए मामले में, आयोग की अनुशंसाएं एक विशाल जनसंख्या की शैक्षणिक और पेशेवर गतिशीलता को प्रभावित करेंगी तथा समाज, राजनीति एवं सार्वजनिक संस्थानों के लिए इसके वृहत पैमाने पर दीर्घकालिक परिणाम होंगे। इसके विभिन्न हितधारकों में शामिल हैं: उच्च स्तरीय आयोग, सरकार, आरक्षण की मांग करने वाले वर्ग सहित शेष समुदाय।

(a) लोकतंत्र में अंतिम निर्णय राजनीतिक कार्यपालिका में निहित होता है। तथापि, आयोग के अध्यक्ष के रूप में सरकार की सहायता संबंधी कार्य के साथ, यह मेरा कर्तव्य होगा कि मैं आयोग के निष्कर्षों के प्रति वस्तुनिष्ठ और सत्यनिष्ठ रहूँ तथा किसी भी कारण से प्रतिवेदन को अनुचित ढंग से प्रस्तुत न करूं। अतः दी गई परिस्थिति में, बौद्धिक सत्यनिष्ठा बनाम प्राधिकरण के प्रति आज्ञाकारिता से संबंधित दुविधा का सामना करना है।

सरकार के प्रमुख के रूप में राजनीतिक कार्यपालिका में किसी विशेष मामले से संबंधित निर्देश देने का अधिकार निहित होता है। हालांकि, इस तरह के निर्देश स्वेच्छापूर्ण नहीं हो सकते हैं और समिति की अनुशंसाओं के विपरीत लिए गए निर्णयों के संबंध में उचित कारण होने चाहिए। दिया गया मामला जटिल है क्योंकि वर्तमान में लिए गए निर्णय के भविष्य में सामाजिक-आर्थिक प्रभाव होंगे। राजनीतिक प्रभाव तत्कालिक हो सकते हैं, हालांकि, ये सरकार के निर्णयों में दिशानिर्देश सम्बन्धी कारक नहीं हो सकते।

अंतिम प्रतिवेदन में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखना अध्यक्ष का एक कर्तव्य है। यदि प्रतिवेदन को सरकार के निर्णय के अनुरूप तैयार किया गया तो यह निष्पक्ष नहीं रह जाएगा। साथ ही, यह व्यक्तिगत मतभेद का कारण भी हो सकता है क्योंकि यह बौद्धिक सत्यनिष्ठा को क्षीण करता है।

(b) अध्यक्ष के रूप में, यह सुनिश्चित करना मेरा कर्तव्य है कि आयोग द्वारा अपनी तकनीकी विशेषज्ञता का उपयोग बिना किसी भय या पक्षपात के अनुभवजन्य, सत्य और निष्पक्ष अनुशंसाओं को प्रदान करने हेतु किया जाए। यद्यपि कई बार सरकार के समक्ष राजनीतिक अभिप्रेरणाएँ होती हैं, किन्तु इनका उपयोग आयोग की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को कम करने के लिए नहीं किया जा सकता है। मैं एक वस्तुनिष्ठ एवं निष्पक्ष तरीके से तथ्यों को प्रस्तुत करूंगा और उन पर आधारित अनुशंसाएं प्रस्तुत करूँगा। आयोग के सदस्यों द्वारा उठाई गई आपत्तियों को भी, उन्हें स्वीकार न किये जाने के कारणों के साथ प्रस्तुत करूँगा।

(c) सकारात्मक कार्यवाही से तात्पर्य राज्य की उन नीतियों से है जिनके माध्यम से राज्य उन लोगों के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव की ओर कार्य करता है जिनके साथ ऐतिहासिक रूप से अनुचित तरीके से व्यवहार किया गया है और समाज से बहिष्कृत रखा गया है। रोजगार और शिक्षा में आरक्षण एक ऐसा ही साधन है जिसके माध्यम से इसका क्रियान्वयन किया जाता है। यह समानता (अनुच्छेद 14) के सिद्धांत- असमान के साथ असमान व्यवहार किया जाना चाहिए- पर आधारित है और प्रस्तावना में वर्णित सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाता है। यह एक गरिमापूर्ण जीवन जीने और अवसरों की समानता (जो सामाजिक-आर्थिक अन्यायों के कारण जनसंख्या के बीच असमान रूप से विस्तारित है) के मूल अधिकार के भी अनुरूप है।

सकारात्मक कार्यवाही से संबद्ध नैतिक मुद्दों से निम्नलिखित चिंताएं भी जुड़ी हुई हैं:

  • प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से समाज में भेदभाव की अभिव्यक्ति। शक्तिशाली न केवल शक्तिशाली होने के आधार पर प्रभुत्व का उपयोग करते हैं, बल्कि उन्हें अत्यधिक संसाधन, बेहतर शिक्षा भी प्राप्त होती है तथा उनकी बहुत कम आधारभूत आवश्यकताएं होती हैं जो पूर्ण नहीं हो पाती हैं। उनकी जोखिम उठाने की क्षमता भी बहुत अधिक होती है, और इस प्रकार वे स्वाभाविक रूप से सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में निम्न स्तर पर विद्यमान व्यक्तियों की तुलना में तीव्र गति से प्रगति करने में सक्षम होते हैं।
  • दूसरी तरफ, अपने पूर्वजों द्वारा किये गये अन्याय के बदले वर्तमान पीढ़ी को दोषी ठहराने का मुद्दा है। यह तर्क दिया जा सकता है कि सकारात्मक कार्यवाही द्वारा विभेदित वर्तमान पीढ़ी आज आरक्षण की मांग करने वाले समूहों की वर्तमान परिस्थिति के लिए उत्तरदायी नहीं हैं।
  • इसके अतिरिक्त, आरक्षण के लिए पात्र समूहों की पहचान का भी मुद्दा है। यह लाभ लोगों को यह सिद्ध करने हेतु आकर्षित करता है कि वह भी अतीत में भेदभाव से पीड़ित व्यक्तियों की सूची में शामिल हैं जबकि वास्तव में यह असत्य भी हो सकता है।
  • इसी प्रकार, नीति की प्रभावकारिता की जाँच करने हेतु मापदंडों को निर्धारित करने में भी नैतिक मुद्दा निहित है, जैसे कि किसी समूह के कल्याण की स्थिति का निर्धारण करना। पात्र लाभार्थियों की सूची से किसी समूह को हटाने में भी समस्याएं निहित हैं।
  • अंत में, प्रभाव सम्बन्धी मुद्दा यह भी है कि नीति समस्त प्रणाली की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक गतिविधियों से संबद्ध होती है। यदि प्रणाली की दक्षता और प्रभावशीलता नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है, या शासन के लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जाते हैं, तो नीति उत्थान के साधन के बजाय एक भार बन जाती है।

वर्तमान स्वरूप में आरक्षण नीति में संशोधन की आवश्यकता प्रतीत हो रही है। यद्यपि यह लघु से मध्यम अवधि के लिए लाभप्रद है, तथापि यह एक स्थायी उपाय नहीं है। अतः आरक्षण को भारतीय लोकतंत्र की स्थायी विशेषता बनने से रोकने हेतु गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने, गुणवत्ता युक्त रोजगार सृजित करने और कृषि समुदायों/ ग्रामीणों की समस्याओं से निपटने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। जरुरतमंदों को प्रत्यक्ष लाभ प्रदान करने हेतु समाज के विभिन्न वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना, नीति की नियमित निगरानी और कल्याण के लिए अन्य पूरक कदमों का अंगीकरण भावी समाधान होगा।

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