भाषायी पुनर्गठन : स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत में भाषायी पुनर्गठन की अवधारणा के विकास के इतिहास का संक्षिप्त विवरण
प्रश्न: यद्यपि भाषाई राज्यों का विचार स्वतंत्रता-प्राप्ति से पहले का था, तथापि स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात भी इस विचार को कार्यान्वित करने में कुछ समय लगा। चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व भारत में भाषायी पुनर्गठन की अवधारणा के विकास के इतिहास का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भाषायी पुनर्गठन की सुदृढ़ मांग के बावजूद, इसमें होने वाले विलम्ब के कारणों को स्पष्ट कीजिए।
- भाषायी पुनर्गठन के परिणाम पर टिप्पणी करते हुए निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर
भारत में भाषायी राज्यों का विचार स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व 1919 के पश्चात ही आरम्भ हो गया था क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन में लोगों की भागीदारी के साथ कांग्रेस ने मातृभाषा में राजनीतिक गतिविधियों का संचालन किया था। 1920 के नागपुर सत्र में, इसने भाषायी राज्यों के निर्माण के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था तथा 1921 में अपने संविधान को संशोधित करते हुए भाषाई आधार पर अपनी क्षेत्रीय शाखाओं को पुनर्गठित किया।
इसके बाद से कांग्रेस द्वारा कई बार भाषायी आधार पर प्रांतीय सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रतिबद्धता को व्यक्त किया गया। इसके अतिरिक्त गाँधी जी ने भी प्रांतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए प्रांतों के भाषायी आधार पर पुनर्गठन के विचार पर बल दिया। अतः यह आशा व्यक्त की जा रही थी कि स्वतंत्र भारत में भाषायी सिद्धांत के आधार पर प्रशासनिक सीमाओं का गठन किया जाएगा।
किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद इस विषय पर राष्ट्रीय नेतृत्व के विचारों में परिवर्तन आ गया जिसका कारण उस समय विभाजन के कारण व्यापक स्तर पर गंभीर प्रशासनिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकृतियों का उत्पन्न होना था। सांप्रदायिक एवं क्षेत्रीय मान्यताएं ‘एक भारत’ के विचार के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर रही थीं तथा ऐसा प्रतीत हो रहा था कि भाषा, दूर करने की इन प्रवृत्तियों को सशक्त बनाएगी। इसके अतिरिक्त कश्मीर की समस्या के कारण पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति भी बनी हुई थी।
ऐसे में यह माना जा रहा था कि राष्ट्रीय एकता की सुदृढ़ता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए; और आंतरिक सीमाओं का पुनर्निधारण प्रशासनिक एवं आर्थिक विकास को बाधित करेगा तथा देश की एकता को क्षति पहुंचाने वाले क्षेत्रीय एवं भाषाई प्रतिद्वंदियों को सशक्त बनाएगा। भाषाई पुनर्गठन आंदोलनों के दौरान हुई हिंसा तथा उत्साही क्षेत्रवाद ने इस भयपूर्ण वातावरण को और सुदृढ़ किया। इसके अतिरिक्त इस विषय पर गठित धर आयोग एवं JVP समिति ने भाषायी पुनर्गठन का समर्थन नहीं किया। अतः इस विचार पर राष्ट्रीय नेतृत्व में एक लंबी अवधि तक अनिश्चितता की स्थिति बनी रही।
हालांकि, वर्षों तक चले निरंतर विवादों एवं लोकप्रिय संघर्ष के पश्चात 1953 में आंध्र प्रदेश को प्रथम भाषायी राज्य के रूप में गठित किया गया तथा 1956 में वृहत पैमाने पर भाषायी आधार पर पुनर्गठन सुनिश्चित करने हेतु संविधान को संशोधित किया गया था।
यद्यपि इसे कुछ विलंब के साथ लागू किया गया, परंतु भाषायी राज्यों तथा इन राज्यों के गठन हेतु चलाये गए विभिन्न आंदोलनों ने लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की। इसने विविधता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए लोगों को अधिक राजनीतिक भागीदारी के अवसर प्रदान किए।
1956 के पश्चात घटित होने वाली घटनाओं ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है कि एक भाषा के प्रति निष्ठा सुसंगत है एवं यह देश के प्रति निष्ठा के अनुपूरक के रूप में कार्य करती है। इस प्रक्रिया ने एक उस बड़ी शिकायत को दूर किया जो विभाजन की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे सकती थी और अंततः राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग को प्रशस्त किया।
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