भारतीय संविधान की आधारिक संरचना (मूल ढांचे) के सिद्धांत के क्रमिक विकास पर चर्चा
प्रश्न: भारतीय संविधान की आधारिक संरचना (मूल ढांचे) के सिद्धांत के क्रमिक विकास पर चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण:
- आधारिक संरचना (मूल ढांचे) की अवधारणा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- आधारिक संरचना के विकास से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की चर्चा कीजिए।
- इस सिद्धांत के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय का उल्लेख कीजिए।
- निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती मामले (1973) में आधारिक संरचना का सिद्धांत स्थापित किया गया था। यद्यपि इस सिद्धांत के लिए कोई सटीक परिभाषा नहीं दी गयी है, किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य संसद की संविधान संशोधन शक्तियों (अनुच्छेद 368) पर सीमाएं आरोपित करना है ताकि संविधान की आधारिक संरचना में कोई परिवर्तन न किया जा सके। वस्तुतः ये मौलिक प्रावधान और सिद्धांत संविधान की भावना की रक्षा के लिए स्वाभाविक रूप से महत्वपूर्ण हैं। इस सिद्धांत के अंतर्गत संसदीय प्रणाली, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक समीक्षा, विधि का शासन, शक्तियों का पृथक्करण और भारतीय राजनीति की संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष, गणतंत्रात्मक प्रकृति आदि सम्मिलित हैं।
निम्नलिखित वादों की सहायता से आधारिक संरचना के विकास को समझा जा सकता है:
- शंकरी प्रसाद वाद, 1951: इसके द्वारा यह निर्धारित किया गया था कि संसद को अनुच्छेद 368 के माध्यम से मौलिक अधिकारों (FR) में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है अथवा नहीं। यह वाद तब सामने आया जब संपत्ति के अधिकार को प्रथम संशोधन अधिनियम के माध्यम से मौलिक अधिकारों (FR) से हटा दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने की शक्ति के अंतर्गत ही FR में संशोधन करने की शक्ति भी निहित है और अनुच्छेद 13 के अंतर्गत “विधि” शब्द में केवल एक साधारण विधि सम्मिलित है न कि संवैधानिक संशोधन जो किसी भी FR का न्यूनीकरण या उसका निरसन करने के बावजूद वैध होगी।
- गोलकनाथ वाद ,1967: यह मामला 9वीं अनुसूची से संबंधित था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व के निर्णय को उलटते हुए कहा कि FR में संशोधन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि संवैधानिक संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 की सीमा में आता है, जो FR का उल्लंघन करने वाली किसी भी विधि को असंवैधानिक घोषित करता है।
- केशवनंद भारती वाद, 1973: यह मामला 24वें संविधान संशोधन अधिनियम से संबंधित था। इसके माध्यम से अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 में संशोधन किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में दिए गए निर्णय को उलटते हए यह निर्णय दिया कि संसद द्वारा FR में संशोधन किया जा सकता है; हालांकि संसद संविधान की ‘आधारिक संरचना’ में संशोधन नहीं कर सकती है। इसलिए केवल उन मूल अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता जो संविधान की आधारिक संरचना में अन्तर्निहित हैं।
इस निर्णय के प्रत्युत्तर में संसद द्वारा 42वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम (1976) प्रस्तावित किया गया। इस अधिनियम के माध्यम से अनुच्छेद 368 को संशोधित किया गया और यह घोषणा की गयी कि संसद की संवैधानिक शक्ति पर कोई सीमा नहीं है और संशोधन को किन्हीं भी मौलिक अधिकारों के उल्लंघन सहित किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है।
- मिनर्वा मिल्स वाद, 1980: यह मामला 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम से संबंधित है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत प्रदान की गई शक्ति असीमित नहीं बल्कि सीमित है। इसके साथ ही न्यायिक समीक्षा भी आधारिक संरचना का भाग है और इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है।
- वामनराव वाद, 1981: इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आधारिक संरचना के सिद्धांत का पालन किया गया और स्पष्ट किया कि यह 24 अप्रैल, 1973 के बाद अधिनियमित सभी संवैधानिक संशोधनों पर लागू होगा।
यह सिद्धांत निरन्तर विकसित हो रहा है तथा न्यायपालिका ने अपने उत्तरवर्ती निर्णयों के माध्यम से आधारिक संरचना के क्षेत्र को और अधिक विस्तृत किया है।
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