भारतीय संदर्भ में विवाह संस्था का संक्षेप में परिचय
प्रश्न: हाल के समय में विवाह नामक संस्था में परिवर्तनों के बावजूद, इसमें निरंतरता के तत्व बने हुए हैं। भारत के संदर्भ में चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारतीय संदर्भ में विवाह संस्था का संक्षेप में परिचय दीजिए।
- समकालीन भारत में विवाह संस्था में हुए परिवर्तनों पर चर्चा कीजिए।
- अतीत की तुलना में इस संस्था की निरंतरता संबंधी विशेषताओं पर चर्चा कीजिए।
- संक्षिप्त निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
विवाह. सामाजिक रूप से स्वीकृत वह संघ है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति कम से कम आंशिक रूप से ही सही, किसी न किसी प्रकार के यौन संबंध पर आधारित एक स्थिर, स्थायी व्यवस्था में संलग्न होते हैं।
विवाह संस्था समकालीन भारत में शहरीकरण, आधुनिकीकरण, विशेष रूप से महिलाओं के मध्य आधुनिक शिक्षा के प्रसार, महिलाओं के लिए आधुनिक व्यावसायिक भूमिकाएं सृजित होने आदि के कारण बदलाव का सामना कर रही है।
स्वतंत्र भारत में विवाह संस्था में परिवर्तन
- शुद्ध व्यक्तिगत संबंध: परंपरागत रूप से, विवाह का प्राथमिक उद्देश्य धार्मिक कर्तव्य की पूर्ति था। हालाँकि, अब विवाह एकव्यक्तिगत विषय बन गया है जिसमें मुख्य प्रेरणा स्वेच्छा से सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक प्रसन्नता प्राप्त करना है।
- विवाह के लक्ष्य: सामान्यत: और विशेष रूप से आबादी के शहरी और शिक्षित वर्गों के लिए इनमें बदलाव आ रहा है। अधिक संख्या में बच्चों वाले (विशेष रूप से पुत्र को माता-पिता की प्रतिष्ठा का प्रतीक मानने वाले) परिवार संबंधी पुरानी धारणाओं को छोटे आकार वाले परिवार हेतु स्पष्ट प्राथमिकता ने प्रतिस्थापित कर दिया है। व्यक्तिगत स्तर पर, युवा युगल विवाह को मुख्यतः वंश वृद्धि के बजाय ‘स्व-पूर्ति के संबंध’ के रूप में देखते हैं।
- विवाह विघटन: शीघ्र विवाह विघटन की अनुमति देने वाले कानूनों के साथ विवाह विच्छेद सरल और सामान्य हो गया है। इसके अतिरिक्त, अविवाहित (singlehood) रहने के प्रति स्वीकार्यता भी बढ़ रही है।
- विवाह की आयु: भारत में विवाह की औसत आयु ‘कम’ बनी हुई है, हालांकि 1930 से इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में युवावस्था पश्चात विवाह की प्रवृत्ति विकसित हुई है।
आधुनिक भारत में विवाह संस्था की निरंतरता
- सजातीय विवाहः यद्यपि अंतर-जातीय और अंतर धार्मिक-विवाह की दर में वृद्धि हुई है, लेकिन अधिकांश विवाह सजातीय और धर्म की सीमाओं के भीतर होते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, केवल 5.8% विवाह अंतर-जातीय थे।
- पितृसत्तात्मक: विवाह में निवास और पारिवारिक रीति-रिवाजों के संबंध में, समाज अभी भी पितृसत्तात्मक बना हुआ है जहाँ विवाह के बाद पत्नी पति के घर में रहती है।
- परिवार संबंधी उत्तरदायित्व: जहां अत्यधिक महिलाएँ काम करने के लिए घर से बाहर निकल रही हैं, वहीं उन्हें पारंपरिक घरेलू कामकाज की भी देखभाल करनी पड़ती है। घरेलू कामकाज का बोझ शायद ही कभी भी उनके पुरुष समकक्षों द्वारा साझा किया जाता है।
- दहेज प्रथा: कानूनी रूप से निषिद्ध होने के बावजूद, समाज में विभिन्न माध्यमों से दहेज प्रथा प्रचलित है।
- सामाजिक कलंक: तलाक और विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों को अभी भी सामाजिक कलंक माना जाता है। भारत में अभी भी विभिन्न समुदायों में बाल विवाह प्रचलित है।
इसके अतिरिक्त, LGBT समुदाय (और समलैंगिक-विवाह की संभावना) और लिव-इन संबंध पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (लिव-इन संबंध में महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार के पक्ष में) भी भविष्य में विवाह की पारंपरिक प्रथाओं को प्रभावित कर सकता है। इसलिए, विवाह संस्था में गहरे परिवर्तन हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। साथ ही, निरंतरता के तत्वों ने यह सुनिश्चित किया है कि विवाह अभी भी भारतीय सामाजिक जीवन का प्रमुख पहलू बना हुआ है।
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