1987 में भारत-श्रीलंका शांति समझौते पर हस्ताक्षर : प्रावधानों का आलोचनात्मक मूल्यांकन

प्रश्न: उन परिस्थितियों का संक्षिप्त विवरण दीजिए, जिसके तहत 1987 में भारत-श्रीलंका शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। इसके महत्वपूर्ण प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, इस समझौते का आलोचनात्मक मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत-श्रीलंका शांति समझौता एवं इसके लिए उत्तरदायी परिस्थितियों की संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
  • इसके महत्वपूर्ण प्रावधानों को रेखांकित कीजिए।
  • उन मुद्दों की चर्चा कीजिए जिनके कारण यह समझौता विफल हुआ।
  • श्रीलंका के साथ-साथ भारत के लिए भी इसके सकारात्मक परिणामों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर

भारत-श्रीलंका शांति समझौते पर हस्ताक्षर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जे. आर. जयवर्धने के मध्य कोलंबो में 1987 में किया गया था। यह उम्मीद की गई थी कि इस समझौते से श्रीलंका के संविधान में तेरहवें संशोधन द्वारा श्रीलंकाई गृहयुद्ध का समाधान किया जाएगा, जो प्रांतों को अधिक से अधिक शक्तियां प्रदान करने के आलोक में प्रांतीय परिषदों की स्थापना से संबंधित था।

श्रीलंकाई संघर्ष का आरंभ 1983 में श्रीलंका से हजारों की संख्या में तमिल लोगों के भारत के तमिलनाडु में प्रवासित होने पर हुआ। यह प्रवास जाफना पर श्रीलंका सरकार द्वारा किए गए अत्यधिक दमन के कारण हुआ था, जो लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ द तमिल ईलम (LTTE) का मुख्य स्थल था। LTTE एक विद्रोही समूह है जिसने पहले तमिल स्वायत्तता के लिए और बाद में श्रीलंका से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। श्रीलंका के तमिलों की सहायता करने के सन्दर्भ में भारत में (विशेष रूप से तमिलनाडु जहाँ लोगों की वही भाषा थी जो शरणार्थियों की थी) जनसामान्य के विचार दृढ़ता से इस पक्ष में थे कि भारत को श्रीलंका के तमिलों की सहायता करनी चाहिए। जब श्रीलंका द्वारा लोगों तक दैनिक आवश्यकता संबंधी वस्तुओं की पहुंच को प्रतिबंधित करने के लिए जाफना पर अवरोध आरोपित किया गया तो लोगों में पुनः क्रोध उत्पन्न हो गया।

तमिल विद्रोह की समस्या जारी रही और श्रीलंका सरकार ने अनुभव किया कि भारत के अतिरिक्त कोई भी अन्य देश इस सम्बन्ध में सहायता नहीं कर सकता है। राष्ट्रपति जयवर्धने ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री से आग्रह किया और तत्पश्चात की गयी वार्ताओं ने जुलाई 1987 में एक समझौते का मार्ग प्रशस्त किया। इस समझौते के तहत :

  • श्रीलंका में तमिल बहुमत वाले उत्तरी और पूर्वी प्रांतों का एक ही प्रांत में विलय किया जाना था जिसे पर्याप्त शक्तियां हस्तांतरित की जानी थीं।
  • LTTE को भंग किया जाना था तथा बहुत कम समय में हथियारों का समर्पण कराया जाना था।
  • इस समझौते में यह तय हुआ कि उत्तर में श्रीलंका की टुकड़ियाँ अपने बैरकों में वापस जाएंगी तथा श्रीलंका द्वारा अनुरोध करने पर भारतीय सेना श्रीलंकाई सरकार की सहायता करेगी।

समझौते का मूल्यांकन

प्रारंभ में, समझौते को इस क्षेत्र के लिए सकारात्मक विकास के रूप में देखा गया था

  • श्रीलंका के लिए: इसने श्रीलंकाई तमिलों को श्रीलंकाई राजनीति एवं संविधान में उनकी कुछ मांगों हेतु स्वीकृति प्राप्त करने में सक्षम बनाया।
  • भारत के लिए: भारत के सैन्य हस्तक्षेप ने अपने पड़ोसियों के प्रति प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए देश की तत्परता का प्रदर्शन किया। बांग्लादेश के निर्माण के पश्चात पड़ोसी देश में भारत का यह प्रथम सैन्य हस्तक्षेप था, जिसने हिंद महासागर क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में भारत के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। यह 1988 में मालदीव में भारत के हस्तक्षेप द्वारा तख्तापलट के दमन से स्पष्ट होता है।
  • इस क्षेत्र के लिए: समझौते का संकेन्द्रण निस्संदेह रणनीतिक था क्योंकि इसका उद्देश्य अमेरिकियों को श्रीलंका में आधार बनाने से रोकना था। इस क्षेत्र ने अपने पड़ोसियों और वैश्विक शक्तियों को एक मजबूत संदेश भेजा।

हालाँकि, समझौते की कुछ सीमाएँ भी थीं, जैसे:

  • LTTE को शामिल न करना: LTTE ने केवल एक अनिच्छुक सहमति दी थी। वह हस्ताक्षरकर्ता नहीं था, क्योंकि उसे श्रीलंका की सरकार पर विश्वास नहीं था तथा उसने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया। चूंकि LTTE ही एकमात्र बाधा थी, अतः ऐसे में भारतीय सेना, निरंतर जटिल होते युद्ध में तमिल गुरिल्लाओं (जो लाभ की स्थिति में थे, चूंकि वे इस क्षेत्र को जानते थे तथा उन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त था) से उलझ गई।
  • भारतीय सेना के शामिल होने के कारण दोनों पक्षों में नाराजगी: भारतीय सेना एक कठिन स्थिति में थी। एक ओर यह LTTE को शस्त्रहीन कर रही थी जिसके कारण तमिल नाराज़ थे तथा दूसरी ओर श्रीलंका के लोग एक विदेशी सेना होने के कारण भारतीय सेना से नाराज थे। श्रीलंका में IPKF की 32 माह की उपस्थिति के परिणामस्वरूप 1,200 भारतीय सैनिकों की तथा 5,000 से अधिक श्रीलंकाईयों की मृत्यु हुई।
  • अत्यधिक महत्वाकांक्षी: यह समझौता शायद अपनी संभावनाओं के संदर्भ में अत्यधिक महत्वाकांक्षी था क्योंकि इसमें भारत और श्रीलंका के मध्य सभी विवादास्पद मुद्दों का सामूहिक रूप से समाधान करने का प्रयास किया गया। किंतु इसकी सफलता दोनों देशों के निरंतर राजनीतिक समर्थन पर निर्भर थी। यही कारण था कि लगभग एक ही समय में जब दोनों

देशों में समझौते से अप्रसन्न राजनेता सत्तारूढ़ हुए तो इस समझौते की अवहेलना की गयी। इससे भारत को यह सीख मिली कि राजनीतिक और सुरक्षा सम्बन्धी निर्णय लेने की प्रक्रिया को समन्वित करने हेतु शीर्ष स्तर पर उपयुक्त संरचना की अनुपस्थिति के संदर्भ में इस दिशा में कुछ आवश्यक परिवर्तन किए जाने चाहिए।

Read More

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.