भारतीय वित्तीय प्रणाली में NBFCs की भूमिका

प्रश्न: NBFCS हमारे SME परिवेश को सुदृढ करने एवं आर्थिक विकास में योगदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। टिप्पणी कीजिए। साथ ही, NBFCS द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों का समाधान करने हेतु एक नियामक ढांचा तैयार करने की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारतीय वित्तीय प्रणाली में NBFCs की भूमिका का उल्लेख करते हुए उत्तर प्रारंभ कीजिए।
  • हमारे SME तंत्र को सुदृढ़ करने में NBFCs की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
  • NBFCs द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
  • उपर्युक्त चुनौतियों का समाधान करने के लिए नियामक ढांचे के निर्माण की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।

उत्तर

विगत कुछ दशकों में, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (NBFCs), अल्पसेवित क्षेत्रों एवं बैंकों के दायरे से बाहर के क्षेत्रों, विशेषकर लघु और खुदरा क्षेत्र, में महत्वपूर्ण वित्तीय मध्यस्थों के रूप में उभरी हैं।

  • वे समाज के बैंकों के दायरे से बाहर के क्षेत्रों को ऋण प्रदान करने में बैंकिंग क्षेत्र के पूरक के रूप में कार्य करती हैं; विशेष रूप से सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) को, जो देश में उद्यमिता एवं नवाचार के आधार का निर्माण करते है।
  • ग्राहकों और उनके ऋण की बेहतर आधारभूत समझ, NBFCs को प्रोत्साहन और अपने ग्राहकों की आवश्यकता के अनुरूप उत्पादों के निर्माण की क्षमता प्रदान करती है।
  • सूक्ष्म वित्तीयन, यूज्ड व्हीकल फाइनेंसिंग या ग्रामीण आवास जैसे क्षेत्रों में अनेक NBFCs की वितरण पहुँच बैंकों की तुलना में बेहतर बनी हुई है।
  • NBFCS समाज के कमजोर वर्गों को वित्तीय समर्थन प्रदान कर और ग्रामीण क्षेत्रों में परिवहन, रोजगार उत्पादन, संपत्ति निर्माण और बैंक ऋण को प्रोत्साहन देकर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
  • ये विशिष्ट रूप से MSMEs में सीमित वित्तीय संसाधनों को पूंजी निर्माण हेतु चैनलीकृत करती हैं।

यह इन्हें अर्थव्यवस्था को सही दिशा में अग्रसरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, भारतीय वित्तीय प्रणाली के एक अभिन्न अंग के रूप में स्थापित करता है। हालाँकि भारत में NBFCs द्वारा उपलब्ध कराया गया ऋण (credit penetration) GDP का 13% है, जो अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की अपेक्षा कम है। यह प्रदर्शित करता है कि इनके समक्ष कुछ चुनौतियाँ अभी भी विद्यमान हैं, जिनका शीघ्र समाधान करना आवश्यक है, जैसे:

  •  धन जुटाने हेतु प्रतिस्पर्धियों, बैंकों और पूंजी बाजार पर निर्भरता, जो NBFCs की संवृद्धि के लिए अहितकर है क्योंकि इन स्रोतों से बिना किसी सूचना के निधि प्राप्त होना बंद हो सकता है।
  • ऋणों के वर्गीकरण में लचीलेपन का अभाव।
  • NBFCs से बैंक ऋण के प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र का दर्जा वापस लेना।
  • NBFCs और बैंकों में कराधान के मामले में व्यवहार में असमानता।
  • जमा स्वीकार करने वाले NBFCs के लिए न्यूनतम अनिवार्य क्रेडिट रेटिंग।

RBI द्वारा एक सुदृढ़ विनियामक फ्रेमवर्क के निर्माण किये जाने की आवश्यकता है। यह फ्रेमवर्क ऐसा हो कि NBFCs के लिए रिफाइनेंस विंडो और ऋण बीमा सहायता प्रदान करना संभव बना सके; ताकि न केवल उपर्युक्त चुनौतियों से निपटा जा सके बल्कि निम्न लागत पर निधि के सृजन में वृद्धि कर, NBFCs द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले ऋण में भी वृद्धि की जा सके। इसके अंतर्गत उधारकर्ताओं की प्रोफ़ाइल पर और वर्गीकरण के मुद्दे से निपटने के लिए वर्गीकरण के तहत आने वाली परिसंपत्तियों पर भी विचार करने की आवश्यकता है। सुदृढ़ विनियामक फ्रेमवर्क के साथ-साथ NBFCs को आत्मनिर्भर बनने की भी आवश्यकता है।

NBFCs में स्थायी सुधार लाने के लिए वित्तीय समावेशन पर बनी विभिन्न समितियों, जैसे ए. सी. शाह समिति, उषा थोराट समिति, नचिकेत मोरे समिति इत्यादि की अनुशंसाओं पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है।

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