भारत में स्थानीय स्व-शासन : जमीनी स्तर पर सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के वितरण में सुधार

प्रश्न: भारत में स्थानीय स्व-शासन की संस्थाओं द्वारा समाना की जा रही समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए, जमीनी स्तर पर सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के वितरण की प्रभावशीलता में सुधार लाने हेतु किए जा सकने वाले उपायों का सुझाव दीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत में स्थानीय स्व-शासन के संस्थानों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  • भारत के स्थानीय स्व-शासन संस्थानों दवारा सामना किये जाने वाले मुद्दों को प्रस्तुत कीजिए।
  • जमीनी स्तर पर सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के वितरण में सुधार करने हेतु उठाए गये कुछ कदमों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर

स्थानीय स्व-शासन का तात्पर्य है स्वयं को शासित करने हेतु सत्ता को राजनीति के सबसे निचले स्तर तक हस्तांतरित करना। भारत में स्थानीय स्व-शासन की व्यवस्था 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम,1992 के अनुसार ग्रामीण स्तर पर पंचायती राज संस्थानों और शहरी स्तर पर शहरी स्थानीय निकायों के माध्यम से संचालित होती है। इस राजनीतिक विकेंद्रीकरण के बावजूद, भारत में स्थानीय स्व-शासन की संस्थाएं जमीनी स्तर पर सार्वजनिक वस्तुएं और सेवाएं वितरित करने में आम-तौर पर विफल रही हैं।

स्थानीय स्व-शासन द्वारा सामना किये जाने वाले मुद्दे: 

  • कार्यों का अपर्याप्त हस्तांतरण: संविधान में कई विषयों पर सशक्तीकरण और हस्तांतरण के मुद्दों को राज्य विधायिका के विवेक पर छोड़ दिया गया है। यहाँ तक कि जिला योजना समितियों और महानगर योजना समितियों के गठन जैसे अनिवार्य प्रावधानों को कई राज्यों द्वारा अनदेखा किया गया है।
  • सरंचना में कठोरता: कठोर त्रि-स्तरीय सरंचना राज्यों की आवश्यकताओं को नजरंदाज करती है। कुछ राज्यों में, वांछित परिणामों को प्राप्त करने हेतु मध्य स्तर का अत्यल्प उपयोग होता है।
  • कार्यात्मक अतिव्यापन: कई राज्य सरकारों ने गतिविधि मानचित्रण को स्वीकृति ही नहीं दी है। फलस्वरूप, सरकार के विभिन्न स्तरों पर कार्यों का स्पष्ट परिसीमन न होने के कारण कार्यक्षेत्राधिकार संबंधी मुद्दे उठते रहते हैं।
  • वित्तीय मुद्दे: स्थानीय शासन के हाथों में केवल कुछ कर और शुल्क के होने से आंतरिक राजस्व की मात्रा अत्यल्प रहती है। इससे नियमित कार्यों हेतु भी राज्य से राजकोषीय हस्तांतरण पर उच्च निर्भरता बनी रहती है।
  • क्षमता का अभाव: स्थानीय स्तर पर संख्या और कौशल, दोनों ही रूपों में अधिकारियों का अभाव है। इसके अतिरिक्त अधिकारी स्थानीय सरकार और राज्य सरकार, दोनों के दोहरे नियन्त्रण में रहते हैं, जिसके कारण स्थानीय निकायों का कार्य करना कठिन हो जाता है।
  • राज्य की नौकरशाही द्वारा हस्तक्षेप: प्रायः राज्य नौकरशाही स्थानीय निकायों के लिए संसाधनों और कार्यों के आवंटन से सम्बन्धित निर्णयों पर अपना नियंत्रण बनाये रखती है।
  • एजेंसियों की बहुलता: विभिन्न समानांतर निकायों का सृजन स्थानीय सरकारों को केवल कुछ सीमित हस्तांतरित विषयों पर ही नियंत्रण की अनुमति देता है। उदाहरण के लिए, जिला ग्रामीण विकास एजेंसी जैसे अर्ध-सरकारी निकायों के साथ PRI के कार्यक्षेत्र का अतिव्यापन। इससे नियंत्रण दोगुना हो जाता है और दोनों का उत्तरदायित्व दुर्बल हो जाता है।

जमीनी स्तर पर उनकी सेवा वितरण की प्रभावशीलता में सुधार करने के उपाय:

  • संविधान में स्थानीय निकायों को सौंपे गये कार्यों के प्रभावी हस्तांतरण के लिए राज्यों को वित्तीय रूप से प्रोत्साहित करना।
  • स्थानीय निकायों को सौंपे गये कार्यों के प्रभावी हस्तांतरण हेतु उन्हें विज्ञापन कर, मनोरंजन कर आदि जैसे करों को लगाने में सक्षम बनाकर उनकी वित्तीय क्षमता में वृद्धि करना।
  • गतिविधि मानचित्रण जैसी गतिविधियों द्वारा सरकार के प्रत्येक स्तर का स्पष्ट सीमांकन करना। गतिविधि मानचित्रण प्रक्रिया में समनुषंगिता के सिद्धांत का कठोरता से पालन करना।
  • स्थानीय प्रतिनिधियों को प्रशिक्षित करना ताकि उनमें विशेषज्ञता विकसित हो और वे नियोजन के साथ-साथ नीतियों और कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में अधिक योगदान दे सकें।
  • राज्यों द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के अनुपालन की सुनिश्चितता हेतु स्पष्ट तन्त्र की स्थापना, विशेषकर राज्य वित्तीय आयोगों (SFCs) की नियुक्ति और उनकी संस्तुतियों को कार्यान्वित करना।
  • छद्म (प्रॉक्सी) प्रतिनिधित्व की समस्या का समाधान करना। सामाजिक सशक्तिकरण से पहले राजनीतिक सशक्तिकरण होना चाहिए।
  • ग्राम सभा से प्राप्त जमीनी इनपुट के आधार पर, विशेषकर जिला स्तर पर नीचे से ऊपर की ओर योजना बननी चाहिए।
  • स्थानीय निकायों के लिए पृथक नौकरशाही कैडर का सृजन किया जाना चाहिए, जैसा कर्नाटक में स्थानीय स्तरों की गतिविधियों के लिए एक समर्पित जनशक्ति प्रदान करने के लिए किया गया है।

73वें और 74वें संविधान संशोधन के अक्षरशः पालन हेतु भारत में स्थानीय निकायों का विकास करने से लोकतान्त्रिक विकेंद्रीकरण, सामाजिक समावेश और सहकारी संघवाद की सच्ची भावना को प्रोत्साहन प्राप्त होगा।

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