भारत में स्थानीय स्व-शासन के संस्थानों की कार्यप्रणाली हेतु प्रासंगिक मुख्य संवैधानिक प्रावधान

प्रश्न: स्थानीय स्व-शासन के संस्थानों की सफलता मुख्य रूप से राज्य सरकारों की प्रवृत्ति पर निर्भर करती है। संवैधानिक प्रावधानों और भारत में इन संस्थानों के कामकाज संबंधी हालिया अनुभव के संदर्भ में चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत में स्थानीय स्व-शासन के संस्थानों की कार्यप्रणाली हेतु प्रासंगिक मुख्य संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख कीजिए।
  • इन संस्थाओं के कामकाज संबंधी हालिया अनुभवों पर टिप्पणी कीजिए।
  • कुछ ऐसे उपायों का सुझाव दीजिए जिनसे आने वाले समय में उनके कार्य-निष्पादन में सुधार किया जा सके।

उत्तर

संविधान, राज्य के नीति-निदेशक तत्वों तथा अधिक विशिष्ट रूप से संविधान के भाग 9 और 9A (जिसे 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन के द्वारा शामिल किया गया) के माध्यम से लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण हेतु एक स्पष्ट अधिदेश प्रदान करता है। इन भागों द्वारा क्रमश: ग्राम-स्तर, मध्यवर्ती-स्तर तथा जिला स्तरों पर पंचायत की त्रिस्तरीय व्यवस्था तथा नगरीय क्षेत्रों में नगरपालिकाओं की स्थापना करने का दायित्व राज्यों पर अधिरोपित किया गया है।

राज्य सरकार की भूमिका 

  • उपर्युक्त संवैधानिक प्रावधानों को व्यावहारिक आकार प्रदान करने का उत्तरदायित्व राज्यों को दिया गया है।
  • राज्यों से यह आशा की गयी है कि वे इन निकायों को पर्याप्त शक्तियां, उत्तरदायित्व और निधि प्रदान करेंगे।
  • अतः इस परिप्रेक्ष्य में आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएँ तैयार करने एवं उन्हें कार्यान्वित करने हेतु राज्य सरकार को स्थानीय निकायों के लिए एक अनुकूल परिवेश का सृजन करना चाहिए।

हालांकि, हाल ही में निम्नलिखित कारणों से इस सन्दर्भ में राज्यों के प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं रहे हैं:

  • अधिकांश संस्थाओं के साथ केवल सरकारी योजनाओं की क्रियान्वयन एजेंसियों के समान व्यवहार किया जाता है। इस प्रकार उनकी कार्यात्मक स्वायत्तता को कम कर दिया जाता है।
  • व्यावसायिक कर, मनोरंजन कर इत्यादि जैसे करों में स्थानिक एवं कालिक आधारों पर अत्यधिक विविधता व्याप्त है। यही कारण है कि लोचशील राजस्व संसाधनों के अभाव में ये संस्थाएँ पंगु बनी रहती हैं।
  • जिला प्रशासन के मुख्य प्रशासनिक पदों पर सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है जिससे स्थानीय निकायों की प्रकृति अधिक नौकरशाही हो जाती है।
  • 11वीं और 12वीं अनुसूची में सूचीबद्ध कार्यों को इन संस्थाओं को हस्तांतरित करने की राज्य विधानमंडलों की अनिच्छा।
  • राज्य वित्त आयोग के गठन में विलंब।
  • आधारभूत क्रियान्वयन एवं सहायक अवसंरचना का अभाव।
  • विधियों, प्रशासनिक प्रक्रियाओं और प्रणालियों को तर्कसंगत बनाने की प्रक्रिया स्थानीय शासन निकायों हेतु संवैधानिक स्वीकृतियों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकी।
  • इन संस्थाओं में जाति, वर्ग और पुरुष-प्रधान दृष्टिकोण का प्रभुत्व होना।

परिणामस्वरूप ये संस्थाएं स्थापित तो कर दी गयी हैं किन्तु इन्हें पर्याप्त रूप से सशक्त नहीं बनाया जा सका। संवैधानिक प्रावधानों के प्रगतिशील प्रयोजन को साकार करने हेतु निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए:

  • स्थानीय निकायों और अनौपचारिक संगठनों एवं प्रयोगकर्ता समूहों के मध्य सम्पर्क स्थापित करके अधोमुखी विकेन्द्रीकरण को ऊर्ध्वमुखी विकेन्द्रीकरण में बदलना चाहिए।
  • सरकारी नियमों, प्रशासनिक संरचनाओं और प्रक्रियाओं को स्थानीय निकायों हेतु सरल बनाया जाना चाहिए जिससे ये अपने अधिदेशित कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें।
  • राज्य सरकारों को समय-समय पर राज्य वित्त आयोग का गठन करना चाहिए एवं उसे सुदृढ़ बनाना चाहिए।
  • स्थानीय सूची और राज्य-स्थानीय समवर्ती सूची का निर्माण करके स्थानीय निकायों हेतु पृथक कर क्षेत्र की अवधारणा को लागू करना चाहिए।
  • श्रमबल की कमी को दूर करने हेतु राज्य सरकार के कर्मचारियों का स्थानांतरण स्थानीय निकायों में करना।
  • अय्यर समिति की अनुशंसाओं के अनुरूप राज्य सरकार को कार्यों, वित्त और पदाधिकारियों की गतिविधियों की निगरानी प्रक्रिया को प्रारम्भ करना चाहिए।

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