भारत में श्रमिक वर्ग आंदोलन के क्रमिक विकास : राष्ट्रवादी नेतृत्व का दृष्टिकोण

प्रश्न: स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान, जैसे-जैसे श्रमिक वर्ग की भागीदारी बढ़ी, उसी प्रकार इसके प्रति राष्ट्रवादी नेतृत्व का दृष्टिकोण विकसित हुआ। स्पष्ट कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत में श्रमिक वर्ग आंदोलन के क्रमिक विकास का वर्णन कीजिए।
  • साथ ही, कालांतर में राष्ट्रवादी नेताओं के बदलते दृष्टिकोण के साथ आंदोलन के विभिन्न चरणों को संबद्ध कीजिए।

उत्तर

भारतीय श्रमिक वर्ग को साम्राज्यवादी राजनीतिक शासन तथा विदेशी और देशी, दोनों पूँजीपति वर्गों के आर्थिक शोषण का सामना करना पड़ा। आधुनिक उद्योगों के प्रारम्भ के पश्चात्, भारतीय श्रमिक वर्ग को निम्न मजदूरी, कार्य के अधिक घंटों, कार्य की अस्वास्थ्यकर और जोखिमपूर्ण परिस्थितियों, बुनियादी सुविधाओं का अभाव आदि का सामना करना पड़ा। इन परिस्थितियों में, भारतीय श्रमिक वर्ग का आंदोलन राष्ट्रीय मुक्ति हेतु जारी राजनीतिक संघर्ष के साथ जुड़ गया।

प्रथम चरण (1875-1918)

  • प्रारंभिक राष्ट्रवादी श्रमिकों की समस्याओं के प्रति उदासीन थे क्योंकि वे राष्ट्रीय आंदोलन के वर्गीय विभाजन के पक्ष में नहीं थे। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ब्रिटिश और भारतीय स्वामित्व वाले कारखानों के मध्य भेदभाव किया और अनुभव किया कि मजदूरों के पक्ष में कानून, भारतीय कारखानों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को नकारात्मक रूप में प्रभावित करेंगे। ।
  • परिणामस्वरुप, व्यापार संघों की संख्या बहुत कम एवं बिखरी हुई रही या उनकी प्रकृति अनौपचारिक रही। इसके अतिरिक्त ये निधियों, नियमित सदस्यता, सुस्पष्ट नियमों आदि से वंचित रहे।
  • हालांकि, कुछ प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं जैसे बी.सी. पाल और जी सुब्रमण्य्य अय्यर ने श्रमिकों के लिये अनेक सुधारों की माँग की।
  • स्वदेशी आंदोलन के दौरान, श्रमिकों ने विभिन्न राजनीतिक मुद्दों पर सहभागिता की। राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में विभिन्न हड़तालों का आयोजन किया गया। हालाँकि, व्यापार संघों के गठन के प्रयास अधिक सफल नहीं हुए।
  • प्रथम विश्वयुद्ध के समय, सोवियत संघ की स्थापना, कॉमिन्टर्न के गठन और राजनीतिक परिदृश्य में महात्मा गांधी के उद्भव के कारण श्रमिक वर्ग के आंदोलन को नया आयाम मिला और श्रमिकों की चिंताओं के समाधान पर ध्यान केंद्रित किया गया।

द्वितीय चरण (1918-1924)

  • 1918-21 के दौरान, संपूर्ण देश के औद्योगिक केन्द्रों में अनेक संगठित श्रमिक संघों का उद्भव हुआ। इसका कारण भारतीय श्रमिक वर्ग द्वारा मूल्य वृद्धि, कम मजदूरी, कार्य के अधिक घंटे आदि के माध्यम से आर्थिक समस्याओं का सामना किया जाना था।
  • इस समस्या को पहचानते हुए गांधी जी ने 1918 में अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन की स्थापना की जिसने वर्ग-सहयोग की नीति का समर्थन कर, श्रमिकों को पूँजीपतियों के विरुद्ध हिंसक वर्ग-संघर्ष को अपनाने से रोका।
  • वर्ष 1920 में, राष्ट्रीय स्तर के ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) की स्थापना ने अखिल भारतीय स्तर की गतिविधियों को समन्वित करने और श्रमिकों को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करने के उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता की। इस प्रकार, व्यापार संघवाद तीव्र हो गया और 1920 के दशक में देश में अनेक व्यापक हड़तालों का आयोजन किया गया।
  • राष्ट्रवादी नेताओं ने श्रमिक वर्ग को साथ लेकर साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष को जारी रखने का समर्थन किया। उदाहरण के लिए, सी आर दास ने स्वराज के लिए संघर्ष में श्रमिकों की चिंताओं को शामिल करने की वकालत की।

तृतीय चरण (1924-1934)

  • इस प्रवृत्ति को देखते हुए, ब्रिटिश सरकार ने ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 पारित किया। इसका उद्देश्य ट्रेड यूनियनों की राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाकर, श्रमिक आंदोलन को एक सुरक्षित चैनल में निर्देशित कर देना था।
  • एक उदासीनता की अवधि के पश्चात्, श्रमिक वर्ग की गतिविधियाँ राष्ट्रीय आंदोलन में एस.ए. डांगे, पी.सी. जोशी आदि के नेतृत्व में वामदल के अभ्युदय से पुनः प्रेरित हुईं।
  • आंदोलन पर व्यापक कम्युनिस्ट प्रभाव ने इसे एक उग्र और क्रांतिकारी स्वरूप प्रदान किया। उदाहरण के लिए, श्रमिकों ने 1927 में साइमन बहिष्कार प्रदर्शन और 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन, 1930 में श्रमिकों की भागीदारी बड़ी संख्या में रही थी।
  • 1930 के दशक की शुरुआत में, जब आपसी फूट और मतभेद अपने चरम पर पहुँच गया तो ट्रेड यूनियन आंदोलन अपने निम्न स्तर पर पहुँच गया।

चतुर्थ चरण (1935-1947)

  • श्रमिक वर्ग की गतिविधियों का अगला चरण 1937 में, प्रांतीय स्वायत्तता और लोकप्रिय मंत्रालयों के गठन के साथ प्रारंभ हुआ। कांग्रेस के मंत्रालयों ने विभिन्न प्रांतों में, व्यापार संघ की गतिविधियों को प्रोत्साहित किया। कांग्रेस द्वारा श्रमिकों की माँगों के प्रति सहानुभूति रखते हुए उनके पक्ष में अनेक कानून पारित किये गये।
  • श्रमिकों ने द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभिक वर्षों के दौरान औद्योगिक शांति की नीति (policy of industrial peace) का पालन किया; किन्तु युद्ध के बाद उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी भाग लिया। उन्होंने विभिन्न राष्ट्रवादी नेताओं के निर्देशन और नेतृत्व में आर्थिक मुद्दों पर अनेक हड़तालों का आयोजन किया।

श्रमिक वर्ग की भागीदारी ने आर्थिक और राजनीतिक लाभ प्राप्त करने में सहायता की, इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम की प्रक्रिया में अनेक प्रकार से योगदान प्राप्त हुआ।

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