भारत में सांप्रदायिकता : सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और पहचान का राजनीतिकरण
प्रश्न: भारत में सांप्रदायिकता को सामाजिक-आर्थिक असमानताओं और पहचान के राजनीतिकरण से बढ़ावा मिलता है। चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- सांप्रदायिकता को संक्षेप में परिभाषित कीजिए।
- सामाजिक-आर्थिक असमानताएं और पहचान का राजनीतिकरण, सांप्रदायिकता हेतु किस प्रकार उत्तरदायी हैं। चर्चा कीजिए।
- जहां भी आवश्यक हो, उपयुक्त उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
- सांप्रदायिकता मूल रूप से एक विचारधारा है जिसमें निम्नलिखित तीन तत्व शामिल हैं:
- एक विश्वास है कि जो एक ही धर्म के सभी अनुयायियों के धर्मनिरपेक्ष हित अर्थात राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हित एक-समान होते हैं।
- एक धारणा है कि भारत जैसे बहुधर्मी समाज में, एक धर्म के अनुयायियों के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हित दूसरे धर्म के अनुयायियों के हितों से भिन्न और असमान होते हैं।
- विभिन्न धर्मों या अलग-अलग समुदायों के अनुयायियों के हित पूरी तरह से असंगत, परस्पर विरोधी और शत्रुतापूर्ण माने जाते हैं।
सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने में पहचान के राजनीतिकरण की भूमिका:
- भारत में सांप्रदायिकता उपनिवेशवाद के उप-उत्पाद के रूप में प्रसारित हुई, जिसका आधार वर्ष 1905 के बंगाल के विभाजन, भारत सरकार अधिनियम, 1909 के तहत पृथक निर्वाचक मंडल के प्रावधान और बाद में 1932 का सांप्रदायिक पंचाट आदि में विद्यमान हैं।सांप्रदायिकता के इन कारकों के द्वारा प्रतिस्पर्धा और अल्पकालिक लाभ प्राप्त हुआ।
- भारत में राजनेताओं ने भी वोट बैंक के रूप में समुदायों के साथ गंभीर सांप्रदायिक स्थितियों के उद्भव में भूमिका निभाई है। इसके द्वारा समुदाय और जाति के आधार पर उम्मीदवारों का चयन, चुनाव के समय धार्मिक भावनाओं को भड़काना आदि जैसी गतिविधियों के माध्यम से लोगों की पहचान के राजनीतिकरण का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रकार, समुदाय सशक्त और सुस्पष्ट विभिन्न खण्ड बन गए, जिसकी परिणति 1984 के सिख दंगे, 1989 में कश्मीरी हिंदू पंडितों का नृजातीय संहार, 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस, 2002 के गुजरात दंगे, 2013 में मुजफ्फरनगर हिंसा आदि जैसे संघर्षों के रूप में हुई।
- राजनीतिक विचारों से प्रेरित राजनीतिक तुष्टिकरण भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता है। जैसा कि शाह बानो मामले में देखा गया; इस मामले में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय को पलट दिया, जिसमें शरीयत कानून के तहत मुस्लिम तलाकशुदा हेतु भरण-पोषण की राशि में वृद्धि करने हेतु निर्देश दिया गया।
सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने में सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की भूमिका
- ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की स्थिर अर्थव्यवस्था ने भारत में सांप्रदायिकता के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। इसका आधार अत्यंत व्यापक था और यह उस सामाजिक व्यवस्था में मध्यम वर्गों के हितों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति थी जिसमें उनके लिए अपर्याप्त अवसर विद्यमान थे।
- मुस्लिमों के हितों की रक्षा के स्थान पर कुछ नीतियों के संबंध में मुस्लिमों के नुकसान के साथ-साथ उनके हित में प्रभावी राजनीतिक लामबंदी के अभाव को व्यापक रूप से सच्चर रिपोर्ट द्वारा भी इंगित किया गया। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) की श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार भारत सर्वाधिक तेजी से बढ़ती विशाल अर्थव्यवस्था होने के बावजूद मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति में किसी प्रकार का सुधार इंगित नहीं हुआ है। वे निर्धनता के दुष्चक्र का सामना कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त, मुस्लिमों की शैक्षिक उपलब्धियाँ इन सभी समुदायों में सबसे कम है जो उनकी नौकरी की संभावनाओं को प्रभावित करती हैं। यह स्थिति संसाधनों हेतु प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा प्रदान करती है और साथ ही युवा पीढ़ी को सांप्रदायिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आसान लक्ष्य बनाती है।
- वर्तमान समय में, गोहत्या पर प्रतिबंध, तीन तलाक, घर वापसी जैसे मुद्दों ने अल्पसंख्यक जनसंख्या के मध्य अलगाव की धारणा में वृद्धि की है। वे निरंतर भेदभाव और यहां तक कि हिंसा के निशाने पर रहे हैं। इस समस्या के समाधान के लिए आम जनता, धार्मिक नेताओं, सरकारी संस्थानों आदि जैसे सभी हितधारकों को शामिल करने वाले एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसमें सभी अपने धार्मिक हितों की अपेक्षा राष्ट्रीय हितों को वरीयता प्रदान करते हैं। साथ ही, अल्पसंख्यक समुदायों के विकास हेतु आरंभ नई मंज़िल, रोशनी आदि जैसी सरकारी पहलों को कठोरता से लागू करने की आवश्यकता है।
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