भारत में सहकारी क्षेत्रक के विकास का संक्षिप्त विवरण

प्रश्न: समय के साथ, यह अधिकाधिक अनुभव किया जा रहा है कि राज्य द्वारा अनुचित हस्तक्षेप, स्वायत्तता की कमी एवं व्यापक राजनीतिकरण ने सहकारी क्षेत्र के कार्यकरण को गंभीर रूप से विकृत किया है तथा सहकारी क्षेत्र में तत्काल सुधार लाने की आवश्यकता है। चर्चा कीजिए। (250 शब्द)

दृष्टिकोण

  • भारत में सहकारी क्षेत्रक के विकास का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  • सहकारी क्षेत्रक के संबंध में राष्ट्रीय नीति पर चर्चा कीजिए। 
  • इसमें विद्यमान कमियों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। 
  • सहकारी क्षेत्रक हेतु विभिन्न समितियों द्वारा सुझाए गए सुधार उपायों पर चर्चा कीजिए।

उत्तर

भारत में सहकारी क्षेत्रकों का इतिहास विविधतापूर्ण रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात पहले कुछ दशकों के दौरान इसने हमारे प्राथमिक क्षेत्रक के उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके बावजूद अनेक कमियों के कारण इसकी प्रगति बाधित होती रही है।

सहकारी क्षेत्रकों की सीमाएँ:

  • नौकरशाहीकरण एवं सरकारी नियंत्रण: नौकरशाही द्वारा नियंत्रित सहकारी अवसंरचना, सहकारिता आंदोलन के मूल तर्क के ही विरुद्ध चली गयी है।
  • सहकारी नेतृत्व का राजनीतिकरण: अधिकांश सहकारी निकायों के बोर्ड में राजनीतिज्ञों का वर्चस्व है। वे अपनी इस स्थिति को राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने की सीढ़ी के रूप में उपयोग करना चाहते हैं।
  • गैर-जवाबदेही: सहकारी निकाय, राज्य द्वारा प्रदत्त कई लाभों का उपभोग करते हैं परन्तु उनके द्वारा अपनी जवाबदेही का निर्वहन नहीं किया जाता।
  • प्रतिस्पर्धा का न होना: अधिकतर सहकारी निकाय एकाधिकारी के रूप में कार्य करते हैं, इसलिए वे कर्तव्यों का निर्वहन तत्परतापूर्वक नहीं करते तथा उपभोक्ताओं को उच्च लागत वहन करनी पड़ती है।

इन सीमाओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय सहकारिता नीति, 2002 लायी गयी। इसका उद्देश्य सहकारी निकायों के स्वायत्त, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक संगठनों के रूप में संवर्धन और विकास हेतु समर्थन प्रदान करना था, जिससे वे देश के सामाजिकआर्थिक विकास में उचित योगदान कर सकें।

सहकारी निकायों से सम्बंधित विभिन्न मुद्दों पर विचार करने हेतु विभिन्न समितियां गठित की गयी हैं। इन समितियों ने सहकारी निकायों को आत्मनिर्भर, स्वायत्त व लोकतंत्रीकृत संस्थाओं के रूप में रूपांतरित करने हेतु कई अमूल्य सुझाव दिए। ये सुझाव निम्नलिखित हैं:

  • वर्तमान में प्रचलित सरकारी वर्चस्व वाले सहकारिता कानूनों को जनकेन्द्रित विधान से प्रतिस्थापित करना।
  • आवधिक रूप से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कर सहकारी निकायों के राजनीतिकरण को कम करना।
  • स्वतंत्र पेशेवरों द्वारा आवधिक लेखापरीक्षा को अनिवार्य करके और सहकारी निकायों को सूचना का अधिकार अधिनियम की परिधि में लाकर इनकी जवाबदेही सुनिश्चित करना।
  • सहकारी निकायों के निदेशकों के कार्यकाल को नियत करना।
  • राज्य सरकारों को सहकारी समितियों की गतिविधियों एवं लेखाओं की आवधिक रिपोर्ट प्राप्त करने के अधिकार प्रदान करना।

इनमें से अधिकांश प्रस्ताव 97वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2011 द्वारा अधिनियमित किए गए हैं। यह संशोधन सहकारी निकायों को पंचायती राज संस्थाओं के समान संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है। ये प्रावधान न केवल सहकारी निकायों की स्वायत्त और लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली सुनिश्चित करते हैं,अपितु ये उनके सदस्यों एवं अन्य हितधारकों के प्रति उनकी जवाबदेही भी सुनिश्चित करते हैं।

इसके अतिरिक्त, अमूल या कृषि ऋण समितियों जैसे सफल उदाहरणों की विशेषताओं को सम्मिलित कर उनकी सफलता का अनुकरण किया जा सकता है। ऐसी कुछ विशेषताएँ निम्न हैं:

  • समुदाय की भागीदारी तथा प्रबंधन द्वारा एक एकीकृत दृष्टिकोण अपनाया जाना, जो सर्वाधिक अधिकार-वंचित समुदाय की आवश्यकताओं के साथ उचित सामंजस्य रखता हो।
  • आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग।
  • महिलाओं व ग्रामीण कार्यकर्ताओं को संगठित करना।

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