क्षेत्रवाद की संक्षिप्त व्याख्या
प्रश्न: भारत में क्षेत्रवाद, देश की बहुविध विविधता पर आधारित है। उपयुक्त उदाहरणों से पुष्टि कीजिए। स्वतंत्रता के बाद से क्षेत्रवाद के कारण उभरने वाले मुद्दों का समाधान करने के लिए नियोजित प्रमुख साधन क्या हैं?
दृष्टिकोण
- क्षेत्रवाद की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
- भारत की बहुविध विविधता की चर्चा कीजिए और भारत में क्षेत्रवाद इस विविधता पर किस प्रकार आधारित है, इस संबंध में उपयुक्त उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
- क्षेत्रवाद के कारण उभरने वाले मुद्दों का समाधान करने के लिए नियोजित प्रमुख साधनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर
क्षेत्रवाद एक विचारधारा और राजनीतिक आंदोलन है जो किसी क्षेत्र के कल्याण को आगे बढ़ाने का प्रयास करता है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों अर्थ हैं। सकारात्मक क्षेत्रवाद का अर्थ यह है कि किसी का स्वयं की संस्कृति, क्षेत्र, भाषा इत्यादि से लगाव होना। जबकि नकारात्मक क्षेत्रवाद का आशय राष्ट्र की तुलना में किसी का अपने क्षेत्रों से अत्यधिक लगाव होने से है।
भारत विविधताओं वाला का एक देश है जहाँ विभिन्न धर्म, संस्कृतियाँ, जनजातियाँ और भाषाएँ सह-अस्तित्व के साथ विद्यमान हैं। इन बहुविध विविधताओं के कारण निम्नलिखित कारणों से क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है:
- भौगोलिक कारक: विविध अधिवास प्रतिरूप का भौगोलिक सीमाओं, स्थलाकृति और जलवायु भिन्नताओं के साथ वितरण वस्तुतः लोगों के मध्य क्षेत्रवाद की अवधारणा को प्रोत्साहित करता है। उदाहरण के लिए – ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित बोडो भाषायी लोगों द्वारा बोडोलैंड की मांग करना। इसी प्रकार, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र इत्यादि राज्यों का गठन भाषायी आधार पर ही किया गया था।
- ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक कारक: एक विशिष्ट सांस्कृतिक और भाषाई समूह के लोग भी सांस्कृतिक विरासत, लोक साहित्य, पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक परम्पराओं, महान व्यक्तियों के कृत्यों और स्थानीय नायकों की असीम उपलब्धियों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उदाहरणस्वरूप- महाराष्ट्र में शिवसेना का उदय।
- जाति और धर्म: जब जाति भाषा, मतभिन्नता या धार्मिक रूढ़िवादिता के साथ संबद्ध हो जाती है तब यह क्षेत्रीय भावना, धर्मांधता, धर्मपरायणता और रूढ़िवाद को उत्पन्न करती है।
इस प्रकार की बहुविध विविधता के अतिरिक्त राजनीतिक-प्रशासनिक और आर्थिक कारक भी विद्यमान हैं जो क्षेत्रवाद की भावनाओं को उत्पन्न करते हैं। देश के विभिन्न भागों में असमान विकास के कारण आर्थिक रूप से उपेक्षित क्षेत्रों के निवासियों के मध्य तुलनात्मक रूप से वंचित होने की भावना व्युत्पन्न होती है। यह झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना आदि जैसे राज्यों के गठन के रूप में प्रकट हुआ है।
क्षेत्रवाद के कारण उभरने वाले मुद्दों का समाधान करने के लिए भारत में निम्नलिखित प्रमुख नियोजित साधनों का प्रयोग किया गया है:
- भारतीय संविधान द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि भारत “राज्यों का संघ है” न कि परिसंघ। यह संघीय संसद को राज्यों के क्षेत्रों को पुनर्गठित करने की शक्ति प्रदान करता है।
- भारतीय संविधान में, भारत के विभिन्न भागों में निवास करने वाले विभिन्न आदिवासी समूहों के क्षेत्रों के स्व-शासन हेतु पांचवी अनुसूची से सातवीं अनुसूची के अंतर्गत अनेक प्रावधान किए गए हैं। इसमें सातवीं अनुसूची के तहत केंन्द्र-राज्य के मध्य विभिन्न विधायी शक्तियों का भी विभाजन किया गया है।
- सरकार द्वारा भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को स्वीकार किया गया है।
- भाषा का अधिकार वस्तुतः भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के अंर्तगत “अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार” के तहत मूल अधिकार का एक भाग है।
- त्रिभाषायी फार्मूला: हिंदी और अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त, अनुच्छेद 345 और 347 (संविधान की आठवीं अनुसूची में प्रदत्त) के तहत राज्य स्वयं की आधिकारिक भाषा को मान्यता प्रदान कर सकते हैं।
इसके अतिरिक्त, वित्त आयोग की सिफारिशों को क्रियान्वित कर, वंचितता और पिछड़ेपन के आधार पर कुछ राज्यों को विशेष श्रेणी के राज्य का दर्जा प्रदान कर, क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने हेतु आरंभ की गई विभिन्न केन्द्रीय योजनाओं, यथा- पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि आदि को गति देकर और सहकारी संघवाद को बढ़ावा देकर इस समस्या का समाधान किया जा रहा है। हाल ही में प्रत्येक राज्य की राय जाहिर करने के उद्देश्य से सहकारी संघवाद की भावना के अनुरूप नीति आयोग का गठन किया गया है
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