समकालीन भारत में जाति और राजनीति की स्थिति की व्याख्या

प्रश्न: समकालीन भारत में जाति तथा राजनीति के मिश्रण के परिणामस्वरूप होने वाला ‘जाति का राजनीतिकरण’ तथा ‘राजनीति का जातिकरण’ हमारे लोकतंत्र के सामने एक गंभीर चुनौती बन गया है। टिप्पणी कीजिए।

दृष्टिकोण

  • समकालीन भारत में जाति और राजनीति की स्थिति की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
  • जाति के राजनीतिकरण तथा राजनीति के जातिकरण का सन्दर्भ लेते हुए जाति और राजनीति के बीच के संबंध की व्याख्या कीजिए।
  • वर्ग व राजनीति के बीच की अंत:क्रिया से उत्पन्न चुनौतियों का वर्णन कीजिए।

उत्तर

भारत में राजनीति और जाति आपस में एक दूसरे से काफी जुड़ी हुई है। हालांकि एक संस्था के तौर पर जाति, काफी हद तक समाप्त हो चुकी है, किंतु अभी भी यह लगभग असंभव है कि राजनीति में जाति की भूमिका को दरकिनार किया जा सके। ऐसा मुख्यत: ‘संख्याबल की राजनीति’ के बढ़ते महत्व के कारण है। दिए गए मुहावरे थोड़े बहुत अंतर के साथ लगभग समान हैं: जाति का राजनीतिकरण जाति पर आधारित राजनीतिक समर्थन जुटाने से संबंधित है, जबकि राजनीति का जातिकरण इसके परिणामस्वरूप जाति आधारित क्षेत्रीय दलों के उभरने के रूप में सामने आता है।

आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली प्रत्येक वयस्क को मतदान का अधिकार प्रदान करती है। इससे उन दमित जातियों की आकांक्षाएं एवं जागरूकता बढ़ती है जो सत्ता में बराबर की भागीदारी चाहती हैं। इस प्रकार, राजनीतिक भागीदारी सामाजिक एकजुटता का एक महत्वपूर्ण साधन बन जाती है। प्रतिक्रिया के रूप में, उच्च जातियाँ भी कई बार जाति के नाम पर वोट डालती हैं ताकि समाज में अपनी पारंपरिक स्थिति की रक्षा कर सकें।

जहाँ जाति और राजनीति का संबंध सैद्धांतिक रूप में सकारात्मक है, वहीं वास्तव में यह लोकतंत्र के लिए अनेकों चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रहा है:

  • विभिन्न दलों द्वारा विभाजनकारी प्रचार की रणनीति के माध्यम से लोगों को संकीर्ण आधारों पर अपने पक्ष में किया जा रहा है।
  • यह कहा जाता है कि विभिन्न जातियों की बढ़ती राजनीतिक भागीदारी से विभिन्न मध्यम और निम्न जातियों से बड़े राजनेता निकलने लगे हैं। चूंकि इन नए राजनेताओं को पहचान आधारित राजनीति का लाभ मिला है, अत: इनमें सत्ता के सैद्धांतिक अनुसरण के प्रति प्रतिबद्धता की कमी देखी जाती है।

जाति आधरित राजनीति अधिक संवेदनशील है, क्योंकि यह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच हिंसा व घृणा को उकसाती है और एकता पर प्रहार करती है। यह टिकट वितरण को भी प्रभावित करती है क्योंकि राजनीतिक दल उस जाति के सदस्य को ही टिकट देने को प्राथमिकता देते हैं जिसकी संख्या अधिक है।

इस प्रकार, जाति और राजनीति एक दूसरे से अविभाज्य हैं और राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करने में पारस्परिक रूप से लाभकारी हैं। किंतु वर्तमान समय में जाति का राजनीतिकरण तथा राजनीति का जातिकरण उस सीमा तक चुनावी लोकतंत्र के दायरे में है जहाँ तक ये किसी विशेष समुदाय की अधिकारविहीनता का समाधान करने का प्रयास करते हैं। किंतु, राजनीति को पूर्णतः जाति आधारित पहचान के आधार पर परिभाषित करना वास्तव में भारत की लोकतांत्रिक संरचना हेतु एक चुनौती पेश कर रहा है।

Read More 

 

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.