भारत में जाति व्यवस्था

प्रश्न: भारत में जाति की निर्धारित विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। चर्चा कीजिए कि किस प्रकार एक सामाजिक संस्था के रूप में जाति के वर्तमान स्वरुप को औपनिवेशिक काल और साथ ही स्वतंत्र भारत में होने वाले परिवर्तनों द्वारा आकार प्रदान किया गया।

दृष्टिकोण

  • भारत में जाति व्यवस्था की संक्षिप्त व्याख्या करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिए।
  • भारत में जाति की सबसे सामान्य निर्धारित विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  • भारत में जाति व्यवस्था को आकार देने वाले औपनिवेशिक काल के प्रभावों और स्वतंत्र भारत में हुए परिवर्तनों की चर्चा कीजिए।

उत्तर

जाति व्यवस्था भारतीय उपमहाद्वीप के लिए अद्वितीय है। भारत में इसका विकास उत्तर वैदिक काल में हुआ और आरंभ में यह वर्ण विभाजन (चार वर्गों में विभाजित) के रूप में विद्यमान थी। वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में यह व्यवस्था और अधिक दृढ होती चली गयी। यह पद सोपान (hierarchy), वर्गीकरण, विशेष व्यावसायिक भूमिकाओं और सीमित विशेषाधिकारों के आधार पर एक बहिष्कृत व्यवस्था है।

भारत में जाति की सबसे सामान्य निर्धारित विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

  • जाति का निर्धारण जन्म से होता है। इसका चयन या त्याग अथवा इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। हालांकि, एक व्यक्ति को जाति से निष्कासित किया जा सकता है।
  • जाति समूह सजातीय होतें हैं और इसमें विवाह, भोजन और भोजन साझा करने के संबंध में अत्यंत सख्त नियम सम्मिलित होते हैं।
  • जाति व्यवस्था की प्रकृति अधिक्रम आधारित होती है। इस अधिक्रम में ब्राह्मणों को सर्वोच्च दर्जा दिया प्राप्त है जबकि शूद्र सबसे नीचे होते हैं।
  • एक विशिष्ट व्यवसाय को केवल इससे संबंधित जाति के लोगों द्वारा ही किया जा सकता है। दूसरी जातियों के सदस्यों द्वारा इस व्यवसाय में सम्मिलित नहीं हुआ जा सकता हैं।
  • जाति व्यवस्था शुद्धता (शुचिता) और अशुद्धता (अशुचिता) के विचार से भी संबद्ध है। जिन्हें पारम्परिक रूप से शुद्ध माना जाता है उन्हें अधिक्रम में उच्च दर्जा प्राप्त होता है और जिन्हे कम शुद्ध अथवा अशुद्ध माना जाता है उन्हें निम्न दर्जा प्राप्त होता है।
  • पारम्परिक संदर्भ में जातियां एक-दूसरे के लिए असमान ही नहीं हैं, बल्कि पूरक और गैर-प्रतिस्पर्धी समूह भी हैं।

भारत में विद्यमान जाति व्यवस्था औपनिवेशिक काल और स्वतंत्रता के पश्चात् दोनों अवधि में हुए परिवर्तनो की साक्षी रही है:

औपनिवेशिक काल का प्रभाव: कुछ विद्वानों का तर्क है कि आज हम जिसे जाति के रूप में जानते हैं वह प्राचीन भारतीय परंपरा की तुलना में उपनिवेशवाद की ही अधिक देन है, क्योंकि:

  • ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा भारतीयों के ‘रीति-रिवाज और शिष्टाचार’ को समझने के लिए किए गए व्यापक सर्वे(विशेष रूप से 1901 की जनगणना) ने जाति आधारित सामाजिक धारणाओं पर एक वृहद प्रभाव डाला। सामाजिक क्रम में अपनी जाति को उच्च स्थान दिलाने के लिए कई याचिकाएं भेजी गईं। एक बार जब जाति पहचानों को अभिलिखित और दर्ज किए जाने की शुरुआत हो गयी तो उसके पश्चात् जाति व्यवस्था अधिक दृढ हो गई।
  • भू राजस्व बंदोबस्त और संबंधित कानूनों ने उच्च जातियों के पारंपरिक (जाति-आधारित) अधिकारों को विधिक मान्यता दी। एक विशेष क्षेत्र में लोगों को बसाने वाली कल्याण योजनाओं में जाति आधारित आयाम सम्मिलित होते थे।
  • भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा ‘अनुसूचित जाति’ पद को विधिक मान्यता दी गयी।

स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में इस संदर्भ में हुए परिवर्तन

  • भारतीय संविधान द्वारा अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया और जाति, लिंग, मूलवंश इत्यादि के विपरीत सभी वर्गों के
  • लोगों हेतु सभी व्यावसायिक गतिविधियों को खोल दिया गया है।
  • भूमि सुधार और ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन ने कृषि अर्थव्यवस्था में जाति अधिक्रम के प्रभाव को कम किया है।
  • यद्यपि जाति असमानताओं को दूर करने के लिए उग्र सुधार नहीं किए गए थे, किन्तु बाद में सकारात्मक कार्रवाई को अपनाया गया।
  • आधुनिक उद्योगों के सृजन के कारण जाति व्यवस्था के बंधनों में कमी आयी। शहरीकरण और शहरों में सामूहिक रहन-सहन की शर्तों ने अस्तित्व के लिए सामाजिक अंतरसंबद्धता के जाति-पृथक पैटर्न के लिए कठिनाई उत्पन्न की।

Read More

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.