भारत में अधीनस्थ विधान की संक्षेप में व्याख्या : अधीनस्थ विधान की आलोचनाओं तथा इसकी समीक्षा की आवश्यकता

प्रश्न: भारत में अधीनस्थ विधान की अवधारणा की व्याख्या कीजिए। साथ ही उनकी जांच और नियंत्रण की क्रियाविधियों की भी चर्चा कीजिए।

दृष्टिकोण

  • भारत में अधीनस्थ विधान की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
  • अधीनस्थ विधान की आलोचनाओं तथा इसकी समीक्षा की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।
  • परीक्षण (scrutiny) और नियन्त्रण की क्रियाविधियों {संसदीय जांच (चर्चा, प्रश्नकाल, प्रस्ताव और समितियाँ); न्यायिक निर्वचन और जन परामर्श} की चर्चा कीजिए।
  • कानून निर्माण में संसदीय प्रधानता के साथ अधीनस्थ विधान में सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता के साथ समापन कीजिए।

उत्तर

अधीनस्थ विधान एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कार्यपालिका को प्राथमिक विधान के माध्यम से विधि निर्माण की शक्तियाँ दी जाती हैं ताकि उस प्राथमिक कानून की आवश्यकताओं को कार्यान्वित और प्रशासित किया जा सके। ऐसा कानून, विधायिका के अतिरिक्त किसी व्यक्ति या निकाय द्वारा (जिसकी प्राधिकारिता विधायिका के समान ही हो) बनाया गया कानून होता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(3) में अधीनस्थ विधान की परिभाषा में आदेश, नियम, विनियम, अधिसूचना इत्यादि सम्मिलित हैं।

अधीनस्थ विधान की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न होती है:

  • कार्य के अत्यधिक बोझ के कारण संसद के पास समय की सीमित उपलब्धता।’
  • बढती जटिलता के कारण विशेषज्ञों के ज्ञान और अनुभव की आवश्यकता।
  • उन परिस्थतियों को समाहित करने की आवश्यकता जिनका पूर्वानुमान संसद द्वारा न लगाया हो।
  • आपातकालीन परिस्थितियों से निपटने में लचीलापन।

हालाँकि, अधीनस्थ विधान की अवधारणा को शक्तियों के पृथक्करण को कमजोर करने, अनिर्वाचित लोगों द्वारा कानून निर्माण, प्रचार की कमी इत्यादि आधारों पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है।

इस प्रकार, प्रत्यायोजित कानून के परीक्षण (जाँच) और नियन्त्रण हेतु विभिन्न क्रियाविधियां विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए:

  • संसदीय परीक्षण और नियन्त्रण: यह विभिन्न स्तरों पर होता है, जैसे:अधिनियम पर चर्चा के दौरान, सम्बन्धित विभागीय स्थायी समिति प्रत्यायोजित विधान के गुंजाईश (scope) की अनुशंसा कर सकती है।
  • नियमों पर चर्चा हेतु वैधानिक प्रस्ताव: नियमों को सदन के पटल पर रखे जाने के पश्चात, सांसद नियमों के निरसन या संशोधन की मांग वाला एक वैधानिक प्रस्ताव ला सकते हैं।
  • प्रश्न काल अधीनस्थ विधान पर समिति: अधीनस्थ विधान पर दोनों सदनों की अपनी एक-एक स्थायी समिति है जो निरीक्षण करती है कि सरकार, संसद द्वारा प्रदत्त शक्ति का समुचित उपयोग कर रही है अथवा नहीं।
  • प्रत्येक प्रत्यायोजित विधान को निर्धारित समय सीमा में संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए।
  • सार्वजनिक परामर्श: कुछ अधिनियमों को अनिवार्य रूप से पूर्व-प्रकाशित करना और उनके प्रारूप नियमों पर परामर्श करता आवश्यक होता है जबकि अन्य में सरकार अपने विवेकाधिकार का उपयोग कर प्रारूप नियमों पर टिप्पणियाँ आमंत्रित कर सकती है।
  • न्यायिक संवीक्षा और नियन्त्रण: भारत के संविधान के उल्लंघन या सक्षमकारी (enabling) अधिनियम के उल्लंघन के आधार पर प्रत्यायोजित विधान को अवैध घोषित किया जा सकता है।

भारत में प्रत्यायोजित विधान में घातांकीय (exponential) वृद्धि देखने को मिली है। अत: विद्यमान तंत्रों को सुदृढ़ करने के अतिरिक्त, इनके निर्माण और प्रकाशन के एकसमान नियम उपलब्ध करवाने हेतु ब्रिटेन के ‘स्टैट्यूटरी इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट’ जैसे एक पृथक कानून पर विचार किया जा सकता है। इसके साथ ही प्रत्यायोजित विधान की निगरानी को अधिक प्रभावी बनाने व संसदीय नियन्त्रण के लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों के अनुरूप चलने के उद्देश्य से संसद की समितियों के पूरक के तौर पर एक विशेषज्ञ निकाय का गठन किया जा सकता है।

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