भारत की बढ़ती जल आवश्यकता : प्रभावी जल-कूटनीति
प्रश्न: भारत को अपनी बढ़ती जल आवश्यकताओं और व्यापक सुरक्षा चिंताओं को प्रभावी जल-कूटनीति के माध्यम से संतुलित करने की आवश्यकता है। सीमापारीय नदियों से संबंधित सामना की जाने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालते हुए, अपने पड़ोसियों के साथ भारत के नदी-जल संबंधों के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए।
दृष्टिकोण
- जल-कूटनीति को परिभाषित कीजिए और सीमापारीय नदियों के संदर्भ में भारत के समक्ष व्याप्त चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
- भारत जल कूटनीति के माध्यम से बढ़ती जल आवश्यकताओं और सुरक्षा संबंधी चिंताओं को किस प्रकार संतुलित करता है, व्याख्या कीजिए।
- जल-कूटनीति के महत्व का संक्षिप्त वर्णन करते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर
जल-कूटनीति जल संसाधनों को साझा करने वाले देशों के मध्य क्षेत्रीय सहयोग को सुदृढ़ करते हुए राष्ट्रीय संप्रभुता संबंधित हितों को संतुलित करने के लिए राष्ट्रों का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि 2030 तक, भारत में जल की माँग लगभग 740 बिलियन घनमीटर से बढ़कर लगभग 1.5 ट्रिलियन घनमीटर तक हो जाएगी, जिसके लिए भारत को अपनी कुशल जल-कूटनीति का उपयोग करके अपनी आवश्यकताओं का प्रबंधन करना अनिवार्य है।
सीमापारीय नदियों के संदर्भ में चुनौतियां
- बांग्लादेश के साथ: यद्यपि भारत और बांग्लादेश ने 1996 में गंगा जल संधि पर हस्ताक्षर किए थे, किन्तु तीस्ता नदी से संबंधित संधि अभी भी विवादास्पद बनी हुई है। इसके अतिरिक्त, बांग्लादेश में भारत की नदी जोड़ो परियोजना और उत्तर-पूर्व में तिपाईमुख बांध के निर्माण के संदर्भ में भी आशंका विद्यमान है।
- पाकिस्तान के साथ: भारत और पाकिस्तान के बीच कोई भी सैन्य या राजनयिक तनाव में वृद्धि 1960 की सिंधु जल संधि (IWT) को केंद्र बिंदु बनाती है। कई विशेषज्ञों ने इस संधि पर पुनः वार्ता आयोजित करने की आवश्यकता पर बल दिया है।
- नेपाल के साथ: 1954 के कोसी समझौते के पश्चात, दोनों पक्षों ने जल अधिकारों से संबंधित मुद्दों का समाधान नहीं किया है। इस उपेक्षा के परिणामस्वरूप 2008 में आयी बाढ़ के कारण 2.3 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हुए। पंचेश्वर जैसी कई प्रमुख परियोजनाएं दशकों से लंबित है।
- चीन के साथ: ब्रह्मपुत्र (यारलुंग त्सांगपो) नदी पर चीन द्वारा बांध-निर्माण एवं जल विभाजन योजना भारत और बांग्लादेश के मध्य तनाव का एक प्रमुख कारण है। भारत और चीन के मध्य कोई नदी जल संधि नहीं की गई है और जलविद्युत आंकड़ों के साझाकरण पर किया गया समझौता भी सीमित है।
जल की आवश्यकताओं और सुरक्षा संबंधी चिंताओं को पुनर्संतुलित करना
- एक अनुमान के अनुसार भारत (जो पहले से ही जल संबंधी तनावों का सामना कर रहा है) 2025 तक जल की अत्यधिक कमी से ग्रस्त हो जाएगा।
- इस उपमहाद्वीप में, जनसंख्या वृद्धि एवं अत्यधिक विकास ने गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना (GBM) और सिंधु बेसिन पर संघर्ष की संभावित चुनौतियों के दबाव को बढ़ा दिया है।
- आंतरिक रूप से, जल बंटवारे के मुद्दों ने तनाव और हिंसा को बढ़ावा दिया है। इस प्रकार, जल भी आंतरिक सुरक्षा चुनौती के रूप में स्थापित होता जा रहा है। तीस्ता संबंधी मामला पड़ोसी देशों के साथ जल संबंधों पर भारत की संघीय राजनीति के तहत सुभेद्यताओं का एक उदाहरण है।
- भारत प्रत्येक वर्ष पाकिस्तान को 5,900 tmcft जल की आपूर्ति करता रहा है। यह तर्क दिया जा रहा है कि यह जम्मू और कश्मीर के हितों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान, सिंधु जल संधि के प्रावधानों के आलोक में भारत द्वारा पश्चिमी नदियों पर परिचालित परियोजनाओं पर आपत्ति दर्ज कराता रहा है जिससे संधि पर वार्ता को पुन: प्रारंभ करने की मांग बढ़ गयी है।
- ब्रह्मपुत्र नदी की ऊपरी धारा के उपयोग पर चीन के आक्रामक रूख के कारण दोनो राष्ट्रों के मध्य तनाव उत्पन्न होने के साथ विश्वास में भी कमी आई है।
- इसी प्रकार, विशेषज्ञों का तर्क है कि 2008 में बिहार में आई बाढ़ की भयावहता नेपाली प्रशासन के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण उत्पन्न हुई थी।
आगे की राह
- ब्रह्मपुत्र नदी के संदर्भ में चीन के साथ एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इसमें वर्ष पर्यंत आंकड़ों के साझाकरण और नदी जल संधि की संभाव्यता सहित वर्तमान समझौतों का विस्तार सम्मिलित है।
- नेपाल के साथ विद्यमान जल संबंधित मुद्दों से निपटने के लिए भूटान के आदर्शों का प्रयोग किया जा सकता है। भारत और भूटान, उत्पादित होने वाली विद्युत् के लिए बाजार सुनिश्चित करने हेतु जल विद्युत उत्पादन और ग्रिड कनेक्टिविटी में पारस्परिक रूप से लाभप्रद साझेदारी करने में सक्षम रहे हैं। वृहत जल विद्युत क्षमता के बावजूद नेपाल, भारत से विद्युत् की खरीद करता है।
- भूटान और बांग्लादेश जैसे मैत्रीपूर्ण देशों के साथ मिलकर संयुक्त नदी बेसिन प्रबंधन की एक भविष्योन्मुखी किन्तु पारिस्थितिकीय रूप से अनुकूल योजना पर विचार किया जा सकता है।
- बांग्लादेश, भूटान, इंडिया, नेपाल (BBIN) फ्रेमवर्क, जिसमें जल सहयोग का मुद्दा सम्मिलित है, को सुदृढ़ बनाया जाना चाहिए।
- सिंधु जल समझौते (IWT) के भीतर भारत को जल के अपने हिस्से का प्रयोग करने हेतु सभी विकल्पों का उपयोग करने की आवश्यकता है।
- इस सन्दर्भ में बहुपक्षीय संस्थानों के साथ जल कूटनीतिज्ञों की भूमिका तो है ही, परन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण संसाधन अर्थात जल से सम्बंधित मुद्दों पर सहयोग हेतु इन देशों के सभी हितधारकों को एक साथ लाने में स्थानीय एवं अंतर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संगठनों की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- भारत को संयुक्त राष्ट्र, गूगल और यूरोपीय आयोग द्वारा निर्मित नए जल डेटा साझाकरण मंच का उपयोग करना चाहिए जो विश्व के जल निकायों की निगरानी करेगा और सतत विकास लक्ष्यों के लक्ष्य-6 को प्राप्त करने में सहायता करेगा।
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