भारत में भू-उपयोग की विभिन्न श्रेणियों का संक्षिप्त परिचय
प्रशन: भारत में भू-उपयोग में परिवर्तन का विवरण देते हुए, विगत कुछ दशकों में इसके लिए उत्तरदायी विभिन्न कारकों का उल्लेख कीजिए। साथ ही, भू-उपयोग पैटर्न में हो रहे परिवर्तनों के परिणामों की भी चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण:
- भारत में भू-उपयोग की विभिन्न श्रेणियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- इसके पश्चात विगत कुछ दशकों में भू-उपयोग में आए परिवर्तनों का एक संक्षिप्त विवरण दीजिए।
- भू-उपयोग में परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी विभिन्न कारकों को स्पष्ट कीजिए।
- भू-उपयोग पैटर्न में हो रहे परिवर्तनों के परिणामों की भी चर्चा कीजिए।
उत्तरः
देश का कुल प्रभावी अथवा अभिलेखित क्षेत्र 328.7 मिलियन हेक्टेयर है, जिसे निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किया गया हैवनों के अधीन क्षेत्र, गैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त भूमि, बंजर व व्यर्थ-भूमि, स्थायी चरागाह क्षेत्र तथा चरागाह भूमि के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र, विविध तरु फसलों व उपवनों के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र, कृषि-योग्य व्यर्थ भूमि, वर्तमान परती भूमि, पुरातन परती भूमि तथा निवल बोया गया क्षेत्र।
पिछले चार-पांच दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव आए हैं, जिन्होंने देश के भू-उपयोग परिवर्तनों को प्रभावित किया है।
- वर्ष 2017-18 में वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है और वनावरण 24 प्रतिशत हो गया है।
- विगत कुछ समय में भारत के निवल बोए गए क्षेत्र में वृद्धि देखी गई है।
- इसी प्रकार, गैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त भूमि तथा वर्तमान परती भूमि के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में भी वृद्धि हुई है।
- बंजर, व्यर्थ-भूमि व कृषि-योग्य व्यर्थ भूमि, स्थायी चरागाह क्षेत्र और तरु फसलों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों में गिरावट आई है।
भू-उपयोग पैटर्न में परिवर्तन के लिए उत्तरदायी विभिन्न कारक:
- भारतीय अर्थव्यवस्था की परिवर्तित संरचना के कारण उद्योग और सेवा क्षेत्र पर निर्भरता में वृद्धि हो रही है तथा गांवों एवं शहरी बस्तियों के क्षेत्र में भी वृद्धि हुई है। इसके कारण गैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त भूमि का प्रसार हुआ है जो कि कृषि-योग्य परन्तु व्यर्थ भूमि तथा कृषि भूमि की हानि पर हुआ है।
- वनों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में वृद्धि वन संरक्षण प्रयासों के साथ ही वनों के अंतर्गत सीमांकित क्षेत्र में वृद्धि के कारण भी हो सकती है।
- जनसंख्या में वृद्धि के कारण भूमि पर दबाव बढ़ता है जिससे भूमि का विखंडन होता है। इस प्रकार यह सुविधा व आजीविका के अनुसार भूमि उपयोग पैटर्न में परिवर्तन के लिए बाध्य करती है।
- चारागाह एवं चराई भूमि में कमी के कारण कृषि-योग्य भूमि पर दबाव बढ़ा है। सार्वजनिक चरागाह भूमियों पर गैरक़ानूनी तरीके से कृषि विस्तार से ही इनके क्षेत्र में कमी आई है।
- बढ़ते निवल बोए गए क्षेत्र के संदर्भ में कृषियोग्य भूमि के उपयोग में परिवर्तन हरित क्रांति की सफलता वाले क्षेत्रों में उल्लेखनीय रहा है।
भू-उपयोग पैटर्न में हो रहे परिवर्तनों के परिणाम:
भू-उपयोग पैटर्न में हो रहे परिवर्तन इसके निकटवर्ती क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों में भी विभिन्न परिवर्तन लाते हैं, जो लोगों की आजीविका पर सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों प्रकार के प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। उदाहरण के लिए:
- गैर-कृषियोग्य क्षेत्रों में श्रम के लिए प्रतिस्पर्धा से किसानों की श्रम लागत में वृद्धि हो सकती है। किन्तु, यह किसानों को नए अवसर भी प्रदान कर सकता है क्योंकि अब उन्हें उच्च मूल्य की फसल का विक्रय करने के लिए नए उपभोक्ता भी प्राप्त हो सकते हैं।
- शहरी व ग्रामीण बस्तियों में निरंतर वृद्धि होने के कारण भू-सतह को पक्का (Concretization) किया जा रहा है जिससे भूजल के पुनर्भरण में कमी आ रही है, परिणामस्वरूप शहरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में गंभीर जल अभाव की समस्या उत्पन्न हो रही है।
- भू-उपयोग पैटर्न में होने वाले परिवर्तन उस क्षेत्र में अत्यधिक मौसम परिवर्तनशीलता का कारण बन रहे हैं। उदाहरण के लिए, NCR क्षेत्र में ऊष्मा द्वीपों (heat islands) का निर्माण हो रहा है।
- इसके अतिरिक्त, यदि भू-उपयोग में परिवर्तन बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाओं के कारण होता है, तो इससे लाखों लोगों का विस्थापन भी होता है, जो उनके स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक जीवन पर एक स्थायी प्रभाव उत्पन्न करता है।
- भू-उपयोग पैटर्न में परिवर्तन आने से उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, हरित क्रांति के दौरान उर्वरकों तथा कीटनाशकों का अधिक उपयोग करने के कारण भूमि क्षरण, वन्य भूमि पर अतिक्रमण के कारण मानव-पशु संघर्ष में वृद्धि हुई है।
- इसके अतिरिक्त, भू-उपयोग पैटर्न में हुए परिवर्तन शहरी बाढ़, भूस्खलन, सूखा इत्यादि जैसी आपदाओं में वृद्धि का कारण भी बन रहे हैं।
इस प्रकार, भू-उपयोग पैटर्न समाज के सामाजिक-आर्थिक एवं पर्यावरणीय पहलुओं को प्रभावित करते हैं, अत: इन्हें नीतिनिर्माण प्रक्रिया के दौरान सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए।