औपनिवेशिक भारत: सांप्रदायिक चेतना का उदय
प्रश्न: सांप्रदायिक चेतना का उदय औपनिवेशिक भारत के सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक रूपांतरण के परिणामस्वरूप हुआ। परीक्षण कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारतीय संदर्भ में सांप्रदायिक चेतना को संक्षेप में परिभाषित कीजिए।
- इसके पश्चात रेखांकित कीजिए कि इसका आधार किस प्रकार सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक है।
- इस संबंध में उपनिवेशवाद के योगदान पर चर्चा कीजिए।
उत्तर
- सांप्रदायिकता का आशय इस धारणा से है कि जो लोग एक ही धर्म का पालन करते हैं उनके राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक हित समान होते हैं तथा ये हित दूसरे धर्म के अनुयायियों के हितों से भिन्न होते हैं।
- भारत में सांप्रदायिक चेतना का उदय एक आधुनिक परिघटना थी, विशेष रूप से 1857 के पश्चात जब जन-भागीदारी और लामबंदी की राजनीति का उदय हुआ। यह चेतना उपनिवेशवाद के तहत भारतीय समाज के परिवर्तन और इसके विरुद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई।
औपनिवेशिक सामाजिक-राजनीतिक रूपांतरण में सांप्रदायिक चेतना का आधार
- 1905 में बंगाल विभाजन, भारत सरकार अधिनियम, 1909 के अंतर्गत पृथक निर्वाचन की व्यवस्था, 1932 के सांप्रदायिक पंचाट (कम्युनल अवार्ड) आदि में अभिव्यक्त बांटो एवं राज करो की नीति। ब्रिटिश सरकार द्वारा साम्प्रदायिक प्रेस एवं व्यक्तियों और आंदोलनों के प्रति असाधारण सहिष्णुता का परिचय मात्र इसलिए दिया गया ताकि भारतीयों में राष्ट्रवाद की एक साझा एकता की भावना के उदय को रोका जा सके।
- धर्मों में पुनरुत्थानवाद का उदय: भारत में आधुनिक शिक्षा के आरंभ के परिणामस्वरूप सुधार आंदोलनों का उदय हुआ। हालांकि, इसने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में पुनरुत्थानवादी आंदोलनों को भी प्रेरित किया। उदाहरण के लिए सभी गैर-मुस्लिमों के विरुद्ध वहाबी धर्मयुद्ध का प्रसार तथा दार-उल-इस्लाम की स्थापना का उद्देश्य हिंदुओं के लिए उतना ही घृणास्पद था जितना कि दयानंद के शुद्धि आंदोलन का उद्देश्य मुस्लिमों के लिए अरुचिकर था।
भारतीय अर्थव्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप में सांप्रदायिक चेतना का आधार
- सांप्रदायिकता औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत भारतीय अर्थव्यवस्था के अल्प-विकास का एक उप-उत्पाद थी। आधुनिक औद्योगिक विकास के अभाव तथा स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्र के अल्प विकास के कारण उत्पन्न आर्थिक गतिहीनता ने अत्यधिक बेरोजगारी उत्पन्न की। जिससे विशेष रूप से शिक्षित मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग प्रभावित हुए। इसने भारतीय समाज के भीतर विभाजन और प्रतिरोध के लिए एक सक्रिय आधार निर्मित किया।
- सरकारी नौकरियों में भागीदारी करने की अपनी क्षमता बढ़ाने हेतु मध्यम वर्ग ने भी सांप्रदायिक कार्ड का उपयोग किया। इसने सांप्रदायिक राजनीति की वैधता को एक निश्चित आधार प्रदान किया।
- जैसे-जैसे कृषि का विकास स्थिर हुआ, ग्रामीण युवाओं ने सरकारी नौकरी तथा व्यवसाय हेतु शहर की ओर प्रस्थान किया। इस स्थानांतरण ने ग्रामीण कृषकों के उच्च वर्ग और जमींदारों को शामिल करते हुए सांप्रदायिकता के सामाजिक आधार को विस्तृत किया।
हालांकि, सांप्रदायिक चेतना केवल औपनिवेशिक शासन की उपज नहीं थी। वे इसका उपयोग तब तक नहीं कर सकते थे जब तक कि उन्हें समाज के भीतर किसी प्रकार की दरार नहीं मिलती। वास्तव में, राष्ट्रवादियों ने अपने प्रचार में सशक्त हिंदू धार्मिक तत्वों को महत्त्व प्रदान किया, जैसे- तिलक द्वारा शिवाजी और गणपति उत्सवों का प्रचार, अरबिंद घोष की भारत को माँ के रूप में तथा राष्ट्रवाद को धर्म के रूप में स्वीकार करने की अर्द्ध-रहस्यवादी अवधारणा आदि। वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टिकोण रखने के बावजूद सर सैयद अहमद खान जैसे लोगों ने भारतीय मुस्लिमों को एक ऐसे पृथक समुदाय के रूप में प्रस्तुत किया, जिनके हित अन्य लोगों से भिन्न थे।
मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसे संगठनों को विशिष्ट समुदायों के हितों के संरक्षण के लिए स्थापित किया गया था। 1937 के पश्चात लोगों को संगठित करने के लिए भी धर्म का उपयोग किया गया। इस प्रकार, भारत में सांप्रदायिकता औपनिवेशिक भारत के सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई, किन्तु यह भारतीय समाज के भीतर विद्यमान विभाजन का भी एक उप-उत्पाद थी।
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