कला तथा वास्तुकला (भारत 200 ई. पू. से 300 ई. तक)

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • ई.प. 200 से सन् ई. 300 के बीच की कला संबंधी गतिविधियों और वास्तकला से संबंधित कार्यकलापों के बारे में जान सकेंगे,
  • वास्तुकला और मूर्तिकला में अपनायी जाने वाली तकनीकों और तरीकों को रेखांकित कर सकेंगे,
  • गांधार, मथुरा और अमरावती कला केंद्रों की प्रमुख विशेषताओं और स्वरूपों में अंतर स्पष्ट कर सकेंगे, और
  • इस काल की कला तथा वास्तुकला पर धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों के प्रभाव पर प्रकाश डाल सकेंगे।

हमने पढ़ा है कि किस प्रकार विभिन्न कला-रूपों का जन्म और विकास हआ और किस प्रकार इनमें तत्कालीन संस्कति प्रतिबिंबित हई है। ऐसी कलाकतियों की संख्या काफी है, जिसमें आम आदमी की प्रतिदिन की जिंदगी प्रतिबिंबित हुई है, ये कलाकृतियाँ समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। ये कलाकृतियाँ शिला चित्र, मिट्टी की मर्तियों और खिलौनों के रूप में उपलब्ध है। धीरे-धीरे विशेषज्ञों द्वारा तैयार की जाने वाली कलाकृतियाँ एक खास उद्देश्य के तहत बनायी जाने लगीं। मौर्यकाल में राज्य-संरक्षण में कई । प्रकार की कलाओं को प्रोत्साहित किया गया। ऐसे नये सामाजिक वर्गों के उदय से, जो कला को संरक्षण दे सकते थे, कला संबंधी गतिविधियों में नये तत्वों का समावेश हुआ।

मौर्योत्तर काल में विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा कला को संरक्षण दिए जाने के कारण इसका विस्तार भारत और उसके बाहर भी हुआ, अब यह केवल राज्य के अधीनस्थ नहीं रही। मौर्यकाल के पश्चात् एक और परिवर्तन आया : पत्थर जैसी न टूटने वाली सामग्री को कलात्मक अभिव्यक्ति का आधार बनाया गया। इस काल में भारत से बाहर के कला रूपों और यहाँ के कला-रूपों के बीच आदान प्रदान हुआ। कई कला-केंद्रों का जन्म हुआ। इस इकाई में गांधार और मथा कला रूप की प्रमुख पिशेषताओं पर विचार करेंगे। इस संदर्भ में सारनाथ और अमरावती की भी चर्चा की जाएगी। अधिकांश कला-रूप बौद्ध और जैन धर्म से प्रभावित हैं, कुछ ब्राह्मण धर्म का प्रभाव ग्रहण किए हए हैं। इसके अतिरिक्त इस इकाई में विभिन्न स्तपों, विहारों और गफाओं आदि की वास्तुकला और मूर्तिकला संबंधी विशेषताओं पर प्रकाश डाला जाएगा।

पृष्ठभूमि

मौर्यकाल में वास्तकला और मर्तिकला विकसित अवस्था तक पहँच गयी थी। अशोक के स्तंभ, उन पर जानवरों की आकृतियाँ और खुदाई का काम, परिपक्व कला रूप का प्रमाण है। मौर्य काल की एक विशेषता यह थी कि इसमें पत्थर पर पालिश करके उसे चिकना बनाया जाता था, पत्थर की सतह पर इस प्रकार की शीशे जैसी चमक दूसरे किसी काल में देखने को नहीं मिलती। जानवर आकृतियों के अलावा दीदार गंज, पटना से यक्षिणी की मूर्ति मिली है, जो कला का सुंदर और उत्कृष्ट नमना है। इस शानदार कलाकृति से उस समय की औरतों के बाल संवारने के ढंग, आभूषण और वस्त्रों का पता चलता है। खुदाइयों से मौर्यकालीन बहुत सी मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं। यह इस बात का संकेत है कि कला कतियों का निर्माण राजकीय घराने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि जनता तक उनकी पहुँच थी। इसी कारण जब राजकीय कला का ह्रास हुआ और नये कलारूप सामने आये तब भी मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण होता रहा।

जहाँ तक वास्तुकला का संबंध है, हम मेगस्थनीज के वर्णन से चंद्रगप्त के लकड़ी के महल की सचना पाते हैं। पाटलिपत्र में हई खदाई से लकड़ी की दीवारें और खंभे मिले हैं। बौद्ध ग्रंथों और फाहयान हवैन सांग के वर्णन से यह पता चलता है कि मौर्यकाल में स्तूपों का भी निर्माण हुआ था। यह हो सकता है कि सांची, सारनाथ, तक्षशिला और भारत जैसे धार्मिक केंद्रों में स्तूपों का निर्माण कार्य मौर्यकाल में ही शुरू हुआ हो और बाद के वर्षों में उनका विस्तार किया गया हो।

ई.पू. 200 से सन् ई. 300 के बीच की कला की निम्नलिखित विशेषताएँ थी :

  • कला संबंधी गतिविधियों का संबंध धर्म से था और कलाकृतियों में धर्म परिलक्षित होता था।
  • इस काल में बुद्ध की मूर्ति बनायी जाने लगी, इसके पहले बोधि वृक्ष स्तूप, चरण-चिह्न आदि के रूप में ही उनकी पजा की जाती थी। अन्य धर्मों में भी मर्ति पजा का प्रचलन तेजी से बढ़ा।
  • स्तूपों, चैत्यों और विहारों के निर्माण को लोकप्रियता मिली।
  • कलाकृतियों में, किसी एक ही धर्म का प्रतिबिंबन नहीं होता था। उदाहरण के लिए भरहूत और सांची स्तपों में केवल बद्ध के जीवन की झांकी ही नहीं अंकित है, बल्कि यक्ष, यक्षिणी, नाग और अन्य लोक प्रिय देवताओं के चित्र भी अंकित हैं।
  • इसी प्रकार, स्तूपों को सजाने के लिए प्राकृतिक दृश्य भी अंकित किए जाते थे। वस्तुतः यह “सेक्यूलर” कला रूप का उदाहरण है।
  • दूसरी संस्कृतियों से आदान-प्रदान के कारण इस काल की कलाकृतियों में गैर भारतीय कला की छाप भी मिलती है। खास तौर पर यह बात गांधार कला के लिए सटीक है, जिसके अंतर्गत एक क्षेत्र विशेष की कला सामने आई और इसने कई विभिन्न तत्वों को आत्मसात किया।

आइए, विस्तार से इस काल की कला और वास्तुकला के विभिन्न पक्षों पर विचार करें।

वास्तुकला

इस काल की वास्तकला को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है :

  • रिहायशी मकान/आवासीय संरचना
  • धार्मिक स्मारक

रिहायशी मकान के अवशेष काफी कम मात्रा में पाये जाते हैं, क्योंकि आरंभिक दौर में उनका निर्माण लकड़ी जैसी नष्ट होने वाली सामग्री से होता था। खुदाई के दौरान दूसरी श्रेणी के कई स्मारकों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

रिहायशी वास्तुकला

हमने साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों के आधार पर नगरीय जीवन के बारे में विचार विमर्श किया है। इस काल के बारे में भी हमें इसी प्रकार की सूचनाएँ मिलती हैं। उदाहरण के लिए मिलिन्द पण्ह में खंदक, चहारदीवारी, प्रवेश द्वार, बुर्ज, सुनियोजित गलियों, बाजारों, बागों और मंदिरों से युक्त एक नगर का उल्लेख मिला है। ऐसी बहमंजिली इमारतों का भी जिक्र किया गया है. जिसमें रेलिंग से घिरी खुली छत और बरामदे बने हुए थे, ये ज्यादातर लकड़ी के बने थे। इन वर्णनों की एक हद तक परातात्विक स्रोतों से पष्टि कर ली गयी है। देहातों में वास्तकला के तरीकों या झोपड़ियों के आकार-प्रकार में कोई विशेष बदलाव आने की सूचना नहीं मिलती है।

मंदिर और बुर्ज

उत्खनन से इस काल के मंदिर की संरचना का अपर्याप्त ब्यौरा ही प्राप्त हुआ है। इस काल के आरंभिक मंदिर निम्नलिखित हैं :

  • झंडियाल (तक्षशिला) का मंदिर
  • नागरी (राजस्थान) का शंकरशान मंदिर 
  • बेसनगर (मध्यप्रदेश) का भगवती मंदिर
  • नागार्जुनकोंडा (आंध्र प्रदेश) का बहुकोणीय शिखर वाला मंदिर

फाहयान ने अपने वृतांत में पुरुषपुर (पेशावर) के बुर्ज का उल्लेख किया है। यह तेरह मंजिली भव्य इमारत थी, जिसमें लोहे का खंभा लगा था, इस खंभ से एक छतरी जुड़ी हुई थी। यह बर्ज कनिष्क-1 को समपित था।

वस्तुतः मंदिरों का निर्माण और पजा के लिए देवताओं की स्थापना जैसी गतिविधियाँ बाद के वर्षों में आरंभ हई। इस काल में बौद्ध स्तूप और अन्य धार्मिक इमारतें ही ज्यादा बनायी गयीं।

स्तूप

महत्वपूर्ण व्यक्तियों के अवशेषों को मिट्टी में दबाकर सुरक्षित रखने की प्रथा बहुत पुराने समय से चली आ रही थी। बौद्ध कला ने इस प्रथा को अपनाया और इस प्रकार के पनीत स्थलों के ऊपर बनी इमारतों को स्तूप कहा गया। बौद्ध स्रोतों के अनुसार बद्ध के अवशेषों को आठ भागों में बांट कर विभिन्न स्तूपों का निर्माण किया गया। अशोक के शासनकाल में इन स्थलों की फिर से खदाई हई और बद्ध के अवशेषों को फिर से कई भागों में बांटा गया और इस प्रकार कई नये स्तूप सामने आये। स्तप में पूजा-अर्चना आरंभ हुई, उसका अलंकरण बढ़ा और उनके निर्माण के लिए एक खास तरह की वास्तुकला विकसित हुई।

स्तूपों का आकार कटोरे या अर्द्ध वृत्ताकार गंबद जैसा होता था। ऊपरी हिस्सा समतल होता था। जिसे हर्मिक या ईश्वर का आवास स्थल माना जाता था। यहीं पर बुद्ध या किसी अन्य धार्मिक व्यक्तित्व के अवशेष सोने या चांदी के डिब्बे में रखे जाते थे। मध्य में एक लकड़ी का खंभा (यश्ती) लगा होता था जिसका निचला हिस्सा स्तप के ऊपरी हिस्से से जड़ा होता था। इस खंभे के ऊपर तीन छतरियां लगी हाती थी जो सम्मान, श्रद्धा और उदारता का प्रतीक मानी जाती थीं।

1.बोध गया (बिहार)

गया से पंद्रह किलोमीटर दूर बोध गया में बुद्ध ने बोधिसत्व की प्राप्ति की थी और यहीं अशोक ने बोधि मंड का निर्माण करवाया था। पर आज इस संरचना का कोई अवशेष उपलब्ध नहीं है। केवल शंग काल में बने कुछ पत्थरों के खंभे प्राप्त हुए हैं। उनकी स्थापत्यगत संरचना रतपों के पास बने खंभों से मिलती जुलती है। उनमें जातक कथाएँ चित्रित हैं।

2.सांची का स्तूप (मध्य प्रदेश)

मांची विदिशा (भिल्सा) से 14 किलोमीटर दूर है और यहां का स्तुप शायद भारत का सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें तीन स्तुप बने हैं, तीनों स्तपों के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार है। पर इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण वह महीन स्तप है, जिसका निर्माण अशोक के शासनकाल (250 ई.प.) में हुआ था। 150 ई.प. में ‘शंग शासन काल में इसका आकार दगना कर दिया गया। अशोक काल की ईटों को हटाकर पत्थर लगाया गया और इसके चारों ओर “वेदिका” का निर्माण किया गया। इसकी संदरता बढ़ाने के लिए, प्रत्येक दिशा में एक प्रवेश द्वार बनाया गया। दक्षिण द्वार पर स्तंभ स्थापत्यकार का एक वक्तव्य प्राप्त हुआ है, जिसके अनुसार यह प्रवेश द्वार राजा शतकर्णी ने धर्मार्थ दान दिया था और इसमें नक्काशी का काम हाथी दांत का काम करने वाले शिल्पकारों द्वारा किया गया था।

उत्तरी द्वार और इसके चौखटों पर जातक कथाएँ अंकित हैं। इसके अतिरिक्त सांची स्तप में निम्नलिखित चित्र बने हुए हैं

  • बुद्ध के जीवन से संबद्ध चार प्रमुख घटनाएँ-जन्म, बोधिसत्व की प्राप्ति, धर्मचक्र-प्रवर्तन और महापरिनिर्वाण
  • पक्षी और पशुओं जैसे शेर, हाथी, ऊँट, बैल आदि के चित्र काफी मात्रा में उपलब्ध हैं। इनमें – कुछ जानवरों पर सवार भारी कोट और बूट पहने चित्रित किए गये हैं।
  • दीवारों पर कमल और अंगूर के गुच्छों के सुंदर चित्रों द्वारा अंलकरण किया गया है।
  • जंगली जानवरों का चित्र इस प्रकार बनाया गया है मानो सारा जंगल बुद्ध का उपासक हो गया हो।

3.भारहुत स्तूप

यह स्तूप सतना (मध्य प्रदेश) से 21 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। मुख्य स्तूप का अब नामोनिशान नहीं है। इस स्तूप के प्रमुख अवशेष अब भारतीय संग्रहालय, कलकत्ता और अन्य संग्रहालयों में सरक्षित हैं। इसकी कछ प्रमख विशेषताएँ हैं :

  • प्रवेश द्वार या तोरण, जो लकड़ी का बना होता था, इसमें पत्थर की नक्काशी की जाती थी।
  • प्रवेश द्वार को छूती हुई रेलिंग। इसमें भी नक्काशी के तौर पर पत्थर लगाए जाते थे। भारहुत की पत्थर के रेलिंग की किनारी भारी पत्थर से निर्मित है।
  • इन रेलिंगों के अनुलंब भाग पर यक्ष, यक्षिणी और उन अन्य देवताओं को उत्कीर्ण किया गया है, जो बौद्ध धर्म के साथ जड़े हए थे। इनमें से कछ देवताओं का विवरण भी उत्कीर्ण है, जिससे इन्हें पहचानने में आसानी होती है। अन्य स्तुप रेलिंगों की तरह इसमें भी जातक कथाओं और इनमें जुड़े अन्य प्राकृतिक तत्वों को उत्कीर्ण किया गया है।

4.अमरावती

से 46 किलोमीटर दूर स्थित यह स्तूप सफेद संगमरमर से बना है। हालांकि स्तूप अब पूरी तरह नष्ट हो चका है, पर इसके नक्काशीदार चौखटे म्रदास और ब्रिटिश संग्रहालय में सरक्षित है। मूल रूप में यह स्तुप नगर-प्रमुख और जनता के सहयोग से बनाया गया था।

यह सुंदर स्तुप अपनी गोलाई में 42 मीटर और ऊँचाई में लगभग 29 मीटर था। इसमें एक वृत्ताकार प्रार्थना-पत्र था जो 10 मीटर ऊँचा था और पत्थर से बना हुआ था। वेदिका खंभों पर माला पहने देवताओं, बोधि वृक्ष, स्तूप, धर्म-चक्र और भगवान बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं से संबंधित चित्र उत्कीर्ण किए गए थे। स्तप के प्रवेश द्वार (तोरण) की वेदिका पर चार शेरों को चित्रांकित किया गया है।

स्तंभों के ऊपर कमल को भी उत्कीर्ण किया गया था। अमरावती स्तूप से कई प्रकार की मूर्तियाँ पाई गयी है। आरंभिक चरण में बद्ध का प्रतिनिधित्व प्रतीकों के माध्यम से होता था, पर प्रथम शताब्दी ई. से इन प्रतीकों के साथ बद्ध की प्रतिमा भी बनने लगी।

5.नागार्जुनकोंडा

नागार्जुनकोंडा का स्तूप उत्तर भारत के स्तूपों से थोड़ा भिन्न है। यहाँ केंद्र में और बाहर की तरफ दो वत्ताकार दीवारें थीं. ये दीवारें साइकिल की स्पोक जैसी दीवारों से जड़ी थी और बीच का स्थान मिट्टी, छोटे पत्थर या ईटों के छोटे टुकड़ों से भरा होता था। इस स्तूप की गोलाई 30 मीटर और ऊँचाई 18 मीटर थी। बाहर की तरफ इसके गुंबद को नक्काशीदार संगमरमर के पत्थरों से । अलंकृत किया गया था। गंबद की अर्ध गोलाकार छत को चने और गारे के काम से अलंकृत किया गया था।

इस स्तूप के महत्व का कारण इसकी सुंदर रेलिंग है, जिस पर बुद्ध के जीवन से संबंधित कथाएँ वर्णित हैं। इनमें से प्रमुख हैं :

  • पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए देवता बोधिसत्व से प्रार्थना करते हुए
  • सफेद हाथी के रूप में गर्भ में बद्ध का प्रवेश
  • सागौन के पुष्पित वृक्ष के नीचे बुद्ध का जन्म

6.तक्षशिला

तक्षशिला और उसके आसपास के इलाकों में हई खदाई से कई स्तुप प्राप्त हए हैं :

  • सर जान मार्शल ने तक्षशिला के चीर-तोपे स्तूप का उत्खनन किया है। इस स्तूप में गंबद का बाहरी हिस्मा पत्थर का बना था और बोधिसत्व के विभिन्न रूपों से अलंकृत था।
  • 1908 में हए उत्खनन से पेशावर के निकट शाह जी की ढेरी में एक स्तप था। स्तुप का निर्माण कनिष्क ने करवाया था और इसका जिक्र फाहयान ने भी किया है। इनकी वास्तकला गांधार कला का नमूना है। (गांधार कला पर हम आगे अलग से इस इकाई में विचार करेंगे)
  • झडियल से प्राप्त मतप स्कायथियन-पार्थियन शैली में बना हआ है। इसी के पास एक छोटी चांदी का पात्र मिला था, जिसमें सोना और कुछ हड्डियाँ रखी थीं।

इसी प्रकार, देश के कई हिस्सों में कई स्तप पाये गये हैं। मसलन, दो स्तप मथरा से प्राप्त हए हैं। वस्ततः इस काल में स्तुप कला की एक विशेष शैली का विकास हुआ। सबसे बड़ी बात यह है कि विभिन्न धर्मों के स्तपों में एक प्रकार की समानता है। इससे यह पता चलता है कि शिल्पकारों के बीच कला का आदान-प्रदान होता था और स्तप निर्माण में वे जगह-जगह की कलाओं का इस्तेमाल करते थे।

गुफा वास्तुकला

बौद्ध और जैन दोनों की पूजा-अर्चना के लिए चैत्यों और विहारों का निर्माण करते थे। चैत्य एक प्रकार का पूजा कक्ष था, जिसके केंद्र में एक स्तूप होता था। भिक्षओं के रहने के लिए पहाड़ियाँ काटकर बनायी गयी गुफाओं को विहार कहते थे।

इस काल के अधिकांश चैत्य और विहार पश्चिमी और पर्वी क्षेत्रों में बनाये गये थे। मसलन, पश्चिमी भारत में ये भज, कार्ले, कोंडन, नासिक, चिटाल्डो, अजंता और कन्हेरी में स्थित हैं। इसी प्रकार पूर्वी भारत में इस दृष्टि से उदयगिरि (उड़ीसा) उल्लेखनीय है। चैत्य की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  • इसमें एक लंबा आयताकार कक्ष होता है, जिसका अंतिम छोर अर्द्ध वृत्ताकार होता है।
  • यह कक्ष अंदर से मध्य भाग, एक बहुकोणीय शिखर और दो तरफा गलियारों में विभक्त होता है।
  • गलियारे और झरोखे के बीच स्तंभों की दो कतारें होती हैं।
  • उपासना स्तूप के चारों ओर स्तंभ होते थे और यह मध्य भाग के झरोखे जैसे भाग के केंद्र में स्थित होता था।
  • कक्ष की छत गोलाकार-गम्बजदार होती है।
  • प्रवेश द्वार प्रायः उपासना स्तप की सीध में होता है।
  • इसके अग्रभाग में घोड़े की नाल के आकार की एक खिड़की होती है, जिसे चैत्य खिड़की कहते हैं।

गुफा वास्तुकला का दूसरा नमूना विहार या मठ है, जिसमें जैन और बौद्ध भिक्षु रहा करते थे। पश्चिमी भारत की गफाओं की संरचना एक सी नहीं है। पूर्वी भारत में एक निश्चित योजना का पालन किया गया है। विहारों की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  • इसके केंद्र में एक चहभजाकार या अंडाकार कक्ष होता है।
  • कक्ष के सामने खंभों वाला एक आंगन होता है।
  • कई छोटी चहभजाकार कोठरियाँ भी मिलती हैं।
  • इन कोठरियों और कक्षों में बेंच लगा होता था जिसका उपयोग भिक्षु किया करते थे।

पश्चिमी भारत के आरंभिक विहार भज, बेदसा, अजंता, पीतलकोरा, नासिक और कार्ले में प्राप्त हए हैं। खारवेल के शासन काल में जैन भिक्षओं के लिए उदयगिरि और खंडगिरि में विहार खुदवाये गये थे। दो हिस्सों में 35 गुफाएँ खोदी गयी थीं। किसी में एक कोठरी है और कई गुफाओं में अनेक कोठरियाँ हैं। इनमें एक खुला आँगन भी मिलता है। अंदरूनी हिस्सों के प्रवेश द्वार अर्द्ध वृत्ताकार मेहराबों से आच्छादित हैं। उदयगिरि की पहाड़ियों में निर्मित दुमंजिली रानीगुम्फा गुफा सभी गुफाओं में सबसे विशाल है।

मर्ति कला

मूर्ति कला को स्थापत्य कला से अलग करके नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि स्तूप और चैत्य जैसी कलात्मक संरचनाओं का निर्माण दोनों के योग से ही होता है। किसी भी मूर्ति की स्थापना बिहारों या अन्य धार्मिक स्थलों पर ही होती थी। इस काल में, हमें मूर्ति कला के क्षेत्र में क्षत्रीय या स्थानीय शैलियाँ और केंद्र देखने को मिलते हैं। उत्तर में गांधार और मथग केंद्र विकसित हा. जबकि दक्षिण में निचली कृष्ण-गोदावरी घाटी में अमगवती प्रमख आरंभिक केंद्र था।

समग्र रूप में, मौर्योत्तर काल की कला आरंभिक शाही मौर्य कला से अलग है। मौर्य कला को शाही कला कह सकते हैं, जबकि शंग कण्व शासन कला की कला का सामाजिक आधार अधिक व्यापक है। इसके मलभाव, तकनीक और महत्व में भी अंतर है।

इस युग की मूर्ति कला बुद्ध की मूर्ति और रेलिंगों पर उभरी हयी खोद कर बनायी गयी नक्काशी, प्रवेश द्वार, स्तपों के आधारों, तोरणों और विहारों और चत्यों की दीवारों पर उभारदार नक्काशी में प्रतिबिंबित होती है। इस काल में ब्राह्मण धर्म से संबोधत मतियाँ कम ही बनाई गयीं। इस । कला में मथरा और गांधार कला-केंद्रों में बद्ध की प्रतिमा बनाने का चलन शुरू हुआ। बौद्ध और जैन धर्म की देखादेखी ब्राहमण धर्म में भी कई देवी देवताओं की मूर्तियाँ बनाई जाने लगीं।

रेलिंगों पर चित्र उत्कीर्ण करने के अलावा गोलाकार आधार पर भी चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे। ये चित्र आकार में बड़े और सुस्पष्ट हैं। इसके बावजूद वे सही गणितीय अनुपात में नहीं बने हुए हैं। इस श्रेणी में यक्ष और यक्षिणी की मूर्तिणं सबसे ज्यादा उत्कीर्ण की गयीं। इनमें सर्वप्रमुख दीदारगंज (पटना) से प्राप्त यक्षिणी जी की मूर्ति है।

शुंग काल से जैन धर्म में मूर्ति पूजा शुरू हो गयी थी। लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त सिर विहीन नग्न मर्ति का संबंध तीर्थंकर से बताया जाता है। हाथीगम्फा अभिलेख के अनुसार पूर्वी भारत के जैनों के बीच मौर्य काल के पहले से मर्ति पूजा प्रचलित थी। कुछ जैन मर्तियाँ मथरा से अष्टमंगलों (आठ शभ चिहन) के साथ उपासना शिल्प पट पर प्राप्त हई है। इससे पता चलता है कि प्रथम शताब्दी ईस्वी तक जैनों के बीच मर्ति पूजा आम बात हो गयी थी।

बौद्ध धर्म में महायान संप्रदाय ने मर्ति पूजा की शुरुआत की। मथरा और गांधार में बैठने और खड़े होने की मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति बनायी गयी।

सांची, भरहत और बोध गया की दीवारों पर उभारदार, मर्तियों का निर्माण किया गया है, ये उभारदार कला के आरंभिक उदाहरण हैं। इस प्रकार के अधिकांश शिल्प स्तूप को घेरे हुए रेलिंग के गोल या आयताकार फलक पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। उभारदार शिल्प में या तो बद्ध का जीवन उत्कीर्ण किया गया है या जातक कथाओं के दृश्य अंकित किए गये हैं और घटनाओं का वर्णन लगातार किया गया है।

गांधार कला केंद्र

गांधार भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र में सिंध नदी के दोनों ओर स्थित है। इसमें पेशावर की घाटी, स्वात, बलेर और बज्जोरा के इलाके शामिल हैं। छठी-पांचवी ई.प. में ईरान के अक्कामेनिदों ने यहाँ शासन किया था। बाद में यनानियों, मौर्यों, शकों, पल्लवों और कषाणों ने इस क्षेत्र पर अधिकार जमाया। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में एक मिश्रित संस्कृति का जन्म हुआ। बौद्ध धर्म से जुड़ी यह कला यूनानी कला रूप से काफी प्रभावित थी। उदाहरण के लिए बुद्ध की प्रतिमा में उत्कीर्ण वस्त्र यूनानी रोमन फैशन के अनुरूप झीने और पारदर्शी होते थे और बालों का डिजाइन प्रायः धुंघराला बनाया जाता था। पर एक बात याद रखनी चाहिए कि गांधार कला के प्रमुख संरक्षक शक और कुषाण थे।’

गांधार कला केंद्र की कला के नमूने जलालाबाद, हड्डा, बामरान, बेग्राम और तक्षशिला से प्राप्त हुए हैं। गांधार कला को दो स्कूलों में विभक्त किया जा सकता है-आरंभिक और बाद की कला। आरंभिक कला केंद्र का अस्तित्व सन् ईस्वी की प्रथम और द्वितीय शताब्दी में था, इस काल में मर्तियों का निर्माण नीले-भरे रंग की परतदार चट्टानों से किया जाता था। बाद के कला केंद्र में परतदार चट्टानों के स्थान पर मिट्टी, चना, भिति स्तंभ और पलस्तर का उपयोग किया जाता था। इन मर्तियों में मनष्य की आकति का जीवंत अंकन हो पाता था। उनके नाक-नक्शे तीखे हुआ करते थे और उनमें एक गणितीय अनुपात होता था।

इन मर्तियों के अतिरिक्त दीवारों पर उभारदार मर्तियाँ भी उत्कीर्ण की जाती थीं। इनमें अधिकांशतः बुद्ध और बोधिसत्व के जीवन से संबंधित चित्र अंकित होते थे। उदाहरण के लिए :

  • तक्षशिला का स्तूप बोधिसत्व की मूर्तियों से सजाया गया है, ये मूर्तियाँ पूजा के लिए ताखे पर रखी हैं।
  • सेहरीभेलोल स्तूप के छोटे खंभों के परकोटे पर बुद्ध, बोधिसत्व और उनके जीवन से संबंधित घटनाएँ उत्कीर्ण हैं।
  • शाह जी की ढेरी स्थित स्तप के बगल वाली दीवार से एक कांस्य अस्थि-मंजषा प्राप्त हुई है। इसमें बुद्ध, कुषाण राजा और उड़ता हुआ हंस (विचरणशील भिक्षुओं का प्रतीक) चित्रित हैं।

गांधार कला की कई अन्य विशेषताएँ भी हैं। उदाहरण के लिए बिमरान में एक सोने की अस्थि-मंजषा प्राप्त हुई है, जिसमें एक छतरी के भीतर कई चित्र अंकित हैं। इसी प्रकार हाथी दांत की बनी एक पटिया ब्रेग्राम से प्राप्त हुई है। यहाँ हम कुछ चित्र दे रहे हैं (देखें सं. 12, 13,14, 15, 16, 17) जिनमें गांधार कला के विभिन्न पक्ष उजागर हुए हैं।

 मथुरा कला केंद्र

मथुरा कला का जन्म दूसरी शताब्दी ई.पू. से माना जा सकता है। ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी तक न केवल यह कला के एक प्रमख केंद्र के रूप में सामने आ गयी थी, बल्कि इसकी मांग दर-दूर के इलाकों तक फैल गयी। चार सौ वर्षों के अपने जीवन-काल में इस कला-केंद्र ने विविध प्रकार के शिल्प प्रस्तुत किए और बौद जैन तथा बाहमण धर्म के अनयायियों के लिए मूर्तियाँ बनायी।

मथुरा कला की एक खास विशेषता यह है कि अफगानिस्तान की तरह इसमें भी कषाण काल में राजा और सामंतों की मर्तियाँ बनायी गयीं। इससे पता चलता है कि मथुरा के कलाकार इस युग की विभिन्न कलात्मक गतिविधियों से परिचित थे और भारतीय तथा अभारतीय मूल के विभिन्न सामाजिक समूहों की मांगों को परा करने के प्रति जागरूक थे। मथुरा कला में स्थानीय रूप से उपलब्ध लाल बलुआ पत्थर का उपयोग होता था।

इस कला केंद्र की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें पवित्र खंभों पर जीवन के विभिन्न पहलओं का चित्रांकन किया गया है। मसलन, कहीं जंगल का दृश्य है, जहाँ पुरुष और स्त्री फूल चुन रहे हैं, महिलाएँ सारस के साथ खेल रही हैं या चिड़ियों को दाना चगा रही हैं तथा फलवारी और सरोवर में क्रीड़ा कर रही हैं। “कंकालितिया के पवित्र खंभों पर नारी सौंदर्य को शिल्पी ने सजीवता से उत्कीर्ण किया है”।

वस्तुतः मथुरा कला केंद्र के कलाकारों ने अपनी कला की प्रस्तुति के लिए अनेक विषय चुने। सांची और भारत में कलाकार ने प्राकृतिक दृश्यों का सुंदर उपयोग किया है। इस कला केंद्र की मूर्तियाँ स्थानीय तौर पर प्राप्त लाल बलुआ पत्थर से बनायी जाती थीं। आइए, मथुरा कला केंद्र में बनायी गयी मूर्तियों के विषयवस्तु पर विचार करें।

1,बुद्ध की प्रतिमाएँ : बोधिसत्व और बद्ध की मर्ति संभवतः सबसे पहले मथरा में बनायी गयी थी और यहीं से देश के सारे हिस्से में भेजी गयी थी। उदाहरण के लिए कनिष्क प्रथम के शासन काल में सारनाथ में स्थापित खड़े बोधिसत्व की मूर्ति का निर्माण मथुरा में ही किया गया था। हम बुद्ध की प्रतिमा मख्यतः दो मद्राओं में देखते हैं-खड़े और बैठे हए। बैठने की मद्रा वाली भर्तियों में सबसे पुरानी प्रतिमा कात्रा में पायी गयी है। इस प्रतिमा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  • बोधि वृक्ष के नीचे बैठे बद्ध
  • अभय की मद्रा में दाहिना हाथ,
  • हथेली और पैर के नीचे धर्म चक्र और त्रिरत्न के निशान उत्कीर्ण 
  • चुटिया के अतिरिक्त सिर पूरी तरह घुटा हुआ।

वस्तुतः इस युग की बौद्ध प्रतिमाओं की आम विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  • उनका निर्माण उजले धब्बे वाले लाल पत्थर से किया गया है।
  • मूर्तियों का निर्माण गोलाकार हुआ है ताकि चारों तरफ से उन्हें देखा जा सके।
  • सिर के बाल और चेहरे की दाढ़ी बिल्कुल साफ है।
  • दाहिना हाथ अभय की मुद्रा में है।
  • ललाट पर कोई निशान नहीं है।
  • वस्त्र शरीर से बिल्कुल सटे होते हैं और इसका झालर बाएँ हाथ में रहता है।

2.जैन प्रतिमाएँ : मथरा ब्राहमण और बौद्ध धर्म का पवित्र स्थल होने के साथ-साथ जैन धर्म की भी पण्य भमि है। यहाँ बहत से ऐसे अभिलेख प्राप्त हए हैं, जिनमें जैन धर्म के अनयायियों, जैन भिक्षओं, भिक्षणियों, उनको दिए गए दान-पुण्य का उल्लेख किया गया है। उदाहरण के लिए, द्वितीय शताब्दी की अर्द्ध शती के आस-पास के अभिलेख (प्रासाद-तोरण) में जैन श्रावक को “उत्तर दसक‘ कहा गया है। ककाली टीला मथुरा का प्रमुख स्थल है जहाँ से कई जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इस स्थान से निम्नलिखित शिल्पगत नमूने प्राप्त हुए हैं :

  • मूर्तियाँ
  • जैन मूर्तियों से अंकित पत्थर की पट्टियां या आयक पट्ट, इन पट्टियों पर जैन धर्म की अन्य निशानियाँ, जैसे स्तप आदि भी अंकित हैं।
  • इमारतों के टूटे हुए अंश, जैसे खंभे, स्तंभ शीर्ष, अर्गला ढेंकली रेलिंग आदि।

आयक पद पर जैन और तीर्थाकारों के चित्र कषाण काल के पहले अंकित किए गए थे. पर कषाण काल से ही मूर्तियाँ नियमित रूप से बनने लगीं। इनमें से पार्श्वनाथ को सांपों के साथ और ऋषभनाथ को कंधे पर झलते बालों के साथ पहचाना जा सकता है, पर अन्य तीर्थाकारों की प्रतिमाओं को आसानी से नहीं पहचाना जा सकता है।

3.ब्राहमण धर्म की मूर्तिया : ब्राह्मण धर्म से संबंधित कुछ मूर्तियाँ भी मथुरा से प्राप्त हुई हैं। इस प्रकार की आरंभिक मूर्तियों में शिव, लक्ष्मी, सूर्य और बलराम उल्लेखनीय हैं। कुषाण काल में कार्तिकेय, विष्णु, सरस्वती, कुबेर नाथ और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ बनायी जाती थीं। इस काल की मर्ति विद्या की यह विशेषता है कि प्रत्येक देवता अलग से पहचाने जा सकते हैं और उदाहरण के लिए हालाकि शिव लिंग-रूप में पूजे जाते हैं, पर इस काल में चहुर्मुख लिंग का निर्माण होने लगा। इसमें एक लिंग के चारों ओर शिव की मुखाकृति लगी होती है।

  • कुषाण काल में सूर्य देवता दो घोड़े से जुते एक रथ पर सवार दिखाये गये हैं। उन्होंने भारी कोट पहन रखा है, इसके अतिरिक्त उनके बदन पर सलवार और जूता भी है। उनके एक हाथ में तलवार और दूसरे में कमल है।
  • बलराम के सिर पर भारी पगड़ी है।
  • सरस्वती एक हाथ में रूद्राक्ष की माला और दसरे हाथ में पस्तक लिए बैठी है। उन्होंने साधारण वस्त्र पहन रखे हैं और उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं है, उनकी सेवा में दो प्रतिमाएं लगी हुई हैं।
  • दुर्गा मर्हिष-मर्दिनी रूप में है, उन्हें भैंस रूपी राक्षस को मारते हुए दिखाया गया है।

मथुरा से यक्ष और यक्षिणी की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। उनका संबंध बौद्ध, जैन और ब्राह्मण तीनों धर्मों से है। कबेर अन्य देवता है, जिसकी मर्ति एक मोटे व्यक्ति के रूप में बनायी गयी है। उसका संबंध मद्य और मद्यपान के आयोजन से बताया गया है। इस देवता पर वध और डायोनीसस जैसे रोमन और यूनानी मद्य देवता की छाप दिखायी देती है।

4.शासकों की प्रतिमा : मथरा के मट गांव से प्रमख कषाण राजाओं जैसे कनिष्क, बीम और चास्तन की विशाल प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। शासकों और राज्य की प्रमुख हस्तियों की प्रतिमाओं को बनाने और उनके रखरखाव का विचार संभवतः मध्य एशिया से आया होगा। यह शासक को देवत्व का दर्जा देने के लिए किया जाता था। इन प्रतिमाओं के वस्त्रों पर मध्य एशिया का प्रभाव स्पष्ट है।

मट से सिथियन अधिकारियों/शासकों की मर्तियों का शीर्ष भाग प्राप्त हआ है। इन खोजों से पता चलता है कि मथुरा कुषाण साम्राज्य के पूर्वी भाग का एक प्रमुख केंद्र था। इससे यह भी पता चलता है कि गांधार और मथुरा कला रूपों में काफी आदान-प्रदान हुआ था।

कालांतर में गुप्त कला-रूपों के विकास में मथुरा कला रूप ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अमरावती कला केन्द्र

इस अवधि के दौरान, पूर्वी दक्खन में, कुषाण और गोदावरी की निचली घाटियों में अमरावती कला केंद्र का विकास हआ। इस कला केंद्र को सतवाहन राजाओं, इक्षवाक शासकों, राजनेताओं और उनके परिवारों, अधिकारियों, व्यापारियों आदि का संरक्षण प्राप्त था। यह कला बौद्ध धर्म से प्रभावित थी और इसके मुख्य केंद्र नागार्जुनकोंडा, अमरावती, गोली, घंटसाल, जग्गेयापेटा थे। यह कला 150 ई.पू. से सन् 350 ईस्वी तक अपनी समृद्धि और उत्कर्ष पर थी।

इस कला केंद्र के शिल्पगत नमने भी रेलिंग, चबूतरे और स्तूप के अन्य हिस्सों के रूप में उपलब्ध हैं। इस कला केंद्र में भी बद्ध के जीवन और जातक कथाओं को जगह-जगह उभारदार शैली में उत्कीर्ण किया गया है। उदाहरण के लिए अमरावती में बद्ध द्वारा एक मतवाले हाथी को वश में किए जाने की कथा उत्कीर्ण है। शिल्पकार ने पूरी कथा को स्वाभाविक ढंग से चित्रांकित किया है :

  • एक मतवाला हाथी मार्ग में खडे बद्ध की ओर बढ़ रहा है
  • पुरुष और महिलाएँ भयभीत हैं, पुरुषों ने अपने हाथ उठा रखे हैं और महिलाएँ उनसे चिपकी
  • बुद्ध हाथी की ओर आराधना और विनम्रता की मद्रा में बढ़ रहे हैं
  • हाथी आत्मसमर्पण की मद्रा में नतमस्तक हो जाता है।
  • यह संपूर्ण घटना पुरुष और महिलाएँ झरोखे और खिड़कियों से देख रहे हैं।

शिल्पकार ने यह सारी कहानी गोलाकार रूप में उभारदार शैली में उत्कीर्ण की है :

  • मूर्तियाँ उजले संगमरमर से बनायी गयी हैं,
  • उनकी टांगे लंबी हैं और ढाँचा छरहरा है,
  • इस कला में शारीरिक सौंदर्य और सांसारिक अभिव्यक्ति छाई हई है,
  • हालांकि प्राकृतिक दृश्य भी उत्कीर्ण किए गए हैं, पर केंद्र में मनुष्य ही है, और 
  • राजाओं, राजकुमारों और राजप्रासादों को भी चित्रित किया गया है।

पांच सौ वर्षों की लंबी अवधि में अमरावती की कला लगातार परिपक्वता प्राप्त करती गयी। उदाहरण के लिए इस कला का आभक उदाहरण जग्गेयापेट से मिला है, जिसका समय 150 ई.पू. माना जाता है। इनमें मर्तियों ने अलग-अलग इकाइयाँ हैं और एक समह के रूप में उनका कृष्णा घाटी की वर्णनात्मक उभारदार उत्कीर्ण कला की अनिवार्य विशेषता थी, बाद में इसे पल्लव मूर्ति कला ने अपना लिया। इन चित्रों में मूर्तियाँ ढंग से बनी हुई और एक दूसरे से संबद्ध है। 

विषयवस्तु या कथ्य की दृष्टि से मथुरा और अमरावती की कला में कहीं-कहीं आश्चर्यजनक समानता है। उदाहरण के लिए अमरावती में छह स्त्रियों को एक साथ पात्र से स्नान करते हए दिखाया गया है, इससे बिल्कुल मिलता जुलता एक नमना मथुरा में भी पाया गया है। मथुरा में भी कुषाण राजाओं की मूर्तियाँ बनायी गयीं और अमरावती मूर्तिकला ने भी राजाओं और राजकुमारों को अपनी कला का कथ्य तनाया। इसके बावजूद अमरावती में इनका अंकन व्यक्तिगत तौर पर नहीं, बल्कि कथा कहने के क्रम में हुआ है। उदाहरण के लिए

  • राजा उदयन और उसकी रानी की कहानी
  • नजराना कबूल करते हुए राजा और राजदरबार का दृश्य
  • हाथी, घड़सवार और पैदल सेना के साथ राजा की शोभायात्रा

वस्तुतः सतवाहनों के संरक्षण और मंजे हुए शिल्पकारों के कारण अमरावती कला केंद्र ने प्राचीन भारत के कछ सर्वोत्तम कला रूप प्रस्तुत किया।

सारांश

हमने देखा कि इस काल में स्थापत्य और मर्तिकला अपने उत्कर्ष पर पहँच गयी और शिल्पियों ने कला के उत्कृष्ट नमूने प्रस्तुत किए। दुर्भाग्य से, हमें इन शिल्पियों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। हमारे पास उनकी कला है, पर उनके नाम नहीं है। कहीं-कहीं संरक्षकों के नाम भी उपलब्ध नहीं है। इससे पता चलता है कि शिल्पी अब राजकीय सहायता पर ही आश्रित नहीं रहे, क्योंकि कई व्यापारियों, श्रद्धालुओं और अन्य लोगों ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया।

कला रूप और कथ्य प्रस्तुति में निरंतर विकास होता रहा। मसलन, आभिक शिल्प चित्रकला. ‘ मिट्टी की मूर्ति जैसी संरचनात्मक अभिव्यक्तियों का विकास परिपक्व मतिं कला के रूप में हुआ। इस काल में सपाट और गोलाकार दोनों प्रकार की शिला मतिकला का विकास हुआ। प्रतीकात्मक वस्तुओं की जगह मूर्तियों ने ले ली इस प्रकार के परिवर्तन का सबसे अच्छा उदाहरण बुद्ध की मूर्तियाँ हैं।

इस इकाई में हमने यह भी देखा कि प्रदेश विशेष में अलग कला-रूपों का विकास हुआ। गांधार, मथुरा और अमरावती में अलग-अलग कला रूपों का विकास हुआ। हालांकि इन कला रूपों में धार्मिक विषयों को प्रमखता प्राप्त हुई है, पर मनुष्य और प्रकृति का भी चित्रण किया गया है। इस प्रकार के चित्रों में उस काल की सामाजिक और आर्थिक जिंदगी की हल्की झांकी मिल सकती है। मथरा में उत्कीर्ण भिक्षओं, संरक्षकों और सेवकों की मर्तियाँ इसका अच्छा उदाहरण है। भारतीय कलाकारों ने यूनानी और मध्य एशियाई कला रूपों को भी ग्रहण किया और इस प्रकार आदान-प्रदान के माध्यम से भारतीय कला अपने उत्कर्ष पर पहुँच गयी।

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