1757 से 1856 तक अंग्रेजों के भारत विजय
प्रश्न: विविध कारकों ने अंग्रेजों को भारत पर नियंत्रण प्राप्त करने में सफलता प्रदान की। इस संदर्भ में, प्रमुख घटनाक्रमों पर प्रकाश डालते हुए, 1757 से 1856 तक अंग्रेजों के भारत विजय की कार्यवाही की रूप रेखा प्रस्तुत कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारतीय इतिहास में ब्रिटिश विजय के संदर्भ में वर्ष 1757 के महत्व का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- उन विभिन्न कारकों की चर्चा कीजिए, जो भारत पर नियंत्रण स्थापित करने में अंग्रेजों के लिए सहायक रहे। इसके अतिरिक्त, दी गयी अवधि के दौरान विभिन्न प्रदेशों (रजवाड़ों) के अधिग्रहण में सहायक कारकों पर चर्चा कीजिए, साथ ही इस अवधि में हुए विभिन्न घटनाक्रमों का वर्णन कीजिए।
- एक संक्षिप्त निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए कि 1857 में विद्रोह के पश्चात् ‘व्यपगत की नीति’ को किस प्रकार समाप्त कर दिया गया था।
उत्तर
वर्ष 1757 भारत पर अंग्रेजों के विजय अभियान में एक महत्वपूर्ण वर्ष था क्योंकि इसे भारत पर ब्रिटिश राजनीतिक नियंत्रण की शुरुआत के रूप में चिन्हित किया जाता है। अंग्रेज आगामी सौ वर्षों में प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय शक्तियों को समाप्त करने के साथसाथ भारतीय रियासतों का एक-एक करके अधिग्रहण कर भारत में स्वयं को प्रभुत्वशाली शक्ति के रूप में स्थापित करने में सक्षम हो गए थे।
अंग्रेजों को भारत पर नियंत्रण स्थापित करने में सहायता प्रदान करने वाले कारक:
- 1757 में प्लासी के युद्ध और 1764 में बक्सर के युद्ध के माध्यम से अंग्रेज भारत के सर्वाधिक समृद्ध प्रांतों में से एक अर्थात् बंगाल के राजस्व पर नियंत्रण प्राप्त करने में सफल हुए। इसने अंग्रेजों को एक सुदृढ़ सेना संगठित करने तथा 1760 में वांडिवाश के युद्ध में प्रबल फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्वियों को हमेशा के लिए पराजित करने में सक्षम बनाया।
- एकता का अभाव:
- भारतीय उपमहाद्वीप कई सम्राज्यों, जैसे- मुगल, मराठा, सिख, मैसूर आदि में विभाजित था। विभिन्न युद्धों में अंग्रेजों ने इनकी एकता के अभाव का लाभ उठाया। उदाहरण के लिए, अंग्रेजों ने प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1766-1769) में मैसूर के विरुद्ध मराठों और हैदराबाद के निज़ाम का प्रयोग किया।
- विभिन्न संघों के मराठा शासकों के मध्य मौजूद आंतरिक संघर्ष के कारण वे साझे शत्रु अर्थात अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। परिणामस्वरूप तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद 1817 में हस्ताक्षरित पूना समझौते के माध्यम से इन साम्राज्यों का विघटन हो गया।
- प्रभावी नेतृत्व का अभाव: ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति को चुनौती देने वाला पंजाब अंतिम मजबूत राज्य बना रहा। हालांकि, महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात पंजाब का कोई भी शासक साम्राज्य को संगठित नहीं कर सका। द्वितीय आंग्लसिख युद्ध के पश्चात 1849 में अंततः पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया गया।
- रणनीतिक दृष्टिकोण से निर्मित नीतियों के माध्यम से आक्रामक क्षेत्रीय विस्तार:
- लॉर्ड वेलेजली की सहायक संधि की नीति ने कुछ भारतीय राज्यों के रक्षा और बाह्य कूटनीतिक मामलों पर नियंत्रण स्थापित कर उन पर अंग्रेज़ों के अप्रत्यक्ष नियंत्रण में वृद्धि की।
- इसके अतिरिक्त, 1848-1854 के दौरान लॉर्ड डलहौज़ी की व्यपगत नीति के तहत विभिन्न राज्यों, जैसे- सतारा, उदयपुर, झाँसी आदि का प्रत्यक्ष रूप से अधिग्रहण किया गया।
उपर्युक्त कारकों के अतिरिक्त, नियमित सेना के संगठन के कारण अंग्रेजों की बेहतर सैन्य क्षमताओं, सुदृढ़ नौसेना क्षमताओं तथा सक्षम नेतृत्व क्षमता ने भारतीय व्यापार और अर्थव्यवस्था को कमजोर करने वाली ब्रिटिश नीतियों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत में विशाल साम्राज्य स्थापित करने में सहायता की। इसके अतिरिक्त, प्रशासनिक तंत्र को इस प्रकार विकसित किया गया था कि वह भारत में विशाल ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा, प्रशासन एवं रख-रखाव कर सके। हालांकि, 1857 के विद्रोह के उपरांत भारतीय राज्यों के किसी अन्य हिंसक विद्रोह को रोकने हेतु ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई विस्तार की नीति को समाप्त कर दिया गया।
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