अकाली आंदोलन

इस इकाई में सिख समुदाय में हुए सामाजिक सुधारों और विशेषतः अकाली आदोलन के बारे में बताया जाएगा। इस आंदोलन से सिख समुदाय में सामाजिक और बौद्धिक परिवर्तन आया और राष्ट्रीय भावना की स्थापना हुई।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • अकाली आंदोलन से पूर्व हुए विभिन्न सुधार आंदोलनों के बारे में जानकारी हासिल कर सकेंगे,
  • अकाली आंदोलन के कारणों को स्पष्ट कर सकेंगे,
  • अकाली आंदोलन के मुख्य तथ्यों के बारें में बता सकेंगे, और
  • अकाली आंदोलन में गुरुद्वारा बिल के महत्व को बता सकेंगे।

18वीं और 19वीं शताब्दी का समय भारत में सामाजिक और धार्मिक जागृति तथा सुधारों का समय था। सामाजिक जीवन में इन सुधारों ने अंधविश्वास और जाति व्यवस्था पर आक्रमण किया। इन आंदोलनों ने सती प्रथा, स्त्री-शिश हत्या और बाल विवाह उन्मूलन के कार्य किए। इन्होंने विधवा विवाह, स्त्रियों के लिए समान वेतन और आधुनिक शिक्षा का आह्वान किया। इन सुधार आंदोलनों ने मुख्य रूप से हिन्दू समुदाय में व्याप्त कुरीतियों पर ही ध्यान दिया। इसी समय, दूसरे समुदायों में जैसे मुसलमान और सिक्खों में भी सामाजिक और धार्मिक सुधार चल रहे थे। सिख जाति को भी, जो सिख गुरुओं के मार्ग से भटक गई थी, सामाजिक और धार्मिक सुधार की आवश्यकता थी।

उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों की चर्चा हो चुकी है, इस इकाई में हम सिख समदाय में हो रहे सामाजिक और धार्मिक सधारों की चर्चा करेंगें-विशेष तौर से इसमें अकाली आंदोलन का योगदान । अकाली आंदोलन ने सिख समदाय के सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसके साथ-साथ उसे राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा से भी जोड़ा। अकाली आंदोलन की पूर्ण रूप से चर्चा करने से पूर्व संक्षिप्त रूप से उन आंदोलनों की चर्चा करना भी संगत होगा जिनके द्वारा सामाजिक जागृति उत्पन्न हुई और गुरुद्वारा सुधार के लिए अकाली आंदोलन प्रारंभ हो सका।

सिख समाज में करीतियाँ और प्रारंभिक सुधार

जैसा कि आप पढ़ चुके हैं कि सिख धर्म जातिगत भेदभाव और धर्म के मूल तत्वों से हटकर कर्मकाण्डों की प्रतिष्ठा और धर्म पर परोहितों के स्वामित्व जैसी कुरीतियों के विरोध में प्रारंभ हआ। इसके संस्थापक गरु नानक देव. एक-ईश्वर और विश्व-बंधत्व में विश्वास रखते थे। उन्होंने बेकार के धर्म कृत्यों और कर्मकाण्डों की निन्दा की और एक-ईश्वर में विश्वास का प्रचार किया। मध्यकालीन दृसरे संतों की तरह उन्होंने भी अच्छे कार्यों और सच्चे जीवन पर बल दिया। नानक जी ने कहा, “सत्य उच्च है, परंतु सत्य जीवन उच्चतम है”

अपनी शिक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिए गुरु नानक ने संगत (सभा) और पंगत, एक पंक्ति में बैठकर लंगर (निःशुल्क भोजन) करने जैसी संस्थाओं की स्थापना की। गुरु नानक ने नारी-समानता की वकालत भी की। नानक जी ने यह भी कहा, “नारियों का अपमान क्यों करें, ये तो राजाओं और महापरुषों को जन्म देने वाली हैं। उन्होंने समाज में व्याप्त कई प्रकार की करीतियों का विरोध किया और न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था का आह्वान किया।

किन्तु गुरु नानक और उत्तरवर्ती सिख गुरुओं की ये साधारण-सी व्यावहारिक शिक्षाएँ लोगों ने ठीक से नहीं अपनाईं। कालान्तर में सिख धर्म ने अपने पाँव जमा लिये और अपने धर्मकृत्यों की स्थापना कर ली। रणजीत सिंह द्वारा सिख राज्य की स्थापना से धार्मिक स्थानों में आडंबर प्रारम्भ हए। इन्हीं करीतियों की सिख गरु और दूसरे सामाजिक सधारकों ने निंदा की थी। उसी समय सिख समदाय में कई सामाजिक और धार्मिक आंदोलन चल पड़े। हम यहाँ कछ महत्वपूर्ण आंदोलनों का अध्ययन करेंगे।

निरंकारी आंदोलन

बाबा दयाल दास, जो एक सन्तवृत्ति के थे और महाराजा रणजीत सिंह के समकालीन थे, सिख धर्म सधारकों में सर्वप्रथम आगे आए। उन्होंने सिख समाज में धीरे-धीरे आ रही सामाजिक करीतियों की निंदा की। बाबा दयाल ने मकबरों और कब्रों की पूजा का विरोध किया। उन्होंने आनन्द कारज, (विवाह) का सरलीकरण किया, जिसने 1909 में आनन्द विवाह अधिनियम के रूप में पारित होकर काननी मान्यता प्राप्त की। इस विवाह पद्धति में विवाह गुरु ग्रन्थ साहिब की उपस्थिति में ग्रंथी द्वारा, ग्रन्थ साहिब से चार उचित पदों के गायन द्वारा सम्पन्न होता है और कोई धार्मिक कृत्य नहीं होता। दहेज, बारात, शराब, नाचना-गाना वर्जित होता है।

बाबा दयाल का देहावसान 30 जनवरी, 1855 में हुआ और उनके पत्र बाबा दरबारा सिंह ने अपने पिता की शिक्षाओं का प्रचार जारी रखा। दरबारा सिंह का काफी विरोध हआ। स्वर्ण मंदिर के मख्य ग्रन्थी ने उन्हें मंदिर में प्रवेश कर आनन्द कारज पद्धति के अनुसार विवाह । नहीं करने दिया। बाबा दरबारा सिंह के देहावसान पर उनके भाई रत्न चन्द ने जिन्हें प्रेम से बाबा रता जी कहते थे, उनके कार्य को आगे बढ़ाया। यह जानकर आश्चर्य होता है कि सिख धर्म में प्रथम सामाजिक सुधारकों में आमतौर पर अमत छके सिख नहीं थे, परन्त वे लोग थे जो सिख परंपरा और सामाजिक जीवन की सादगी से प्रेम और उन मूल्यों का आदर करते थे। यह आंदोलन ‘निरंकार” (आकार रहित ईश्वर) के नाम से प्रसिद्ध है। बाबा दयाल ने मानव-गुरुओं की पूजा का विरोध किया और अपने अनुयायियों से आशा की कि वे आकार रहित ईश्वर की पूजा करें। “जपो प्यारियो धन्न निरंकार, जो देह धारी सब खुवार” – आकार रहित ईश्वर की उपासना करो, देहधारी से भ्रमित न हों।

नामधारी आंदोलन

नामधारी आंदोलन कका आंदोलन के रूप में प्रसिद्ध है, इसके अनुयायी जब हर्षोन्माद में होते थे तो कृका (चीखते) करते थे। भगत, जवाहरमल और बाबा बालक सिंह ने इस आंदोलन का शभारंभ किया और इस आंदोलन ने बाबा राम सिंह के नेतृत्व में सिखों में सामाजिक और धार्मिक जागति पैदा की। राम सिंह ने अपने अनुयायियों को एक ईश्वर की उपासना, प्रार्थना और ध्यान द्वारा करने का उपदेश दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को सुझाव दिया कि वे सदा ईश्वर की आराधना में लगे रहें। उन्होंने जातिप्रथा, स्त्री शिश हत्या, बाल विवाह और विवाह में कन्याओं की अदला-बदली जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरोध में प्रचार किया। उन्होंने आसान और सस्ती आनन्द विवाह पद्धति को प्रोत्साहन दिया। राम सिंह के उपदेशों का सिख जनता पर बहत प्रभाव पड़ा। समकालीन यरोपीय अधिकारियों ने बाबा राम सिंह की प्रसिद्धि और प्रचार कार्य को गंभीरता से लिया, जोकि सरकार के निम्न संसदीय पेपर से विदित होता है :

उस (राम सिंह) ने सिखों में जाति भेदभाव का उन्मूलन किया, सब जातियों में भेदभाव रहित विवाह की वकालत की, विधवा विवाह का उपदेश दिया, जो उसने स्वयं कराए. उसने कभी भिक्षा नहीं ली और अपने अनयायियों को भी भिक्षा न लेने का और शराब के सेवन तथा नशे का निषेद्ध किया’ उसने अपने शिष्यों को स्वच्छता, सत्य बोलने और प्रत्येक को लाठी रखने का आह्वान किया और उन्होंने उसका पालन किया। ग्रंथ ही को उन्होंने अपना प्रेरणा स्रोत माना है। उनकी पगड़ी की गांठ शीदपग-जोकि श्वेत ऊनी गांठों की कंठहार सी होती है, से उनका भ्रातृत्व झलकता है, वे सभी माला रखते हैं और माला फेरते भी हैं।”

यद्यपि बाबा राम सिंह का प्रचार कार्य सही जीवन-यापन, सहिष्णुता और क्षमा पर आधारित था, किन्तु उनके कुछ अनुयायी अनुशासनहीन थे और धार्मिक उन्माद में कुछ ऐसे कार्य कर गए, जिनसे उनकी सरकार से टक्कर हो गई। उनके कई कट्टर अनुयायी गो-हत्या पर भड़क उठे और उन्होंने अमतसर, राजकोट और मलेरकोटला में कई कसाइयों का वध कर दिया। दण्ड-स्वरूप उनको तोपों के मुँह से बाँध कर उड़ा दिया गया। यह आंदोलन सामाजिक था अथवा राजनीतिक, इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है, किन्तु ककाओं के ऊपर सरकारी जल्म ने जनता में ब्रिटिश सरकार के प्रति घृणा फैला दी। इसने बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में होने वाले अकालियों के संघर्ष की पृष्ठभमि बनाई।

सिंह सभा आंदोलन

आने वाले वर्षों में ककाओं के उत्पीड़न और उनके आंदोलन के दमन के फलस्वरूप 1873 में सिंह सभा आंदोलन का जन्म हआ। सिंह आंदोलन सभा के कार्यकलापों का सिख जनता पर बहत प्रभाव पड़ा। सिंह सभा के संस्थापक, जिनमें बहत से शिक्षक मध्यम वर्ग के थे, पंजाब के अन्य सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों से भी संबंधित थे। उन्हें देश के अन्य भागों में ऐसे ही अन्य आंदोलनों का ज्ञान था। उनका विश्वास था कि सिख समुदाय में ये कुरीतियाँ अशिक्षा के कारण हैं। उन्होंने समझा कि सामाजिक और धार्मिक सुधार तभी सम्भव है जबकि जनता को अपनी प्राचीन परंपरा की जानकारी हो।

सिंह सभा ने सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए शिक्षा का प्रसार किया और जानबूझकर राजनीतिक प्रश्नों से बचने का प्रयास किया, ताकि ब्रिटिश शासकों के कोप-भाजन से बचा जा सके।

सिंह सभा के नेताओं ने, जोकि बड़े ज़मींदार थे अथवा “सिख जनता के हितों” को समझते थे, ब्रिटिश शासकों को अप्रसन्न नहीं किया। इस आंदोलन के प्रचारक ब्रिटिश सरकार को सभी सामाजिक और धार्मिक बराइयों के लिए सीधे उत्तरदायक नहीं मानते। फिर भी वे प्रचारक ब्रिटिश सरकार को उस समय गिरती हुई स्थिति के लिए दोषी ठहराने से पूर्णरूपेण न बचा सके। पंजाब में रणजीत सिंह राज्य की खुशहाली की चर्चा करते हुए उन्होंने वर्तमान में सिखों के अधःपतन को मुगल काल के समतुल्य बताया। उनका मानना था कि मगल और ब्रिटिश की समतुल्यता “कारणों की समतुल्यता” के कारण है।

फिर भी सिंह सभा की महत्वपूर्ण देन खालसा कॉलेज, विद्यालय और दूसरे शिक्षण केंद्रों की श्रृंखलाबद्ध स्थापना है। सिंह सभा के नेता अनुभव करते थे कि सिखों में शिक्षा प्रसार हेत्

ब्रिटिश शासकों का सहयोग अनिवार्य है। अतः उन्होंने वायसराय और अन्य ब्रिटिश अधिकारियों की संरक्षता प्राप्त की। लाहौर में खालसा दीवान की स्थापना के तुरन्त बाद एक आंदोलन प्रारंभ हआ कि सिखों के लिए केंद्रीय कॉलेज स्थापित किया जाए, जिसके साथ बाहरी जिलों के विद्यालय संबंधित किए जाएँ। सिंह सभा के शैक्षणिक कार्यों को भारत सरकार, ब्रिटिश अधिकारियों और शासकों तथा सिख राजाओं का प्रोत्साहन और संरक्षण मिला। सिंह सभा ने अमृतसर में 1892 में खालसा कॉलेज की स्थापना की।

यद्यपि खालसा कॉलेज को संस्थापकों और ब्रिटिश संरक्षकों ने शुद्ध शैक्षणिक विकास के लिए स्थापित किया था, किन्तु इसके कुछ विद्यार्थी और शिक्षक उस समय प्रान्त में चल रही राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ती राष्ट्रीयता से अपने को अलग न रख सके। 1907 में गुप्तचर विभाग ने अधिकारियों को सूचित किया कि खालसा कॉलेज “छात्रों में राष्ट्रीय भावना के विकास का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया है।” राजनीतिक रूप से सचेत शिक्षकों और गोपालकृष्ण गोखले एवं महात्मा गांधी सरीखे राष्ट्रीय नेताओं से प्रेरणा लेकर छात्रों ने दो बार यूरोपीय अधिकारियों के समक्ष, जब वे कॉलेज में राष्ट्रीयता को दबाने के उपाय सझाने आए, प्रदर्शन किया।

सिख-शिक्षा कान्फ्रेंस के माध्यम से सिंह सभा ने खालसा विद्यालयों की श्रृंखला स्थापित की, जिन्होंने अपरोक्ष रूप से सामाजिक चेतना और सुधार के केन्द्रों का कार्य किया। सिख समदाय में हए सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों ने सिखों के जीवन में धीरे-धीरे जड़ पकड़ती बराइयों की ओर संकेत किया और उन्हें सुधार के लिए प्रेरित किया। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में, पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता, राष्ट्रीय समाचारपत्रों के प्रभाव और देश में राष्ट्रीय जागति से सिखों में असंतोष फैला और आने वाले अकाली आंदोलन की पृष्ठभूमि बना, जोकि एक ओर तो सिख गुरुद्वारों में महन्तों और दूसरे स्वार्थी लोगों के विरुद्ध था, दसरी ओर पंजाब में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध था। इसके बारे में हम अगले भाग में पढ़ेंगे।

अकाली आंदोलन

सिख सुधारकों ने अकाली आंदोलन को अपने धार्मिक स्थानों में धीरे-धीरे फैल रही सामाजिक करीतियों को हटा कर उन्हें पवित्र रखने के लिए प्रारंभ किया। सिख मंदिर, जिन्हें गुरुद्वारा अथवा धर्मशाला कहते हैं, सिख गुरुओं ने सामाजिक, धार्मिक और नैतिक शिक्षा के केन्द्र के रूप में और निर्धन तथा दुखी लोगों को भोजन व आवास देने के लिए स्थापित किए। वहाँ सिख धर्म की मानव समानता की शिक्षाओं पर अमल किया जाता था। सभी व्यक्ति बिना किसी जाति, रंग और लिंग भेद के प्रत्येक गुरुद्वारे से संबंधित लंगर (सामाजिक भोजन) में प्रवेश कर निःशल्क भोजन प्राप्त कर सकते थे। समकालीन लेखकों का मत है कि ‘सिख सामाजिक और धार्मिक कृत्यों में ब्राह्मणों के प्रभुत्व को नहीं मानते थे। चारों वर्षों के लोग सिख गरुद्वारों में बिना रोकटोक प्रवेश पाकर पवित्र प्रसाद और लंगर में निःशल्क भोजन कर सकते थे।

सिखों की पवित्र परंपरा के अनुसार गरुद्वारा प्रबंधक गुरुद्वारों के मुख्य दान को अपने निजी काम में नहीं लाते थे, बल्कि उसे लंगर और दसरे सामाजिक हित के कार्य में लगाते थे। दसवें गरु गोविंद सिंह के देहावसान के बाद, सिखों के उत्पीड़न के समय सिख गुरुद्वारों का प्रबन्ध उदासियों ने संभाला। ये सिख धर्म को तो मानते थे, किन्तु उनके बाहरी चिह्नों को अक्षरशः नहीं मानते थे। अतः वे उत्पीड़न से बच गए। उस समय कई गुरुद्वारों के उदासी प्रमुखों ने गरुद्वारों को चलाने में सिख धर्म की महत्वपूर्ण सेवा की। उनका उच्च नैतिक चरित्र और ईमानदारी के लिए काफी आदर था।

बहुत से उदासी किसी भी गरुद्वारे और उसकी सम्पत्ति से संबंधित नहीं थे, परन्त स्थान-स्थान पर घमते रहते थे। कछ ऐसे भी थे, जिन्होंने स्थायी संस्थाएँ और अपने अनयायी भी बना लिये, उन्हें महन्त कहते हैं। प्रारम्भ में इन महन्तों का अपने क्षेत्र की संगत में विश्वास और आदर था। उन्होंने गुरु नानक के इस उपदेश का पालन किया कि दान की लालसा नहीं होनी चाहिए। अधिकांश महंतों ने शुद्धता और सादगी की इस परंपरा को छोड़ दिया क्योंकि उनमें से अधिकांश महंतों की आमदनी काफी बढ़ गई थी। इस आय का मुख्य स्रोत महाराजा रणजीत सिंह और अन्य सिख सरदारों से प्राप्त कर मुक्त जागीर थीं।

गुरुद्वारों के धन का दुरुपयोग

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शक्तिशाली सिख सरदारों के उदय और 1799 में रणजीत सिंह द्वारा राज्य स्थापना से सिख धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। धार्मिक स्थानों के साथ जुड़ी सम्पत्ति और विशेषाधिकारों के कारण कई जटिल धर्मकृत्य और कर्मकाण्डों का आरम्भ हुआ तथा धनिक और शक्तिशाली महन्तों का उदय हुआ। लगभग सभी प्रसिद्ध गुरुद्वारों को महाराजा रणजीत सिंह और दूसरे सिख सरदारों ने करमुक्त जागीरें प्रदान की थीं। सहसा पैसे आने से कई महत्वपूर्ण गुरुद्वारों के महन्तों के जीवन-स्तर में परिवर्तन आ गया। वे अपने गुरुद्वारे की न्यास सम्पत्ति को अपनी निजी सम्पत्ति में बदलने लगे। यह सिख गुरुओं और सिख धर्मशास्त्रों के उपदेशों के बिल्कुल प्रतिकूल था।

धीरे-धीरे महन्त और उनके अनुयायी विलासपूर्ण जीवन-यापन करने लगे और कई सामाजिक कृत्यों में भी पड़ गए। सिख धर्म के अनुयायियों ने महन्तों की इन कुरीतियों को हटाने के लिए सामाजिक विरोध किया और सिख गुरुद्वारों को वंशानुगत महन्तों से मुक्त कराने के लिए एक सामाजिक आंदोलन चलाया। इस आंदोलन को अकाली आंदोलन कहते हैं, क्योंकि इस सुधार का नेतृत्व अकाली जत्थों (स्वयंसेवकों का समूह) ने किया

स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त के नियंत्रण के लिये संघर्ष

अमृतसर को, जिसे पहले रामदासपर और गुरु का चक कहते थे, चौथे गरु रामदास जी ने 1577 में बसाया। पाँचवें गरु अर्जनदेव जी ने 1589 में मंदिर की स्थापना की, जोकि स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। छठे गरु हरगोविन्द ने अकाल तख्त का निर्माण किया और उसे ऐहिक सिख पीठ घोषित किया। प्रारंभ में स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त की देख-रेख भाई मनी सिंह जैसे सक्षम और पवित्र ग्रन्थी करते थे। किन्तु पंजाब के मगल गवर्नरों के हाथों सिखों के उत्पीड़न और बाद में अब्दाली आक्रमक – अहमदशाह अब्दाली के समय में इन दो महत्वपूर्ण सिख केन्द्रों का प्रबन्ध उदासी महन्तों पर आ पड़ा।

महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में मंदिर को संगमरमर और स्वर्ण जड़ित फलकों से खब सजाया गया। अतः यह स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हआ। इन मंदिरों के साथ करमक्त जागीर भी लगा दी गई। 1849 में पंजाब के ब्रिटिश भारत में विलय के बाद ब्रिटिश सरकार ने इन दोनों स्थानों का प्रबन्ध सम्भाल लिया और उनके कार्यों की प्रतिदिन देख-रेख के लिए एक दस सदस्य कमेटी का एक “सर्बराह’ की अध्यक्षता में गठन किया। (देखें जान मेनार्ड “पंजाब में सिख समस्या’ कन्टेम्प्रेरी रिव्य, सितम्बर 1923. पृष्ठ 295)।

कुप्रबन्ध और भ्रष्टाचार

सरकार द्वारा सर्बराह की नियुक्ति ने कई समस्याएँ उत्पन्न कर दीं। सर्बराह लोगों का ध्यान नहीं रखता था, परन्त अपने नियोजक-अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर को प्रसन्न करने में लगा रहता था। ग्रन्थी कई प्रकार की करीतियों, जैसे दान और दसरी वस्तओं के दरुपयोग में लग गए। इन स्थानों की पवित्रता का हनन हआ। वहाँ वेश्यालय चलने लगे. अश्लील साहित्य बिकने लगा और मंदिर में आने वाली निर्दोष महिलाओं के साथ बलात्कार होने लगा।

अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त में भ्रष्टाचार और इनके प्रबंधों पर सरकारी नियंत्रण को लेकर सिख समदाय में सधार आंदोलन से पूर्व ही काफी असंतोष था। सधारक इन केन्द्र स्थानों को शीघ्रातिशीघ्र इन बुराइयों और सरकारी नियंत्रण से मक्त करना चाहते थे। पंजाब के ब्रिटिश अधिकारियों ने किसी प्रकार के सुधार और चल रहे प्रबन्ध में परिवर्तन का विरोध किया। उनका मानना था कि इससे वे धार्मिक स्थानों का प्रयोग अपनी शक्ति बनाये रखने और अपने राजनीतिक विरोधियों को कमजोर करने से वंचित हो जाएंगे। सामान्यतः स्वर्ण मंदिर पर सरकार द्वारा नियक्त सर्बराहों को ब्रिटिश शासन और उसके कार्यकलापों के गुणगान के लिए उपयोग किया जाता था।

प्रबन्ध में सिख नियंत्रण के कमजोर होने और सरकारी नियंत्रण बढ़ने से मंदिर के दैनिक कार्यों में प्रबन्धक और ग्रन्थी डिप्टी कमिश्नर से आदेश लेने लगे और सिख परम्परा तथा भावनाओं की अनदेखी करने लगे। सरकार द्वारा नियुक्त सर्बराह, अपने नियोजक को प्रसन्न करने के पश्चात् अपना समय मंदिर की सम्पत्ति के दुरुपयोग में व्यतीत करने लगा और अपने धार्मिक कार्यों की अवहेलना करने लगा। मंदिर की बहुमूल्य भेटें धीरे-धीरे सर्बराहों और ग्रन्थियों के घर जाने लगीं।

मंदिर क्षेत्र पुरोहितों और ज्योतिषियों द्वारा प्रयोग होने लगा तथा गुरुद्वारों के अन्दर खुले आम मूर्ति पूजा होने लगी। समकालीन लेखों के अनुसार, वसंत और होली त्योहारों पर सभी स्थान स्थानीय बदमाशों, चोरों और दूसरे दुश्चरित्र लोगों के अड्डे बन जाते। अश्लील साहित्य खुले आम बिकता और पड़ोस के घरों में वेश्यालय खुलते, जहाँ पर पवित्र मंदिर में आने वाली महिलाएँ कामुक साधु, महन्त और उनके मित्रों की शिकार बनतीं।

जाति के आधार पर भेदभाव

सिख धर्म में जाति के आधार पर भेदभाव नहीं है, फिर भी स्वर्ण मंदिर के मुख्य ग्रन्थी ने नीची जाति वाले मजहबी सिखों को सीधे स्वर्ण मंदिर में प्रसाद नहीं चढ़ाने दिया। उनको मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के लिए एक उच्च जाति का सेवादार किराये पर लेना पड़ा। सिख जाति में कई सधार आंदोलनों और सामाजिक धार्मिक जागति के परिणामस्वरूप अमृतसर की सिख बिरादरी ने नीची जाति के लोगों के साथ मेल-मिलाप, अंतर्विवाह और सामाजिक भोजन की वकालत की। जब स्वर्ण मंदिर के ग्रन्थियों ने नीची जाति के लोगों को अन्दर आकर स्वयं प्रसाद नहीं चढ़ाने दिया तो खालसा बिरादरी ने इस विषय पर जन-जागरण कर ग्रन्थियों के अधिकार को चुनौती देने का निश्चय किया।

उन्होंने 12 अक्तूबर, 1920 में, अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक दीवान का आयोजन किया, जिसमें प्रो० तेजा सिंह, बाबा हरकिशन सिंह और जत्थेदार करतार सिंह झाब्बार तथा अन्य सधार आंदोलन के प्रमख नेताओं ने भाग लिया। दीवान में उन अछूतों को, जिन्होंने सिख धर्म पर आस्था जताई, अमृत छकाया गया। तत्पश्चात् प्रमुख सिख नेताओं ने उनके साथ भोजन किया और धार्मिक जलस के रूप में स्वर्ण मंदिर की ओर चल पड़े जब वह मंदिर में पहुँचे तो ड्यूटी वाले ग्रन्थी भाई गुरूवचन सिंह ने नीची जाति वालों से प्रसाद लेने से और उनके लिए प्रार्थना करने से इनकार कर दिया।

काफी विवाद के बाद निर्णय गरु ग्रन्थ साहिब के पाठ से सुझाया गया। निर्णय सधारवादियों के हक में गया। ग्रन्थियों ने स्थिति परिवर्तन को नहीं माना और विरोध में मंदिर से चले गये। पवित्र पस्तक गरु ग्रन्थ को ग्रन्थी बिना किसी को सौंपे छोड़ गए थे, स्धारको ने स्थिति पर नियंत्रण कर स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त के प्रबन्ध के लिए एक समिति बनाई।

अतः आपने देखा कि सुधारक :

  • मंदिर प्रबन्धकों द्वारा चन्दे का दरूपयोग
  • मंदिर परिसर का असामाजिक और भ्रष्ट लोगों द्वारा प्रयोग, और
  • नीची जाति वालों के पवित्र मंदिर में प्रवेश की मनाही के बारे में बहत अधिक चिंतित थे।

ननकाना दुर्घटना

अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त का प्रबन्ध संभालने के पश्चात् सुधारकों ने दूसरे सिख गुरुद्वारों की ओर ध्यान दिया। ननकाना में गुरु नानक देव के जन्म स्थान पर गुरुद्वारा जन्म स्थान और दूसरे मंदिरों पर वंशानुगत महन्तों का प्रभत्व था। ननकाना के गुरुद्वारा । जन्म स्थान का प्रमख नारायण दास कई सामाजिक और धार्मिक बराइयों, जैसे वेश्या रखना, गुरुद्वारे में नाचने वाली लड़कियों को बलाना तथा पवित्र स्थान पर गन्दे गाने गाना आदि। करने लगा। कई सिख नेताओं के विरोध के बाद भी महन्त ने उन बुराइयों को नही छोड़ा। परिणामस्वरूप 130 सुधारकों ने, जिसमें महिलाएं भी थीं, गुरुद्वारा जन्म स्थान की ओर भाई लछमन सिंह के नेतृत्व में प्रस्थान किया। 20 फरवरी, 1921 को प्रातः जब जत्था गुरुद्वारे पर पहँचा तो निहत्थे और शान्तिप्रिय सधारकों पर महन्त के भाडे के सैनिकों ने आक्रमण किया।

कई सुधारक मारे गए और घायलों को वृक्षों के साथ बाँध कर जला दिया गया। साक्ष्य को नष्ट करने के लिए महन्त के आदमियों ने सभी शवों को एकत्र कर भस्म कर दिया। महन्त द्वारा जत्थे के सभी 130 व्यक्तियों की मार्मिक हत्या से देश में शोक और क्रोध की लहर दौड़ गई। महन्त के इस जघन्य कार्य की महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने निन्दा की। महात्मा गांधी 3 मार्च को ननकाना में अकाली सुधारकों के साथ सहानुभूति प्रकट करने आये। अपने भाषण में महात्मा गांधी ने महन्त के कार्य की निंदा की और अकाली सधारकों को सरकारी जाँच आयोग से असहयोग का सुझाव दिया।

महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रीय नेताओं के सुझाव पर अकाली सुधारकों ने अपने आंदोलन को और व्यापक बनाया उन्होंने दोनों ओर आक्रमण किया। एक ओर उन्होंने महन्त के भ्रष्टाचार का और दूसरी ओर पंजाब सरकार का विरोध किया । इस परिवर्तन के कारण अकाली आन्दोलनकारियों ने तोशखाने की कंजी और बाद में शान्तिपूर्ण गुरु-का-बाग संघर्ष में भाग लिया।

तोशखाना कंजियों की समस्या

जैसे पहले कहा गया है कि जब ग्रन्थी अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त को छोड़ गए तो अकाली सुधारकों ने इनका प्रबन्ध सम्भाल कर इनके लिए एक समिति का गठन  किया। समिति ने सरकार द्वारा नियुक्त प्रबन्धक को तोशखाना (कोष) की कजियाँ देने को कहा। इससे पहले कि प्रबन्धक कुंजियाँ दे पाता तभी ब्रिटिश डिप्टी कमिश्नर उससे कुंजियाँ लेकर चला गया। सरकार के इस कार्य ने सिख जाति में गहरा असंतोष उत्पन्न किया। कुंजियों को वापस लेने के लिए अकाली सुधारकों ने एक शक्तिशाली आंदोलन प्रारम्भ किया जो “कुंजियों की समस्या” के नाम से प्रसिद्ध है। इस आंदोलन में सिख सुधारकों का साथ

पंजाब में कांग्रेस के स्वयंसेवकों ने भी दिया। महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन चल रहा था, तभी पंजाब सरकार ने कांग्रेस कार्य से अकाली सधारकों को अलग करने के लिए “कंजी समस्या के सम्बन्ध में गिरफ्तार सभी अकाली स्वयंसेवकों को छोड़ दिया और स्वर्ण मंदिर के कोष की कंजियाँ सभा के प्रधान को सौंप दी। राष्ट्र ने अकाली सधारकों की इस विजय को राष्ट्रीय शक्तियों की विजय माना। इस अवसर पर महात्मा गांधी ने बाबा खड़क सिंह, अध्यक्ष शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी को निम्न तार दियाः

“भारत की स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध में विजय हुई मुबारक हो।”

फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा हिंसा तथा महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रीय नेताओं की गिरफ्तारी के परिणामस्वरूप असहयोग आंदोलन स्थगित हआ। इसके बाद पंजाब सरकार ने अकाली सधारकों को ‘पाठ’ पढाने की सोची। इसने एक और आंदोलन को जन्म दिया, जोकि गुरू-का-बाग मोर्चा के नाम से प्रसिद्ध है।

गुरु-का-बाग मोर्चा

जैसे पर्व कहा गया है कि कंजियों की समस्या के सम्बन्ध में पकड़े गए अकाली कैदियों की बिना शर्त रिहाई और सभा को कंजियों की वापसी से पंजाब सरकार की प्रतिष्ठा को धक्का लगा। पंजाब सरकार के अधिकारियों ने अपनी खोई हई प्रतिष्ठा को पनः प्राप्त करने के लिए गुरु-का-बाग गुरुद्वारे के सुखे कीकर वृक्षों की लकड़ी काट रहे अकाली स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस का तर्क था कि सूखी लकड़ी गुरुद्वारे के महन्त की निजी सम्पत्ति है और अकाली सुधारक इनको लंगर के लिए ले जाकर “चोरी” कर रहे हैं। सूखी लकड़ियों को लंगर के लिए काटने के अधिकार के समर्थन में अकाली जत्थे गुरु-का-बाग की ओर चल पड़े, जहाँ पुलिस ने इन सुधारकों को गिरफ्तार कर लिया।

5,000 सुधारकों को गिरफ्तार करने के पश्चात् पंजाब सरकार की जेलों में इन सुधारकों के लिए स्थान न रहा। वे उनकी निष्ठरता से पिटाई, जब तक वे बेहोश न हों, करने लगे। पिटाई के बाद उन्हें रिहा कर दिया जाता। गुरु-का-बाग के इस दमन से अकाली सुधारकों ने राष्ट्रीय नेताओं और समाचारपत्रों की सहानभूति और समर्थन प्राप्त किया।

आदरणीय सी.एफ. एड्यूज-एक ब्रिटिश मिशनरी, जोकि भारतीय राजनीतिक चेतना के प्रति सहानुभूति रखते थे, गरु-का-बाग में अकालियों की पिटाई देखकर और निर्दोष अकाली स्वयंसेवकों के कष्टों को देखकर इतना द्रवित हुए कि उन्होंने “पुलिस के कार्य को अमानवीय, पाशविक, बुरा और कायराना, एक अंग्रेज़ के लिए अविश्वसनीय और इंग्लैंड की नैतिक हार कहा।”

इस सरकारी कार्य की राष्ट्रीय नेताओं द्वारा आलोचना और उसे समाचारपत्रों के खूब उछालने पर पंजाब के गवर्नर ने गरु-का-बाग अकाली जत्थों की पिटाई रोकने का पलिस को आदेश दिया। गरु-का-बाग आंदोलन में सभी गिरफ्तार व्यक्तियों को बिना शर्त छोड़ दिया गया तथा स्वयंसेवकों को बाग से लकड़ी काटकर गुरु-का-बाग गुरुद्वारे के लंगर में ले जाने की अनुमति दे दी गई।

नाभा में अकाली आंदोलन

“कुजियों की समस्या” और गुरु-का-बाग के दोनों आंदोलनों में अकाली सधारकों की जीत से अकाली नेताओं की शक्ति, प्रतिष्ठा और मनोबल को बहत बल मिला। अपनी इस जीत की घड़ी में उन्होंने एक और आंदोलन का सत्रपात किया। उन्होंने नाभा के महाराजा रिपदमन सिंह, जिसे ब्रिटिश सरकार ने बलपर्वक सिंहासन से हटा दिया था, पनः स्थापना की माँग की। इस विषय का अकाली आंदोलनों से सीधा सम्बन्ध नहीं था, क्योंकि अभी तक इन आंदोलनों के मुख्य विषय सामाजिक और धार्मिक सुधार ही थे।

अकाली सुधारकों का प्रान्त में एक शक्तिशाली राष्ट्रीय विरोध के रूप में उदय होने के कारण कांग्रेस नेतृत्व ने उनके नाभा आंदोलन का समर्थन किया। नई दिल्ली में सितम्बर, 1923 में कांग्रेस कार्यसमिति के विशेष अधिवेशन ने जवाहरलाल नेहरू. ए. टी. गिडवानी और के. सन्थानम को नाभा में पर्यवेक्षक के रूप में भेज कर स्थिति की सचना कार्यसमिति को देने का निर्णय लिया।

नेहरू और उसके सहयोगियों को नाभा के क्षेत्र में प्रवेश करते ही गिरफ्तार कर लिया गया और उनको मनगढ़त अपराधों के अधीन जेल भेज दिया गया। अपने नाभा जेल के प्रवास में कांग्रेस पर्यवेक्षकों को अकाली संघर्ष का आंतरिक ज्ञान ही नहीं हआ. बल्कि ब्रिटिश प्रशासन के अधीन नाभा के सिख राज्य में न्याय व्यवस्था की मनमानी का भी पता चला।

जवाहरलाल नेहरू ने 23 नवम्बर, 1923 में नाभा जेल में अपने लेख में नाभा की न्याय व्यवस्था की मनमानी और कटिलता के कारण आलोचना की है और अकालियों के साहस और बलिदान की प्रशंसा की। (देखें एस. गोपाल द्वारा संपादित “सलेक्टिड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू’, प्रथम खंड पृष्ठ 369-375)। मल हस्तलिखित लेख का अन्तिम भाग इस प्रकार है:

“मझे प्रसन्नता है कि मझ पर उन कार्यों के लिये मकदमा चलाया जा रहा है, जिसे सिखों ने अपना लिया है। मैं जेल में था, जब सिख जनता गरु-का-बाग आंदोलन में जी जान से जझकर जीती। मैं अकालियों के साहस और बलिदान से प्रभावित था और चाहता था कि मझे उनके किसी सेवा कार्य का सअवसर मिले. ताकि मैं उनके प्रति । गहरी प्रशंसा व्यक्त कर सकँ। वह अवसर अब मिल गया है और मैं पर्ण आशा करता हँ कि मैं उनकी उच्च परम्परा और अदम्य साहस के अनरूप बन सकँगा। सत् श्री अकाल।”

सेण्ट्रल जेल नाभा

                                                                                                                                               जवाहरलाल नेहरू सितम्बर 25. 1923

गुरुद्वारा बिल का पारित होना और अकाली आंदोलन की समाप्ति

नाभा में अकाली आंदोलन का नाभा के ब्रिटिश प्रशासक और पटियाला के सिख महाराजा भपिन्दर सिंह ने कड़ा विरोध किया। फरवरी, 1924 में जैतो में शहीदी जत्थे पर गोली चलने से आंदोलन ने फिर गंभीर मोड़ ले लिया। अकाली आंदोलन से ब्रिटिश सेना में सिख सैनिक प्रभावित हो सकते थे। साथ ही अकाली आंदोलनों द्वारा कांग्रेस के आदर्श और कार्यक्रमों का पंजाब के सिख कृषकों पर प्रभाव पड़ रहा था। इन घटनाओं के कारण पंजाब सरकार ने मजबूर होकर अकाली समस्या सुलझाने के लिए जुलाई, 1925 में एक बिल पारित किया, जिससे सिख समाज को अपने गरुद्वारों के प्रबन्ध के लिए कार्यकर्ताओं के चनाव का कानूनी अधिकार मिला। इस अधिनियम ने महन्तों के वंशानुगत अधिकार को समाप्त कर गुरुद्वारा प्रबन्ध के लिए लोकतान्त्रिक व्यवस्था की स्थापना की। इसके साथ ही पंजाब में पाँच वर्षों से चल रहे अकाली आंदोलन की समाप्ति हुई इसमें 30.000 से अधिक अकाली स्वयंसेवक जेल गये और उनके समर्थकों ने नौकरियाँ, पेंशन गवाईं और बड़े हर्जाने भरे ।

इस आंदोलन से अकाली सुधारकों ने वंशानुगत महन्तों के प्रबन्ध से अपने ऐतिहासिक सिख . मंदिरों को स्वतंत्र कराने में सफलता प्राप्त की। इससे निम्न सामाजिक बुराइयों का अंत  हुआः

  • स्वर्ण मंदिर में नीची जाति वाले सिखों द्वारा भेंट देने तथा पूजा की मनाही
  • गुरुद्वारों से प्राप्त आय का महन्तों द्वारा निजी उपयोग
  • नाचने गाने वाली लड़कियों का गुरुद्वारा परिसर में आमंत्रण और अन्य सामाजिक बुराइयाँ।

आंदोलन ने लोगों में धार्मिक और राजनीतिक जागृति भी उत्पन्न की। उनको अनुभव कराया गया कि सिख परम्परा में जाति के आधार पर कोई धार्मिक बंधन नहीं। गुरुद्वारा अधिनियम के अनसार, किसी भी जाति का सिख किसी भी पद के लिए, जिसमें शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी का प्रधान पद भी सम्मिलित है, चुनाव लड़ सकता है। सिख महिलाओं को भी पुरुषों के समान मत देने का अधिकार मिला वे सिख मंदिरों में सभी धार्मिक और सामाजिक कर्तव्य कर सकती थीं।

अकाली आंदोलन ने पटियाला, नाभा, जींद और फरीदकोट जैसे सिख राज्यों के लोगों, जो धार्मिक और सामाजिक शोषण से पीड़ित थे, को सामाजिक जागृति प्रदान की। सिख राज्यों के गाँवों में अकाली जत्थों ने लोगों को नैतिक समर्थन दिया, जिससे कि वे अपनी सामाजिक बुराइयों से लड़ सकें। यह विचारणीय है कि अकाली आंदोलन समाप्त होने के पश्चात् भी सिख राज्य के लोगों ने सरदार सेवा सिंह ठीकरीवाला के नेतृत्व में लड़ाई जारी रखी। प्रजा मंडल और राज्य लोक कान्फ्रेंस ने अपना संघर्ष तब तक जारी रखा, जब तक कि भारत स्वतंत्र नहीं हुआ और सभी राज्य भारत संघ राज्य में नहीं मिल गए।

सारांश

इस इकाई में आपने पढ़ा कि कैसे सिख धर्म, जो कर्मकाण्ड और जातिवाद के विरोध में प्रारम्भ हुआ, शीघ्र स्वयं जातिवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों में आ फँसा। उनके धार्मिक स्थानों में कुप्रबन्ध और भ्रष्टाचार फैल गए। कई आंदोलनों ने इन करीतियों को समाप्त करने का प्रयत्न किया। फिर भी, इन सबमें अकाली आंदोलन ही शक्तिशाली और अधिक विस्तृत था। ब्रिटिश सरकार अकाली माँगों के प्रति बड़ी । असहानुभूति रखती थी और उसे कचलना चाहती थी। अतः अकाली आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन से सम्पर्क स्थापित किया। इसे राष्ट्रीय नेताओं से भरपूर सहायता मिली। लम्बे संघर्ष के बाद अकालियों ने अपने मंदिरों के प्रबन्ध को भ्रष्टाचार से मुक्त कराया। गुरुद्वारों को भ्रष्टाचार से मक्त कर सभी जाति के लोगों के लिए उसके द्वार खोले। सरकार को मजबर होकर गुरुद्वारा अधिनियम, 1925 पारित करना पड़ा, जिससे सिख मंदिरों के प्रबन्ध में लोकतंत्रता आई।

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