रौलट सत्याग्रह
1917-18 में गांधी जी ने राष्ट्रव्यापी मुद्दों पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने ऐनीबीसेंट की नज़र बंदी का विरोध किया था और अली बंधुओं (मुहम्मद अली और शौकत अली), की जेल से रिहाई की भी मांग की थी। अली बंधु खिलाफत को लेकर गिरफ्तार किये गये थे। उस समय के अन्य राजनीतिक नेताओं की भाँति गांधी जी ने सुधार प्रस्तावों में कोई विशेष रुचि नहीं ली थी लेकिन जिस समय अंग्रेजी सरकार ने रौलट ऐक्ट को पारित करने का निर्णय लिया तो गांधी जी ने राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रूप से हिस्सा लेने का निर्णय लिया।
रौलट ऐक्ट
1917 में भारतीय सरकार ने जस्टिस सिडनी रौलट की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था जिसका उद्देश्य क्रांतिकारियों के कार्यों की जांच-पड़ताल करते हुए उनके दमन के लिये कानून प्रस्तावित करना था। स्थिति का जायजा लेने के उपरांत रौलट कमेटी ने कानून में कई प्रकार के परिवर्तन किये जाने का सुझाव रखा। इन सुझावों को ध्यान में रखते हुए भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय काउंसिल के सम्मख दो विधेयक 6 फरवरी, 1919 के दिन प्रस्तुत किये। सरकार का यह दावा था कि षड्यंत्रकारी अपराधों को रोकने के लिए यह विधेयक केवल अस्थायी आधार पर अपनाये जा रहे हैं।
ये विधेयक वास्तव में जो प्रतिबंध युद्ध के दौरान लगाये गये थे उन्हें स्थाई रूप देने के उद्देश्य से प्रेरित थे। इनके अंतर्गत अपराधियों पर एक विशेष न्यायालय के द्वारा मकदमा चलाया जा सकता था जिसमें कि तीन हाई कोर्ट के जज सदस्य होने थे। इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील का कोई प्रावधान नहीं था और न्यायालयों की कार्यवाही भी खुले तौर पर नहीं होनी थी। किसी भी व्यक्ति को बिना वारेंट के गिरफ्तार किया जा सकता था या उसकी तलाशी ली जा सकती थी। बिना मुकदमा चलाये ही किसी भी व्यक्ति को दो वर्ष तक जेल में रखा जा सकता था। भारतीय राष्ट्रवादियों की यह धारणा थी कि यह बिल उस गैर सरकारी और सरकारी जनमत को संतुष्ट करने के लिए लाये गये थे जिसने कि मोन्टेग्यु सुधार प्रस्तावों का विरोध किया था।
आंदोलन
सारे देश में इन बिलों की आलोचना की गयी। गांधी जी ने भी इनके विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। उनके अनुसार जो शक्तियाँ सरकार को दी जा रही थीं वे खतरे से खाली नहीं थीं और वाइसराय को बहुत पहले से ही आपातकालीन शक्तियाँ प्राप्त थीं। उन्होंने यह भी कहा कि ये ऐसे दमनकारी बिल हैं जो कि सधारों के सभी प्रस्तावों को रद्द कर देते हैं। गांधी जी केवल बिलों के प्रावधान के ही विरोधी नहीं थे बल्कि उस प्रक्रिया के भी विरोधी थे जिसमें कि जनमत की अवहेलना करते हुए इन्हें लागू किया जाना था। 24 फ़रवरी 1919 के दिन बंबई में इन बिलों का विरोध करने के लिए गांधी जी ने एक सत्याग्रह सभा का संगठन किया। इस सभा के सदस्यों ने यह शपथ ली कि वे अत्यन्त ही सभ्य तरीके से, जिनका कि निर्णय एक कमेटी द्वारा लिया जाएगा, इन बिलों का विरोध करेंगे और इस संघर्ष में वे सच्चाई का रास्ता अपनाते हए किसी भी प्रकार की हिंसा से दूर रहेंगे। सत्याग्रह आंदोलन का प्रारंभ करते हुये गांधी जी ने यह कहा था : “मेरा यह पक्का विश्वास है कि हमें कष्ट सहकर ही अपनी मक्ति प्राप्त होगी, न कि अंग्रेजों द्वारा टपकाये गये सुधारों से। वह क्रूर शक्ति इस्तेमाल करते हैं जबकि हम आत्मा की शक्ति।”
सारे देश में विरोध के बावजूद सरकार अपने निर्णय पर अड़ी रही। समस्त गैर सरकारी सदस्यों द्वारा इनके खिलाफ़ मत दिये जाने के बावजूद काउंसिल ने एक बिल पारित कर दिया। 21 मार्च, 1919 के दिन वाइसराय ने बिल को अपनी सहमति प्रदान कर दी। इस समय उदारवादी नेताओं के गुट ने जिसमें कि सर डी.ई वादी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, तेज बहादूर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री शामिल थे, गांधी जी द्वारा सत्याग्रह प्रारंभ किये जाने का विरोध किया। उनका तर्क था कि सत्याग्रह सुधारों की प्रक्रिया में बाधा डालेगा। वे यह भी समझते थे कि आम नागरिक सभ्य तरीके से रौलट ऐक्ट का विरोध नहीं कर पायेगा। ऐनीबीसेंट ने भी सत्याग्रह का विरोध किया क्योंकि वह यह समझती थी कि ऐसा करना खतरनाक होगा।
परंतु होम रूल लीग में जो युवा सदस्य थे उन्होंने गांधी को अपना समर्थन दिया। वास्तव में देश के विभिन्न क्षेत्रों में यवा वर्ग ही सबसे आगे आया। लखनऊ के अब्दल बारी और कुछ मस्लिम लीग के सदस्यों ने भी गांधी जी को अपना समर्थन दिया। महम्मद अली जिन्ना ने भी रौलट बिल का तीव्र विरोध किया और सरकार को चेतावनी दी कि यदि वह भारत की जनता पर यह “कानून विहीन कानून” थोपती है तो इसका भयंकर परिणाम होगा।
सत्याग्रह का प्रारंभ करने के लिए गांधी जी ने देशवासियों को हड़ताल करने को कहा। इस दिन कोई कार्य नहीं होना था। जनता को उपवास रखना था। प्रार्थना करनी थी और इस प्रकार बिलों का विरोध करना था। आरंभ में हड़ताल की तिथि 30 मार्च रखी गयी थी परंत बाद में इसे बदलकर 6 अप्रैल कर दिया। विभिन्न क्षेत्रों में और विभिन्न नगरों में हड़ताल को सफलता मिली। दिल्ली में 30 मार्च के दिन ही हड़ताल की गयी और इस दिन पुलिस की गोली से 10 व्यक्ति मारे गये। अन्य बड़े नगरों में हड़ताल 6 अप्रैल को हई और जनता ने व्यापक सहयोग दिया। गांधी जी ने हड़ताल को एक महान सफलता बतायी।
7 अप्रैल को गांधी जी ने सत्याग्रहियों को यह सझाव दिया कि वे प्रतिबंधित साहित्य संबंधी कानन को और समाचार पत्रों के पंजीकरण संबंधी कानूनों को न मानें। इन कानूनों का विरोध करना, विशेष तौर से इसलिए चना गया था क्योंकि अन्य कानूनों को व्यक्तियों द्वारा तोड़ने पर हिंसा हो सकती थी। इसके लिए 4 किताबों को, जिनमें गांधी जी कि “हिन्द स्वराज” भी शामिल थी, जिसे बंबई सरकार ने 1910 में प्रतिबंधित कर दिया था, बिक्री के लिये चुना गया।
8 तारीख को गांधी जी बंबई से दिल्ली और पंजाब के लिये रवाना हये। सरकार ने यह माना कि उनका पंजाब आगमन खतरनाक हो सकता है। अतः दिल्ली के निकट गांधी को गाडी से उतारकर वापस बंबई भेज दिया गया। शीघ्र ही गांधी जी की गिरफ्तारी की खबर फैल गयी। इससे बंबई में स्थिति तनावपर्ण हो गयी और अहमदाबाद व वीरांदम में हिंसा भी हई। अहमदाबाद में सरकार को मार्शल लॉ लगाना पड़ा।
सर्वाधिक हिंसा पंजाब में, विशेष तौर से अमृतसर में फैली। अमृतसर में जिस समय गांधी जी की गिरफ्तारी की खबर पहँची तो उसी समय वहाँ के दो स्थानीय नेताओं, डॉ किचल और डॉ सत्यपाल को भी गिरफ्तार किया गया था (10 अप्रैल)। जनता हिंसा पर उतारू हो गयी। और कुछ सरकारी कार्यालयों में आग लगा दी गयी। 5 अंग्रेजों की हत्या कर दी गयी और एक अंग्रेज़ महिला से अभद्र व्यवहार भी किया गया। शहर पर से नागरिक प्रशासन का नियंत्रण लगभग समाप्त हो गया।
13 अप्रैल के दिन जनरल डायर ने जलियाँवाला बाग में निहत्थे लोगों की शांतिपूर्ण सभा पर गोलियाँ चलवाईं। अधिकांश लोगों को इस बात की कोई खबर ही नहीं थी कि सरकार द्वारा सभा करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी के गोलियाँ चलवाई थीं। डायर ने आगे चलकर यह स्वीकार किया कि उसका उद्देश्य मात्र सभा को तितर-बितर करना नहीं था, वह तो जनता को मानसिक तौर से भयभीत करना चाहता था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस गोली कांड में 379 व्यक्ति मारे गये थे परंत गैर सरकारी आँकड़े इससे तीन गना अधिक थे। 13 अप्रैल की रात को ही पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया गया।
महत्ता
यह स्पष्ट है कि रौलट ऐक्ट के विरुद्ध चलाया गया आंदोलन किसी योजनाबद्ध तरीके पर आधारित नहीं था। सत्याग्रह सभा केवल ऐक्ट के विरुद्ध प्रचार हेतु साहित्य प्रकाशित कर रही थी या उसके विरुद्ध दस्तख इकट्ठे कर रही थी। एक संगठन के रूप में कांग्रेस कहीं पर भी नजर नहीं आ रही थी। अधिकांश क्षेत्रों में जनता ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपनी सामाजिक और आर्थिक शिकायतों के कारण स्वयं हिस्सा लिया था।
लेकिन एक बात स्पष्ट है कि गाँधी जी द्वारा किये गये सत्याग्रहों ने विभिन्न वर्गों और समुदायों के लोगों को एक स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया था। यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि यद्यपि गांधी जी ने पंजाब की यात्रा नहीं की थी तथापि इस आंदोलन में पंजाब की जनता ने व्यापक रूप से हिस्सा लिया था। लेकिन यह आंदोलन अभी भी शहरों में ही तीव्र रूप ले पाया था, भारत के ग्रामीण क्षेत्र तक इसका फैलाव नहीं हो पाया था।
आंदोलन के दौरान जो हिंसा की घटना हुई थीं, विशेष तौर से अहमदाबाद में, उन्हें देखते हुए गांधी जी ने सत्याग्रह वापस ले लिया। गांधी जी ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने यह आंदोलन शुरू करके एक महान भूल की थी क्योंकि जनता अभी सत्याग्रह के लिए आवश्यक अनुशासन को नहीं समझ पाई थी। परंतु इस आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह निकला कि गांधी जी एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर कर सामने आये। राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व में उनकी स्थिति सबसे ऊपर हो गयी और वे कांग्रेस के कार्यों को भी निर्णयात्मक रूप से प्रभावित करने लगे। 1917 के कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में गांधी जी ने प्रस्ताव किया कि यद्यपि सुधारों में कुछ कमियाँ मौजूद हैं तथापि भारतीयों को उनके लागू करने में सहयोग देना चाहिए। लेकिन सितम्बर 1920 में गांधी जी ने सरकार से सहयोग की अपनी नीति बदल दी और असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया।