“अहिंसा दासत्व जैसी निष्क्रियता नहीं है बल्कि एक शक्तिशाली नैतिक बल है जो सामाजिक परिवर्तन में मदद करता है” : डॉ मार्टिन लूथर किंग
प्रश्न: “अहिंसा दासत्व जैसी निष्क्रियता नहीं है बल्कि एक शक्तिशाली नैतिक बल है जो सामाजिक परिवर्तन में मदद करता है”। टिप्पणी कीजिए।
दृष्टिकोण
- उपर्युक्त कथन के संदर्भ का उल्लेख करते हुए, इसके अर्थ का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- उदाहरणों सहित इसका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए कि कैसे अहिंसा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को सकारात्मक रूप से सहायता प्रदान कर सकती है।
उत्तर
उपर्युक्त कथन डॉ मार्टिन लूथर किंग द्वारा 1964 के अपने नोबेल पुरस्कार स्वीकृति भाषण में प्रयुक्त किया गया था। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन में अहिंसा की क्षमता को स्वीकार किया, क्योंकि यह समय-समय पर उठाए जाने वाले महत्वपूर्ण राजनीतिक और नैतिक प्रश्नों का उत्तर प्रदान करती है।
अहिंसा प्रत्येक परिस्थिति में स्वयं को और दूसरों को हानि न पहुँचाने का व्यक्तिगत प्रयास है। परन्तु किसी भी अर्थ में, इसका आशय निष्क्रियता या अकर्मण्यता नहीं है, बल्कि यह एक गतिशील जीवंत बल है, जो सहन करने और त्याग करने की भावना उत्पन्न करता है। यह इस तथ्य पर आधारित है कि अहिंसा ताकतवर व्यक्ति का गुण है, कमजोरों का नहीं है – अर्थात् क्षमा करना ताकतवर व्यक्ति का सद्गुण है और कमजोर व्यक्ति क्षमा नहीं कर सकता।
अहिंसा एक शांत, सूक्ष्म, अदृश्य रूप में कार्य करती है और संपूर्ण समाज को परिवर्तित कर देती है। यह निरंकुशता का सामना करने हेतु किसी व्यक्ति की आत्मा को बल प्रदान करती है। आधुनिक समय में, यह मानव जाति के व्यवस्थापन के लिए सबसे बड़ा नैतिक बल और क्रांतिकारी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन एवं न्याय के लिए एक प्रभावशाली साधन है। गांधी जी ने कहा था, अहिंसा शारीरिक हानि पहुँचाने के स्थान पर निरंकुशता की मूल भावना पर आघात करने का कार्य करती है। इसके द्वारा लाया गया परिवर्तन अधिक स्थायी होता है।
अहिंसा मानवता के अंतर्निविष्ट मूल्यों के साथ समझौता किए बिना मौजूदा सामाजिक व्यवस्था के लिए अपेक्षित परिवर्तन को सुनिश्चित करती है। इसे विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है जैसे कि:
- अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों के नागरिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु मार्टिन लूथर किंग ने अहिंसक साधनों को अपनाया था।
- हरिजनों के साथ कार्य करते हुए अहिंसा के माध्यम से अस्पृश्यता की प्राचीन व्यवस्था के विरुद्ध गांधीजी का संघर्ष।
- रौलेट एक्ट और नमक सत्याग्रह के विरुद्ध गांधीजी के अहिंसक संघर्ष ने समकालीन राष्ट्रवादी चिंतन को और समृद्ध किया था।
अहिंसा को कोई पराजित नहीं कर सकता है। इसकी कोई सीमा नहीं है और यह जीवन के प्रत्येक पहलू पर लागू होती है। यहाँ तक कि अहिंसक प्रतिरोधकों के समूह को स्थापित करने हेतु अधिक धन के व्यय की भी आवश्यकता नहीं होती है।
दूसरी ओर, हिंसक परिवर्तन न तो सफलता की और न ही दीर्घकालिक शांति की गारंटी प्रदान करता है। हिंसा केवल समाज को नष्ट कर सकती है; यह इसका निर्माण या परिवर्तन नहीं कर सकती है। फ्रांसीसी क्रांति से लेकर वर्तमान के वियतनाम, कोरिया और अरब-इजरायल संघर्ष से संबंधित कई उदाहरण इसी तथ्य को सत्यापित करते हैं। हिंसा कभी भी यथोचित सामाजिक परिवर्तन करने हेतु आवश्यक नैतिक अधिकार प्राप्त नहीं करती है।
एक अहिंसक क्रांति का उद्देश्य केवल वर्ग या राष्ट्र या जाति से मुक्ति ही नहीं होता है, बल्कि यह मानव जाति की मुक्ति का प्रयास करती है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने सही टिप्पणी की थी – “अहिंसा एक शक्तिशाली और न्यायोचित हथियार है। हालांकि, यह एक ऐसा हथियार है जिसका अद्वितीय इतिहास रहा है, जो घायल किए बिना आघात करता है और उस व्यक्ति को महान बनाता है जो इसे धारण करता है।”
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