ADR की पृष्ठभूमि : भारत में उपलब्ध विभिन्न ADR तंत्र

प्रश्न: भारत में उपलब्ध विभिन्न वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्रों पर प्रकाश डालते हुए, उनके महत्व की व्याख्या कीजिए। साथ ही, भारत में ADR के ढांचे में आगे और सुधार लाने के लिए अपनाए गए विभिन्न उपायों का भी उल्लेख कीजिए।

दृष्टिकोण

  • ADR की एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि प्रस्तुत कीजिए।
  • भारत में उपलब्ध विभिन्न ADR तंत्रों पर प्रकाश डालिए। 
  • एडवर्सरी सिस्टम (सामान्य न्यायालयी प्रणाली) के सापेक्ष न्याय वितरण में इनकी भूमिका का महत्व स्पष्ट कीजिए। 
  • भारत में ADR के ढांचे में सुधार लाने के लिए अपनाए गए विभिन्न उपायों का वर्णन कीजिए।

उत्तर

ADR की अवधारणा अधिनिर्णयन या मुकदमेबाजी की पारम्परिक पद्धतियों हेतु एक विकल्प प्रदान कर न्यायिक प्रणाली को पूरकता प्रदान करती है। सिविल प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 89 के अंतर्गत ADR की विभिन्न पद्धतियों का प्रावधान किया गया है जो निम्नलिखित हैं:

  • पंचाट (आर्बिट्रेशन): यह एक समझौता होता है जिसे पक्षकारों द्वारा किसी आर्बिट्रेटर के समक्ष प्रस्तुत करने हेतु हस्ताक्षरित किया जाता है।
  • मध्यस्थता (मीडिएशन): इसमें कोई मध्यस्थ (सामान्यतया एक न्यायालय) विवादित पक्षकारों को आगे बढ़ने तथा मध्यस्थ की सहायता से विवाद का समाधान करने हेतु प्रेरित करता है। ये समझौता बाद में एक ‘समझौता डिक्री (compromise decree)’ में परिवर्तित हो जाता है।
  • सुलह (कॉनसिलिएशन): इसका प्रयोग क़ानूनी संबंधों (जो स्वभाव में सामान्यतः संविदात्मक होते हैं) से उत्पन्न विवादों का समाधान करने हेतु किया जाता है। इसमें पक्षकारों के अधिकारों एवं दायित्वों के साथ ही साथ संबंधित व्यापार की परिपाटी तथा विवाद से संबंधित परिस्थितियों पर भी ध्यान दिया जाता है।
  • लोक अदालत: यह विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम,1987 के अधीन गठित की जाती है। यह लोक सुलह (public conciliation) का एक माध्यम होती है। इसकी अध्यक्षता 2 या 3 व्यक्ति करते हैं, जो न्यायाधीश अथवा अनुभवी अधिवक्ता होते हैं। इन्हें सीमित रूप में एक दीवानी न्यायालय की शक्तियां प्रदान की जाती हैं।
  • छोटे दीवानी और फौजदारी मामलों के समाधान हेतु जमीनी स्तर पर न्याय पंचायतों या ग्रामीण आदालतों का गठन किया गया है। ये अदालतें स्थानीय परम्पराओं, संस्कृति और ग्रामीण समुदाय के व्यवहार प्रतिरूपों द्वारा निर्देशित होती हैं। इस प्रकार ये अदालतें न्याय प्रशासन में विश्वास का समावेश करती हैं। इस प्रणाली के अंतर्गत आपसी समाधान पर बल दिया जाता है।

न्याय प्रदान करने एवं भारत में लोगों के अधिकारों की रक्षा करने में ADR तंत्र का महत्व निम्नलिखित प्रकार से है:

  • यह पक्षकारों के मध्य पारस्परिक समझ पर आधारित है तथा इसमें विवादों का समाधान यथासंभव शीघ्रता से किया जाता
  • न्याय किसी बोझिल प्रक्रिया पर आधारित होने के बजाय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित होता है।
  • इसमें दोनों पक्ष लाभ की स्थिति में होते हैं।
  • यह न केवल न्यायपालिका के कार्यभार को कम करता है बल्कि विवादों के समाधानों में आने वाली लागतों और समय में कटौती करने में भी सहायक होता है।

भारत में ADR ढांचे में सुधार हेतु अपनाए गए विभिन्न उपाय निम्नलिखित हैं:

  • विधि आयोग ने (अपनी 129 वीं रिपोर्ट में) तथा मलिमथ समिति ने यह अनुशंसा की थी कि मुकदमेबाज़ी के बजाय न्यायालयों द्वारा विवादों को वैकल्पिक साधनों के माध्यम से समाधानों हेतु संदर्भित किया जाना अनिवार्य होना चाहिए।
  • मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 के माध्यम से किए गए परिवर्तनों के फलस्वरूप भारतीय मध्यस्थता व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय मानकों तथा अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक आर्बिट्रेशन के UNCITRAL मॉडल के समकक्ष आ गयी है।
  • CPC की धारा 80 सरकार के द्वारा या उसके विरुद्ध विवादों के मामले में न्यायालय में वाद दायर करने से पूर्व प्रतिपक्षी पार्टी को 60 दिनों की एक अनिवार्य सूचना (नोटिस) का प्रावधान करती है। यह सूचना पक्षकारों को न्यायालय से बाहर विवादों के समाधान की सम्भावनाएँ खोजने की अनुमति प्रदान करती है।
  • भारत के सभी राज्यों में मध्यस्थता केंद्र स्थापित किए गए हैं।
  • सम्पूर्ण भारत में फैमिली कोर्ट परिवार से संबंधित मामलों का मध्यस्थता के माध्यम से समाधान करने पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं।
  • ADR तंत्रों के उपयोग के संदर्भ में समय-समय पर जागरुकता शिविर आयोजित किए जाते हैं। साथ ही न्यायिक विलंब को कम करने हेतु राष्ट्रीय लोक अदालतों का भी आयोजन किया जाता है।

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