किसी समाज के उज्जवल भविष्य के लिए परोपकारिता की निर्विवाद भूमिका

प्रश्न: जो हम करते हैं उससे अपनी आजीविका अर्जित करते हैं, लेकिन जो हम देते हैं उससे हम जीवन निर्मित करते हैं।

  1. समाज के लिए परोपकारिता के मूल्य पर प्रकाश डालिए।
  2. ऐसे मूल्यों को प्रदान करने में शिक्षा की भूमिका की विवेचना कीजिए।

दृष्टिकोण

  • उपर्युक्त कथन और परोपकारिकता के मूल्य के संबंध में संक्षिप्त परिचय दीजिए। दिए गए कथन के आधार पर इसका सविस्तार वर्णन कीजिए।
  • किसी समाज के उज्जवल भविष्य के लिए परोपकारिता की निर्विवाद भूमिका को लिखिए।
  • लिखिए कि कैसे शिक्षा लोगों में ऐसे मूल्यों को अंतर्निविष्ट करने हेतु एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधन बन सकती है।

उत्तर

दिया गया कथेन हमारे पास जो भी है उसे साझा कर दूसरों की सेवा करने के विचार पर बल देता है। यह हमारे पास जो भी कुछ है उससे परे देखने और समाज के कल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव की क्षमता के संबंध में है। इससे संबंधित मूल्य परोपकारिता जाना जाता है।

जीवन निर्वाह के लिए हमारे पास भौतिकतावादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु साधन होना आवश्यक है और इसलिए हम कुछ आर्थिक गतिविधियों में संलग्न होते हैं। किन्तु जीवन को अधिक दार्शनिक रूप में निर्मित करने हेतु हमें सभी सहचर प्राणियों की देखभाल करनी चाहिए क्योंकि विश्व में हमारे अंतर्संबंधित अस्तित्व के लिए सभी के कल्याण का महत्व होता है। कुछ देकर हम अपनी समृद्धि का पुनर्वितरण करते हैं और साथ ही सभी के लिए एक बेहतर जीवन की नींव रखते हैं।

(i) समाज के लिए परोपकारिता का महत्व

परोपकारी व्यवहार किसी व्यक्ति को दूसरों के हितों के बारे में सोचने और उन्हें बनाए रखने में सहायता करता है। इस प्रकार, यह उन्हें एक दूसरे के प्रति उपकारी, सहयोगी, सहानुभूतिपूर्ण, प्रेमपूर्ण, दयालु और एक दूसरे का देखभाल करने वाला बनाता है। समग्र रूप से एक साथ प्रगति करने से एक समाज अधिक समृद्ध होता है।

दूसरों की सहायता करने और एक समुदाय के रूप में मिलकर कार्य करने से प्रत्येक के लिए एक आशाजनक कल का निर्माण होता है। एक अच्छे कारण के लिए स्वैच्छिक रूप से कार्य करना, जरूरतमंदों को पैसे, भोजन, कपड़े इत्यादि दान करने जैसे कृत्य एक समतावादी समाज के लिए आवश्यक हैं।

इसके अतिरिक्त, परोपकारिता “व्यक्तिवाद” के आदर्श के विपरीत होती है। व्यक्तिवाद में एक व्यक्ति के हितों को सर्वोपरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त, परोपकारी कृत्यों में आत्म-परित्याग की आवश्यकता नहीं होती है और वे तब भी परोपकारी बने रह रहते है जब वे मिश्रित उद्देश्यों का निष्पादन करते हैं जिनमें से कुछ स्व-हित के लिए हो सकते हैं। दूसरों की सुरक्षा के लिए सतर्कतापूर्ण गाड़ी चलाने वाला चालक दोनों उद्देश्यों – परोपकारी और स्व-रुचि से प्रेरित हो सकता है, अर्थात् दूसरों के जीवन की रक्षा करने के साथ-साथ स्वयं को भी क्षति से बचाना।

यदि कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से परोपकारी उद्देश्य से कृत्य करता है और वहां स्व-हित उद्देश्य पूर्ण रूप से अनुपस्थित होता है। हम उसके कृत्य को ‘विशुद्ध’ परोपकारिता के मामले के रूप में वर्णित कर सकते हैं। हमें आत्म-परित्याग वाले व्यवहार से विशुद्ध परोपकारी व्यवहार को पृथक करने हेतु सतर्क रहना चाहिए: पूर्ववर्ती में स्वयं के लिए कोई लाभ नहीं है, जबकि उत्तरवर्ती में कुछ क्षति सम्मिलित है। यदि किसी के पास थिएटर का टिकट है जिसका वह बीमारी के कारण उपयोग नहीं कर सकता है और वह बॉक्स ऑफिस को कॉल करता है ताकि किसी अन्य के द्वारा टिकट का उपयोग किया जा सके। यह विशुद्ध परोपकारिता का मामला है परंतु इसमें परित्याग की भावना शामिल नहीं है।

वास्तव में, जैसे ही ‘परित्याग’ की धारणा सामने आती है, तो सहायता करने वाला कृत्य ‘विशुद्ध परोपकारी नहीं रह जाता है। विशुद्ध परोपकारिता में लाभ एवं हानि/हितलाभ एवं परित्याग (जिनके द्वारा कोई व्यक्ति प्रेरित होता है) पर विचार किए बिना दूसरों के लिए बेहतर करने का विचार शामिल होना चाहिए। यहाँ तक की सुख प्राप्ति को भी स्वार्थ के रूप में माना जा सकता है। व्यक्ति में परोपकारी और सहायक होने की प्राकृतिक सहज-प्रवृत्ति होनी चाहिए न कि एक सोची-समझी कार्यवाही। फिर भी, अत्यधिक परोपकारिता अराजक होती है क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की प्राथमिकताओं को स्वयं उस व्यक्ति से बेहतर कोई नहीं जान सकता है। इस प्रकार, बिना ज्ञान के परोपकारिता हानि पहुंचा सकती है।

इसलिए, सर्वोत्तम परिणामों को प्राप्त करने के लिए, परोपकारी कृत्यों और व्यक्ति की इच्छाओं और सहायता के लिए आवश्यकता के मध्य संतुलन की आवश्यक होती है।

(ii) परोपकारिता को बढ़ावा देने में शिक्षा की भूमिका

शिक्षा के माध्यम से परोपकारिता की प्रवृत्ति को अंतर्निविष्ट करने के कई तरीके हैं जैसे कक्षा में छात्रों को प्रेरणादायक मानवीय कहानियां सुनाना, या यहां तक कि छोटे-छोटे कार्य जैसे कि टिफ़िन बॉक्स साझा करना, अध्ययन में दूसरों की सहायता करना, समूह आधारित खेलों में शामिल करना आदि।

किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता को समझने, आवश्यकता की पूर्ती करने हेतु सहानुभूति से प्रेरित होने और अपेक्षित पुरस्कार के बिना आवश्यकता का समाधान करने हेतु बच्चों को समझदार बनाने में शिक्षक या माता-पिता की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। शिक्षा न केवल वस्तुस्थिति, कौशल और “उचित” व्यवहार प्राप्त करने से संबंधित है, बल्कि उसके अस्तित्व के परिवेश के प्रति सहानुभूति और संवेदनशीलता के गुणों वाले व्यक्ति का समग्र विकास करना है। नैतिक शिक्षा का विषय ऐसे मूल्य प्रदान करने के लिए अपरिहार्य है।

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