अतिक्रमण और तीव्र शहरीकरण : नवीन आर्द्रभूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियम 2017 के प्रावधानों का आलोचनात्मक विश्लेषण

प्रश्न: अतिक्रमण और तीव्र शहरीकरण के कारण आर्द्रभूमियाँ तेजी से लुप्त हो रही हैं। इस संदर्भ में, इस स्थिति से निपटने हेतु सरकार द्वारा अधिसूचित नवीन आर्द्रभूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियम 2017 के प्रावधानों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।

दृष्टिकोण

  • आर्द्रभूमियों की सामान्य परिभाषा देते हुए उत्तर का आरम्भ कीजिए।
  • इसके पश्चात भारत की आर्द्रभूमियों का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करते हुए उनके लुप्त होने के कुछ कारण स्पष्ट कीजिए।
  • अंत में, इस स्थिति से निपटने हेतु नवीन आर्द्रभूमि नियम 2017 के प्रावधानों का विश्लेषण कीजिए।

उत्तर

आर्द्रभूमियों को स्थलीय और जलीय पारिस्थितिक तंत्र के मध्य स्थित संक्रमण भूमि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जहाँ भू-जलस्तर सामान्यतः सतह पर या उसके निकट होता है अथवा भूमि उथले जल से आवृत्त होती है। ये समृद्ध जैव विविधता को सहायता देती हैं तथा विभिन्न प्रकार की पारिस्थितिकी सेवाएँ यथा जल-शोधन, बाढ़-शमन इत्यादि प्रदान करती है।

अतिक्रमण, तीव्र शहरीकरण एवं अन्य गतिविधियों यथा- प्रदूषण, जल के संघटन में परिवर्तन, अत्याधिक दोहन आदि से आद्रभूमियों के समक्ष संकट उत्पन्न हुआ है। इस संदर्भ में सरकार ने नवीन आर्द्रभूमि (सरंक्षण और प्रबन्धन) नियम 2017 अधिनियमित किया है।

नए नियमों की विशेषताएँ

  • इन नियमों के कार्यान्वयन की निगरानी, राज्यों द्वारा किये जा रहे कार्यों की देखरेख तथा केन्द्रीय सरकार को परामर्श देने हेतु एक राष्ट्रीय आर्द्रभूमि समिति (NWC) की स्थापना का प्रावधान किया गया है। MoEFCC के सचिव इसकी अध्यक्षता करेंगे।
  • राज्य के पर्यावरण मंत्री की अध्यक्षता में प्रत्येक राज्य/केंद्रशासित प्रदेश में राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण की स्थापना की जाएगी। यह अधिसूचित आर्द्रभूमियों और उनके प्रभाव क्षेत्रों में विनियमित की जाने वाली तथा स्वीकृत गतिविधियों की व्यापक सूची तैयार करेंगे। इसके साथ ही यह आर्द्रभूमियों के ‘बुद्धिमतापूर्ण-उपयोग’ एवं उनके सरंक्षण हेतु रणनीतियां भी परिभाषित करेंगे।
  • विभिन्न गतिविधियों जैसे किसी भी प्रकार के अतिक्रमण, उद्योगों की स्थापना और विस्तार, अपशिष्ट निपटान और उद्योगों, शहरों, कस्बों, गाँवों आदि से अनुपचारित अपशिष्टों का अपवाह आदि सहित आर्द्रभूमियों के गैर-आर्द्रभूमि के रूप में उपयोग हेतु परिवर्तन को निषिद्ध करना।

राज्य के प्राधिकारियों द्वारा सभी आर्द्रभूमियों को सूचीबद्ध करना और छह महीनों के अंदर अधिसूचित की जाने वाली आर्द्रभूमियों को भी सूचीबद्ध करना अनिवार्य है। इसके आधार पर, सभी आर्द्रभूमियों की एक व्यापक डिजिटल इन्वेंटरी बनाई जाएगी और उसे प्रत्येक दस वर्ष में अद्यतन किया जाएगा। हालांकि, पर्यावरणविदों द्वारा इसमें कुछ कमियां पायी गयी हैं और इसलिए, नए नियमों की प्रभावशीलता को लेकर वे सशंकित हैं:

  • आर्द्रभूमियों के प्राधिकारियों के निर्णयों के विरुद्ध अपील प्रक्रिया के विषय में कुछ नहीं कहा गया है।
  • शब्द “बुद्धिमतापूर्ण उपयोग” का निर्धारण राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण द्वारा ही किया जाना है, जिसकी व्यापक व्याख्या की जा सकती है अतः इसका दुरुपयोग किया जा सकता है।
  • 2010 और 2016 के नियमों में सभी आर्द्रभूमियों को सम्मिलित किया गया था, जिनमें नदी चैनल और धान के खेतों के अतिरिक्त मानव तिर्मित आर्द्रभूमियां भी सम्मिलित थीं। नए नियमों में मानव-निर्मित जलनिकाय तथा जलीय कृषि और नमक उत्पादन के लिए निर्मित संरचनाएं आदि सम्मिलित नहीं हैं।
  • आर्द्रभूमियों की पहचान और उनको अधिसूचित करने की जिम्मेदारी राज्यों को सौंपे जाने की इस आधार पर आलोचना की गयी है कि उनको पूर्व में आर्भूमि संरक्षण का रिकॉर्ड बहुत ही खराब रहा है।

फिर भी, नए नियमों ने राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण की स्थापना के माध्यम से उत्तरदायित्वों के विकेंद्रीकरण का प्रयास किया है। यह इस क्षेत्र में विशेषज्ञता को भी बढ़ाएगा क्योंकि इस प्राधिकरण में आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी, जल विज्ञान, मत्स्यपालन आदि क्षेत्रों में से प्रत्येक से एक विशेषज्ञ सम्मिलित होगा। इससे स्थानीय स्तर पर संरक्षण कार्यों में भी वृद्धि हो सकती है।

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