स्वतंत्र भारत के पश्चात आदिवासियों के एकीकरण: सरकारी नीति

प्रश्न:आदिवासियों का समेकन स्वतंत्र भारत के समक्ष उपस्थित एक अति महत्वपूर्ण मुद्दा था। इस मुद्दे पर विमर्श के उन मुख्य तर्कों पर प्रकाश डालिए जिन्होनें सरकारी नीति को आकार देने में सहायता की।

दृष्टिकोण

  • ब्रिटिश काल और स्वतंत्रता पश्चात के समय में आदिवासियों द्वारा सामना की जाने वाली समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
  • इन समस्याओं के समाधान के रूप में सुझाए गए विभिन्न तरीकों का उल्लेख कीजिए।
  • अपनाए गए दृष्टिकोण पर चर्चा कीजिए।
  • वर्तमान भारत में आदिवासियों के लिए संवैधानिक प्रतिबद्धताओं और वर्तमान नीतिगत उपायों पर चर्चा कीजिए।

उत्तर

भारतीय राज्यों के औपनिवेशीकरण ने साझा प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण, प्रामाणिक स्वामित्व के बिना भूमि की जब्ती जैसे अन्य मुद्दों को तीव्रता से परिवर्तित किया। इसके अतिरिक्त व्यवसायियों और ठेकेदारों ने आदिवासी क्षेत्रों में प्रतिष्ठान स्थापित किये और अंततः वैधानिक खामियों का लाभ उठाकर संपत्ति पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। इसने आदिवासियों में व्यापक असंतोष और विरोध उत्पन्न किया।

स्वतंत्रता के पश्चात, लोकतंत्र अस्तित्व में आया और लोकतांत्रिक प्रणाली में आदिवासियों को शामिल करने के प्रयास किए गए।

हालाँकि, कुछ चुनौतियाँ भी विद्यमान थीं, जैसे कि आदिवासी आबादी बिखरी हुई थी और विभिन्न आदिवासी समूह एक दूसरे से भिन्न थे। इसके अतिरिक्त, उत्तर-पूर्व के अतिरिक्त अन्य राज्यों में आदिवासी अल्पसंख्यक थे। इसलिए, स्वतंत्रता के पश्चात, सरकारी नीति को आकार देने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों पर चर्चा की गई ताकि आदिवासियों के लोकतांत्रिक समावेशन को सुविधाजनक बनाया जा सके।

स्वतत्रंता के पश्चात आदिवासियों के एकीकरण के संबंध में, निम्नलिखित दृष्टिकोणों का सुझाव दिया गया:

  • पृथकतावादी दृष्टिकोण: इस दृष्टिकोण के तहत यह दावा किया गया कि आदिवासियों को व्यवसायियों एवं साहूकारों द्वारा मौद्रिक उत्पीड़न और मिशनरियों के सांस्कृतिक शोषण का सामना करना पड़ा। साथ ही, वनों के साथ उनके संबंधों में भी परिवर्तन आया। इस प्रकार, आदिवासी समूहों को स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिए और उनके निवास क्षेत्रों की पृथकता को निरंतर बने रहने दिया जाना चाहिए। 
  • आत्मसात्करण दृष्टिकोण: इस दृष्टिकोण के तहत दावा किया गया कि आदिवासी पिछड़े हिंदू थे तथा उन्हें हिंदू समुदाय के अंतर्गत एकीकृत कर उनकी प्रगति को भारतीय समाज की मुख्यधारा की प्रगति के साथ संबद्ध किया जाना चाहिए।
  • एकीकरणवादी दृष्टिकोण: जवाहरलाल नेहरू एक मध्यम मार्ग पर पहुंचे और एकीकरणवादी दृष्टिकोण को अपनाया। उन्होंने जनजातीय लोगों के विकास के लिए पांच सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, जिन्हें ‘पंचशील के सिद्धांत’ कहा जाता है। जो इस प्रकार है:
  • जनजातीय लोगों को अपनी प्रकृति के अनुसार विकास करना चाहिए और उन पर बाह्य मूल्यों को आरोपित करने से बचना चाहिए।
  • भूमि और वन के संबंध में जनजातीय अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए।
  • प्रशासन और विकास कार्यों में जनजातियों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
  • आदिवासी क्षेत्र योजनाओं की बहुलता के साथ प्रशासित नहीं किए जाने चाहिए।
  • परिणामों का आकलन आँकड़ों अथवा व्यय किए जाने वाले धन के आधार पर नहीं, बल्कि विकसित होने वाले मानवीय चरित्र के माध्यम से किया जाना चाहिए।
  •  इसके अतिरिक्त, संविधान जनजातीय अधिकारों की सुरक्षा के लिए विशिष्ट प्रावधानों का उल्लेख करता है। उदाहरणस्वरूप- 5वीं और 6वीं अनुसूचियां निर्णय निर्माण में स्वायत्तता प्रदान करती हैं, साथ ही अन्य अनुच्छेद जैसे 15 (4), 46, 330, 332, 335 आदि जनजातीय अधिकारों से संबंधित है। ये प्रावधान उनकी विशिष्ट जीवन पद्धति की सुरक्षा करने के साथ उन्हें सामाजिक भेदभाव, सामाजिक अन्याय और शोषण के सभी रूपों से संरक्षण प्रदान करते हैं।
  • इसके अतिरिक्त, संवैधानिक प्रतिबद्धताओं और एकीकरणवादी दृष्टिकोण के आधार पर, जनजातीय समावेशन और सशक्तिकरण के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाएं और कार्यक्रम आरंभ किए गए। उदाहरणस्वरूप, जनजातीय उपयोजना (TSP), जनजातीय उत्पादों के विकास और विपणन के लिए संस्थागत समर्थन, वनबंधु कल्याण योजना इत्यादि।

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