आधुनिक युग में हिंदी भाषा का विकास

18वीं शताब्दी से लेकर आज तक हिंदी के विकास के बारे में चर्चा की गई है। इस युग में हिंदी न केवल साहित्यिक सुजन का सशक्त माध्यम बनी बल्कि अपनी विकास-यात्रा में हिंदी भाषा ने देश की राजभाषा का प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया और शिक्षा, जनसंचार आदि विविध क्षेत्रों में उसके प्रकार्यों का विस्तार हुआ। इस युग में हिंदी की प्रतिष्ठा के साथ-साथ हिंदी और उर्दू के आपसी संबंध और अस्तित्व के संघर्ष का भी दृश्य देखने को मिलता है।

18वीं-19वीं शताब्दी में हिंदी के विकास में योगदान देने वाले मनीषियों की चर्चा भारतेंदु युग और द्विवेदी युग के संदर्भ में कर सकेंगे; साहित्यिक भाषा के रूप में हिंदी भाषा के विकास को समझा सकेंगे; और वर्तमान युग में हिंदी के प्रकार्यों और प्रयोजनों की चर्चा कर सकेंगे।

प्रस्तावना

साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली का विकास भी ग्यारहवीं शताब्दी से होने लगा था जिसका नाम समय-समय पर भिन्न रहा।

हिंदी भाषा का विकास

जिनमें उनके गुरु रामदास प्रमुख थे। रामप्रसाद निरंजनी का योगदान सर्वविदित है। गुजरात में प्राणनाथ ने इसको फैलाया। महामति प्राणनाथ का अब विशाल साहित्य उपलब्ध है।

खड़ी बोली : यह सब होते हुए भी ‘खड़ी बोली’ शब्द का प्रयोग पहली बार फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के साथ हुआ। इसका श्रेय गिलक्राइस्ट को दिया जाता है। अठारहवीं शताब्दी के अंत में । गिलक्राइस्ट कलकत्ता पहुँच चुके थे और वहीं हिंदी का पठन-पाठन करते थे। संयोग से जब उनकी नियुक्ति फोर्ट विलियम कालेज में हो गई तो इस बहुप्रयुक्त भाषा का नामकरण ‘खड़ी बोली’ किया और वहाँ नियुक्त लल्लू जी लाल को इसमें लिखने का आदेश दिया जिसका उल्लेख प्रथम बार लल्लू जी लाल ने प्रेम सागर’ की भूमिका में इस प्रकार किया :

श्रीयुक्त गुनगाहक गुनिथन-सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से सं. 1860 (सन् 1803 ई.) में श्री लल्लू जी लाल कवि ब्राह्मन गुजराती सहस्र अवदीच आगरे वाले ने जिसका सार ले, यामनी भाषा छोड़, दिल्ली आगरे की खड़ी बोली में कह, नाम प्रमसागर’ धरा” (ना. प्र. सभा, काशी, सं. 1979, पं. 1)

लगभग इसी समय फोर्ट दिलियम कालेज के डॉ. जान गिलक्राइस्ट तथा सदल मिश्र ने भी इस नाम (खड़ी बोली) का उल्लेख किया है। सन् 1803 ई. में ही प्रकाशित पुस्तकों में तीन बार खड़ीबोली’ का उल्लेख गिलक्राइस्ट ने स्वयं किया:

“इन (कहानियों) में से कई खड़ीबोली अथवा हिंदुस्तानी के शुद्ध हिंदवी ढंग की हैं। कुछ ब्रजभाषा में लिखी जाएगी।’ (हिंद स्टोरी टेलर, भाग 2) “मुझे खेद है कि ब्रजभाषा के साथ खड़ीबोली की उपेक्षा कर दी गई थी” (दि ओरियंटल फेब्युलिस्ट) सदल मिश्र ने ‘नासिकेतोपाख्यान’ में खड़ीबोली का उल्लेख किया :

” अब संवत् 1860 में नासिकेतोपाख्यान को जिसमें चन्द्रावली की कथा कही है, देववाणी में कोई समझा नहीं सकता इसलिए खड़ी बोली में किया।

“शकुन्तला का दूसरा अनुवाद खड़ी बोली अथवा भारतवर्ष की निराली (खालिस) बोली में है। हिंदस्तानी में इसका भेद केवल इसी बात में है कि अरबी और फारसी का प्रत्येक शब्द छाँट दिया जाता है।”

“प्रेमसागर एक बहुत ही मनोरंजक पुस्तक है जिसे लल्लू लाल जी ने हमारे विद्यार्थियों को हिंदुस्तानी की शिक्षा देने के निमित्त ब्रजभाषा की सुन्दरता और स्वच्छता के साथ खड़ीबोली में किया। इससे अंग्रेजी भारत की हिंदू जनता के वृहत् समुदाय को भी लाभ होगा।’ सन् 1805 में सदल मिश्र ने ‘रामचरित्र’ में भी खड़ी बोली का उल्लेख इस प्रकार किया: “अब इस पोथी को भाषा करने का कारण सिद्ध है कि मिस्टर जान गिलक्रस्त साहब ने ठहराया और एक दिन आज्ञा दी कि अध्यात्म रामायण को ऐसी बोली में करो जिसमें अरबी-फारसी न आवे। तब मैं इसको खड़ी बोली. में कहने लगा और सं. 1862 में इस पोथी को समाप्त किया और नाम इसका रामचरित्र रखा।” उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्राप्त इन उद्धरणों से कुछ प्रश्न उठते हैं: 1. क्या गिलक्राइस्ट महोदय को इस बोली का नाम पता था? 2. खडी बोली किस अर्थ का द्योतक है?

आधुनिक युग में हिंदी

भाषा का विकास

डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया ने इन सभी प्रश्नों पर बड़े विस्तार से विचार अपनी पुस्तक ‘ब्रजभाषा और खड़ीबोली का तुलनात्मक अध्ययन’ में किया है। गिलक्राइस्ट ने स्वयं अठाहरवीं शताब्दी में लिखे, अपने ग्रंथों में नाम नहीं दिया। इससे यह सिद्ध होता है कि ‘खड़ीबोली’ नाम का श्रेय फोर्ट विलियम कालेज में आने के बाद उनको दिया जा सकता है पर वह भाषा व्यापक रूप से आगरा से पटना तक समझी जाती थी। एक व्यक्ति आगरा से लिया जबकि दूसरा पटना से। कैलॉग ने अपने व्याकरण में इसको विशुद्ध या बिना मिलावट की भाषा माना है:

“This form of Hindi has also often been termed ‘Khari boli’ or the ‘pure speech’ and also, by some European scholars after analogy of the German, ‘High Hindi’,

इसी प्रकार ईस्टविक ने परिभाषित किया: खड़ी बोली The true genuine language or the pure language. टी.जी. बेली ने पूछा कि क्या इसको गँवारी से भिन्न माना जा सकता है ? गिलक्राइस्ट ने स्वयं इसको प्योर स्टर्लिंग’ माना और अपने कोश में स्टर्लिंग का अर्थ दिया: Sterling, standard, genuine लगता है कि व्यावहारिकता की दृष्टि से परिनिष्ठित भाषा का रूप देने के लिए ‘हिंदी’ को ‘खड़ीबोली’ कहना पसंद किया होगा। आज इसको ही ‘मानक हिंदी’ कहा जाता है।

इसी समय फोर्ट विलियम कालेज के बाहर रहते हुए दो साहित्यकार भी उसी प्रकार की भाषा में लिख रहे थे जिनके नाम हैं:  (i) सदासुख लालं और (ii) इंशाअल्ला खाँ। सदासुख लाल उर्दू के अच्छे लेखक थे तो भी उन्होंने खड़ीबोली के उस रूप को ही महत्व दिया जिसमें पंडिताऊपन और अन्य बोलियों का चित्रण न हो। एक उदाहरण द्रष्टव्य है: “विद्या इस हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका सतोवृत्ति है, वह प्राप्त हो…।

इस हेतु नहीं पढ़ते हैं कि चतुराई की बातें कहके लोगों को बहकाइये और फुसलाइये और असत्य छिपाइए, व्यभिचार कीजिए और सुरापान कीजिए।”

इस प्रकार की परिष्कृत भाषा में लिखते हुए भी वह ‘तिस पीछे’, ‘जब लग’, ‘सब को सुनाय के’ जैसे रूपों से अपने का मुक्त न कर पाये। इंशा ने भी ‘रानी केतकी की कहानी’ ऐसी ठेठ भाषा में लिखी जिसमें ध्यान रखा गया कि ‘हिंदी छुट किसी बाहर की बोली का पुट’ न मिले। इंशा ने इस बारे में स्पष्ट कहा:

“एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवीपन भी न निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छों से अच्छे आपस में बोलते-चालते हैं ज्यों-का-त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो।” । यहाँ ‘भाखापन’ से तात्पर्य है ब्रजभाषापन । जब हिंदी गद्य को ये चारों लेखक सम्पन्न कर रहे थे (दो फोर्ट विलियम कालेज में रहते हुए और दो बाहर रहते हुए) तो उनके आसपास ही नज़ीर अकबराबादी पद्य में लिख रहे थे। नज़ीर भी आगरा में थे और लोकभाषा में श्रीकृष्ण पर भी मुसलमान होते हुए लिख रहे थे। अब उ.प्र. हिंदी संस्थान लखनऊ से डॉ. नज़ीर मुहम्मद के सम्पादन में ‘नज़ीर ग्रंथावली’ प्रकाशित हो गई है।

“यदि नज़ीर की भाषा और लल्लू लाल जी की भाषा की तुलना की जाए तो उनमें बहुत कुछ समानताएँ पाई जायेंगी, हालाँकि एक ने गद्य में लिखा, दूसरे ने पद्य में। एक हिंदू था और दूसरा मुसलमान । एक ने अंग्रेजों की छत्रछाया में उनके निर्देशानुसार “यामिनी” शब्दों को त्याज्य मानकर लिखा है और दूसरे ने सच्चे लोककवि के रूप में हिंदू-मुसलमानों दोनों का प्रतिनिधित्व करते हुए जन-समाज में प्रचलित खड़ी बोली के समस्त शब्द-भंडार का स्वच्छन्द उपयोग करते हुए स्वतंत्र रूप

हिंदी भाषा का विकास

से लिखा है। लल्लू लाल जी की भाषा में जैसे ब्रजभाषा के प्रयोग मिलते हैं वैसे ही नज़ीर की भाषा में .. भी। … भाषा के इस जनसम्मत आडम्बरहीन सजीव रूप को लक्ष्य करके इंशाअल्लाखाँ ने बिना किसी मिलावट की हिंदी लिखने की ठानी थी। उसमें किसी गँवारी भाषा का भ्रम तो नहीं किया जा सकता। न तो इंशा ने न, नजीर और न लल्लू लाल ने गँवारी भाषा में साहित्य की रचना की। उनकी भाषा भी दिल्ली-आगरे की चलती खड़ी बोली थी जिसके रूप के विषय में (जैसा लिखा जा चुका है) इंशा के शब्दों में कहा जा सकता है, “जैसे भले लोग अच्छों-से आपस में बोलते-चालते हैं।”

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यह ‘खड़ीबोली’ ब्रजभाषा और रेख्ता से भिन्न बोलचाल की भाषा थी जिसमें साहित्य रचना भी की जा रही थी। यामनी भाषा के शब्दों के जोड़ देने से वही रेखता कही जाती होगी। साहित्यिक भाषा के रूप में इसकी प्राचीन परम्परा थी और इसका विस्तार मात्र दिल्ली-आगरा तक नहीं वरन् पटना व आरा तक था। इस भाषा का अविष्कार नहीं किया गया यह तो ‘बहता जल’ था।

वहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि लल्लू जी लाल ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें से सिंहासन बत्तीसी, बेताल पच्चीसी, शकुन्तला नाटक, माधोनल तथा प्रेमसागर अधिक प्रसिद्ध हैं। ब्रजभाषा का व्याकरण भी लिखा। बेताल पच्चीसी की भाषा का एक अंश उद्धृत है: “इतना कह राजा इन्द्र अपने स्थान को गया और राजा ने उन दोनों लोथों को ले उस तेल के कड़ाह में डाल दिया तब वह दोनों वीर आ हाजिर हुए और कहने लगे कि हमें क्या आज्ञा है? राजा ने कहा जब मैं याद करूँ तब तुम आना। इस तरह से उनसे वचन ले, राजा अपने घर आ राज करने लगा।”

शकुन्तला को ब्रज में अनुवादित किया गया और बाद में रेखता में। जैसा स्पष्ट किया जा चुका है कि रेख्ता’ में अरबी-फारसी की शब्दावली की भरमार होती थी, जैसे:

“चमकावट उसके चिहरे की, अजब जलवे दिखाती थीं, और जुल्फें बिखरी हुई, मुँह पर उसके, इस रंग से नजर आतियाँ थीं जैसे नमूद धुर्वे की शुअले पर होती है, या कुछ-कुछ घटा सूरज पर आ जाती है।”

ब्रजभाषा काव्याभाषा के रूप में इस शताब्दी के अंत तक प्रतिष्ठित रही पर गद्य पर भी उसकी काव्यात्मकता का प्रभाव बना रहा। ब्रजमंडल के बाहर के कवि भी इस भाषा में लिखते थे जिससे क्षेत्रीय प्रभाव भी ब्रजभाषा पर पड़ता रहा। बुंदेलखंड और कन्नौज तो ब्रजमंडल की सीमा पर स्थित थे पर दूर के प्रदेशों की शब्दावली भी ब्रज में समाहित होती गई।

रीतिकालीन प्रवृत्तियों के बाद सामाजिक व सांस्कृतिक समस्याएँ उपस्थित हुईं जिनके फलस्वरूप नवजागरण की प्रवृत्तियों का विस्तार हुआ। मुद्रण की व्यवस्था प्रारंभ होने से काफी बड़ी संख्या में साहित्य प्रकाशित होने लगा। खड़ी बोली के विकास में ईसाई मिशनरियों का विशेष योगदान रहा। आगरा के समीप सिकन्दरा में प्रेस भी था और ईसाइयों का प्रचार-प्रसार का केंद्र भी।

सन् 1857 तक सिकन्दरा केंद्र से काफी साहित्य प्रकाशित हुआ। उन्नीसवीं सदी की प्रारंभिक भाषा में तुकबंदी, लयात्मकता, अलंकारमयता, नाना प्रकार के प्रयोग और अनेक बोलियों के शब्दों का मिश्रण मिलता है फिर भी सामूहिक प्रयास से ब्रजभाषा के समक्ष खड़ी बोली अंतत: खड़ी हो गई। यह ठीक है कि कोई परिनिष्ठित या मानक रूप स्थिर नहीं हो सका पर विस्तार खूब हुआ और फोर्ट विलियम कालेज, कलकत्ता के प्रश्रय के कारण मान्यता प्राप्त हुई।

सन् 1802 में सिविल सेवा के यशस्वी अधिकारी विलियम बटरवर्थ बेली (1782-1860) ने हिंदुस्तानी और हिंदी का एक ही अर्थ में प्रयोग किया: उनको ‘हिंदुस्तान में कार्रवाई के लिए हिंदी जबान’ शीर्षक निबंध पर पन्द्रह सौ रुपये नकद और मैडल प्राप्त हुआ। बाद में कुछ समय के लिए गवर्नर जनरल भी रहे। उस समय अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की भाषा भी हिंदी ही थी:

“It is moreover the general medium by which persons communicate their wants and ideas to each other. Of the truth indeed we ourselves are an evidence, as are the Portuguese, Dutch, French, Arabs, Turks, Greeks, Armenians, Georgians, Persians, Moguls and Chinese.”

गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने सन् 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। लार्ड वेलेजली यद्यपि साम्राज्यवादी कार्यों में रूचि रखते थे पर विद्वान थे और ग्रीक लैटिन तथा अंग्रेजी के विद्वान थे। उनकी नियुक्ति सन् 1798 ई. में हुई। बंगाल पर अधिकार होने के बाद भारत की भाषाओं को ज्ञान होने के कारण कठिनाइयाँ बढ़ती गईं।

15 जनवरी, 1784 ई. के एशियाटिक सोसायटी की स्थापना हो चुकी थी। सन् 1781 में ब्रिटिश संसद में यह निश्चय किया गया कि भारतीय न्यायालयों में मुकदमों का निर्णय अंग्रेजी कानन के आधार के स्थान पर भारतीय धर्म रीति रिवाजों के आधार पर किया जाए। सन् 1783 ई. में जॉन बोर्थविक गिलक्राइस्ट (1759-1841) की नियुक्ति मैडिकल ऑफिसर के पद पर हुई। सन् 1790 ई. तक उन्होंने ‘अंग्रेजी और हिंदुस्तानी’ कोश के दो भाग प्रकाशित कर दिए थे। उनके अन्य उल्लेखनीय ग्रंथ हैं:

दस जुलाई 1800 ई. को कालिज का रेग्युलेशन पास हुआ पर चार मई 1800 ही स्थापना की तारीख रखी गई (श्री रंगपट्टनम, मैसूर के विजयोत्सव की तिथि)। छात्रों को पुरस्कार स्वरूप जो मैडल दिए गए उनमें एक ओर यही तिथि तथा दूसरी ओर श्रीरंगपट्टनम का चित्र बना रहता।

(मेमोरियल ऑफ ओल्ड हैलबरी फ्रेडिरिक चार्ल्स कालेज, डनवर्स) 1893 गिलक्राइस्ट की सेवाओं से प्रसन्न होकर वेलेजली ने उनकी नियुक्ति सन् 1800 में की। राइटर्स बिल्डिंग (जिसमें आजकल सचिवालय है) में फोर्ट विलियम कॉलेज प्रारंभ किया गया। इस कॉलिज का इतिहास ही वास्तव में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिविल कर्मचारियों का इतिहास है।

बाद में लार्ड डलहौजी की सिफारिश पर जनवरी 1854 में कालिज बंद कर दिया गया। इस कॉलेज में प्रशासन, कानून तथा क्षेत्रीय भाषाएँ, विशेष रूप से खड़ीबोली हिंदी, की पढ़ाई की व्यवस्था की गई। कर्मचारियों की नैतिक दशा में सुधार करना तथा उन्हें देश की भाषाओं, रीति रिवाजों से परिचित कराना तथा कुशल प्रशासक बनाना था। हिंदी के लिए इससे अधिक और क्या गौरव की बात थी कि वह उस समय संपर्क भाषा के रूप में मान्य थी। आगरा व्यापार का बड़ा केंद्र था। ऐसी स्थिति में फोर्ट विलियम कालेज को विशेषतः । आगरा से हिंदी (खड़ीबोली) पढ़ाने के लिए मुंशी (अध्यापक) को बुलाना पड़ा और आगरा की भाषा को महत्व देना पड़ा। ‘न्यू टेस्टामेंट’ (बाइबिल) का प्रथम हिंदी अनुवाद सन् 1807 में प्रकाशित

फोर्ट विलियम कालेज की चर्चा प्राय: गिलक्राइस्ट के साथ इतिश्री कर दी जाती है। प्रो. गिलक्राइस्ट तो बहुत कम समय वहीं रहे (जनवरी 1804 ई. तक)। इनके बाद निम्नलिखित व्यक्तियों ने यह महत्वपूर्ण पद सम्हाला, वैसे कॉलेज तो सन् 1854 ई. तक चलता रहा: 1. कैप्टन माउन्ट (6.1.1806 से 20.2.1808) 2. कैप्टन टेलर (22.2.1808 से मई 1823 तक) 3. कैप्टन विलियम प्राइस (23.5.1823 से दिसम्बर 1831 तक) इस दृष्टि से श्री टेलर लम्बे काल तक रहे। कैप्टन टेलर ने सन् 1815 ई. में सर्वप्रथम हिंदी शब्द का प्रयोग आधुनिक अर्थ में किया था।

कम्पनी की भाषानीति फारसी भाषा प्रयोग की थी। सर्वप्रथम विलियम प्राइस ने गिलक्राइस्ट के मत की आलोचना की। उन्हीं के समय में हिंदी का निश्चित रूप से आधुनिक अर्थ में प्रयोग किया गया। सन् 1816 ई. के अध्यादेश में अनेक परिवर्तन हए जिसके फलस्वरूप सन् 1825 ई. में विलियम प्राइस ने (जो हिंदी और हिंदुस्तानी विभाग के अध्यक्ष थे) पहली बार हिंदी भाषा को हिंदुस्तानी से पृथक्, एक प्रमुख देशी भाषा के रूप में स्वीकार किया। प्राइस के पद त्याग करने के बाद सन् 1831 से कोई प्रोफेसर नहीं हुआ। 26 फरवरी 1824

को फोर्ट विलियम से प्रकाशित सामग्री में यह सूचना महत्वपूर्ण है। यह संतोष का विषय है कि संस्था से संबंधित विद्यार्थियों की एक पर्याप्त संख्या हिंदी के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान दे रही है। उनकी प्रगति, इस भाषा में, आशा से अधिक दिखाई देती है। (डॉ. शारदा वेदालंकार की पुस्तक से, पृ. 120) इसी समय सन् 1826 में वहाँ के पं. गंगाप्रसाद शुक्ल ने हिंदी भाषा का शब्दकोश संकलित किया। इससे पहले कैप्टन टेलर ने सन् 1808 में हिंदुस्तानी-अंग्रेजी कोश बनाया था और विलियम हन्टर ने इसको दोहराया था। इस दिशा में शेक्सपियर का कोश भी महत्वपूर्ण है। विलियम प्राइस ने प्रमसागर के मुख्य शब्द’ (खड़ीबोली और अंग्रेजी की शब्दावली), कलकत्ता, सन् 1825 (पृ. सं. 159) तैयार किया। शब्द नागरी तथा रोमन लिपियों में दिए गए। इस शताब्दी के अन्य कोशकारों में थोम्पसन, येट्स, हंकन फोर्बस, मथुरा प्रसाद मिश्र तथा बेट्स के नाम उल्लेखनीय है।

30.4 हिंदी की पत्रकारिता हिंदी की पत्रकारिता का प्रारंभ हिंदी में पत्रकारिता का उदय और विकास इसी शताब्दी में हुआ। बंगाल से प्रकाशित ‘गोस्पेल मैगज़ीन’ प्रारंभ में द्विभाषी (अंग्रेजी तथा बंगला में) थी बाद में त्रिभाषी हो गई। इस पत्रिका में कुछ अंश नागरी में भी प्रकाशित हए जिसकी सर्वप्रथम सूचना डॉ. शारदा वेदालंकार ने अपने ग्रंथ प्रारंभिक हिंदी गद्य का स्वरूप’ में दी है। अगस्त 1820 से अब हिंदी पत्रकारिता का उद्गम माना जाना चाहिए। तीसरे अंक में ‘नागरी’ के स्थान पर ‘हिंदुवी’ का प्रयोग किया जाने लगा। इसके प्राप्त अंकों से भाषा के कुछ नमूने भी दिये हैं, जैसे:. .. “किसी एक समय में कोई एक मनुष्य ने तुर्कीय पुरोहित के समीप जायके तीन बात पूछीं।” स्पष्ट है कि ‘जायके’ अंश ब्रजभाषा से प्रभावित है। इस पत्र से जहाँ ईसाई धर्म का प्रचार हुआ वहाँ हिंदी भाषा को पादरियों से सहायता मिली। पत्रकारिता जगत में सामाजिक सुधारों के अगुआ राजा

राममोहन राय (सन् 1774-1833 ई.) का विशेष योगदान रहा है। वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर थे।

राममोहन राय द्वारा बंगला में ‘बंगदूत’ तथा संवाद कौमुदी’ (सन् 1821) का संपादन किया गया। हिंदी में पत्रकारिता के उदय का सूत्रपात यहीं से होता है। ‘संवाद’ तथा ‘संवाददाता’ शब्द जो बंगाल में प्रचलित हुए, वही आज तक प्रचलन में है।

आगे चलकर कलकत्ता ही प्रारंभ में हिंदी पत्रकारिता का गढ़ कहा जा सकता है।

हिंदी की पत्रकारिता का विकास हिंदी की पत्रकारिता का इतिहास काफ़ी प्राचीन तथा विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है। हिंदी का पहला समाचार पत्र 30 मई 1825 ई. को कलकत्ता से उदंत मार्तण्ड’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसका पता लगाने का श्रेय पं. बनारसी दास चतुर्वेदी को है जो स्वयं यशस्वी पत्रकार थे और वृन्दावन में संपन्न हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन पर राष्ट्रभाषा के संदर्भ में पत्रकारिता के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष भी हुए।

फलत: चतुर्वेदी जी ने विशाल भारत के कई अंकों में सन् 1831 ई. में इस पत्र की विस्तार से सूचनाएँ दीं। ‘उदंत मार्तण्ड’ के संपादक पं. युगल किशोर सुकुल ने इस पत्र के प्रकाशन के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में लिखा: . “यह उदन्त मार्तण्ड पहले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी और पारसी और बंगला में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियों को जानने व पढ़ने वालों को ही होता है। इसमें सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ और समझ लेय।”

इसको उन्होंने ‘नया ठाठ’ बताया जिससे अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ। उनके अनुसार संपादक को बहुभाषाविद होना चाहिए। वे संस्कृत, हिंदी, ब्रजभाषा, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता थे। इससे पहले बैपटिस्ट मिशन का बंगला भाषा में दिग्दर्शन’ जरूर प्रकाशित होता था जो बाद में हिंदी में भी प्रकाशित हुआ पर इसकी प्रतियाँ अभी तक किसी को नहीं मिली हैं। हिंदी का पहला समाचार पत्र दो वर्ष भी नहीं चल सका। अंतिम अंक में प्रकाशित पंक्तियाँ इसकी पुष्टि करती हैं: आज दिवस औ उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त। अस्ताच को जात है दिनकर दिन भयअन्त।।

(ग्यारह दिसंबर 1827) सुप्रसिद्ध पत्रकार पराड़कर जी ने हिंदी पत्रकारिता पर बड़े विस्तार से प्रकाश डाला है। उनका मानना था कि प्रारंभ में संपादकों के समक्ष दो भाषाओं का साहित्य था – अंग्रेजी और संस्कृत/गद्य साहित्य के निर्माण में इन पत्रों ने विशेष योग दिया। उनका कथन था: 

“मेरा अनुभव यह है कि हमारे गद्य के जनक इस संस्कृत गद्य शैली का और अपने समय अथवा उसके पहले की सुप्रसिद्ध अंग्रेजी लेखकों की रचनाओं का अनुसरण कर मराठी, हिंदी, बंगला आदि गद्यों का स्वरूप निश्चित करते थे।”

उस युग के पत्रकार स्वयं साहित्यकार भी थे। एक पत्र से दूसरे क्षेत्र के पत्रों ने शिक्षा ग्रहण की। भारतेंदु युग तक आते-आते पत्रों के प्रकाशकों को दिशा मिल चुकी थी।

इस पत्र के बंद होने से ही पहले मई 1829 से ‘बंगदूत प्रारंभ हो चुका था। यह साप्ताहिक पत्र शनिवार को प्रकाशित होता था। संपादक मंडल में राजा राममोहन राय भी थे। इसके प्रारंभ में लिखा रहता था।

बंगाल का दूत पूत वहि वायु को जानो।

होय विदित सब देश क्लेश को लेश न मानो।। प्रथम हिंदी दैनिक ‘सुधावर्षण’ (सन् 1854 ) है जिसका प्रकाशन सन् 1868 ई. तक रहा। इसके सम्पादक श्री श्याम सुन्दर सेन थे। सन् 1845 ई. से राजा शिव प्रसाद सितारेहिंद का ‘बनारस अखबार’ प्रारंभ हुआ जिसकी भाषा हिंदुस्तानी थी। इसकी उर्दू प्रधान शैली का खूब विरोध हुआ। यह उर्दू का हिमायती था। पंजाब से नवीनचन्द्र राय ने ‘ज्ञान प्रकाशिनी’ प्रकाशित की। नवीनचन्द्र शुद्ध हिंदी के पक्षपाती थे।

सन् 1852 में सदासुखलाल जी ने ‘बुद्धि प्रकाश’ पत्रिका आगरा से प्रारंभ की। इसकी भाषा की आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रशंसा की। एक नमूना देखिए – शिक्षा के कारण बाल्यावस्था में लड़कों को भूलचूक से बचावें और सरल विद्या उन्हें सिखावें। भारतेंदु ने पन्द्रह अगस्त सन् 1867 में ‘कविवचन सुधा’ नामक मासिक पत्रिका प्रारंभ की। यह सोलह पृष्ठों की पत्रिका थी जिसमें भारतेंदु स्वयं लिखते थे और अपने परिकर की सामग्री प्रकाशित करते थे। इससे भाषा-शैली का स्वरूप स्पष्ट हुआ।

भारतेंदु ने ही 1873 ई. में हरिश्चन्द्र मैगजीन’ निकाली जो सन् 1874 ई. में ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ कर दी गई। उस काल के अन्य पत्रों में वृत्तान्त दर्पण (सदासुखलाल), विद्यादर्श, समय विनोद, हिंदू प्रकाश, प्रयाग दूत, प्रेमपत्र, बिहार बंधु, बालबोधिनी, नागरी प्रकाश, आर्यदर्पण, आर्यभूषण आदि प्रमुख हैं। 30.4.2 उन्नीसवीं शताब्दी के कुछ उत्कृष्ट पत्रकार अमृत लाल चक्रवर्ती (सन् 1863-1936) : हिंदी बंगवासी, हिंदोस्थान, भारत मित्र, वेंकटेश्वर समाचार आदि पत्रों का संपादन।

हिंदी पत्रकारिता के विकास में अभूतपूर्व योगदान। पं. अंबिका दत्त व्यास (1859-1900) : भारतेंदु युग में वैष्णव पीयूष प्रवाह’ का संपादन किया। पं. अंबिका प्रसाद बाजपेयी (1890-1968) : हिंदी बंगवासी, नृसिंह, भारतमित्र, सनातन धर्म आदि के संपादक । पत्रकारिता जगत के संस्मरण बड़े विस्तार से लिखे हैं।

गोपाल रामगहमरी (1866-1946) : वेंकटेश्वर समाचार, बिहार बंधु, दैनिक हिंदोस्थान का संपादन किया। सामाजिक रचनाओं दाग टिंटी-मेता की।

पं. माधव प्रसाद मिश्र (1871-1907) : ‘सुदर्शन’ तथा ‘वैश्योपकारक’ के यशस्वी संपादक। पं. राधाचरण गोस्वामी-वृन्दावन : ‘भारतेंदु’ पत्र का संपादन किया। राधामोहन गोकुल (1866-1935) : ब्राह्मण तथा प्राणवीर द्वारा राष्ट्रीय जागरण का उद्घोष । पं. झाबरमल शर्मा (1888-1983) : यशस्वी साहित्यकार झाबरमलजी भारत, कलसमाचार के संपादक रहे।

दुर्गा प्रसाद मिश्र (1860-1910) : सार सुधानिधि, उचितवक्ता, भारत मित्र का संपादन । नरेंद्र देव (1868-1960) : जनवाणी, रणभेरी, संघर्ष के संपादक । प्रतापनारायण मिश्र (1856-1894) : ब्राह्मण और हिंदोस्थान। बालकृष्ण भट्ट (1844-1914) : ‘हिंदी प्रदीप’ के संपादक। बदरीनाथ चौधरी प्रमधन’ (1855-1923) : आनंद कादम्बिनी और नागरी नीरद । बाल मुकुंद गुप्त (1865-1907) : भारतमित्र, बंगवासी, हिंदोस्थान । पं. मदनमोहन मालवीय (1861-1946) : ‘हिंदोस्थान’ व ‘अभ्युदय’ का संपादन, हिंदी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के जनक, हिंदी भाषा के लिए उन्नायक, कचहरी में नागरीलिपि का प्रारंभ करने का श्रेय 18.4.1900 ई.।

महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864-1938 ई.) : ‘सरस्वती’ के यशस्वी संपादक, युगनिर्माता, हिंदी को मानक रूप प्रदान करने में विशेष योगदान। गंगाशंकर मिश्र (1887-1972) : ‘सन्मार्ग’ का संपादन। नवजादिक लाल श्रीवास्तव (1888-1939) : मतवाला, वीरभूमि, हिंदीमंच, चाँद आदि पत्रों का संपादन।

बद्रीदत्त पाण्डेय (1882-1968) : शक्ति और अल्मोड़ा अखबार के संपादक रहे। शारदा चरण मित्र (1848-1917) : ‘हावड़ा हितकारी’, ‘देवनागर’ का संपादन। राधाकृष्ण दास (1866-1907) : साहित्य सुधानिधि, सरस्वती के संपादक रहे। पं. माधवराव सप्रे (1871-1926) : हिंदी केसरी, छत्तीसगढ़ मित्र तथा कर्मवीर के संपादक । 30.4.3 बीसवीं शताब्दी के कुछ यशस्वी संपादक इंद्र विद्यावाचस्पति (1889-1960) : सत्यवादी विजय, अर्जुन के संपादक। हिंदी पत्रकारिता के स्तम्भ।

गणेश शंकर विद्यार्थी (1890-1931) : ‘अभ्युदय’ तथा ‘प्रताप’ के संपादक। हिंदु-मुस्लिम एकता के पक्षधर। रामलोचन चरण 1890-1971) : ‘हिमालय’ और ‘बालक’ के संपादक। बाल साहित्य के यशस्वी लेखक। बदरीदत्त पाण्डेय (1882-1965) : ‘शक्ति’ और ‘अल्मोड़ा अखबार’ । मुंशी प्रेमचंद (1880-1936) : ‘जागरण’, माधुरी, मर्यादा आदि। ‘हंस’ के यशस्वी संपादक। रामचंद्र वर्मा (1890-1969) : बिहार बंधु, हिन्दी, केसरी, नागरी प्रचारिणी पत्रिका का संपादन। केशवराम भट्ट (1885-1905) : ‘बिहार के बंधु’ के संपादक। रामदहिन मिश्र (1886-1952) : किशोर, पारिजात, बालमित्र, बाल साहित्य के पोषक ।

कृष्णकांत मालवीय (1893-1941) : अभ्युदय, किसान, मर्यादा के संपादक। कृष्णदेव प्रसाद गौड़ बढ़ब बनारसी’ (1895-1968) : भारत जीवन, तरंग का संपादन। हास्य व्यंग्य की विधाओं को पुष्ट किया। मातादीन शुक्ल . (1891-1954) : अभ्युदय और माधुरी के संपादक। माखनलाल चतुर्वेदी (1889-1968) : प्रताप, प्रभा और कर्मवीर के संपादक । यशस्वी साहित्यकार। म.प्र. शासन ने उनके नाम से पत्रकारिता का विश्वविद्यालय। देवीदत्त शुक्ल (1888-1970) : बालसुधा और सरस्वती का संपादन। पद्मसिंह शर्मा (1877-1932) : भारतोदय, परोपकार का संपादन। संस्मरण विधा के यशस्वी लेखक सुप्रसिद्ध शैलीकार।

इसी धारा को जिन अन्य संपादकों ने आगे बढ़ाया उनमें कुछ उल्लेखनीय हैं : सर्वश्री कृष्ण व्यास (नई दुनिया), कृष्णबिहारी मिश्र (माधुरी), गिरजादत्त शुक्ल गिरीश (बालसुखा, मनोरमा), गंगाशरण सिंह (युवक, जनता), रामनरेश त्रिपाठी (कवि कौमुदी), रामवृक्ष बेनीपुरी (किसान, तरुणभारत, जनवाणी), सत्यदेव विद्यालंकार (विश्वमित्र, विजय), श्रीराम शर्मा (प्रताप, प्रभा, विशाल भारत), हरिशंकर शर्मा (भारतोदय, आर्य मित्र), हरिभाऊ उपाध्याय (प्रताप, त्यागभूमि), दुलारे लाल भार्गव (माधुरी, सुधा), द्वारिका प्रसाद मिश्र (सारथी, लोकमत), पद्मकांत मालवीय (अभ्युदय), धर्मवीर भारती (धर्मयुग), अज्ञेय (सैनिक, विशालभारत, प्रतीक, दिनमान, नवभारत टाइम्स), राजेंद्र यादव (हंस), राजेंद्र अवस्थी । (कादंबिनी), प्रभाष जोशी (जनसत्ता), राजेंद्र माथुर, मनोहर श्याम जोशी (हिंदुस्तान), विद्यानिवास मिश्र (नवभारत टाइम्स, साहित्य अमृत) आदि।

राजा लक्ष्मण सिंह

प्रथम ने हिंदी और उर्दू को समीप लाने की चेष्टा में हिंदी को उर्दू से भर दिया जबकि दूसरा संस्कृत की तत्समता की ओर झुका। राजा शिवप्रसाद ने अनेक पाठ्यपुस्तकों की रचना भी की और हिंदी को शिक्षा जगत में आगे बढ़ाया। सितारे हिंद की नीति सरकारी नीति का पक्ष लेना था। ‘राजा भोज का सपना’ प्रसिद्ध पुस्तक है जिसका एक उद्धरण भाषा के नमूने के लिए प्रस्तुत है :

“तू ईश्वर की निगाह में क्या है क्या हवा में बिना धूप तृस रेणु भी दिखाई देते हैं पर सूर्य की किरन पड़ते ही कैसे अनगिनत चमकने लग जाते हैं। क्या कपड़े में छाने हुए पानी की दरमियान किसी को कीड़े मालूम पड़ते हैं। पर जब शीशे को लगाकर देखो जिससे छोटी चीज़ बड़ी नज़र आती है तो

उस एक बूंद में हजारों ही जीव सूझने लगते हैं।’ हिंदी को व्यापक स्वीकृति दिलाने के लिए वह हिंदी को सरलता की ओर ले जाने के लिए उर्दू की. शब्दावली लाने लगे। उनका विचार था कि “हम लोगों को जहाँ तक बन पड़े चुनने में उन शब्दों को लेना चाहिए जो आमफहम खास पसन्द हों अर्थात् जिनको ज्यादा आदमी समझ सकते हों।”

उनके प्रयास से भाषा पंडिताऊपन से मुक्त हुई। वर्तनी में एकरूपता नहीं आ सकी। दो-दो रूप चलते रहे जैसे उनने-उन्ने उसके-उस्के सकता-सक्ता। भाषा को व्याकरण सम्मत बनाया गया और अरबी-फारसी की ध्वनियों – क, ख, ज, फ, रा को शुद्ध लिखने की ओर ध्यान दिलाया। राजा साहब की शैली का पर्याप्त विरोध हुआ विशेषत: ‘इतिहास तिमिरनाशक’ की भाषा को लेकर। इस पुस्तक की भाषा को प्रकारान्तर से उर्दू कहा जा सकता है : “बगावत का शुबहा हुआ पूछने पर उकूबत और सियासत के डर से झूठा इकरार कर दिया…।” मात्र व्याकरणिक शब्दों को – क्रियारूप – छोड़कर शेष हिंदी नहीं है। इस एक वाक्य में के डर से’ मात्र हिंदी है।

शिवप्रसाद की भाषानीति के विरोध में राजा लक्ष्मण सिंह दूसरी दिशा में जाते हुए दिखाई दिये। वे विशुद्ध हिंदी के पक्षधर थे। वे उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानते थे। उन्होंने शकुन्तला नाटक और मेघदूत के अनुवादों में भाषा के इस रूप को ही दिखाया : . “पहले तो राज बढ़ाने की कामना चित्त को खेदित करती है फिर जो देश जीतकर बस गए हैं उनकी प्रजा के प्रतिपालन का नियम दिन रात मन को विकल रखता है जैसा बड़ा छत्र यद्यपि घाम की रक्षा करता है परंतु बोझ भी देता है।

” अनेक प्रयोग मानक नहीं कहे जा सकते। राजा लक्ष्मण सिंह का विचार था कि “हमारे मत में हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारी हैं। हिंदी इस देश के हिंदू बोलते हैं और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और पारसी पढ़े हुए हिंदुओं की बोलचाल है। हिंदी में संस्कृत के पद बहुत आते हैं उर्दू में अरबी पारसी के। परंतु कुछ आवश्यक नहीं कि अरबी पारसी के शब्दों के बिना न बोली जाए और न हम उस भाषा को हिंदी कहते हैं जिसमें अरबी पारसी शब्द भरे हों।”

भाषा के इसी रूप के पक्षधर हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती, पं. भीमसेन शर्मा, अम्बिका दत्त व्यास आदि। आज अनेक विद्वानों ने इसी शैली को परिष्कृत कर अपनाया है। भाषा को परिनिष्ठित रूप देने में उक्त दोनों ध्रुवों ने बाधा पहुँचायी। धीरे-धीरे खड़ीबोली व्यावहारिक रूप की ओर अग्रसर हुई। मौलिक लेखन तथा अनुवादों की भाषा में भी अंतर बना रहा। लक्ष्मण सिंह यदि मौलिक लेखन अधिक करते तो वे ही भाषा को वह रूप प्रदान कर सकते थे जो कुछ दशक बाद आया।

भारतेंदु युग ऐसी परिस्थितियों में भारतेंदु युग का आविर्भाव हुआ। इस समय की साहित्यिक गतिविधियाँ भारतेंदु की रुचि, साहित्य सेवा और सजगता में समर्पित है। गद्य की दृष्टि से सही अर्थों में यही गद्य का । प्रवर्तन काल था। काव्य के संदर्भ में नई धारा का शुभारम्भ हुआ। भारतेंदु और उनकी मण्डली का व्यक्तित्व और कृतित्व मुखर रूप में प्रस्तुत हुआ। ‘कविवचन सुधा’ के प्रकाशन से नई पत्रकारिता को प्रोत्साहन मिला। ब्रजभाषा के साथ-साथ .. खड़ीबोली में काव्य रचना होने लगी।

काव्यभाषा के संदर्भ में अयोध्या प्रसाद खत्री का खड़ी बोली का आंदोलन उल्लेखनीय है। खड़ीबोली कविताओं का संकलन (सन् 1887 में) प्रकाशित हुआ जो बाद में सजधज के साथ इंग्लैंड से प्रकाशित हुआ। पिन्कॉट ने इस संकलन की भूरि-भूरि प्रशंसा की। बाद में तो श्रीधर पाठक भी खड़ीबोली में काव्य रचना करने लगे।

सन् 1886 में ‘एकान्तवासी योगी’ की खड़ीबोली में प्रस्तुत किया। कविता नई चाल में ढलने लगी। कवियों का झुकाव खड़ीबोली की ओर होने लगा। भारतेंदु स्वयं खडीबोली में काव्यरचना करने में संकोच करते थे। उन्हें भय था कि कहीं इस बहाने उर्दू ही न आ जाए। भारतेंदु ने शिवप्रसाद सितारे हिंद और राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ हिंदी के बीच में से मध्यम मार्ग निकाला।

भाषा में न पंडिताऊपन हो और न उर्दू शैली की क्लिष्टता। भाषा में से हिंदीपन न जाने पाये, इस बात का भरसक प्रयत्न किया। खड़ीबोली को क्लिष्ट प्रयोगों और पंडिताऊपन से मुक्त रखा। साधु शैली का रूप निश्चित किया और उसे ‘नये चाल की हिंदी’ की संज्ञा सन् 1873 में प्रदान की। “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल” का मंत्र देने वाले भारतेंदु की सर्वत्र प्रशंसा हुई। वहाँ कुछ सार्थक सम्मतियाँ देना उपयुक्त होगा :

“जो लोग विवेकी हैं वे इसे अवश्य स्वीकारेंगे कि श्री हरिशचंद्र जी ने उस बिगड़ी हुई भाषा को जो ग्रामीण स्त्री देश में थी, सुधाकर सुसम्पन्न नागरी करके नागरी शब्द को सार्थक कर दिखलाया। हिंदी भाषा ने उनके समय में वह लावण्य या माधुर्य धारण किया कि लोग देखते ही मुग्ध हो जाते हैं और जिन लोगों को बाल्यावस्था से मियाँ जी की तख्ती लिखने का अभ्यास था वे भी इसी पर लटू हुए फिरते हैं, अधिक कहाँ तक उन्होंने उसकी आकृति ऐसे साँचे में खींची कि सब में हिंदी का समादर होने लगा।”

डॉ. बाहरी की ‘हिंदी भाषा’ पृ. 52 से उद्धृत) “यह सच बात है कि आपकी हिंदी और हिंदुस्तान सबसे मनोहर है, इसके बदले में राजा शिवप्रसाद को अपना ही हित सबसे भारी बात है।”

‘पिन्कॉट’ आगे चलकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में लिखा :

“जब भारतेंदु अपनी मँजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तो हिंदी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्राकृत साहित्यिक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रह गया। भाषा का स्वरूप स्थिर हो गया।” भारतेंदु ने एक साथ कई प्रकार की गद्य शैलियों को अपनाया। भारतेंदु की भाषा में सामाजिक यथार्थ प्रस्तुत हुआ है और चुभता व्यंग्य भी। फारसी शब्दों से भी उन्हें परहेज नहीं था, (खुदा इस आफत से जी बचाये।) तत्सम तद्भव से युक्त भाषा (यदि हमको भोजन की बात हुई तो भोजन का बधान बाँध देंगे।), कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों का समुचित प्रयोग (कंपनियों के सैकड़ों गैंग), संस्कृतिनिष्ठता (अनवरत आकाश मेघाच्छन्न रहता है।) आदि अनेक भाषा के शैली रूप उनके साहित्य में चलते रहे।

उनके परिकर में बद्रीनारायण चौधरी प्रमधन’, श्री निवासदास, पं. प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, तोताराम, बालकृष्ण भट्ट आदि प्रमुख साहित्यकार थे। राधाचरण गोस्वामी वृन्दावन के होने के नाते ब्रजभाषा में निष्णात थे और शुद्ध हिंदी के पक्षधर थे। राधाकृष्ण दास भी नाटकों में पात्रानुकूल भाषा अपनाते थे वैसे उन्हें संस्कृतनिष्ठता प्रिय थी। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, तोताराम, लाला श्री निवास दास चलती भाषा अपनाते थे जिससे प्रभावी हो सके।

प्रतापनारायण मिश्र की भाषा सभी को आकर्षित करती थी। भाषा में पूर्वीपन की झलक है। व्यंग्यात्मक भाषा लिखने में सिद्धहस्त थे। भाषा का प्रांजल स्वरूप द्रष्टव्य है : “यह तो समझिए यह देश कौन है? वही न? जहाँ पूज्य मूर्तियाँ भी दो-एक छोड़ चक्र या त्रिशुल व खड्ग व धनुष से खाली नहीं हैं, जहाँ धर्म ग्रंथ में भी धनुर्वेद मौजूद है।” बालकृष्ण भट्ट अच्छे निबंधकार थे। किसी भी विषय पर बड़ी कुशलता से लिख लेते थे। हिंदी का . निबंध साहित्य बिना बालकृष्ण भट्ट के अधूरा ही माना जाएगा।

अपने विचारों की पुष्टि के लिए संस्कृत के उद्धरण देते थे। शुद्ध हिंदी के पक्षधर होते हुए भी यथावश्यक अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी करते थे। उठाय, बैठाय जैसे लोकभाषा के प्रयोग भी उनके निबंधों में मिल जाते हैं। भट्ट जी ने अपने लेखन से हिंदी को गौरव दिलाया और दिखा दिया कि खड़ीबोली भी साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी है। श्रीनिवासदास ने उपन्यास लिखा। तोताराम ने विविध समाजोपयोगी सामग्री से हिंदी साहित्य के भंडार को भरा।

भारतेंदु परिकर में पूर्व-पश्चिम दोनों ही क्षेत्रों के साहित्यकार थे, मथुरा के श्रीनिवासदास, अलीगढ़ के तोताराम, वृन्दावन के राधाचरण गोस्वामी, आदि पश्चिमी हिंदी-क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे तो गोपाल राम, बद्रीनारायण चौधरी, पं. प्रतापनारायण मिश्र आदि पूर्वी क्षेत्र का। उल्लेखनीय बात यह थी कि कोई भी लेखक किसी भी क्षेत्र का हो, उस क्षेत्र की बोली के प्रभाव से मुक्त होकर खड़ीबोली में रचना कर रहा था। देवकीनंदन खत्री अपने उपन्यासों के माध्यम से हिंदी का प्रचार कर रहे थे।

फारसी के कठिन शब्दों के प्रयोग से अपने को बचाते हुए उपन्यास लिखने लगे। लगभग सभी लेखक पत्रकार जगत से जुड़े हुए थे। आम आदमी की चिन्ता के कारण भाषा सहज व सरल अपनायी गई। भाषा का प्रचार-प्रसार उनका उद्देश्य तो नहीं था पर साहित्य के माध्यम से इसको प्राप्त किया। 

अंग्रेजी के आगत शब्द भी बढ़ते गये, जैसे – पालिसी, फीलिंग, लालटेन, गिलास आदि। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक खड़ीबोली साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी। इस शताब्दी के भाषिक स्वरूप पर सुप्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. हरदेव बाहरी ने टिप्पणी करते हुए लिखा है : “उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध की भाषा-स्थिति का अवलोकन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि भारतेंदु हरिशचंद्र और उनके युग के साथी खड़ी बोली की उन्नति के लिए बहुत सक्रिय थे और उन्होंने मौलिक कृतियों तथा अनुवाद द्वारा साहित्य को समृद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया परंतु भाषा शैली परिमार्जित नहीं हो पाई थी।

अत: सामान्य रूप से भाषा का गठन, शब्दावली प्रयोग, वर्तनी, व्याकरण तथा कथ्य की अव्यवस्था बनी रही। भारतेंदु भाषा नीति के संबंध में जागरूक अवश्य थे। उन्होंने राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा पद्धति में से एक बीच का मार्ग निकाला तो, परंतु प्राय: लेखकगण अपने-अपने ढंग से चलते रहे। … काव्यभाषा में ब्रजभाषा का प्रयोग चलते रहने के कारण खड़ीबोली साहित्य की वेदी पर प्रतिष्ठित तो हुई परंतु एक आदर्श की स्थापना नहीं हो पाई।” काव्यभाषा के रूप में शताब्दियों से ब्रजभाषा प्रतिष्ठित थी अतएव जल्दी से उसको हटाना संभव नहीं था पर प्रयत्न प्रारंभ हो गए जिनमें अयोध्या प्रसाद खत्री का प्रयास सराहनीय रहा।

हिंदी-शिक्षण के लिए जो ‘हिंदी मैन्युअल’ तैयार हुए उनमें श्रीधर पाठक जी का नाम विशेष उल्लेखनीय इस दृष्टि से है कि उनकी रचनाओं को उसमे स्थान मिला। गद्य के क्षेत्र में खड़ीबोली ने अपना स्थान बना लिया पर उसके स्वरूप को परिनिष्ठित बनाने का कार्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में किया।

पद्य के क्षेत्र में खड़ीबोली ने अपना प्रवेश कर लिया पर पैर जमाने का श्रेय आचार्य द्विवेदी को है जिन्होंने सरस्वती के माध्यम से नाथूराम शंकर तथा मैथिलीशरण गुप्त को व्यापक रूप से स्थान दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचन्द या प्रसाद आदि की रचनाओं ने भी सर्वप्रथम सरस्वती में स्थान पाया। हिंदी को प्रतिष्ठित करने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा उस युग की पत्रिका ‘सरस्वती’ के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। दूसरी पत्रिका ‘समालोचक’ (सन् 1902) का विशिष्ट स्थान रहा। इसके पहले संपादक गोपालदास गहमरी थे। सन् 1903 में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने संपादन का कार्यभार सम्हाला।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में बाबू श्यामसुंदर दास के अथक प्रयासों से काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हो चुकी थी। नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी शब्दकोश का कार्य प्रारंभ किया जो आगे चलकर ‘हिंदी शब्द सागर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसकी भूमिका के रूप में हिंदी साहित्य का इतिहास’ की रचना की। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को संक्रमणकाल कहा जा सकता है। यह नई तथा पुरानी प्रवृत्तियों का संधिकाल है। सामाजिक चेतना उभरकर आयी जिससे देशभाक्ति का स्वर उभरा यद्यपि राजभक्ति भी चलती रही। नाटक विधा का प्रारंभ हुआ और जनसंपर्क की सशक्त विधा पत्रकारिता का आविर्भाव हुआ। पत्रों के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार प्रारंभ हुआ तो गद्य साहित्य में नई विधाओं का पदार्पण हुआ।

 द्विवेदी युग

सन् 1900 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से ‘सरस्वती’ मासिक का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसने युगान्तरकारी भाषा-चेतना उत्पन्न की। इसकी संपादन समिति में श्री कार्तिक प्रसार खत्री, पं. किशोरी लाल गोस्वामी, बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर, बाबू राधाकृष्ण दास व बाबू श्यामसुंदर दास थे। इस पत्रिका का उद्देश्य था – “हिंदी रसिकों के मनोरंजन के साथ भाषा के सरस्वती भंडार की अंगपुष्टि, वृद्धि और पूर्ति।” पत्रिका में गद्य-पद्य नाटक, शिल्प, कला-कौशल, साहित्य ग्रंथों की समालोचना भी प्रकाशित होती थी। साहित्य के नव-उत्थान के लिए इसका जन्म हुआ। साहित्य के इतर जीवन-चरित्र, प्रकृति वर्णन, यात्रा वर्णन, कवि-परिचय, फोटोग्राफ़ी, ज्ञान-विज्ञान के नए विषय भी सम्मिलित थे। कुछ समय बाद ही आचार्य दिवेदी ने इसका संपादन सम्हाल लिया और बड़ी निष्ठा से दो दमाक तक दसका संपादन किया। इसके माध्यम से हिंदी भाषा का परिष्कार किया और मानकता देने में भरसक लगे रहे। वह सामग्री का ऐसा संशोधन करते थे कि अधिकतर लोगों की समझ में भाषा आए। उनके कुछ आदर्श रहे। उन्होंने संकल्प किया था :

वक्त की पाबंदी करूँगा। – मालिकों का विश्वासपात्र बनने की चेष्टा करूँगा। – अपने हानि-लाभ की परवाह न कर पाठकों के हानि-लाभ का सदा ध्यान रखूगा। – न्याय-पक्ष से कभी न विचलित हूँगा। लोगों के साथ द्विवेदी जी की टिप्पणियाँ भी रहती थीं। भाषा परिष्कार के संबंध में उनका कथन था : “यह न देखना कि यह शब्द अरबी का है या फारसी का या तुर्की का। देखना सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं। अल्पज्ञ होकर भी किसी पर विद्वता की झूठी छाप छापने की कोशिश मैंने कभी नहीं की।”

द्विवेदी जी स्वयं संस्कृत के विद्वान थे साथ ही भारतीय संस्कृति के पक्के समर्थक तथा स्वदेश-प्रेमी साहित्यकार थे। उन्होंने इस दृष्टि से कवियों को इस ओर मोड़ा जिसके फलस्वरूप भारतीय आदर्श स्थापित हुआ। मानव के आदर्श और यथार्थ दोनों रूपों का चित्रण पत्रिका में किया गया। मानव के आदर्श रूप को चित्रित करने के लिए कवियों को मोड़ा और राजा रवि वर्मा के चित्रों को प्रकाशित किया। ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ीबोली को स्थापित किया जिसके संबंध में पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी (कालांतर में ‘सरस्वती’ के संपादक भी रहे) जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है।

“द्विवेदी जी ने सरस्वती के शक्तिशाली माध्यम से अनुयायियों की सहायता और समर्थन से अंत में ब्रजभाषा को साहित्य जगत से निकाल बाहर करने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की और उनके बाद जो पीढ़ी आयी उसके संस्कार खड़ी बोली ही के थे।”

“आचार्य द्विवेदी एक अध्यवसायी व्यक्ति हैं और संपादकीय लेखों में श्रम करने के अतिरिक्त उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। उनकी कुछ पुस्तकें मौलिक हैं कुछ संस्कृत और अंग्रेजी से अनूदित हैं। अनूदित पुस्तकों में मिल कृत ‘स्वतंत्रता’ और हर्बर्ट स्पेंसर कृत ‘शिक्षा’ उल्लेखनीय है।”

इस युग का सम्यक् मूल्यांकन करते हुए डॉ. रामचंद्र तिवारी ने व्यक्त किया है : “नयी जीवन दृष्टि ने नयी भाषा को माध्यम बनाया। खड़ीबोली पूर्णत: प्रतिनिष्ठित हुई। उसे पंडिताऊ और ठेठ गँवारूपन से मुक्त करके माँजा-सँवारा गया। साहित्य सृजन की मूल प्रेरणा, समाज-सुधार, चरित्र-निर्माण या व्यापक राष्ट्रीय हित होने के कारण इस काल की साहित्यिक कृतियों में कलात्मक निखार तो नहीं आया, किंतु सभी प्रकार की गद्य-विधाओं की विकास परंपरा का आरंभ अवश्य हो गया। साहित्य का स्वर क्रमश: गंभीर हुआ और उसमें दायित्व-बोध जागा। साहित्य को शिष्ट समाज में प्रवेश पाने योग्य समझा जाने लगा और सब मिलाकर हिंदी को व्यापक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।”

हिंदी के बढ़ते चरण

राजभाषा के रूप में हिंदी का प्रतिष्ठापन के बाद हिंदी के परिचय में वृद्धि हुई और उसके प्रकार्य बढ़ गए। साहित्यिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय संपर्क के कारण, नई-नई विधाओं और साहित्यिक धाराओं का प्रवर्तन हुआ जिससे हिंदी समुन्नत बनी। हम आगे इसकी विस्तार से चर्चा करेंगे।

साहित्यिक गतिविधियाँ द्विवेदी काल के बाद साहित्यिक दृष्टि हिंदी भाषा का विभिन्न दिशाओं में जो विकास हआ है उसके समक्ष विश्व की कुछ ही भाषाएँ ठहर सकती हैं। यही कारण है कि आज भारत में संप्रेषणीयता की दृष्टि से हिंदी सर्वोपरि है। साहित्यिक दृष्टि से द्विवेदी जी के सामने ही ‘छायावाद’ की धारा प्रवाहित हो गई थी जिसके तत्काल बाद प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नवलेखन में नयी कविता, गीत, अकविता से लेकर क्षणिकाएँ (हाइकू) लिखी जाने लगी हैं। आधुनिक काल में रचित कुछ उल्लेखनीय प्रबंध काव्य हैं :

तक्षशिला’ (उदयशंकर भट्ट), ‘नूरजहाँ’ (गुरु भक्त सिंह), ‘सिद्धार्थ’ (अनूप शर्मा), ‘तुलसीदास’ (निराला), हल्दीघाटी’ (श्याम नारायण पांडेय), ‘कृष्णायन’ (द्वारिकाप्रसाद मिश्र), ‘एकलव्य’ (रामकुमार वर्मा), ‘कुरुक्षेत्र’ (दिनकर), ‘जननायक’ (रघुवीर शरण मित्र), ‘पार्वती’ (रामानंद तिवारी), ‘नारी’ . (अतुलकृष्ण गोस्वामी), ‘मीरा’ (परमेश्वर द्विरेफ), ‘उर्मिला (बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’), ‘झांसी की रानी’ (आनंद मिश्र), ‘द्रौपदी’ (नरेंद्र शर्मा), ‘लोकायतन’ (सुमित्रानंदन पंत), कनुप्रिया’ (भारती), ‘आत्मजयी’ (कुँवरनारायण), ‘संशय की एक रात’ (नरेश मेहता)। अज्ञेय ने जो ‘तारसप्तक’ का संपादन किया उसके बाद दूसरा, तीसरा तथा चौथा सप्तक प्रकाशित हुआ।

गीत काव्य व नई कविता पर कई ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। गद्य में जहाँ उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी लिखे जा रहे हैं, वहीं गद्य की अनेक अन्य विधाओं का पर्याप्त विकास हो रहा है जिनमें प्रमुख हैं : रिपोर्ताज, डायरी, साक्षात्कार (इंटरव्यू), ललित निबंध, आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, रेखाचित्र, व्यंग्य विनोद, यात्रा-साहित्य, पत्र, फीचर, लघुकथा, नुक्कड़ नाटक, रेडिया-रूपक, ध्वनि नाट्य, सोप ओपेरा, वार्तालाप-बतकही, अचर्चा, टिप्पणी, पोस्टर, कोलाज आदि।

ज्ञान की विविध विधाओं में पर्याप्त साहित्य अब प्रकाशित हो रहा है। धार्मिक साहित्य का प्रकाशन तो उन्नीसवीं शताब्दी से ही प्रारंभ हो गया था जिसमें निरंतर प्रगति होती गई। प्रौढ़-शिक्षा तथा बाल-शिक्षा की दृष्टि से गत कुछ दशकों में इतना अधिक साहित्य प्रकाशित हुआ है जिसको सूचिबद्ध करने में भी कई ग्रंथ बन सकते हैं।

बीसवीं शताब्दी में हिंदी भाषा का विकास सभी दृष्टियों से हुआ है। शताब्दी के प्रारंभ में नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ने ‘शब्द सागर’ की जो योजना बनायी वह तीसरे दशक में आठ खंडों में पूर्ण हई। इसका संक्षिप्त संस्करण रामचंद्र वर्मा ने तैयार किया। उन्होंने ही ‘मानक कोश’ तैयार किया और बाद में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से पाँच खंडों में बृहत् कोश भी तैयार किया। इस समय अनेक प्रकार के कोश डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. बदरीनाथ कपूर, डॉ. सुरेश अवस्थी आदि विद्वानों द्वारा तैयार किए गए, प्रकाशित रूप में उपलब्ध हैं।

श्री अरविंद कुमार जी ने गहन परिश्रम से ‘समानांतर कोश’ तैयार किया जो नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग और विधि मंत्रालय द्वारा अनेक कोश प्रकाशित किए गए हैं। बैंकिंग एसोशिएशन ने भी बैंकिंग की दृष्टि से कोश प्रकाशित किया है। सूचना क्रांति ने तो इक्कीसवीं शताब्दी में खटखटाया है पर हिंदी भाषा इस दिशा में निरंतर अग्रसर होती गई है। अनेक दिशाओं में से कुछ हैं: – वेब डेवलमेंट, वेब मार्केटंग की दृष्टि से सर्व प्रथम वेब दुनिया’ आया। – टाइपराइटर, टेलीप्रिंटर की दृष्टि से कई दशक पहले नागरी लिपि आगे आई पर अब तो

‘फैक्स’ पेजिंग व्यवस्था कंप्यूटर आदि सर्वत्र में हिंदी व नागरी लिपि है। आई.आई.टी., कानपुर द्वारा विकसित जिस्ट (GIST) का विकास सी-डैक, पुणे द्वारा किया गया है। ‘पाठ से वाचन’ (Text to speech) का विकास द्रुत गति से हो रहा है। कंप्यूटर के लिए अनेक सॉफ्टवेयर तैयार हो गए हैं – फैक्ट, सुलिपि, आकृति, पी.सी. डॉस,

बैंक्स, श्रीलिपि, प्रकाशक, लीप आफिस, अक्षर आदि प्रमुख हैं। अब तो ऑफिस एक्सपी भी उपलब्ध है।

हिंदी सीखने के लिए ‘लीला प्रबोध’, ‘लीला प्रवीण’ ‘गुरु’ जैसे अन्य कई प्रोग्राम उपलब्ध हैं।  ई-मेल, इंटरनेट में सुविधाएँ उपलब्ध हैं। विस्तार के लिए पृथक् से अध्ययन करना होगा।

सारांश

संक्षेप में खड़ीबोली हिंदी के आधुनिक विकास की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। वैसे तो खड़ीबोली के तत्व हिंदी भाषा के आदि काल से पुरानी हिंदी में प्रकट होते हैं जिनका विकास अमीर खुसरो, कबीर की भाषा में स्पष्टत: दिखाई देता है तथा दकनी में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं पर ‘खड़ीबोली’ नाम देने का श्रेय कलकत्ता स्थित फोर्ट विलियम कॉलेज को जाता है। कॉलेज की भूमिका और ‘खड़ीबोली’ नाम पर विशेष रूप से सामग्री दी गयी है।

हिंदी के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का विशेष योगदान रहा है जो आज भी चल रहा है। जब से सूचना प्रौद्योगिकी में संचार माध्यमों का महत्व बढ़ा है, हिंदी विश्व भाषा के रूप में उभर कर आ रही है। यही कारण है कि हिंदी की पत्रकारिता पर विस्तार से दिया जा रहा है। भारतेंद जी ने ‘नए चाल की हिंदी’ का उदघोष किया जिसको मानक स्वरूप प्रदान करने का श्रेय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को है जिन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन में यह कौशल दिखाया। 

कुछ प्रश्न

1. खड़ी बोली’ नामकरण के संबंध में विभिन्न मतों का उल्लेख करते हुए अपने विचार लिखिए।

2. खड़ीबोली के उन्नयन में फोर्ट विलियम कॉलेज की भूमिका स्पष्ट कीजिए।

3. खड़ीबोली के विकास में पत्र-पत्रिकाओं के योगदान पर संक्षिप्त निबंध लिखिए।

4. राजा शिवप्रसाद सिंह तथा राजा लक्ष्मण सिंह ने खड़ीबोली के विकास में भाषा के किस-किस रूप को महत्व दिया।

5. खड़ीबोली के विकास भारतेंदु युग के महत्व को प्रतिपादित कीजिए।

6. भारतेंदु की ‘नए चाल की हिंदी’ से क्या तात्पर्य है? हिंदी के विकास में आचार्य द्विवेदी का महत्व किस दृष्टि से विशेष है? उनका योगदान स्पष्ट कीजिए।

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