हिंदी नाट्य साहित्य

यह इकाई हिन्दी नाट्य साहित्य से संबंधित है। इस इकाई में हिंदी नाटक, रंगमंच और एकांकी के विकास की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। इस इकाई को पढ़ाने के बाद आप :

  • नाटक विधा के शैली-शिल्पगत मर्म को समझ सकेंगे;
  • नाटक और रंगमंच के अंत:संबंध की चर्चा कर सकेंगे;
  • आधुनिक हिंदी नाटक से पूर्व के नाट्य-लेखन एवं प्रदर्शन की स्थिति को जान सकेंगे;
  • आधुनिक हिंदी नाटक (भारतेंदु काल से आज तक के) के मौलिक स्वरूप की चर्चा कर सकेंगे;
  • विभिन्न नाट्य धाराओं की निजी प्रवृत्तियों को पहचान सकेंगे; और
  • हिंदी नाटक की नई-नई धाराओं को जन्म देने वाले नाटककारों के योगदान का विवेचन कर सकेंगे।

नाटक में कथोपकथन मूलक भाषिक संरचना के अतिरिक्त कलाओं का भी प्रयोग सुलभ होता है। नाटककार नाटक की अभिव्यक्ति में कथोपकथनमूलक भाषा, नृत्यकला, नृत्तकला, वाद्यकला, संगीतकला, वास्तु-शिल्प आदि अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों को अपना सकता है। कला के इन सभी माध्यमों का यथोचित उपयोग करते हुए वह नाट्य प्रदर्शन को, (अभिनय को) रोचक या रंजक तथा अर्थवान बनाने का प्रयत्न करता है। इन विविध कलाओं के संयोग से नाटक का अभिनय दर्शक को मंत्रमुग्ध करने वाला बन जाता है।

नाटक में कथोपकथनमूलक भाषा की नाटकीयता का सौंदर्य क्रियाशीलता को उकसाने में होता है, घटनाओं और स्थितियों का केवल वर्णन करने में नहीं। रंगमंचीय गत्यात्मकता ही नाटक का मूल मर्म है। नाटक की भाषा हरकत की भाषा होती है। नाट्य या अभिनय (नाट्य तत्राभिनेयम्-सहित्य दर्पण, आचार्य वेश्वनाथ) के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द या वाक्य तभी सार्थक एवं कलात्मक माने जाते हैं। जब वे कायिक, वाचिक, सात्विक एवं आहार्य अभिनय को उकसाते या प्रेरित करते हैं। नाट्य-प्रदर्शन को कालिदास ने इसीलिए चाक्षुष यज्ञ कहा है। नाट्य-वस्तु को रूपायित करते हुए नाटककार अभिनयगर्भित संवाद, दृश्यबंध, दृश्य-सज्जा, प्रकाश-व्यवस्था, ध्वनि-प्रभाव आदि के समुचित संयोजन को लक्ष्य कर नायक या पात्रों की अवस्थाओं (जीवन की दशाओं) को क्रियात्मक (गतिशील) रूप में प्रत्यक्ष करता है।

साहित्य की दूसरी विधाओं (जैसे उपन्यास कहानी, निबंध, रेखाचित्र, यात्रावृत्तांत, महाकाव्य, खंडकाव्य, प्रगीत आदि) में लेखक या रचनाकार वर्णनात्मक, चित्रात्मक एवं संगीतात्मक भाषा के जरिए ही विषयवस्तु को प्रकट करता है, किंतु नाटक में अभिनय के जरिए विषयवस्तु (कथानक) को प्रत्यक्ष घटित होते हुए दिखलाया जाता है। इसी अर्थ में नाटक, साहित्य की अन्य विधाओं से भिन्न है। गत्यात्मकता नाटक का प्रमुख तत्व है। पात्रों के संवाद और अभिनय के माध्यम से नाटक की कथावस्तु कुतूहलगर्भित रूप में उत्तरोत्तर सानुरूप नाट्य-प्रयोत्या (सूत्रधार) या निर्देशक, विभिन्न रंगकार्मिक के सहयोग से दृश्य, दृश्यसज्जा, प्रकाश-व्यवस्था, वाद्य-संगीत के प्रयोग और ध्वनि-प्रभाव के द्वारा दर्शक के लिए नाट्यवस्तु की संवेदना के संप्रेषण को अधिक चटकीला या प्रभविष्णु बनाते हैं। इसीलिए ‘काव्येषु नाटक रम्यम्’ उक्ति प्रसिद्ध है। इस इकाई में हम प्रवृत्तियों के आधार पर नाटक के विकास, उसकी अंतर्वस्तु एवं शिल्प पर विचार करेंगे।

आधुनिक नाटक-रचना में संघर्ष एवं अंतर्द्वद्व

नाटक की गत्यात्मकता का रहस्य, भावों-विचारों से प्रेरित अंतर्बाह्य संघर्ष में निहित होता है। अत: कुछ पाश्चात्य नाट्य-विचारक तनाव और संघर्ष की दशाओं की अभिव्यक्ति को ही नाटक का प्रधान तत्व मानते हैं। इस विचारधारा से भारतेंदु के बाद हिंदी नाट्य-प्रयोग विशेष प्रभावित हैं। भारतीय परंपरा के रसवादी नाटकों में अंतर्द्वन्द्व के तनाव का कोई महत्व नहीं था। ऐसा चित्रण रसनिष्पत्ति का बाधक बन सकता है। इसी कारण प्राचीन रसवादी भारतीय नाट्य-परंपरा में अंतर्द्वन्द्व उस रूप में नहीं मिलता. जिस रूप में पाश्चात्य नाटकों में प्रकट होता है।

हिंदी नाटक का विकास

पूर्वपीठिका

नाट्य-लेखन एवं प्रयोग-विज्ञान (अभिनय) की भारतीय परंपरा बहुत पुरानी है। संस्कृत साहित्य में नाट्य-रचना और रंगमंचीय प्रदर्शनों का एक लम्बा इतिहास रहा है। किंतु मध्य-युग में आकर प्रेक्षागृहों – और नाट्य-प्रदर्शनों का क्रमश: हास होता गया। मनु और याज्ञवल्क्य स्मृतियों में नटों के प्रति हेय भावना व्यक्त किए जाने के कारण रंगकर्मियों एवं अभिनेताओं की प्रतिष्ठा घटी। विदेशी आक्रमणों ने भी राजप्रासादों से जुड़ी हुई रंगशालाओं को तहस-नहस कर दिया। जयशंकर प्रसाद लिखते हैं कि “मध्यकालीन भारत में जिस आतंक और अस्थिरता का साम्राज्य था, उसने यहाँ की प्राचीन रंगशालाओं को तोड़-फोड़ दिया।” (काव्य-कला तथा अन्य निबंध.) 11वीं-12वीं शताब्दी तक आते-आते नाट्य-लेखन रंगभूमि के जीवित संदर्भ से कट गया। इतिवृत्तमूलक संवादात्मक काव्य को ही नाटक कहा जाने लगा। मध्ययुग के । उत्तरार्द्ध में ब्रजभाषा हिंदी में भी कुछ ऐसे नाटक प्रणीत हुए जिनकी मूल प्रकृति तो काव्यपरक ही है, किंतु संवाद-शैली में रचे जाने कारण उन्हें नाटक की संज्ञा दे दी गई है। कुछ उल्लेखनीय नाटक इस प्रकार हैं :

‘रामायण महानाटक’ – प्राणचन्द चौहान (सन् 1610 ई), करुणाभरण’ – लछिराम (सन् 1657 ई.) ‘शकुन्तला’ – नेवाज (सन् 1680 ई.), ‘आनन्द रघुनन्दन’ – महाराज विश्वनाथ (सन् 1700 ई.), ‘रामकरुणाकर’ एवं ‘हनुमन्नाटक’ – उदय (सन् 1840 ई.) इत्यादि। इनकी सृजनात्मक प्रवृत्ति तत्वत: नाट्योपयोगी उतनी नहीं है जितनी कि काव्योपजीवी है। वस्तुत: उक्त कृतियाँ संवाद-शैली में रचित पद्यात्मक प्रबंध काव्य के ही रूप हैं। ‘आनन्द रघुनंदन’ की रचना में यद्यपि नाटक रचना के शास्त्रीय नियमों को अपनाया तो गया है परंतु आगे के हिंदी नाटक के विकास को वह दिशा नहीं देता। उसमें नान्दी, विष्कंभक, भरतवाक्य आदि नाटक-रचना की शास्त्रीय विधियों को अपनाया गया है, तथापि आगे के हिंदी नाट्य-लेखन को उससे कोई सार्थक दिशा नहीं मिली। नाट्य-वस्तु एवं शैली-शिल्प की दृष्टि से हिंदी नाटक के आधुनिक मौलिक स्वरूप का विकास भारतेंद के नाट्य-प्रयोगों में ही प्रतिफलित हआ।

अपने ‘नाटक’ नामक निबंध में तो भारतेंदु ने स्वयं यह लिखा है कि हिंदी में पहले दो ही नाटक लिखे । गए थे – महाराज विश्वनाथ कृत ‘ आनन्द रघुनन्दन’ नाटक और गोपालचन्द का ‘नहष’ नाटक। ये भी ब्रजभाषा में ही लिखे गए थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि “विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य-साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ। भारतेंदु से पहले ‘नाटक’ के नाम दो-चार ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखे गए थे, उनमें विश्वनाथ सिंह के ‘आनन्द रघुनन्दन’ को छोड़कर किसी में नाटकत्व न था।’ (हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रथम संस्करण,)। पुन: वे लिखते हैं कि “जब भारतेंदु अपनी मँजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तब हिंदी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्रकृत साहित्यिक रूप मिल गया।” इस प्रकार हिंदी नाटक की अविच्छिन्न परंपरा भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के अन्य नाटककारों- प्रताप नारायण मिश्र, श्री निवास दास, बदरी नारायण चौधरी, राधाचरण गोस्वामी, राधाकृष्ण दास आदि के नाटकों से ही शुरू हुई समझी जाने लगी। इसके पीछे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की यह मान्यता भी निहित थी कि “साहित्य, शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों’ का प्रतिफलन है। (‘हिंदी साहित्य का । इतिहास’ वक्तव्य)। शिक्षित जनता से अभिप्राय: उन पढ़े-लिखे चिंतक मनीषियों से है, जो अपने समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और राजनीतिक-आर्थिक दशाओं के बारे में सोचने-विचारने की क्षमता रखते हैं, और नये-नये जीवन मूल्यों को सुझा सकते हैं। सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के लिए युग-विशेष में क्या प्रयोजनीय है, क्या प्रयोजनीय नहीं है, इसका विवेक रखते हैं।

अंग्रेजी राज्य स्थापित होने पर रंग-कार्य एवं नाट्य प्रदर्शनों को पुन: नया जीवन मिला। पारसी रंग कंपनियाँ स्थापित हुई और नाट्य प्रदर्शन के व्यवसाय में लगीं। भारतेंदु के नाट्य-लेखन के कुछ पहले से ही लिखे और खेले जाने वाले पारसी नाटकों को हिंदी नाटक साहित्य में स्थान नहीं दिया गया, क्योंकि उनकी प्रदर्शनी शैली और भाषा शिष्ट जनोचित नहीं थी। यह एक व्यावसायिक रंगमंच था, जिसका आरंभ ‘हिंदू ड्रमैटिक कोर’ की स्थापना के साथ हुआ। इस कंपनी के तत्वावधान में 1 मार्च, 1853 ई. को एक मराठी नाटक खेला गया था। इसी वर्ष लखनऊ में अमानत कृत ‘इन्दर सभा’ का भी अभिनय संपन्न हुआ। इसकी रचना अमानत ने सन् 1848 ई. में की थी यह नाटक उर्दू भाषा में था, जिसे कुछ भाषाविद् हिंदी की एक शैली मानते हैं।

नाटक का प्रदर्शन पारसी रंग शैली में किया गया था। पारसी रंग-शैली नाच-गान बहुल तथा सीन-सीनरियों की अतिरिक्त तड़क-भड़क से युक्त, फूहड़ हास्य से दर्शक का मनोरंजन करने वाली प्रदर्शन-विधियों या रीतियों को ही महत्व देती थी। इसमें संस्कृतियों और कला के प्रति वह प्रतिबद्धता नहीं थी, जो शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों वाले साहित्य में अपेक्षित है। सन् 1853 से सन् 1900 ई. तक पारसी रंग-कंपनियाँ जगह-जगह घूम-घूमकर नाटक खेला करती थीं। ये सस्ते मनोरंजन प्रधान नाटकों को प्रदर्शित करके असंस्कृत अभिरुचि वाली जनता को रंजित करते थे। उनके दर्शक ऐसे लोग ही थे, जो शेखी और शोखी गानों की, पैर पटककर संवाद बोलने या फालतू उछल-कूद वाली शारीरिक क्रियाओं, भड़कीली सीन-सीनरियों की शोभा से ही रीझने वाले थे।

इन नाट्य-प्रदर्शनों में किसी सांस्कृतिक, सामाजिक या राष्ट्रीय नवनिर्माण के प्रति कोई प्रतिबद्धता लक्षित नहीं थी, जो आधुनिक युग की नयी बौद्धिक, तार्किक एवं यथार्थ बोध मूलक शिक्षितों की जन-चेतना का अभिन्न अंग बन रही थी। स्पष्ट है कि इस दौर के (सन् 1853-1900 ई. तक के) पारसी रंग-नाटकों ने आधुनिक पुनर्जागरण की दिशा में कोई योगदान नहीं दिया इसलिए ऐसे नाटकों की साहित्य में गणना नहीं की गई।

20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में आकर पारसी थियेटर के हिंदी नाटकों का स्वर बदलने लगा। इस थियेटर से सीधे जुड़े हुए कतिपय नाटककार, जैसे नारायण प्रसाद ‘बेताब’, मुंशी मुहम्मदशाह आगा ‘हश्र’ तथा राधेश्याम कथावाचक भारतीय संस्कार और नैतिक मूल्यबोध के नाटकों की रचना में प्रवृत्त हुए। इस प्रकार पारसी हिदी रंगमंच की एक नयी धारा प्रकट हुई। इन नाटककारों ने पारसी शैली में ही खेले जाने के लिए ऐसे नाटक लिखे जो नवयुग की चेतना के सानुरूप देशानुराग और सांस्कृतिक भावना को व्यक्त करते थे। इन्हें आधुनिक हिंदी नाटक साहित्य का अंग माना जाने लगा है। आगा हश्र के नाटक जैसे ‘श्रवण कुमार’, ‘गंगावतरण’, ‘भीष्म प्रतिज्ञा’, ‘दिल की प्यास’, ‘बिल्वमंगल उर्फ सूरदास’, ‘ रुस्तम सोहराब’ आदि, मुंशी नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के नाटक ‘महाभारत’, ‘रामायण’, ‘कृष्ण-सुदामा’, ‘समाज’, ‘शकुन्तला’, ‘सीता वनवास’ आदि, राधेश्याम कथावाचक कृत ‘वीर अभिमन्यु’, ‘श्रवण कुमार’, ‘परमभक्त प्रहलाद’, ‘परिवर्तन’, ‘श्री कृष्ण अवतार’, ‘रुक्मिणी मंगल’, ‘सती पार्वती’, ‘देवार्षि नारद’ आदि पारसी थियेटर से जुड़े नाटककारों के कुछ ऐसे नाटक हैं जिन्हें हिंदी नाटक की धारा में मान्यता प्राप्त है। पारसी थियेटर के लिए लिखने वाले नाटककार प्राय: मुंशी कहे जाते थे। किंतु ये नाटक भारतेंदु के नाट्य-प्रयोग के बाद के नाटक हैं।

नए अनुसंधानों ने तो यह भी साबित किया है कि पूर्व मध्य युग में भी ब्रजभाषा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में नाटक लिखे और खेले जाते थे। 12वीं शताब्दी में असम के भावना घरों में प्रदर्शित होने वाले ‘अंकिया नाट’ तथा कालान्तर में रासलीला और रामलीला की परंपरा भारतेंदु के नाट्य लेखन से पहले चली आ रही थी। भारतेंदु ने इनसे, नाट्य-शिल्प और रंगरूढ़ियों के कुछ तत्व लिए भी। परंतु यह परंपरा लोक-नाटक की ही परंपरा थी, साहित्यिक नाटक की नहीं। हिंदी के साहित्यिक नाटक की परंपरा तो भारतेंदु से ही आरंभ होती है।

भारतेंदु युग के नाटक

जैसा कि आप जानते हैं कि परिनिष्ठित साहित्य के रूप में हिंदी नाटक का विधिवत विकास भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने ही किया। नाटक के माध्यम से एक सुरुचिपूर्ण राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का नवोन्मेष करना उनके नाटक-सृजन का लक्ष्य था । मनोरंजन के साथ-साथ दर्शक को शिक्षा देना भी उनका अभीष्ट था। उन्होंने नाट्य-लेखन और अभिनय को मनोविनोद के साथ-साथ समाज-सुधार और युगीन नवजागरण से भी जोड़ा। वे यह मानते थे कि नाट्य प्रदर्शनों के माध्यम से समाज-सुधार का आंदोलन अधिक प्रभावी हो सकता है। सामाजिक या दर्शक को उसके यथार्थ को दिखलाकर अधिकाधिक झकझोरा और अपनी दशा को सुधारने की ओर प्रेरित किया जा सकता है। इसी प्रयोजन से भारतेंदु ने अपने युग के विविध धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि प्रश्नों या समस्याओं को अपने प्रहसनों एवं नाटकों में रूपायित किया और पुनरुत्थानमूलक समाधान प्रस्तुत किया। भारतेंदु मंडल के अन्य नाटककारों ने भी उन्हीं के आदर्शों का अनुसरण किया। वास्तव में भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के नाटककारों का लक्ष्य समाज-सुधार एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान की भावना को जगाना था।

भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के दूसरे नाटककार मूलत: सुधारवादी थे। समाज सुधार की भावना से प्रेरित होकर इन्होंने अपने समाज की वर्तमान दशा का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया। यह तो आपको मालूम ही है कि लेखक का दृष्टिकोण जब यथार्थपरक होता है तो वह अनिवार्यत: अपने समय के समाज को खुली आँख से देखता है। उसके राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि सभी घटकों में व्याप्त बुराइयों, विकृतियों, अंधविश्वासों का यथा तथ्य रूप प्रस्तुत करता है। ‘कविवचन सुधा’ नामक पत्रिका में भारतेंदु ने अपने समय के समाज का जो लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है, वह उनकी यथार्थ बोध मूलक गहरी अंतर्दृष्टि का ज्ञापक है। किंतु वे सैद्धांतिक यथार्थवादी नहीं थे। समाज की बुराइयों की सही पहचान कराने के रूप में तो वे यथार्थवादी चिंतक हैं लेकिन उनके यथार्थ-चित्रण का प्रयोजन भारतीय चिंतन के सांस्कृतिक-नैतिक मूल्यों को अपनाकर सुधार करने को भी प्रेरित करता है।

सारांश यह है कि भारतेंदु ने पुनर्जागरण की नींव पर राजनीतिक चेतना और सामाजिक पुनरुत्थान का भवन निर्मित किया, जिसके फलस्वरूप भारतीय अपने महान उत्तराधिकार के प्रति सचेत हुए। उनके नाटकों में पुनरुत्थान से प्रेरित सुधार भावना प्रकट है। भारतेंदु युग परतंत्र युग था। उनके समय के नगर, समाज और राष्ट्र में सर्वत्र सभी स्तरों पर रूढ़िग्रस्त पतनोन्मुखी प्रवृत्तियाँ कार्यशील थीं। परतंत्र जाति की संकुचनशील मनोवृत्तियाँ भारतीय जीवन को दुर्बल, शक्तिहीन एवं खोखली बनाती जा रही थीं। उन्हें देखकर दूरदर्शी हरिश्चन्द्र का अनुभूति प्रवण हृदय बारंबार विकल हो उठता था। इसी विकलता ने उन्हें ऐसी नाट्यकृतियों का सर्जन करने के लिए प्रेरित किया जिनमें भारत का जनवर्ग अपनी हासोन्मुखी गतिविधियों की स्पष्ट, साकार मूर्ति देख सके और उनके रहस्य को समझ कर उनके विरुद्ध विद्रोह करने की दृढ़ता और शक्ति प्राप्त कर सके। इसी अर्थ में वे यथार्थ बोध के नाटककार थे। यथार्थ बोध के साथ विषमता की पहचान और उसका अहसास स्वभावत: जुड़ा रहता है। इसी पहचान और अहसास के कारण हम पाते हैं कि उनकी हँसी में भी एक छटपटाहट रहती है। इस छटपटाहट को हम ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’, ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ आदि प्रहसन परक नाटकों में सरलता से देख सकते हैं। उनका व्यंग्य गर्भित हास्य प्रमाता को गहरे प्रभावित करता है। इसमें भारतेंदु की सामाजिक उत्तरदायित्व की चेतना को आधुनिक दृष्टि का सर्वाधिक प्रामाणिक रूप माना जाता है।

आइए, देखें कि किस प्रकार अपने युग के सामाजिक नव जागरण को, भारतेंदु तथा उनके मंडल के नाटककारों ने मुखरित किया : 

  • भारतेंदु युग के नाटक देशभक्ति की चेतना जगाते हैं। नाटकों में सामाजिक नव जागरण की जो चेतना प्रकट हुई, वह देशभक्ति की भावना से प्रेरित थी। सन् 1857 की असफल क्रांति से जनमानस में जो निराशा एवं शिथिलता व्याप्त हो गई थी, वह भारतेंदु के नाटकों के अभिनय को देखकर नवोत्साह पूर्ण वातावरण में बदलने लगी। हीन भावना से ग्रस्त भारतीयों को अतीत के गौरवपूर्ण आख्यानों का स्मरण कराया गया तथा स्वाधीनता के महत्व को प्रदर्शित किया गया। इसके फलस्वरूप जनता में आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव जाग उठा।
  • भारतेंदु की सभी मौलिक रचनाओं यथा ‘भारत दुर्दशा’, ‘भारत-जननी’, ‘अंधेर नगरी’, ‘नीलदेवी’, . ‘सत्यहरिश्चन्द्र’, ‘पाखंड विडम्बन’, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’, ‘विषस्य विषमौषधम्’, प्रमयोगिनी’, ‘सती प्रताप’ में देश प्रेम प्रबल पक्ष के रूप में प्रकट है। अनूदित नाट्य रचनाओं यथा विद्या सुन्दर’, ‘कर्पूर मंजरी’, ‘मुद्रा राक्षस’, ‘दुर्लभ बन्धु’ आदि में भी देश प्रेम लक्षित होता है।
  • भारतेंदु के नाटकों में देश प्रेम के आधार के रूप में चरित्र बल और अपनी भाषा संस्कृति के प्रचार-प्रसार को विशेष महत्व दिया गया है। इसलिए उनके नाटकों का रुझान आदर्शवादी है। भारतेंदु यह जानते थे कि पराधीनता से मुक्त होने के लिए देशवासियों में चरित्रबल का होना जरूरी है। राष्ट्रीय मुक्ति के विचार-प्रसार के लिए राष्ट्रभाषा का भी उतना ही महत्व है। इसको बहुत साफ रूप में समझाने के लिए नाटकों में उन्होंने कहीं सीधे उपदेश की शैली का प्रयोग किया है, तो कहीं भरत वाक्य में उसे प्रकट करते हैं।
  • अधिकतर हास्य-व्यंग्य की वक्र शैली में वे चरित्र निर्माण की शिक्षा देते हैं। नाटकों के कथानक चरित्र बल की अभिव्यक्ति करते हैं। ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक लिखकर भारतेंदु ने चरित्रबल के तत्वों की ओर संकेत किया। हरिश्चन्द्र का सत्यप्रिय, न्यायप्रिय, त्यागप्रिय एवं कर्तव्यपरायण चरित्र भारतीय चरित्र के आदर्श का मानदंड है। चरित्र की इसी धुरी पर खड़े होकर पराधीनता के पाश को काटा जा सकता है। इस नाटक का भैरव-राग यही संदेश देता है । सत्य हरिश्चन्द्र के रंगमंच पर आने के व्याज से अंग्रेजीराज को हटाने का संदेश देने के लिए ये पंक्तियाँ रची गई हैं

“प्रगटहु रवि-कुल-रवि निसि, बीती प्रजा कमलगन फूले।

मंद परे रिपुगन तारा सम, जन-मय-तम उनमूले।।’

नाटक के भरतवाक्य ‘स्वत्व निज भारत गहे’ में भी स्वतंत्रता की प्रबल उत्कंठा व्यंजित है।

भारतेंदु यह मानते थे कि नारी के चरित्रबल और देश प्रेम का उतना ही महत्व है, जितना पुरुष के चरित्रबल का। इसी मान्यता से प्रेरित होकर उन्होंने ‘सती प्रताप’ और ‘नीलदेवी’ जैसे नाटकों की रचना की। ‘सती प्रताप’ में पातिव्रत्य को नारी का चरित्रबल बतलाया गया है। ‘नीलदेवी’ नारी की वीरता एवं देशभक्ति से संबंधित नाट्यकृति है। इसमें गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाकर भारतीयों को स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए अनुप्रेरित किया गया है –

“रहे हमहँ कबहूँ स्वाधीन आर्य बलधारी।”

“भारत जननी” में भी राष्ट्रीय जागरण का संदेश दिया गया है। अंग्रेजी शासन में देश की अधोगति दिखाकर देश रक्षा का विचार व्यक्त किया गया है –

“अब बिन जागे काज सरत नहिं आलस्य दूर बहाओ।

हे भारत भुवनाथ भूमि निज बूड़त आनि बचाओ।।”

नाटक में स्वाभिमान की भावना जगाई गई है और देश को प्रगतिशील बनाने के लिए भारतीयों को अनुप्रेरित किया गया है, भारत के पुराने गौरव को पुन: स्थापित करने का जगह-जगह आह्वान मिलता है। ‘भारत दुर्दशा’ की नाट्य रचना में देशभक्ति की ही अनुप्रेरणा है। इसमें अतीत के गौरव गान से वर्तमान भारत को पुनरुत्थान के लिए प्रेरित किया गया है, साथ ही इसमें देश की वर्तमान अधोगति को दिखाया गया है। नाटककार ने नाटक में अपने समय के भारत की दयनीय दशा का प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत किया है। जनता मँहगाई की मार से दु:खी है, कर वसूलने की कठोरता से भयभीय है।

भारतीय को विदेश भेजने की अंग्रेजों की चाल से बेहाल है। सारा समाज सामाजिक बुराइयों जैसे छुआछूत, आपसी फूट, आलस्य, रोग, मदिरा आदि कुप्रवृत्तियों के कारण दुर्दशा को प्राप्त है। इस परिप्रेक्ष्य में वे देशवासियों का ध्यान अपनी गौरवपूर्ण परंपरा की ओर ले जाते हैं और पुनरुत्थान को अनुप्रेरित करते हैं –

“जहँ भए शाक्य हरिश्चन्द्र नहुष ययाती।

जहँ राम युधिष्ठिर वासुदेव सर्याती।

जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती।

तहँ रही मूढ़ता, कलह, अविद्या-राती।”

इन नाटक में वे देश की गिरी हुई अवस्था और अंग्रेजों की शोषक नीतियों का चित्रण कर एवं देश की अतीत कालीन उन्नत दशा और वीरता की याद दिलाकर दर्शक में देशप्रेम की संवेदना जगाकर स्वाट पीनता-संघर्ष के लिए अनुप्रेरित करते हैं।

‘अंधेर नगरी’ में भी भारतेंदु ने व्यंग्योपहास की शैली में नाट्य रचना कर देश के भीतर के सूदखोर महाजन जैसे देश के दुश्मनों और अंग्रेजी शासन के जन विरोधी राजप्रबंध, शोषण एवं टैक्स की नीति पर कटु व्यंग्य किया है। नाटक का व्यंग्योपहास समाज की आँख खोलने के लिए है, देश-बचाने के लिए जनता को सजग करने के लिए है।

“विषस्य विषमौधम्’ नाटक में देश के रजवाड़ों की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति दिखलाकर देश को दर्बल करने वाले तत्वों के प्रति सावधान किया गया है। इसी प्रकार प्रम योगिनी’ नाटक में भारतेंदु ने धार्मिक और सामाजिक गिरावट का व्यंग्यात्मक चित्रण किया है। वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ में लोलुप स्वार्थी और अवसरवादी लोगों पर व्यंग्य किया गया है। देश को खोखला करने वाले तत्वों का व्यंग्य और उपहास की शैली में चित्रण कर भारतेन्दु राष्ट्रप्रेम की शिक्षा देते हैं, पुनरुत्थान की ओर अनुप्रेरित करते हैं। 

भारतेंदु के नाटक रंगशिल्प की दृष्टि से बहुत सरल और स्वाभाविक हैं। वे नाटककार ही नहीं निर्देशक और अभिनेता भी थे। उन्होंने थोड़े से रंगमंचीय उपकरणों (सामग्रियों) की सहायता से मेले-ठेले में या कहीं भी खुली या बंद जगह में प्रदर्शित कर जनता को रंजित और शिक्षित करने के लिए ही नाटक की रचना की थी। अत: रंगमंचीय प्रदर्शन की दृष्टि से वे बहुत प्रभावशाली नाटक ज्ञात होते हैं। बहुत कुछ लोक-नाट्य शैली को अपनाने के कारण भी उनके मंचन में कोई कठिनाई नहीं होती। हिंदी नाट्यकला के प्रवर्तक के रूप में भारतेंदु ने जो नेतृत्व किया उसकी छाया में नाटककारों का एक मंडल साहित्य क्षेत्र में अवतरित हुआ। अनेक तो भारतेंदु के संपर्क से उत्साहित होकर ही नाटककार बने।

भारतेंदु मंडल के दूसरे नाटककारों ने भारतेंदु की नाट्य शैली का अनुसरण कर नाटक लिखे और हिंदी नाटक साहित्य को समृद्ध किया। भारतेंदु युग के कुछ उल्लेखनीय नाटक हैं – देवकीनन्दन खत्री कृत ‘सीताहरण (1876), शीतलाप्रसाद त्रिपाठी का ‘रामचरितावली’ श्रीनिवास दास के ‘प्रह्लाद चरित्र’, ‘रणधीर प्रेममोहिनी’, ‘बालकृष्ण भट्ट के ‘नलदमयंती स्वयंवर’, ‘नया रोशनी का विष’, राधाचरण गोस्वामी का ‘अमरसिंह राठौर’, राधाकृष्ण दास का ‘दुखिनी बाला’ आदि।

द्विवेदी युग : नाटक सृजन की दृष्टि से हास काल

मौलिक नाटकों के सृजन में द्विवेदी युग का योगदान नहीं के बराबर ही था। इस युग के नाट्य लेखन में कोई नयी सर्जनशीलता प्रकट नहीं हुई। वस्तुत: भारतेंदु मंडल के नाट्य प्रयत्नों के बाद काफी समय तक नाटकीय गतिविधि क्षीण दिखाई पड़ती है। भारतेंदु काल में जो कतिपय अव्यावसयिक नाट्य मंडलियाँ स्थापित हुई थीं, वे शीघ्र ही काल कवलित हो गईं। द्विवेदी युग के प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं प्रखर अभिनेता माधव शुक्ल ने अव्यावसायिक रंगमंच को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया। सन् 1908 में उन्होंने प्रयाग की ‘रामलीला नाटक मंडली’ का पुनरुद्धार किया और सुरुचि संपन्न पुनरुत्थानवादी राष्ट्रीय-सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना का संस्कार करने वाले नाटकों का अपने अव्यावसायिक रंगमंच पर अभिनय प्रस्तुत किया।

इस नाट्य मंडली के तत्वावधान में राधाकृष्णदास कृत ‘राणाप्रताप’ और माधव शुक्ल के नाटक ‘महाभारत’ का अभिनय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस मंडली से प्रोत्साहित होकर कतिपय रंगनाटक लिखे गए। माखनलाल चतुर्वेदी का नाटक ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ (सन् 1918 ई.) बदरीनाथ भट्ट कृत ‘दुर्गावती’ ‘कुरुवनदहन’ और ‘वनचरित’ बलदेव प्रसाद मिश्र का प्रभास मिलन’ इस युग के अन्य सुंदर रंगनाटक कहे जा सकते हैं। समग्रत: इस युग में भारतेंदु से आगे बढ़कर शिल्प और संवेदना के स्तर पर कोई नया प्रयोग घटित नहीं हुआ। भारतेंदु ने हिंदी रंगमंच की स्थापना का जो कार्य आरंभ किया, वह भी आगे न बढ़ सका। परिणामस्वरूप जनता व्यावसायिक रंगमंचीय नाटकों में अधिक रुचि लेने लगी।

द्विवेदी युग में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, रोमांचकारी आदि विभिन्न विषयों पर नाटक लिखे गए। कुछ प्रहसन भी लिखे गये। ये सभी नाटक राष्ट्रीय चेतना और समाजसुधार की भावना से लिखे गये। पौराणिक नाटकों में पौराणिक आख्यानों और चरित्रों के माध्यम से उपदेश देने की प्रवृत्ति ही झलकती है। नाट्य कला का विकास इनमें नहीं मिलता और अभिनय तत्व भी नहीं के बराबर है। इस युग के कुछ नाटक हैं – बनवारी लाल का “कंसवध” (1909), नारायण सहाय का “रामलीला” (1911), लक्ष्मीप्रसाद का “उर्वशी” (1910), जयशंकर प्रसाद का “करुणालय” (1912) “राज्यश्री” (1915), बद्रीनाथ भट्ट का “कुरुवन दहन” (1915), “चंद्रगुप्त” (1915) वृंदावनलाल का “सेनापति ऊदल” (1909), प्रतापनारायण मिश्र का “भारत दुर्दशा”, भगवती प्रसाद का “वृद्ध विवाह” (1905), मिश्रबंधु का “नेत्रोन्मीलन’ (1915) आदि।

द्विवेदी युग में पारसी रंगमंच को दृष्टि में रखकर रोमांचकारी नाटक भी लिखे गये। इनकी विषयवस्त फारसी प्रेमाख्यानों और पौराणिक आख्यानों पर आधारित है। ये नाटक “कोरस” से आरंभ होते थे और प्रमुख कथा के समानान्तर एक “प्रहसन” भी चलता था जो दर्शकों को हंसाने या फिर मूल नाटक की भावधारा में परिवर्तन करने के लिये प्रयुक्त होता था। इन नाटकों की भाषा पहले उर्द-फारसी मिश्रित हुआ करती थी। बाद में साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया जाने लगा। रोमांचकारी रंगमंचीय नाटककारों में मोहम्मद मियां “रौनक”, सैयद मेंहदी हसन “अहसान”, नारायण प्रसाद “बेताब”, आगा मोहम्मद “हश्र’ और राधेश्याम कथावाचक प्रमुख हैं।

इस युग में मौलिक नाटक तो बहुत नहीं लिखे गए, किंतु अंग्रेजी और बंगला नाटकों का अनुवाद पर्याप्त मात्रा में हुआ। इन अनुवादों से आगे के नाटककारों को नाट्य सृजन के लिए नयी उर्वर भूमियाँ मिली।

प्रसाद युग : रंग-निरपेक्ष साहित्यिक नाटक रचना का युग

प्रसाद के आविर्भाव के साथ हिंदी नाट्य साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ता है। प्रसाद सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। उन्होंने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि सभी साहित्यिक विधाओं को छायावादी कल्पना एवं भावना के साथ विकसित किया। सभी नाट्य समीक्षक एक स्वर से यह मानते हैं कि प्रसाद ने हिंदी नाट्य सजन को एक नयी शैली दी, नूतन प्राण-प्रतिष्ठा की और सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संचेतना की भावोच्छ्वासपूर्ण अभिव्यक्ति की। उन्होंने भारतीय नाट्य विधान के इस तत्व एवं पाश्चात्य नाट्य विधान के अंतर्द्वद्व का सुंदर समन्वय कर एक नूतन नाट्य शिल्प का विकास किया। इस समन्वय के फलस्वरूप उनके नाटकों में पात्रों का चरित्र एवं कार्य व्यापक अधिक व्यापक, भूमियों में विकसित हुआ है और मानवीय संवेदना के अनेकानेक रूप प्रकाशित किए गए हैं। प्रत्येक पात्र को प्रसाद ने एक निजी व्यक्तित्व प्रदान किया है। पात्रों की भीड़ में हर पात्र की अपनी अलग पहचान प्रकट होती है। चरित्र विकास की मौलिकता ही प्रसाद के नाटकों की अन्यतम विशेषता है। पात्रों के अंतर्द्वद्व में पात्रों की वैयक्तिकता प्रकट हुई है। ये पात्र भारतीय नाटकों की चरित्र मूलक रीति-नीति से अलग व्यक्ति वैचित्र्यमूलक लगते हैं। किंतु भारतीय आदर्शवादी आस्था उनके चरित्र में व्यक्ति वैचित्र्य को एक सीमा से आगे भी जाने नहीं देती। इस प्रकार पात्र न तो केवल परंपरासिद्ध नायक हैं, न ही पूर्णत: व्यक्ति वैचित्र्यमूलक ही लगते हैं। उनमें दोनों रूपों का स्वस्थ एवं सर्जनात्मक समन्वय घटित हुआ है।

रंगमंच के आभाव में प्रसाद का नाट्य सृजन

पारसी रंगमंच को हिंदी के शिष्ट समाज में मान्यता मिली नहीं, अव्यावसायिक रंगमंच भी प्रसाद के युग तक गाते-आते समाप्त प्राय हो गया था। अत: प्रसाद के समय में हिंदी का अपना कोई रंगमंच सुलभ नहीं था, जो नाट्य सृजन को कोई निश्चित दिशा प्रदान करता । रंगमंच के अभाव में प्रसाद ने रंगनाटक न लिखकर काव्योपम औपन्यासिक नाटकों का सृजन किया। अभिनयात्मक सृजन शैली का सहारा कम लिया। वर्णनात्मक और भावुकतागर्भित बिम्बात्मक संवाद शैली में ही उन्होंने नाट्य वस्तु का प्रकाशन किया। इसीलिए उनकी नाटय शैली काव्योपम एवं औपन्यासिक प्रतीत होती है। इस अभिव्यंजना शैली को स्वच्छंदतावादी आदर्शोन्मुख काव्योपम नाट्य शैली कहा जा सकता है। प्रसाद की कल्पनाशील रोमांटिकधर्मी प्रकृति ने प्रस्तुत नाट्यशैली को बहुत आकर्षक रूप प्रदान किया। इस प्रकार की नाट्य शैली में उन्होंने अनेक कालजयी नाटकों की रचना की है – राज्यश्री’ (सन् 1915 ई.) ‘जनमेजय का नागयज्ञ (सन् 1926 ई.) ‘विशाखा’ (सन् 1921 ई.), ‘अजातशत्रु’ (सन् 1922 ई.), ‘कामना’ (सन् 1923-24 ई.) ‘स्कन्दगुप्त’ (सन् 1928 ई.), ‘एक चूंट’ (सन् 1930 ई.), ‘चन्द्रगुप्त’ (सन् 1931 ई.), ‘ध्रुवस्वामिनी’ (सन् 1939 ई.) आदि इन नाटकों के अतिरिक्त प्रारंभ में प्रसाद ने चार एकांकियों की भी रचना की थी. यथा ‘सज्जन” (सन् 1910-11 ई.), कल्याणी परिणय’ (सन् 1912 ई.), ‘करुणालय’ (सन् 1921 ई.) और ‘प्रायश्चित’ (सन् 1914 ई.)। इन एकांकियों में प्रसाद की सर्जनात्मक चेतना की वह झलक दिखाई देती है, जो ‘स्कंदगुप्त’ आदि नाटकों में आगे अधिक उभरकर सामने आई।

प्रसाद ने रोमांटिक धर्मी ऐतिहासिक सांस्कृतिक नाटकों का सृजन कर हिंदी नाटक का नया विकास किया। नाटकों के ऐतिहासिक कथानक के लिए उन्होंने भारत के सुदूर अतीत के संधिकालिक इतिहास को ही चुना। इसका एक कारण था। वे अपने नाटकों के माध्यम से स्वतंत्रता-संघर्षरत अपने समाज तथा व्यक्ति के जीवन को उसके अंतर्बाह्य सभी रूपों में स्पन्दित करना चाहते थे एवं मूल्यवत्ता का दिग्दर्शन करना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे नाट्य वस्तु को अपनी कल्पना से ऐसे नए-नए घुमाव देते थे, जिससे मानवीय संबंधों की अनेकानेक संवेदनाएँ प्रकट होती हैं। जिन जीवन प्रसंगों के प्रति इतिहास मौन रहता है, उन्हें वे अपनी कल्पना से रूप देते थे। इस प्रयत्न में उनके नाटकों के कथानक जटिल तो हो गए हैं, किंतु कथानक को रचते समय इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय करके वे जीवन के । बहु-आयामी चित्र व्यक्त करते हैं। इससे पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी व्यक्तिवैचित्र्य की नयी विशेषता अनायास ही उभर आती है। प्रसाद के इस कथानक, रचना शिल्प और चरित्र विधान से आगे के नाटककार बहुत प्रभावित हुए और उनकी नाट्य शैली के अनुकरण पर ही नाटक लिखने में प्रवृत्त हुए। इसी अर्थ में प्रसाद युग के नाटकों की अपनी नयी पहचान बनती है।

प्रसाद की नाट्य शैली से प्रेरणा ग्रहण करते हुए अथवा उसके विरोध में, उनके काल में ही, हिंदी नाटक का बहुमुखी विकास हुआ। हरिकृष्ण प्रेमी’, वृन्दावन लाल वर्मा, डॉ. राम कुमार वर्मा, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, गोविन्द वल्लभ पंत, सेठ गोविन्ददास, उदयशंकर भट्ट, जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द, लक्ष्मी नारायण मिश्र, चतुरसेन शास्त्री, पांडेय लोचन प्रसाद शर्मा, सीताराम चतुर्वेदी, इन्द्रदेव वेदालंकार जोशी, भवानीदत्त, रामवृक्ष बेनीपुरी, लाला किशनचन्द जेबा आदि बहुत से नाटककार प्रसाद के समय में ही या तो उनकी नाट्य शैली का अनुकरण करते हुए अथवा उनकी काव्यगरिमायुक्त आदर्शोन्मुख रोमांटिक धर्मी नाट्य शैली का विरोध करते हुए, युग की सामाजिक समस्याओं पर आधारित सामाजिक कथानक प्रधान यथार्थवादी ढरे के नाटक या समस्या-नाटक लिखने की ओर अग्रसर हुए।

यथार्थवादी एवं समस्या नाटक का विकास

प्रसाद के समय में ही सन् 1929-30 ई. तक आते-आते हिंदी में सामाजिक जीवन के यथार्थ को लक्ष्यकर इब्सन के ढर्रे के सामाजिक नाटक या समस्या नाटक की शैली का अनुकरण करते हुए यथार्थमूलक अथवा समस्यामूलक नाटक लिखने की ओर भी हिंदी के बहुत से नाटककार प्रवृत्त हुए। प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों की भावापन्न रोमांटिक धर्मी शैली के विरोध में, सामाजिक कथानक पर आधारित, समाज की तात्कालिक समस्याओं को रूपायित करने वाले समस्या नाटक लिखे जाने लगे। लक्ष्मी नारायण मिश्र ने अपने समस्या नाटक ‘मुक्ति का रहस्य’ की लम्बी भूमिका में सामाजिक नाट्य अथवा समस्या नाटक के शिल्प और संवेदना का स्वरूप विस्तार से उद्घाटित किया। यथार्थ-मूलक समस्या नाटकों का लक्ष्य समसामयिक प्रश्नों की यथातथ्य अभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति में नाटककार की बौद्धिक सोच की ईमानदारी को बहुत अहमियत दी जाती है। सामाजिक समस्याओं पर पात्र तर्क-वितर्क करते हैं। यह तर्क-वितर्क प्राय: परंपरागत रूढ़िवादी मूल्य-व्यवस्था का समर्थन करने वाली पुरानी पीढ़ी और उन मूल्यों का विरोध करने वाली बुद्धिवादी नयी पीढ़ी की टकराहट और उस टकराहट से उत्पन्न पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की तनावपूर्ण अवस्थाओं का यथातथ्य रूप प्रकट करता है। यथार्थवादी रंग अपनाने के कारण इन नाटकों का मूल स्वर सामाजिक कुरीतियों की प्रस्तुति है। इस प्रस्तुति में परंपरा का तिरस्कार मिलता है।

सन् 1912 से 1929 के बीच कतिपय ऐसे प्रहसन एवं व्यंग्य मूलक सामाजिक नाटक लिखे गए, जिनमें यथार्थ परक जीवन-चित्रण का आभास तो मिलता है, किंतु उनमें रूढ़ि-भंजक वह बौद्धिकता नहीं है, जो आगे के यथार्थ-मूलक समस्या नाटकों में प्रकट हुई। जी.पी. श्रीवास्तव, बद्रीनाथ भट्ट, श्री बेचन शर्मा ‘उग्र’ आदि इस काल के कुछ ऐसे नाटककार हैं, जिन्होंने अपने प्रहसनों एवं व्यंग्य प्रधान सामाजिक नाटकों में तत्कालीन समाज की सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक-धार्मिक बुराइयों को सामने लाने का प्रयास किया। परंतु वे सुधार की भावना से प्रेरित थे, उनमें रूढ़ि-भंजक विद्रोह का स्वर प्रमुख नहीं था। यद्यपि मिश्र बंधुओं द्वारा रचित ‘नेत्रोन्मीलन’ (सन् 1915 ई.), प्रेमचन्द कृत संग्राम’ (सन् 1922 ई.), राजा लक्ष्मण सिंह कृत ‘गुलामी का नशा’ (सन् 1922 ई.) आदि प्रहसनों में अधिक विकसित यथार्थवादी दृष्टि का परिचय मिलता है, तथापि उनकी वस्तु निरूपण शैली प्रहसनात्मक ही है। हास्य रस ही उनकी रचना का केंद्रीय लक्ष्य है, वैचारिकता को केंद्र बनाकर विषय का नाटकत्व उन्मीलित नहीं किया गया है।

प्रसादोत्तर नाट्य साहित्य

यथार्थवादी नाट्य शैली एवं रंग-शिल्प को अपनाकर यथार्थवादी नाटक या समस्या नाटक लिखने का प्रसादोत्तर कालीन दौर कृपानाथ मिश्र कृत ‘मणि गोस्वामी’ (सन् 1929 ई.) लक्ष्मी नारायण मिश्र कृत ‘संन्यासी’ (सन् 1929 ई.) से ही प्रारंभ होता है। 1930 ई. के अनन्तर हिंदी में यथार्थपरक समस्या नाटकों के सृजन की धारा अनवरत रूप में प्रवाहित हो चली। सेठ गोविन्ददास, उपेन्द्रनाथ अश्क, उदयशंकर भट्ट, गोविन्द वल्लभ पंत, पृथ्वीनाथ वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा, रमेश मेहता, विमला रैना, विनोद रस्तोगी, विष्णु प्रभाकर, इन्द्रसेन सिंह, मोहन लाल महतो वियोगी, रेवती शरण शर्मा, अरिगपूडि, मैरूलाल व्यास, मन्नू भंडारी आदि ने सामाजिक राजनीतिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण करते हए अनेक नाटक लिखे। इनमें नाटकों की नाट्याभिव्यक्ति की रीति यद्यपि यथार्थपरक थी, किंतु यथार्थवादी रंगमंचीय प्रदर्शन का हिंदी में प्रचलन न होने के कारण, उनका नाट्य लेखन रंग-शिल्प की दृष्टि से अधिक प्रभविष्णु नहीं बना।

प्रसादोत्तर काल की एक प्रवृत्ति प्रसाद के नाट्यादर्श का अनुगमन करने की ही थी। प्रसाद की परंपरा में अद्यतन काल तक ऐतिहासिक नाटकों, पौराणिक नाटकों, गीति-नाटयों, प्रतीक नाटकों के सृजन का अनवरत प्रवाह बना रहा है। ऐतिहासिक नाटकों में उदयशंकर भट्ट कृत ‘विक्रमादित्य’ (सन् 1933 ई.), ‘दाहर’ या ‘सिंध पतन’ (सन् 1934 ई.), ‘मुक्ति पथ’ (सन् 1944 ई.), ‘शक विजय’ (सन् 1949 ई.), हरिकृष्ण प्रेमी के नाटक ‘शिव साधना’ (सन् 1937 ई.), ‘प्रतिशोध’ (सन् 1937 ई.), स्वप्नभंग’ (सन् 1940 ई.), ‘आहुति’ (सन् 1940 ई.), उद्धार’ (सन् 1949 ई.), ‘प्रकाश स्तम्भ’ (सन् 1954 ई.), ‘कीर्तिस्तम्भ’ (सन्1955 ई.), ‘साँपों की सृष्टि’ (सन् 1959 ई.), ‘रक्तदान’ (सन् 1962 ई.), चन्द्रगुप्त विद्यालंकार कृत ‘अशोक’ (सन् 1935 ई.), सेठ गोविन्ददास कृत ‘हर्ष’ (सन् 1935 ई.), शशिगुप्त’ (सन् 1942 ई.), लक्ष्मीनारायण मिश्र कृत ‘अशोक’ (सन् 1926 ई.), ‘गरुणध्वज’ (सन् 1945 ई.), ‘वत्सराज’ (सन् 1950 ई.), ‘दशाश्वमेध’ (सन् 1957 ई.), वितस्ता की लहरें’ (सन् 1953 ई.) वृन्दावन लाल वर्मा कृत ‘झांसी की रानी’ (सन् 1948 ई.) पूर्व की ओर’ (सन् 1950 ई.), काश्मीर का काँटा’ (सन् 1948 ई.), जगदीश चन्द्र माथुर कृत ‘कोणार्क’ (सन् 1946 ई.), ‘शारदीया’, पहला राजा’ (सन् 1969 ई.), देवराज दिनेश कृत ‘मानव प्रताप’ (सन् 1952 ई.), रामवृक्ष बेनीपुरी कृत ‘अम्बपाली’, दशरथ ओझा कृत प्रियदर्शी सम्राट अशोक’, ‘चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य’, मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’ (सन् 1956 ई.), लहरों के राजहंस’ (सन् 1963 ई.) आदि प्रसाद की काव्यधर्मी रोमांटिक नाट्य शैली से प्रभावित प्रमुख नाटक हैं।

नया नाटक

प्रसाद की काव्योपम नाट्य शैली का अनुकरण करते हुए ही कुछ नाटककारों ने जैसे जगदीशचन्द्र माथुर और मोहन राकेश आदि ने रंग-शिल्प के नए प्रयोग द्वारा एवं संवेदना की नयी भूमियों को उद्घाटित करते हुए ऐतिहासिक एवं पौराणिक नाट्य लेखन में नया रंग भरा जिससे ‘नया नाटक’ लिखने की एक नई शुरुआत संभव बनी। इनके नाट्य लेखन में नाटक के आलेख और रंगमंच के बीच घनिष्ठ रिश्ता स्थापित करने की नाट्य कला का नया विकास मिलता है। संवेदना का स्वर भी आधुनिक बोध के नए स्वरूप को रेखांकित करता है। इस प्रकार इनके ऐतिहासिक-पौराणिक नाट्य लेखन में प्रसाद शैली से भिन्नता दिखलाई पड़ने के कारण इनको हिंदी में नया नाटक या गंभीर रंग नाटक लिखने की शुरुआत करने वाला नाटककार समझा जाने लगा। क्रमश: इस ढर्रे के शिल्प और संवेदना से युक्त नाटक लिखने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी और हिंदी में ‘नया नाटक’ का दौर चल पड़ा।

जगदीश चन्द्र माथुर के नाटक ‘कोणार्क’ तथा मोहन राकेश के नाटकों ‘आषाढ़ का एक दिन’, लहरों के राजहंस’ में ऐतिहासिक कथानक का आधार होते हुए भी शिल्प और संवेदना का एक परिवर्तित आधुनिक रूप परिलक्षित हुआ। इनमें समाज एवं व्यक्ति के जीवन की आंतरिकता के गहरे और जटिल यथार्थ का नाटकत्व प्रकट हुआ। इसमें मनोवैज्ञानिक गहराई के साथ जीवन के यथार्थ को रूपायित करने की प्रवृत्ति बढ़ी। नाट्य-भाषा और अभिनय का अभिन्न रिश्ता कायम किया गया। हिंदी में रंगनाटक लेखन की एक नयी शुरुआत हुई। साठोत्तर काल में रंगनाटक लिखने की प्रवृत्ति बढ़ी तथा प्रकृतिवादी यथार्थ या आंतरिक मनोवैज्ञानिक यथार्थ के केंद्र से मानवीय रिश्तों और उन रिश्तों की संवेदनात्मक स्थितियों को प्रकाशित किया गया। इस प्रकार विगत यथार्थवादी नाटककारों के स्पष्ट बाह्य यथार्थ से कुछ अलग हटकर व्यक्ति के आभ्यान्तर यथार्थ का चित्रण करना ‘नया नाटक’ की एक विशिष्ट प्रवृत्ति बनकर प्रकट हुई।

विगत नाट्य परंपराओं से भिन्न संवेदना और शिल्प का नाटक

नया नाटक आजादी के बाद सपनों के क्रमश: टूटने से उत्पन्न विवशता और निराशा की संवेदना का नाटक है। यह उल्लेखनीय है कि सन् 1954-55 के बाद सामान्य शिक्षित जनमानस आंतरिक विघटन एवं घुटन का अनुभव करने लगा। मानव-मन में पलने वाली आशाएँ टूटी, मोह भंग की स्थिति पैदा हुई। । नयी पीढ़ी में कुंठा, वर्जना, घुटन, संत्रास, निराशाएँ एवं आशंका ने जन्म लिया। उसके पूर्व देश के विभाजन और गाँधी जी की हत्या के बावजूद नेहरू जी की समाजवाद मूलक चिंता, प्रथम पंचवर्षीय योजना की आंशिक सफलता आदि के कारण सामान्य शिक्षित व्यक्ति अपने को उस रूप में दिशाहीन नहीं समझता था, जिस रूप में युद्धोपरांत पश्चिम का सामान्य शिक्षित जन समझने लगा था। परंतु साठोत्तर काल तक आते-आते हमारे यहाँ भी आधुनिक मनुष्य का आंतरिक संकट रचनाकारों का ध्यान आकृष्ट करने लगा। इसी आंतरिक संकट को मूर्त रूप में प्रकट करने के प्रयास में हिन्दी में नया नाटक का विकास हुआ। आंतरिकता के जटिल संसार को रंगमंचीय प्रतिबद्धता के साथ रूपायित करने के कारण हिंदी का नया नाटक, गंभीर सर्जनात्मक नाट्य सर्जन का आभास देने लगा।

आंतरिक यथार्थ की रंग सापेक्ष गंभीर अभिव्यक्ति

संबंधों के आंतरिक यथार्थ की खोज में ‘नया नाटक’ की सृजनशीलता का नया रूप प्रकट हुआ। नया नाटककार बाह्य यथार्थ की जगह आंतरिक यथार्थ को नाटक में रूपायित करने की चेष्टा करने लगा। वह व्यक्ति के गहरे अंतद्वंद्व, उलझाव एवं भटकाव के माध्यम से वर्तमान जीवन की यथार्थ दशाओं को व्यंजित करने में प्रवृत्त हुआ। शैली शिल्प के स्तर पर नए नाटककार की प्रवृत्ति प्रतीकात्मक प्रस्तुतीकरण की ओर है। पुराने यथार्थवादी नाटककारों की यथातथ्यपरक सपाट प्रस्तुतीकरण की शैली को ‘नया नाटक’ के लेखक ने त्याग दिया। उसने प्रस्तुतीकरण की प्रतीकात्मक शैली को अपनाकर नाट्य वस्तु को अधिक व्यंजक और काव्यात्मक स्वरूप प्रदान किया। प्रतीकात्मक शैली को महत्त्व देने के कारण ही नया नाटककार आधुनिकता व्यंजक संवेदना को व्यक्त करने के लिए मिथकीय या पौराणिक प्रसंगों को नयी तार्किकता के साथ प्रस्तुत करने लगा। नयी तार्किकता का लक्ष्य पौराणिक-मिथकों के प्रचलित आस्था विश्वासों में अनास्था पैदा करना ही रहा है। नए नाटककार के लिए इससे आधुनिकता की अनास्थापरक संवेदनीयता का गहरा अहसास कराना सुलभ हो जाता है। आजादी के सपनों का मिथ टूटने की भूमिका में पौराणिक मिथकीय नारियों की अनास्था व्यंजक व्याख्या दिशाहीनता के बोध को गहरा कर देती है।

हिंदी का नया नाटककार पश्चिम के नए नाट्य प्रयोगों जैसे ब्रेख्ट के महाकाव्यात्मक रंगमंच, बेकेट के ‘एब्सर्ड’ (विसंगत) नाट्य लेखन की शैली, अस्तित्ववादी चेतना के नाटक की संवेदना और शिल्प से बहुत प्रभावित हुआ है। प्रभाव ग्रहण इतना अनुकरण मूलक हो गया है कि उसमें अपनी मूलभूमि की समकालीनता को समझने का कोई प्रयास ही नहीं मिलता। भारतीय यथार्थ के संदर्भ में नाटक बहुत अजनबी लगने लगते हैं। नया नाटककार अपने नाट्य सृजन में अपनी जमीन की संस्कृति से वह संबंध स्थापित करने में असमर्थ ही रहा, जो नाट्य सृष्टि का अभीष्ट होता है। पाश्चात्य रंग प्रयोगों के अनुकरण के फलस्वरूप शैली शिल्प के स्तर पर हिंदी नाटक में अभूतपूर्व नए प्रयोग किए जाने लगे। प्रस्तुतीकरण के स्तर पर हिंदी नाटक बहुत समृद्ध हुआ।

साठोत्तर काल में हिंदी के नये नाटककार और रंग निर्देशक समकालीन पश्चिमी रंग प्रयोग विज्ञान से बहुत कुछ सीखकर उसे हिंदी नाट्य सृजन और प्रस्तुतियों में अधिकाधिक अपनाने लगे। नए नाटककारों और रंग निर्देशकों ने बर्तोल ब्रेख्ट के आक्रोश गर्भित रंगमंच ( Angry theatre) एवं महाकाव्यात्मक रंग-प्रयोग (Epic theatre) आयनेस्को तथा बेकेट के विसंगत रंग-प्रयोग (Abdsurd theatre) से अत्यधि क प्रभावित होकर नया नाटक के शिल्प और संवेदना को परंपरागत नाट्याभिव्यक्ति से पृथक करके। प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। समकालीन नागरिक और साहित्यकार जिस तरह का अंतद्वंद्व महसूस कर रहा था, उसकी अभिव्यक्ति में पश्चिम की उक्त रंग-शैलियाँ बड़ी सहायक सिद्ध हुई। इस अंतर्द्वद्व के मूल में एक ओर तो सामाजिक समस्याओं का खिंचाव है, तो दूसरी ओर दिशाहीन अवचेतन मानस का दबाव है। इसे नाट्यबद्ध करने के लिए नाटककार को पश्चिम के अस्तित्वादी दर्शन से भी प्रेरणा मिली।

पश्चिम में युद्धोपरांत मनुष्य की मानसिकता ऐसी बनी जिसमें आध्यात्मिक चिंतनों और व्यवस्था के नाम पर रचे गए सामाजिक संस्थानों की नीतियाँ और आदर्श सभी से संबंधित मानव मूल्यों की निरर्थकता का गहरा अहसास होने लगा। सामाजिक स्तर और व्यक्तिगत दोनों ही स्तरों पर जीवन की विसंगतियाँ डरावनी और दुखद लगने लगीं। मानवीय विघटन की दु:खद स्थितियाँ आंतरिक उलझाव के संत्रास के सामाजिक या बाहरी चेहरे को प्रकट करने में तत्पर हुई। आक्रोश व्यंजक ब्रेख्ट की रंग चेतना संत्रास के सामाजिक या बाहरी चेहरे को प्रकट करने में तत्व समाज में न्याय से वंचित मामूली आदमी का संत्रास रूपायित करने में लगीं। इसके समानांतर अस्तित्ववादी नाटककार या विसंगत नाटककार व्यक्ति विशेष के आंतरिक संत्रास और उलझाव को नाट्यबद्ध करने की ओर अग्रसर हुआ। ब्रेख्ट की धारणा के अस्तित्वखोजी मानव की झलक सर्वप्रथम जगदीश चन्द्र माथुर के कोणार्क’ (1946) नाटक में देखने को मिलती है। कोणार्क’ में नायक-नायिका की पारंपरिक स्वीकृति नहीं है। नायिका है ही नहीं और नायक सर्वहारा वर्ग का एक सामान्य श्रमिक है। इसे भी नायक कहने में एक बाधा यह है कि वह फल का भोक्ता नहीं है। किंतु विशु के चरित्र में मामूली आदमी के न्याय वंचित सामाजिक अस्तित्व के प्रति गहरी चिंता मिलती है।

नया नाट्य साहित्य अस्तित्ववादी दर्शन की वैचारिक पृष्ठभूमि में रचा गया। हिंदी के नये रचनाकारों ने (नयी कहानी, नया नाटक, नयी कविता आदि) पश्चिम के अस्तित्ववादी दर्शन से विशेष प्रेरणा ग्रहण की है। अतएव नया नाटक के रचनात्मक मर्म को समझने में अस्तित्ववादी दार्शनिक चिंतन की दो कोटियाँ रही हैं।

  • धर्ममूलक अस्तित्ववाद (Religious existendialoism)
  • अनीश्वर मूलक अस्तित्ववाद

किर्केगाद, धर्ममूलक अस्तित्ववाद के प्रवर्तक थे तो सार्च, अनीश्वर मूलक अस्तित्ववादी विचारक थे। किर्केगाद के अस्तित्ववाद का संक्षिप्त रूप यह है कि मनुष्य के जीवन में आज व्यर्थता-बोध समा गया है। इस व्यर्थता-बोध के मूल में आतंक भरा मनस्ताप (Anxiety) है। इस आतंक के मूल में नैराश्य है और इस नैराश्य के मूल में धार्मिक विश्वास का बीज अंतर्निहित है। सात्र ने किर्केगाद के अस्तित्ववादी सूत्र के केवल अंतिम शब्द को बदल दिया है। उसने धार्मिक विश्वास (Religious faith) के स्थान पर व्यक्ति स्वातंत्र्य को रख दिया है। उसने यह माना है कि चुनाव करने की स्वतंत्रता मनुष्य जाति की एक दुखद नियति है। स्वतंत्रता मानव प्रकृति का सहज रूप है। चुनने में स्वतंत्र होना उसकी जीवोचित प्रकृति भी है और आंतरिक संकट को जन्म देने वाली नियति भी है। उसकी इस स्वतंत्र इच्छा शक्ति पर तकनीकी उपकरणों तथा निरर्थक सिद्ध हो गए प्रचलित सभी आदर्शवादी दर्शनों के अयाचित दबाव ने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। नये नाटक के अस्तित्व खोजी चरित्र इसी आंतरिक संकट को मूर्त रूप में सामने लाते हैं।

चाहे किर्केगाद के धार्मिक विश्वास के कारण हो, चाहे सार्च के मानव-प्रकृति के स्वातंत्र्य के कारण हो, अस्तित्ववादी दर्शन का चिंत्य विषय आज के जीवन में व्यक्ति की अस्मिता का संकट है। अस्तित्ववादी समान रूप से यह मानते हैं कि मानव जीवन के विकास का ढोंग करने वाले सारे आधारों-विज्ञान, तकनीकी विकास, ईश्वर, धर्म और नीति के प्रचलित प्रतिमान, समाज विकास की आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाएँ आदि से आज के व्यक्ति का विश्वास जैसे पूरी तरह उठ गया है। वह अपने को एक शून्य में निराधार अनुभव करने लगा है। कटुता और नैराश्य से भरकर, परंपरा से प्राप्त सब प्रकार के आधारों से निरपेक्ष होकर वह एक प्रयोगधर्मी रूप से अस्मिता को खोजना चाहता है। चरित्रों के आचरण का धर्मी प्रयोग रूप किसी भी प्रचलित आदर्श से संचालित न होने के कारण विसंगति-व्यंजक होता है या दिशाहीन सा ज्ञात होता है। इस प्रकार, अस्तित्ववादी दर्शन से प्रेरणा लेकर जो नाट्य सृजन हुआ उसे विसंगत। नाटक एब्सर्ड (नाटक) की संज्ञा दी गई। हिंदी का नया नाटक भी इसी वैचारिक पृष्ठभूमि में रचा जाने लगा। आठवें दशक में इस प्रवृत्ति की ओर झुकाव अधिक हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी जीवन का जो यथार्थ उभर कर सामने आया, उसे अस्तित्ववादी दर्शन के प्रकाश में समझने का प्रयास रचनाकार करने लगे। विश्वयुद्ध के बाद का जो यथार्थ उभरा उसमें नये रचनाकारों को ऐसा लगा कि जैसे न ही कहीं कोई कथानक है, न कथापुरुष या नायक है, न व्यवस्था है, न कोई निचिश्त मूल्य ही है, न ही आत्म-सम्मान शेष है। यही बोध पश्चिम के प्रयोगधर्मी या विसंगत। नाटकों तथा हिंदी के नए नाटकों में ढाला जाने लगा। इस बोध ने शैली शिल्प के स्तर पर हिंदी के नए नाटककार को पश्चिम के सभी प्रचलित रंग प्रयोगों से, चाहे वह ब्रेख्ट की महाकाव्यात्मक रंग प्रणाली हो, चाहे व्यक्ति समस्याओं को मूर्तमान करने वाली विसंगत नाटक की रंग पद्धति हो—सबसे तत्व ग्रहण कर अपने नाटकों का सृजन करने के लिए प्रेरित किया। ब्रेख्ट की वाद्य, नृत्य, गान भरी अभिनय प्रणाली और विसंगत नाटक की प्रतीकात्मक प्रस्तुतीकरण प्रणाली, दोनों शैलियों को हिंदी के नए नाटकाकरों ने अपनाया। किसी एक विशेष रंग शैली का ही अथ से इति तक अनुकरण हिंदी के नए नाटककारों का अभीष्ट नहीं रहा है। हिंदी का नया नाटक, इस प्रकार अपने ढंग का प्रयोगधर्मी रंगमंच विकसित करने में समर्थ हो सका है। फिर भी विसंगत नाटक के शैली शिल्प एवं संवेदना से वह अधिक प्रभावित हुआ है।

नये नाटक में लोक ग्राह्यता की तुलना में व्यक्तिगत विशेषता को अधिक महत्व दिया गया है। हिंदी के नये नाटककार व्यक्ति चरित्रों के आंतरिक द्वंद्वों एवं उलझनों को मूर्तित करने की ओर अधिक अग्रसर रहे हैं। कुछ ही नए नाटककार ऐसे हैं जिन्होंने समाज की आधारभूत समस्याओं के साथ व्यक्ति की आंतरिकता को जोड़ने का सार्थक प्रयास किया है। जगदीश चन्द्र माथुर के ‘कोणार्क’ नाटक और धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ काव्य नाटक में ऐसे नाट्य सृजन के सार्थक सूत्र प्रकट हुए थे, किंतु आगे के नाटककार विसंगत के ढर्रे पर अस्तित्वखोजी व्यक्ति चरित्रों की दिशाहीन क्रियाओं को प्रस्तुत करने के नए-नए प्रयोग करने में लग गए। इन नाटककारों ने व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व की खोज के नाम पर मनुष्य के आचरण, व्यवहार या क्रियाओं का एक ऐसा गड्ड-मड्ड संसार प्रस्तुत किया है, जो दिशाहीन होने की व्याकुलता की ही संवेदना भरता है। जीवन के किसी सकारात्मक प्रवाह का संकेत नहीं देता है। मूल्यहीनता की दिशाहीन दुनिया में भटकने के लिए ही दर्शक को छोड़ दिया जाता है। अस्तित्व की खोज किसी सार्थक क्रांति के तहत नहीं की गई है। नाटककार की नाट्य सृष्टि ऐसी लगती है, जैसे हर स्तर पर स्तब्ध विवशता का बोध ही आज के मनुष्य की नियति है।

कुछ उल्लेखनीय नाटक और नाटककार हैं : लक्ष्मी नारायण लाल के नाटक – ‘सूर्यमुख’, ‘एक सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘मिस्टर अभिमन्यु’, ‘दर्पण’, ‘अब्दुल्ला दीवाना’, ‘सूखा-सरोवर’, ‘मादा कैक्टस’, अंधा कुंआ’ आदि ;

मोहन राकेश के नाटक – ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे’, आदि ;

सुरेन्द्र वर्मा के नाटक – ‘द्रौपदी’, ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’, ‘आठवाँ सर्ग’, ;

लक्ष्मीकान्त वर्मा का नाटक – ‘अपना-अपना जूता’; ललित सहगल का -‘हत्या एक आकार की ; अज्ञेय का – उत्तर प्रियदर्शी ; बृजमोहन शाह का – ‘त्रिशंकु ; डॉ. शंकर शेष का – ‘एक और द्रोणाचार्य’;

दया प्रकाश सिन्हा का – ‘कथा एक कंस की’ ; रेवती शरन शर्मा का – ‘राजा बलि की नयी कथा’;  गिरिराज किशोर का – ‘प्रजा ही रहने दो’ ; नरेन्द्र कोहली का – ‘शम्बूक की हत्या’; ज्ञानदेव अग्निहोत्री का – ‘शुतुरमुर्ग’; सर्वेश्वर दयाल का – ‘बकरी’; सुशील कुमार सिंह का – सिंहासन खाली है’; मुद्राराक्षस के – ‘मरजीवा’, ‘तिलचिट्टा’, ‘योर्स फेथफुली’; काशी नाथ सिंह का – ‘धोआस ; रमेश बख्शी के – ‘देवयानी का कहना है’ ‘तीसरा हाथी’; हमीदुल्ला के विसंगत नाटक – ‘उलझी आकृतियाँ’ ‘दरिन्दे’ एवं ‘उत्तर उर्वशी’ आदि।

जनवादी नाटक

मार्क्सवादी चेतना का भारतीय रंग प्रयोग समसामयिक जीवन की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि समास्याओं को नाटक का कथानक बनाने वाली यथार्थवादी नाटकों की एक शाखा को, जो राजनीतिक स्तर पर मार्क्सवादी विचाराधारा के प्रतिबद्ध थी, जनवादी नाटक कहा जाने लगा। सन् 1942-43 में । कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े विचारकों और कलाकारों ने जन नाट्य संघ (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) की स्थापना की। मार्क्सवादी विचारधारा में जिसे सर्वहारा वर्ग कहा गया है।, उसी के पर्याय रूप में जहाँ जन शब्द का प्रयोग लक्षित है। जन-नाट्य संघ के कलाकारों ने हिंदी, बँगला, मराठी, गुजराती एवं अन्य भारतीय भाषाओं के क्षेत्रों में लोगों के बीच जनवादी-चेतना जाग्रत करने के लिए उनकी भाषा में नाट्य प्रदर्शन किए। शुरू में तो जनवादी नाट्य के प्रदर्शनों का लक्ष्य द्वितीय महायुद्ध का विरोध करना था। यह विरोध सर्वहारा वर्ग के हितों की उस विरोधी ताकत के खिलाफ था, जो हिटलर के अघि नायकवाद के रूप में उभर रही थी। इसी उद्देश्य से सरवालकर का लिखा नाटक ‘दादा’ और जाफरी कृत नाटक ‘यह खून किसका है’ जन नाट्य मंच द्वारा मुम्बई में खेला गया था। बाद में जनवादी नाट्य मंच पर ऐसे नाटक प्रदर्शित किए जाने लगे जिनमें सर्वहारा वर्ग के शोषण के मार्मिक चित्र प्रकट थे और इस प्रकार व्यवस्था के खिलाफ जनाक्रोश जगाया जाने लगा या बंगाल के मानव-निर्मित अकाल ने (1944) इस नव चेतना के लिए उर्वर भूमि प्रदान की।

जन-नाट्य-मंच के लिए अधिक सार्थक नाटक बंगला साहित्य में ही रचे गए। विजन भट्टाचार्य के नाटक ‘जबानबन्दी’ और ‘नवान्न’ने जनवादी नाट्य सृजन को नई गति प्रदान की। इनके अनुकरण पर दूसरी भाषाओं (हिंदी, मराठी, गुजराती आदि) में भी इस ढर्रे का नव लेखन संपन्न हुआ।

हिन्दी जन-नाट्य मंच के कुछ महत्वपूर्ण नाटकों में सज्जाद जहीर कृत नाटक ‘तूफान से पहले’ है। सन् 1946 में इस नाटक को उपेन्द्र नाथ अश्क के निर्देशन में खेला गया है। इसी प्रकार जन नाट्य मंच के रंगकर्मियों ने ख्वाजा अहमद अब्बास कृत नाटक ‘मैं कौन हूँ’ (1947), राजेन्द्र सिंह बेदी कृत नाटक ‘नकले मकानी’ अथवा ‘जादू की कुर्सी’ (1948), हबीब तनवीर कृत ‘शतरंज के मोहरे’ विश्वामित्र द्वारा लिखित ‘दखन की रात’ (1949) आदि नाटकों का स्थान-स्थान पर मंचन करके जन चेतना को आंदोलित करने का प्रयास किया।

जन-नाट्य-मंच के रंगकर्मी और कलाकार आजादी के बाद भी लगभग सन् 1960 तक पर्याप्त सक्रिय रहे। आजादी के बाद के जनवादी नाटककारों ने बँटवारे के समय की साम्प्रदायिक अमानवीयता को अपने नाटकों का विषय बनाया। भीष्म साहनी कृत ‘भूत गाड़ी’ इस दौर का बहुचर्चित हिंदी जनवादी नाटक माना जाता है।

हिंदी जन-नाट्य-मंच के रंगकर्मियों ने अधिकतर मुंशी प्रेमचन्द के उपन्यासों और कहानियों का ही नाट्य रूपांतर करके मंच पर प्रस्तुत किया। सन् 1951 के बाद जनवादी नाट्य मंच पर ‘गोदान’, ‘सेवासदन’, ‘कर्मभूमि’, ‘कफन’, ‘ईदगाह’, ‘सवा सेर गेहूँ’ का सफल मंचन किया गया। राजेन्द्र सिंह रघुवंशी ने नाट्य रूपांतर तैयार किया। उत्पल दत्त के नाटकों – ‘पीरअली’ और ‘प्लानिंग’ का भी हिंदी जन-नाट्य-मंच के रंगकर्मी कलाकारों और प्रयोक्ताओं ने जगह-जगह मंचन किया।

जन-नाट्य-मंच पर अभिनीत नाटकों में अधिकांश की कोई विधिवत पांडुलिपि नहीं होती थी। लेखक प्रदर्शन के लिए नाटक का एक काम चलाऊ ढाँचा तैयार कर देते थे; रंग निर्देशक या प्रयोक्ता एवं अभिनेता आदि अन्य कलाकार उसमें अपने ढंग से रंगभर कर प्रस्तुत करते थे।

जन-नाट्य-मंच की प्रदर्शन शैली लोक नाटकों की प्रदर्शन शैली को उपजीव्य बनाकर विकसित हुई। अतएव उसमें अपनी मिट्टी के अभिनय की गंध मिलती थी। यह रंगकर्म स्वतंत्र भारत की सामाजिक न्यायमूलक नवचेतना को, नई मानवीयता की दृष्टि को, उन्मीलित करने में संलग्न तो था, किंतु मार्क्सवाद से प्रतिबंधित राजनीतिक चेतना को अपनाने के कारण बहुत व्यापक रूप से स्वीकृत नहीं हुआ। सन् 1960 तक आते-आते इस रंगमंच के क्रियाकलाप समाप्त प्राय से हो गए। फिर भी नया नाट्य लेखन की समाजोन्मुखी धारा को प्रभावित करने में जन-नाट्य-मंच का योगदान महत्वपूर्ण है। जगदीश चन्द्र माथुर के ‘कोणार्क’ का सजन इसी रंगमंच की सामाजिक राजनीतिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में संपन्न हआ था. जो हिंदी नव-नाट्य लेखन का एक कलात्मक प्रतिमान है।

नया नाटक की परवर्ती धारा विसंगत नाटक की है। पश्चिम में बेकेट का वेटिंग फॉर दगोडो’ एब्सर्ड नाटक के रूप में बहुत चर्चित नाटक बना था। एब्सर्ड नाटक में युग जीवन की विसंगतियों, अंधविश्वासों, ऊल-जलूल प्रसंगों को प्रदर्शित कर जीवन को ग्रस्त करने वाली दिशाहीनता का गहरा अहसास कराया जाता है। हिंदी में इसके बीज भुवनेश्वर के ‘ऊसर’ आदि एकांकियों में सुलभ हैं । विपिन कुमार अग्रवाल के नाटक ‘कूड़े का पीपा’, लोटन’, ‘राष्ट्र सम्राट’, ‘अपने देश में’, ‘मौत एक कुत्ते की’, बृजमोहन शाह के नाटक ‘त्रिशंक’, ‘शह-ए-मात’, मोहन राकेश के नाटक ‘मैड डिलाइट’, ‘छतरियाँ’, मुद्रराक्षस के नाटक ‘तिलचिट्टा’, ‘मरजीवा’, शरद जोशी के नाटक ‘अंधों का हाथी’, मणि मधुकर का नाटक खेला पोलमपुर’ हिंदी के कुछ बहुचर्चित विसंगत नाटक हैं।

नुक्कड़ नाटक

आजादी के बाद क्रमश: जनवादी रंगमंच शिथिल पड़ने लगा था। जन नाट्य संघ के रंग-निर्देशक (उत्पल दत्त, बलराज साहनी आदि) और रंगकर्मी एवं अभिनेता फिल्मों में चले गए। फलत: सन् 1960 तक आते-आते जन नाट्य संघ के तत्वावधान में होने वाले रंगमंचीय सांस्कृतिक क्रियाकलाप बंद हो गए। किंतु जन नाट्य मंच ने सामाजिकता एवं सामाजिक न्याय की जो चेतना जगाई थी, वह समाजवादी राजनीतिक संगठनों के विकास के नए-नए रूपों में प्रकट होती रही। आजाद भारत की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में प्रकट अंतर्विरोध के कारण भुखमरी, गरीबी, शोषण और अन्याय के खिलाफ जनता के असंतोष और विद्रोह के स्वर मुखरित होते ही रहे। सरकार की नीतियों के विरुद्ध हड़ताल और प्रदर्शनों का भी । सिलसिला चलता ही रहा। इसी चेतना के परिप्रेक्ष्य में सातवें दशक से ही नुक्कड़ नाटकों का नया रंग प्रयोग शुरू हुआ।

नुक्कड़ नाटक : बिना मंच का रंग-प्रयोग

परंपरागत रंगमंचीय प्रस्तुतियों से भिन्न नुक्कड़ नाटक एक नूतन रंग प्रयोग है। इस शैली के नाट्य प्रदर्शन में किसी प्रेक्षागृह की जरूरत नहीं होती, किसी प्रकार की साज-सज्जा का भी आयोजन नहीं किया जाता। नुक्कड़ नाटक में रोज़-मर्रा की स्थानीय जिंदगी की विडंबनाओं, विसंगतियों और अंतर्विरोधों को सामने रखना अपेक्षित होता है। अत: अभिनय में शरीक होने वाले पात्र, जहाँ जिस वेश में होते हैं उसी वेश में अभिनय में हिस्सा लेते देखे जाते हैं। उसका रंगमंच तो झुग्गी-झोपड़ी के बीच की कोई खाली भूमि, कस्बा या नगर का कोई नुक्कड़ या सड़क चौराहा अथवा गाँव की चौपाल, स्कूल का मैदान या कालेज का लान कुछ भी हो सकता है। बस, नुक्कड़ नाटक की मंडली के किसी एक अभिनेता की आवाज या पुकार पर भीड़ इकट्ठी हुई, दर्शकों का एक घेरा-सा बना कि नाटक शुरू । नुक्कड़ नाटक के अभिनय की यह विशेषता है कि दर्शकों से घिरा हुआ, उनके जैसा ही कोई पात्र उनसे संवाद शुरू कर देता है और उनकी साझेदारी के लिए उन्हें उत्साहित करता है। दर्शक का अनौपचारिक प्रवेश-प्रस्थान होता रहता है। इस प्रकार नुक्कड़ नाटक सज्जाविहीन खुले रंग स्थल में संपन्न होने वाला नाट्य व्यापार है। इसमें परंपरागत रंगमंचीय साधनों और प्रसाधनों का सर्वथा अभाव रहता है।

नुक्कड़ नाटक : आशु संवाद का नाटक

नुक्कड़ नाटक के अभिनेता किसी स्थानीय मुद्दे को लक्ष्य कर स्वयं ही आशु नाटककार की तरह नाटक रचते हैं तथा उसे व्यापक रूप से सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं और विसंगतियों पर कटाक्ष करने का आधार बनाते हैं। तात्कालिक जीवन की कोई भी अनुचित अमानवीय और अन्यायपूर्ण स्थानीय घटना को नुक्कड़ नाट्यकार केंद्र बनाकर समाज और राजनीति की अतार्किक, अमानवीय और अनैतिक या अतिनैतिक घटना पर कटाक्ष भरी टिप्पणी करते हैं, उसे हास्य-व्यंग्य की भाषा में उपस्थित कर दर्शक का रंजन भी करते है और एक नई मानवीय सोच भी पैदा करते हैं। हमारे समाज में हमारी आँखों के सामने रोज ही कुछ बेतुका घटित होता रहता है, जिसके पीछे कोई धार्मिक अंधविश्वास छिपा रहता है, कोई’ राजनीतिक दाँव-पेंच निहित होता है या कोई आर्थिक घोटाला कारण बनकर हमारे वर्तमान जीवन को प्रभावित करता है। इसी प्रत्यक्ष को नाटकीय ढंग से नुक्कड़ नाट्यकर्मी प्रस्तुत करते हैं। नुक्कड़ नाटक की कोई औपचारिक पांडुलिपि नहीं होती।

नुक्कड़ नाट्य के शिल्प का आधार तो लोक नाट्यों की नृत्य गान प्रधान शैली ही है, परंतु उसमें आलोचनात्मक टिप्पणी प्रधान संवाद का नया आयाम भी जुड़ा रहता है। इसे ब्रेख्ट की नाट्य प्रदर्शन शैली से ले लिया गया है। यही इसकी शैली शिल्प का एक मौलिक पक्ष है। वृन्दगान या सामूहिक गीत की शैली में सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर टिप्पणी करना वर्तोल ब्रेख्ट के एपिक रंगमंच का एक महत्वपूर्ण अंग है। इस प्रकार ब्रेख्ट ने वृन्दगान या सामूहिक गीत का जिस प्रकार से राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था पर आलोचनात्मक टिप्पणी के लिए प्रयोग किया, उसी का अनुकरण नुक्कड़ नाट्य प्रयोगों में भी अपना लिया गया। इसीलिए सामान्य लोक-नाटक से नुक्कड़ नाटक अधिक गंभीर एवं सार्थक रंगकर्म प्रतीत होता है।

भारतीय रंगमंच के क्षेत्र में नुक्कड़ के रंग प्रयोग का श्रेय बादल सरकार को है। बादल सरकार ने ‘जुलूस’, ‘हत्यारे’, ‘औरत’, ‘मशीन’, नाम से प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटकों की रचना की। आज प्राय: सभी प्रमुख नगरों में नुक्कड़ नाटक प्रदर्शित होते दिखलाई पड़ते हैं। जनता को अपने जीवन परिवेश के प्रति सजग करने में नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन का योगदान सराहनीय है। भारतीय राष्ट्रीय रंगमंच के स्वरूप विकास में इस नाट्य शैली से बहुत कुछ तत्व संकलित किए जा सकते हैं।

सारांश

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप हिंदी नाट्य-साहित्य हे भली-भाँति परिचित हो चुके होंगे। हिंदी नाट्य साहित्य का आरंभ लगभग 19वीं शताब्दी से हुआ। संपूर्ण हिंदी नाट्य साहित्य को अध्ययन की सुविधा के लिए विविध युगों में विभाजित किया गया है। हिंदी नाटक के मंच पर प्रसाद के आर्विभाव से एक नया अध याय जुड़ा। उन्होंने हिंदी नाट्य सजन को एक नयी शैली दी। इसी समय इब्सन के ढर्रे के सामाजिक या समस्या नाटक की शैली का अनुकरण करते हुए हिंदी के अनेक नाटककार यथार्थमूलक नाटकों के लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। आगे चलकर हिंदी नाटकों में जो वस्तुगत तथा शैली-शिल्पगत प्रयोग किए गए उनकी जानकारी आपको इस इकाई में दी गई ।

अभ्यास प्रश्न

  1. भारतेंदु युग के नाटकों की अंतर्वस्तु पर प्रकाश डालिए ।
  2. ‘नया नाटक’ के प्रारंभ और विकास पर लेख लिखिए।
  3. यथार्थ एवं समस्या नाटकों के विकास का परिचय दीजिए।

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